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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
गौतम ! ग्यारह, सिद्धायतनकूट, शिखरीकूट, हैरण्यवतकूट, सुवर्णकूलाकूट, सुरादेवीकूट, स्क्ताकूट, लक्ष्मीकूट, रक्तावतीकूट, इलादेवीकूट, ऐरावतकूट, तिगिंच्छकूट । ये सभी कूट पाँच-पाँच सौ योजन ऊँचे हैं । इनके अधिष्ठातृ देवों की राजधानियां उत्तर में हैं । यह पर्वत शिखरी वर्षधर पर्वत क्यों कहा जाता है ? गौतम ! शिखरी वर्षधर पर्वत पर बहुत से कूट उसी के-से आकार में अवस्थित हैं, वहाँ शिखरी देव निवास करता है, इस कारण शिखरी वर्षधर पर्वत कहा जाता है ।
भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत् ऐरावत क्षेत्र कहाँ है ? गौतम ! शिखरी वर्षधर पर्वत के उत्तर में, उत्तरी लवणसमुद्र के दक्षिण में, पूर्वी लवण समुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में है । वह स्थाणु- बहुल है, कंटकबहुल है, इत्यादि वर्णन भरतक्षेत्र की ज्यों है । वहाँ ऐरावत नामक चक्रवर्ती होता है, ऐरावत नामक अधिष्ठातृ देव है, इस कारण वह ऐरावत क्षेत्र कहा जाता है ।
वक्षस्कार- ४ - का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
वक्षस्कार- ५
[२१२] जब एक एक किसी भी चक्रवर्ति- विजय में तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं, उस काल- उस समय - अधोलोकवास्तव्या, महत्तरिका - आठ दिक्कुमारिकाएँ, जो अपने कूटों, भवनों और प्रासादों में अपने ४००० सामानिक देवों, सपरिवार चार महत्तरिकाओं, सात सेनाओं, सात सेनापति देवों, १६००० आत्मरक्षक देवों तथा अन्य अनेक भवनपति एवं वानव्यन्तर देवदेवियों से संपरिवृत, नृत्य, गीत, पटुता पूर्वक बजाये जाते वीणा, झींझ, ढोल एवं मृदंग की बादल जैसी गंभीर तथा मधुर ध्वनि के बीच विपुल सुखोपभोग में अभिरत होती हैं । [२१३] वह आठ दिक्कुमारिका है-भोगंकरा, भोगवती, सुभोगा, भोगमालिनी, तोयधारा, विचित्रा, पुष्पमाला और अनिन्दिता ।
[२१४] जब वे अधोलोकवासिनी आठ दिक्कुमारिकाएँ अपने आसनों को चलित होते देखती हैं, वे अपने अवधिज्ञान का प्रयोग करती हैं । तीर्थंकर को देखती हैं । कहती हूंजम्बूद्वीप में तीर्थंकर उत्पन्न हुए हैं । अतीत, प्रत्युत्पन्न तथा अनागत- अधोलोकवास्तव्या हम आठ महत्तरिका दिशाकुमारियों का यह परंपरागत आचार है कि हम भगवान् तीर्थंकर का जन्ममहोत्सव मनाएं, अतः हम चलें, भगवान् का जन्मोत्सव आयोजित करें । यों कहकर आभियोगिक देवों को कहती हैं - देवानुप्रियों ! सैकड़ों खंभों पर अवस्थित सुन्दर यान - विमान की विकुर्वणा करो -वे आभियोगिक देव सैकड़ों खंभों पर अवस्थित यान- विमानों की रचना करते हैं, यह जानकर वे अधोलोकवास्तव्या गौरवशीला दिक्कुमारियाँ हर्षित एवं परितुष्ट होती हैं । उनमें से प्रत्येक अपने-अपने ४००० सामानिक देवों यावत् तथा अन्य अनेक देव - देवियों के साथ दिव्य यान - विमानों पर आरूढ होती हैं । सब प्रकार की ऋद्धि एवं द्युति से समायुक्त, बादल की ज्यों घहराते - गूंजते मृदंग, ढोल आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ उत्कृष्ट दिव्य गति द्वारा जहाँ तीर्थंकर का जन्मभवन होता है, वहाँ आती हैं । दिव्य विमानों में अवस्थित वे भगवान् तीर्थंकर के जन्मभवन की तीन बार प्रदक्षिणा करती हैं । ईशान कोण में अपने विमानों को, जब वे भूतल से चार अंगुल ऊँचे रह जाते हैं, ठहराती हैं ४००० सामानिक देवों यावत्