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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
मुख-मण्डपों में अवस्थित मणिपीठिकाएँ १ योजन लम्बी-चौड़ी तथा आधा योजन मोटी हैं । वे सर्वथा मणिमय हैं । प्रेक्षागृह-मण्डपों के आगे जो मणिपीठिकाएँ हैं, वे दो योजन लम्बीचौड़ी तथा एक योजन मोटी हैं । वे सम्पूर्णतः मणिमय हैं । उनमें से प्रत्येक पर तीन-तीन स्तूप हैं । वे स्तूप दो योजन ऊँचे हैं, दो योजन लम्बे-चौड़े हैं वे शंख की ज्यों श्वेत हैं । उन स्तूपों की चारों दिशाओं में चार मणिपीठिकाएँ हैं । वे मणिपीठिकाएँ एक योजन लम्बीचौड़ी तथा आधा योजन मोटी हैं । वहाँ स्थित जिन-प्रतिमाओं का वर्णन पूर्वानुरूप है ।
__ वहाँ के चैत्यवृक्षों की मणिपीठिकाएँ दो योजन लम्बी-चौड़ी और एक योजन मोटी हैं। उन चैत्यवृक्षों के आगे तीन मणिपीठिकाएँ हैं । वे एक योजन लम्बी-चौड़ी तथा आधा योजन मोटी हैं । उनमें से प्रत्येक पर एक-एक महेन्द्रध्वजा है । वे ध्वजाएँ साढ़े सात योजन ऊँची हैं और आधा कोश जमीन में गहरी गड़ी हैं । वे वज्ररत्नमय हैं, वर्तुलाकार हैं । उन सुधर्मा समाओं में ६००० पीठिकाएँ हैं । पूर्व में २००० पीठिकाएँ, पश्चिम में २००० पीठिकाएँ, दक्षिण में १००० पीठिकाएँ तथा उत्तर में १००० पीठिकाएँ हैं । उन सुधर्मासभाओं के भीतर बहुत समतल, सुन्दर भूमिभाग हैं । मणिपीठिकाएँ हैं । वे दो योजन लम्बी-चौड़ी हैं तथा एक योजन मोटी हैं । उन मणिपीठिकाओं के ऊपर महेन्द्रध्वज के समान प्रमाणयुक्त माणवक चैत्य-स्तंभ हैं । उसमें ऊपर के छह कोश तथा नीचे के छह कोश वर्जित कर बीच में साढ़े चार योजन के अन्तराल में जिनदंष्ट्राएँ निक्षिप्त हैं । शयनीयों के ईशान कोण में दो छोटे महेन्द्रध्वज हैं । उनका प्रमाण महेन्द्रध्वज जितना है । वे मणिपीठिकारहित हैं ।
उनके पश्चिम में चोप्फाल नामक प्रहरण-कोश-है । वहाँ परिघरत्न–आदि शस्त्र रखे हुए हैं । उन सुधर्मा सभाओं के ऊपर आठ-आठ मांगलिक पदार्थ प्रस्थापित हैं । उनके ईशानकोण में दो सिद्धायतन हैं । जिनगृह सम्बन्धी वर्णन पूर्ववत् है, केवल इतना अन्तर हैइन जिन-गृहों में बीचों-बीच प्रत्येक में मणिपीठिका है । वे दो योजन लम्बी-चौड़ी तथा एक योजन मोटी हैं। उन मणिपीठिकाओं में से प्रत्येक पर जिनदेव के आसन हैं । वे आसन दो योजन लम्बे-चौड़े हैं, कुछ अधिक दो योजन ऊँचे हैं । वे सम्पूर्णतः रत्नमय हैं । धूपदान पर्यन्त जिन-प्रतिमा वर्णन पूर्वानुरूप है । अभिषेक सभा में तथा आलंकारिक सभा में बहुत से अलंकार-पात्र हैं, व्यवसाय-सभा में पुस्तक-रत्न हैं । वहाँ नन्दा पुष्करिणियाँ हैं, पूजा-पीठ हैं । वे पीठ दो योजन लम्बे-चौड़े तथा एक योजन मोटे हैं ।
[१४] उपपात, संकल्प, अभिषेक, त्रिभूषणा, व्यवसाय, अर्चनिका, सुधर्मासभा में गमन, परिवारणा, ऋद्धि-आदि यमक देवों का वर्णन-क्रम है ।
[१४५] नीलवान् पर्वत से यमक पर्वतों का जितना अन्तर है, उतना ही यमक-द्रहो का अन्य ग्रहों से अन्तर है ।
[१४६] भगवन् ! उत्तरकुरु में नीलवान् द्रह कहाँ है ? गौतम ! यमक पर्वतों के दक्षिणी छोर से ८३४-४/७ योजन के अन्तराल पर शीता महानदी के ठीक बीच में नीलवान् नामक द्रह है । वह दक्षिण-उत्तर लम्बा एवं पूर्व-पश्चिम चौड़ा है । शेष वर्णन पद्मद्रह समान है । केवल इतना अन्तर है-नीलवान् द्रह दो पद्मवखेदिकाओं तथा दो वनखण्डों द्वारा परिवेष्टित है । वहाँ नीलवान् नामक नागकुमार देव निवास करता है । नीलवान् द्रह के पूर्वी पश्चिमी पार्श्व में दश-दश योजन के अन्तराल पर बीस काञ्चनक पर्वत हैं । वे सौ योजन ऊँचे हैं ।