________________
जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-३/७८
५३
का वक्षस्थल हारों से व्याप्त, सुशोभित एवं प्रीतिकर था । यावत् वह अपनी ऋद्धि से इन्द्र जैसा ऐश्वर्यशाली, यशस्वी लगता था । मणिरत्न से फैलते हुए प्रकाश तथा चक्ररत्न द्वारा निर्देशित किये जाते मार्ग के सहारे आगे बढ़ता हुआ, अपने पीछे-पीछे चलते हुए हजारों नरेशों से युक्त राजा भरत उच्च स्वर से समुद्र के गर्जन की ज्यों सिंहनाद करता हुआ, तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार आया । तमिस्रा गुफा में प्रविष्ट हआ ।
फिर राजा भरत ने काकणी-रत्न लिया । वह रत्न चार दिशाओं तथा ऊपर नीचे छ: तलयुक्त था । ऊपर, नीचे एवं तिरछे चार-चार कोटियों से युक्त था, उसकी आठ कर्णिकाएँ थीं । अधिकारणी के आकारयुक्त था । वह अष्ट सौवर्णिक था-वह चार-अंगुल-परिमित था। विषनाशक, अनुपम, चतरत्र-संस्थान-संस्थित, समतल तथा समचित मानोन्मानयक्त था. सर्वजनप्रज्ञापक-था । जिस गुफा के अन्तर्वर्ती अन्धकार को न चन्द्रमा नष्ट कर पाता था, न सूर्य ही जिसे मिटा सकता था, न अग्नि ही उसे दूर कर सकती थी तथा न अन्य मणियाँ ही जिसे अपगत कर सकती थीं, उस अन्धकार को वह काकणी-रत्न नष्ट करता जाता था । उसकी दिव्य प्रभा बारह योजन तक विस्तृत थी । चक्रवर्ती के सैन्य-सनिवेश में रात में दिन जैसा प्रकाश करते रहना उस मणि-रत्न का विशेष गुण था । उत्तर भरतक्षेत्र को विजय करने हेतु उसी के प्रकाश में राजा भरत ने सैन्यसहित तमिस्रा गुफा में प्रवेश किया । राजा भरत ने काकणी रत्न हाथ में लिए तमिस्रा गुफा की पूर्वदिशावर्ती तथा पश्चिमदिशावर्ती भित्तियों पर एक एक योजन के अन्तर से पाँच सौ धनुष प्रमाण विस्तीर्ण, एक योजन क्षेत्र को उद्योतित करने वाले, रथ के चक्के की परिधि की ज्यों गोल, चन्द्र-मण्डल की ज्यों भास्वर, उनचास मण्डल आलिखित किये । वह तमिस्रा गुफा राजा भरत द्वारा यों एक एक योजन की दूरी पर आलिखित एक योजन तक उद्योत करने वाले उनपचास मण्डलों से शीघ्र ही दिन के समान आलोकयुक्त हो गई।
[७९] तमिस्रा गुफा के ठीक बीच में उन्मनजला तथा निमग्नजला नामक दो महानदियां हैं, जो तमिस्रा गुफा के पूर्वी भित्तिप्रदेश से निकलती हुई पश्चिमी भित्ति प्रदेश होती हुई सिन्धु महानदी में मिलती हैं । भगवन् ! इन नदियों के उन्मग्नजला तथा निमग्नजला ये नाम किस कारण पड़े ? गौतम ! उन्मग्नजला महानदी में तृण, पत्र काष्ठ पाषाणखण्ड, घोड़ा, हाथी, स्थ, योद्धा-या मनुष्य जो भी प्रक्षिप्त कर दिये जाएँ-वह नदी उन्हें तीन बार इधर-उधर घुमाकर किसी एकान्त, निर्जल स्थान में डाल देती है । निमग्नजला महानदी में तृण, पत्र, काष्ठ, यावत् मनुष्य जो भी प्रक्षिप्त कर दिये जाएं-वह उन्हें तीन बार इधर-उधर घुमाकर जल में निमग्न कर देती है-तत्पश्चात् अनेक नरेशों से युक्त राजा भरत चक्ररत्न द्वारा निर्देशित किये जाते मार्ग के सहारे आगे बढ़ता हुआ उच्च स्वर से सिंहनाद करता हुआ सिन्धु महानदी के पूर्वी तट पर अवस्थित उन्मग्नजला महानदी के निकट आया । वर्द्धकिरत्न को बुलाकर कहा-उन्मग्नजला और निमग्नजला महानदियों पर उत्तम पुलों का निर्माण करो, जो सैकड़ों खंभों पर सन्निविष्ट हों, अचल हों, अकम्प हों, कवच की ज्यों अभेद्य हों, जिसके ऊपर दोनों ओर दीवारें बनी हों, जो सर्वथा रत्नमय हो ।