Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 09
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 48
________________ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-३/६८ ४७ हेतु प्रयुक्त चाबुकों की आवाज, भम्भा, कौरम्भ, वीणा, खरमुखी, मुकुन्द, शंखिका, परिली तथा वच्चक, परिवादिनी, दंस, बांसुरी, विपञ्ची, महती कच्छपी, सारंगी, करताल, कांस्यताल, परस्पर हस्त-ताडन आदि से उत्पन्न विपुल ध्वनि-प्रतिध्वनि से मानो सारा जगत् आपूर्ण हो रहा था । इन सबके बीच राजा भरत अपनी चातुरंगिणी सेना तथा विभिन्न वाहनों से युक्त, सहस्र यक्षों से संपखित कुबेर सदृश वैभवशाली तथा अपनी ऋद्धि से इन्द्र जैसा यशस्वी प्रतीत होता था । वह ग्राम, आकर यावत् संबाध-इनसे सुशोभित भूमण्डल की विजय करता हुआ-उत्तम, श्रेष्ठ रत्नों को भेंट के रूप में स्वीकार करता हुआ, दिव्य चक्ररत्न का अनुगमन करता हुआवरदामतीर्थ था, वहाँ आया । वरदामतीर्थ से कुछ ही दूरी पर बारह योजन लम्बा, नौ योजन चौड़ा, विशिष्ट नगर के सदृश अपना सैन्य-शिविर लगाया । उसने वर्द्धकिरत्न को बुलाया । कहा-शीघ्र ही मेरे लिए आवासस्थान तथा पौषधशाला का निर्माण करो । [६९] वह शिल्पी आश्रम, द्रोणमुख, ग्राम, पट्टन, नगर, सैन्यशिबिर, गृह, आपणइत्यादि की समुचित संरचना में कुशल था । इक्यासी प्रकार के वास्तु-क्षेत्र का जानकार था। विधिज्ञ था । विशेषज्ञ था । विविध परम्परानुगत भवनों, भोजनशालाओं, दुर्ग-भित्तियों, वासगृहों के यथोचित रूप में निर्माण करने में निपुण था । काठ आदि के छेदन-वेधन में, गैरिक लगे धागे से रेखाएँ अंकित कर नाप-जोख में कुशल था । जलगत तथा स्थलगत सुरंगों के, घटिकायन्त्र आदि के निर्माण में, परिखाओं के खनन में शुभ समय के, इनके निर्माण के प्रशस्त के प्रशस्त एवं एप्रशस्त रूप के परिज्ञान में प्रवीण था । शब्दशास्त्र, अंकन, लेखन आदि में, वास्तुप्रदेश में सुयोग्य था । भवन निर्माणोचित भूमि में उत्पन्न फलाभिमुख बेलों, दूरफल बेलों, वृक्षों एवं उन पर छाई हुई बेलों के गुणों तथा दोषों को समझने में सक्षम था। गुणाढ्य था-सान्तन, स्वस्तिक आदि सोलह प्रकार के भवनों के निर्माण में कुशल था । शिल्पशास्त्र में प्रसिद्ध चौसठ प्रकार के घरों की रचना में चतुर था । नन्द्यावर्त, वर्धमान, स्वस्तिक, रुचक तथा सर्वतोभद्र आदि विशेष प्रकार के गृहों, ध्वजाओं, इन्द्रादि देवप्रतिमाओं, धान्य के कोठों की रचना में, भवन-निर्माणार्थ अपेक्षित काठ के उपयोग में, दुर्ग आदि निर्माण, इन सबके संचयन और सन्निर्माण में समर्थ था । [७०] वह शिल्पकार अनेकानेक गुणयुक्त था । राजा भरत को अपने पूर्वाचरित तप तथा संयम के फलस्वरूप प्राप्त उस शिल्पी ने कहा-स्वामी ! मैं क्या निर्माण करूं ? [७१] राजा के वचन के अनुरूप उसने देवकर्मविधि से-दिव्य क्षमता द्वारा मुहूर्त मात्र में सैन्यशिबिर तथा सुन्दर आवास-भवन की रचना कर दी । पौषधशाला का निर्माण किया। [७२] तत्पश्चात् राजा भरत के पास आकर निवेदित किया कि आपके आदेशानुरूप निर्माण कार्य सम्पन्न कर दिया है । इससे आगे का वर्णन पूर्ववत् है । [७३] वह रथ पृथ्वी पर शीघ्र गति से चलनेवाला था । अनेक उत्तम लक्षण युक्त था। हिमालय पर्वत की वायुरहित कन्दराओं में संवर्धित तिनिश नामक स्थनिर्माणोपयोगी वृक्षों के काठ से बना था । उसका जुआ जम्बूनद स्वर्ण से निर्मित था । आरे स्वर्णमयी ताड़ियों के थे । पुलक, वरेन्द्र, नील सासक, प्रवाल, स्फटिक, लेष्टु, चन्द्रकांत, विद्रुम रत्नों एवं मणियों से विभूषित था । प्रत्येक दिशा में बारह बारह के क्रम से उसके अड़तालीस आरे थे । दोनों तुम्ब स्वर्णमय पट्टों से दृढीकृत थे, पृष्ठ-विशेष रूप से घिरी हुई, बंधी हुई, सटी हुई, नई

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