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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
को विदा किया ।
[९७] तत्पश्चात् राजा भरत ने अपने रथ के घोड़ों को नियन्त्रित किया रथ को वापस मोड़ा | ऋषभकूट पर्वत आया । रथ के अग्र भाग से तीन बार ऋषभकूट पर्वत का स्पर्श किया । काकणी रत्न का स्पर्श किया । वह रत्न चार दिशाओं तथा ऊपर, नीचे छह तलयुक्त था । यावत् अष्टस्वर्णमानपरिमाण था । राजा ने काकणी रत्न का स्पर्श कर ऋषभकूट पर्वत के पूर्वीय कटक में नामांकन किया
[९८] इस अवसर्पिणी काल के तीसरे आरक के पश्चिम भाग में मैं भरत चक्रवर्ती हुआ हूँ।
[९९] मैं भरतक्षेत्र का प्रथम राजा-हूँ, अधिपति हूँ, नरवरेन्द्र हूँ । मेरा कोई प्रतिशत्रुनहीं है । मैंने भरतक्षेत्र को जीत लिया है ।
[१००] वैसा कर अपने रथ को वापस मोड़ा । अपना सैन्य-शिबिर था, वहाँ आया। यावत् क्षुद्र हिमवान्-गिरिकुमार देव को विजय करने के उपलक्ष्य में समायोजित अष्ट दिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला । दक्षिण दिशा में वैताढ्य पर्वत की ओर प्रयाण किया ।
[१०१] राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को दक्षिण दिशा में वैताढ्य पर्वत की ओर जाते हुए देखा । वह वैताढ्य पर्वत की उत्तर दिशावर्ती तलहटो में आया । वहाँ सैन्यशिबिर स्थापित किया । पौषधशाला में प्रविष्ट हुआ । श्रीऋषभस्वामी के कच्छ तथा महाकच्छ नामक प्रधान सामन्तों के पुत्र नमि एवं विनमि नामक विद्याधर राजाओं को उद्दिष्ट कर तेला किया। नमि, विनमि विद्याधर राजाओं का मन में ध्यान करता हुआ वह स्थित रहा । तब नमि, विनमि विद्याधर राजाओं को अपनी दिव्य मति द्वारा इसका भान हुआ । वे एक दूसरे के पास आये और कहने लगे-जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में भरत चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ है । अतीत, प्रत्युत्पन्न तथा अनागत-विद्याधर राजाओं के लिए यह उचित है-कि वे राजा को उपहार भेंट करें । यह सोचकर विद्याधरराज विनमि ने चक्रवर्ती राजा भरत को भेंट करने हेतु सुभद्रा नामक स्त्रीरत्न लिया । स्त्रीरत्न-सुभद्रा का शरीर मानोन्मान प्रमाणयुक्त था-वह तेजस्विनी थी, रूपवती एवं लावण्यमयी थी । वह स्थिर यौवन युक्त थी-शरीर के केश तथा नाखून नहीं बढ़ते थे । उसके स्पर्श से सब रोग मिट जाते थे । वह बल-वृद्धिकारिणी थी-ग्रीष्म ऋतु में वह शीतस्पर्शा तथा शीत ऋतु में उष्णस्पर्शा थी ।
[१०२] वह तीन स्थानों में कृश थी । तीन स्थानों में लाल थी । त्रिवलियुक्त थी। तीन स्थानों में-उन्नत थी । तीन स्थानों में गंभीर थी । तीन स्थानों में कृष्णवर्ण थी । तीन स्थानों में-श्वेतता लिये थी । तीन स्थानों में लम्बाई लिये थी । तीन स्थानों में-चौड़ाई युक्त थी ।
[१०३] वह समचौरस दैहिक संस्थानयुक्त थी । भरतक्षेत्र में समग्र महिलाओं में वह प्रधान-थी । उसके स्तन, जघन, हाथ, पैर, नेत्र, केश, दाँत-सभी सुन्दर थे, देखने वाले पुरुष के चित्त को आह्लादित करनेवाले थे, आकृष्ट करनेवाले थे । वह मानो श्रृंगार-रस का आगार थी । लोक-व्यवहार में वह कुशल थी । वह रूप में देवांगनाओं के सौन्दर्य का अनुसरण करती थी । वह सुखप्रद यौवन में विद्यमान थी । विद्याधरराज नमि ने चक्रवर्ती भरत को भेंट करने