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जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-३/९०
५९ को 'जय विजय' शब्दों द्वारा वर्धापित किया, श्रेष्ठ, उत्तम रत्न भेंट किये तथा इस प्रकार बोले
[९१] षट्खण्डवर्ती वैभव के स्वामिन् ! गुणभूषित ! जयशील ! लज्जा, लक्ष्मी, धृति, कीर्ति के धारक ! राजोचित सहस्रों लक्षणों से सम्पन्न ! नरेन्द्र ! हमारे इस राज्य का चिरकाल पर्यन्तं आप पालन करें ।
[१२] अश्वपते ! गजपते ! नरपते ! नवनिधिपते ! भरत क्षेत्र के प्रथमाधिपते ! बत्तीस हजार देशों के राजाओं के अधिनायक ! आप चिरकाल तक जीवित रहें-दीर्घायु हों ।
[९३] प्रथम नरेश्वर ! ऐश्वर्यशालिन् ! ६४००० नारियों के हृदयेश्वर-मागध तीर्थाधिपति आदि लाखों देव के स्वामिन् ! चतुर्दशरत्नों के धारक ! यशस्विन् !
[९४] आपने दक्षिण, पूर्व तथा पश्चिम दिशा में समुद्रपर्यन्त और उत्तर दिशा में क्षुल्ल हिमवान् गिरि पर्यन्त समग्र भरतक्षेत्र को जीत लिया है हम आपके प्रजाजन हैं ।
[९५] आपकी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषकार तथा पराक्रम-ये सब आश्चर्यकारक हैं । आपको दिव्य देव-द्युति-परमोत्कृष्ट प्रभाव अपने पुण्योदय से प्राप्त है । हमने आपकी ऋद्धि का साक्षात अनुभव किया है । देवानुप्रिय ! हम आपसे क्षमायाचना करते हैं । आप हमें क्षमा करें । हम भविष्य में फिर कभी ऐसा नहीं करेंगे । यों कहकर वे हाथ जोड़े राजा भरत के चरणों में गिर पड़े । फिर राजा भरत ने उन आपात किरातों द्वारा भेंट के रूप में उपस्थापित उत्तम, श्रेष्ठ रत्न स्वीकार किये । उनसे कहा-तुम अब अपने स्थान पर जाओ । मैंने तुमको अपनी भुजाओं की छाया में स्वीकार कर लिया है । तुम निर्भय, निरुद्वेग, व्यथा रहित होकर सुखपूर्वक रहो । अब तुम्हें किसी से भी भय नहीं है । यों कहकर राजा भरत ने उन्हें सत्कृत, सम्मानित कर विदा किया । तब राजा भरत ने सेनापति सुषेण को बुलाया और कहा-जाओ, पूर्वसाधित निष्कुट, सिन्धु महानदी के पश्चिम भागवर्ती कोण में विद्यमान, पश्चिम में सिन्धु महानदी तथा पश्चिमी समुद्र, उत्तर में क्षुल्ल हिमवान् पर्वत तथा दक्षिण में वैताढ्य पर्वत द्वारा मर्यादित-प्रदेश को, उसके, सम-विषम कोणस्थ स्थानों को साधित करो । वहाँ से उत्तम, श्रेष्ठ रत्नों को भेंट के रूप में प्राप्त करो । यह सब कर मुझे शीघ्र ही अवगत कराओ । शेष वर्णन पूर्ववत् जानना ।
[९६] तत्पश्चात् वह दिव्य चक्ररत्न शास्त्रागार से बाहर निकला, ईसान-कोण में लघु हिमवान् पर्वत की ओर चला । राजा भरत ने क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत से कुछ ही दूरी पर सैन्य-शिविर स्थापित किया । उसने क्षुद्र हिमवान् गिरिकुमार देव को उद्दिष्ट कर तेले की तपस्या की । शेष कथन मागधतीर्थ समान जानना । राजा भरत क्षुद्र हिमवान वर्षधर पर्वत आया। उसने वेगपूर्वक चलते हुए घोड़ों को नियन्त्रित किया । यावत् राजा भरत द्वारा ऊपर आकाश में छोड़ा गया वह बाण शीघ्र ही बहत्तर योजन तक जाकर क्षुद्र हिमवान् गिरिकुमार देव की मर्यादा में- गिरा । यावत् उसने प्रीतिदान-रूप में सर्वोषधियाँ, कल्पवृक्ष के फूलों की माला, गोशीर्ष चन्दन, कटक, पद्मद्रह का जल लिया । राजा भरत के पास आकर बोला-मैं क्षुद्र हिमवान् पर्वत की सीमा में आपके देश का वासी हूँ । मैं आपका आज्ञानुवर्ती सेवक हूँ । आपका उत्तर दिशा का अन्तपाल हूँ आप मेरे द्वारा उपहृत भेंट स्वीकार करें । राजा भरत ने क्षुद्र हिमवान्-गिरिकुमार देव द्वारा इस प्रकार भेंट किये गये उपहार स्वीकार स्वीकार करके देव