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जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-३/७६
कर्वट, मडम्ब, पट्टन आदि जीतता हुआ, सिंहल, बर्बर, अंगलोक, बलावलोक, यवन द्वीप, अरब, रोम, अलसंड, पिक्खुरों, कालमुखों, तथा उत्तर वैताढ्य पर्वत की तलहटी में बसी हुई बहुविध म्लेच्छ जाति के जनों को, नैऋत्यकोण से लेकर सिन्धु नदी तथा समुद्र के संगम तक के सर्वश्रेष्ठ कच्छ देश को साधकर वापस मुड़ा । कच्छ देश के अत्यन्त सुन्दर भूमिभाग पर ठहरा । तब उन जनपदों, नगरों, पत्तनों के स्वामी, अनेक आकरपति, मण्डलपति, पत्तनपतिवृन्द ने आभरण, भूषण, रत्न, बहुमूल्य वस्त्र, अन्यान्य श्रेष्ठ, राजोचित वस्तुएँ हाथ जोड़कर, जुड़े हुए तथा मस्तक से लगाकर उपहार के रूप में सेनापति सु,ण को भेंट की ।
वे बड़ी नम्रता से बोले-'आप हमारे स्वामी हैं । देवता की ज्यों आपके हम शरणागत हैं, आपके देशवासी हैं । इस प्रकार विजयसूचक शब्द कहते हुए उन सबको सेनापति सुपेण ने पूर्ववत् यथायोग्य कार्यों में प्रस्थापित किया, नियुक्त किया, सम्मान किया और विदा किया। अपने राजा के प्रति विनयशील, अनुपहत-शासन एवं बलयुक्त सेनापति सुषेण ने सभी उपहार आदि लेकर सिन्धु नदी को पार किया । राजा भरत के पास आकर सारा वृत्तान्त निवेदित किया । प्राप्त सभी उपहार राजा को अर्पित किये । राजा ने सेनापति का सत्कार किया, सम्मान किया, सहर्ष विदा किया ।
तत्पश्चात् सेनापति सुषेण ने स्नान किया, नित्य-नैमित्तिक कृत्य किये, अंजन आंजा, तिलक लगाया, मंगल-विधान किया । भोजन किया । विश्रामगृह में आया । शुद्ध जल से हाथ, मुंह आदि धोये, शुद्धि की । शरीर पर गोशीर्ष चन्दन का जल छिड़का, अपने आवास में गया । वहाँ मृदंग बज रहे थे । सुन्दर, तरुण स्त्रियाँ बत्तीस प्रकार के अभिनयों द्वारा वे उसके मन को अनुरंजित करती थीं । गीतों के अनुरूप वीणा, तबले एवं ढोल बज रहे थे। मृदंगों से बादल की-सी गंभीर ध्वनि निकल रही थी । वाद्य बजाने वाले वादक निपुणता से अपने-अपने वाद्य बजा रहे थे । सेनापति सुषेण इस प्रकार अपनी इच्छा के अनुरूप शब्द, स्पर्श, रस, रूप तथा गन्धमय मानवोचित, प्रिय कामभोगों का आनन्द लेने लगा ।
[७७] राजा भरत ने सेनापति सुषेण को बुलाकर कहा-जाओ, शीघ्र ही तमिस्र गुफा के दक्षिणी द्वारा के दोनों कपाट उद्घाटित करो । राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर सेनापति सुषेण अपने चित्त में हर्षित, परितुष्ट तथा आनन्दित हुआ । उसने अपने दोनों हाथ जोड़े । विनयपूर्वक राजा का वचन स्वीकार किया | पौषधशाला में आया । डाभ का बिछौना बिछाया। कृतमाल देव को उद्दिष्ट कर तेला किया, पौषध लिया । ब्रह्मचर्य स्वीकार किया । तेले के पूर्ण हो जाने पर वह पौषधशाला से बाहर निकला । स्नान किया, नित्यनैमित्तिक कृत्य किये । अंजन आंजा, तिलक लगाया, मंगल-विधान किया । उत्तम, प्रवेश्य, मांगलिक वस्त्र पहने । थोड़े पर बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया । धूप, पुष्प, सुगन्धित पदार्थ एवं मालाएँ हाथ में ली । तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट थे, उधर चला । माण्डलिक अधिपति, ऐश्वर्यशाली, प्रभावशाली पुरुष, राजसम्मानित विशिष्ट जन, जागीरदार तथा सार्थवाह आदि सेनापति सुषेण के पीछे-पीछे चले, बहुत सी दासियां पीछे-पीछे चलती थीं, वे चिन्तित तथा अभिलषित भाव को संकेत या चेष्टा मात्र से समझ लेने में विज्ञ थीं, प्रत्येक कार्य में