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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
प्रस्थान किया । तत्पश्चात् स्त्रीरत्न - सुभद्रा, ३२००० ऋतुकल्याणिकाएँ तथा ३२००० जनपदकल्याणिकाएँ — यथाक्रम चलीं । उनके पीछे बत्तीस-बत्तीस अभिनेतव्य प्रकारों से परिबद्ध३२००० नाटक चले ।
तदनन्तर ३६० सूपकार, अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि जन-चले । उनके पीछे क्रमशः चौरासी लाख घोड़े, चौरासी लाख हाथी, छियानवे करोड़ मनुष्य-चले । तत्पश्चात् अनेक राजा, ईश्वर, तलवर, सार्थवाह आदि चले । तत्पश्चात् असिग्राह, लष्टिग्राह, कुन्तग्राह, चापग्राह, चमरग्राह, पाशग्राह, फलक ग्राह, परशुग्राह, पुस्तकग्राह, वीणाग्राह, कूप्यग्राह, हड़प्फग्राह तथा दीपिकाग्राहयथाक्रम चले । उसके बाद बहुत से दण्डी, मुण्डी, शिखण्डी, जटी, पिच्छी, हासकारक, विदूषक, खेडुकारक, द्रवकारक, चाटुकारक, कान्दर्पिक, कौत्कुचिक तथा मौखरिक - यताक्रम चलते गये । यह प्रसंग विस्तार से औपपातिकसूत्र के अनुसार संग्राह्य है । राजा भरत के आगे-आगे बड़े-बड़े कद्दावर घोड़े, घुड़सवार दोनों ओर हाथी, हाथियों पर सवार पुरुष चलते थे । उसके पीछे रथ - समुदाय यथावत् रूप से चलता था ।
तब नरेन्द्र भरतक्षेत्र का अधिपति राजा भरत, जिसका वक्षःस्थल हारों से व्याप्त, सुशोभित एवं प्रीतिकर था, अमरपति-तुल्य जिसकी समृद्धि सुप्रशस्त थी, जिससे उसकी कीर्ति विश्रुत थी, समुद्र के गर्जन की ज्यों सिंहनाद करता हुआ, सब प्रकार की ऋद्धि तथा ि से समन्वित, भेरी, झालर, मृदंग आदि अन्य वाद्यों की ध्वनि के साथ सहस्रों ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्वट, मडम्ब से युक्त मेदिनी को जीतता हुआ उत्तम, श्रेष्ठ रत्न भेंट के रूप में प्राप्त करता हुआ, दिव्य चक्ररत्न का अनुसरण करता हुआ, एक-एक योजन के अन्तर पर पड़ाव डालता हुआ, रुकता हुआ, जहाँ विनीता राजधानी थी, वहाँ आया । राजधानी से थोड़ी ही दूरी पर बारह योजन लम्बा, नौ योजन चौड़ा सैन्य शिबिर स्थापित किया ।
अपने उत्तम शिल्पकार को बुलाया । विनीता राजधानी को उद्दिष्ट कर-राजा ने तेला किया, डाभ के बिछौने पर अवस्थित राजा भरत तेले में प्रतिजागरित - रहा । तेला पूर्ण हो जाने पर राजा भरत पौधशाला से बाहर निकला । कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, आभिषेक्य हस्तिरत्न को तैयार करने, स्नान करने आदि का वर्णन पूर्ववत् है । आगे का वर्णन विनीता राजधानी से विजय हेतु अभियान के समान है । केवल इतना अन्तर है कि विनीता राजधानी में प्रवेश करने के अवसर पर नौ महानिधियों ने तथा चार सेनाओं ने राजधानी में प्रवेश नहीं किया । राजा भरत ने तुमुल वाद्य-ध्वनि के साथ विनीता राजधानी के बीचों-बीच चलते हुए जहाँ अपना पैतृक घर था, जगद्वर्ति निवास गृहों में सर्वोत्कृष्ट प्रासाद का बाहरी द्वार था, उधर चला । जब राजा भरत निकल रहा था, उस समय कतिपय जन विनीता राजधानी के बाहरभीतर पानी का छिड़काव कर रहे थे, गोबर आदि का लेप कर रहे थे, मंचातिमंच - की रचना कर रहे थे, तरह-तरह के रंगों के वस्त्रों से बनी, ऊँची, सिंह, चक्र आदि के चिह्नों से युक्त ध्वजाओं एवं पताकाओं ने नगरी के स्थानों को सजा रहे थे । अनेक दीवारों को लीप रहे थे, अनेक धूप की महक से नगरी को उत्कृष्ट सुरभिमय बना रहे थे, कतिपय देवता उस समय चाँदी की, स्वर्ण, रत्न, हीरों एवं आभूषणों की वर्षा कर रहे थे ।
जब राजा भरत विनीता राजधानी के बीच से किल रहा था तो नगरी के सिंघाटक, तिकोने स्थानों, महापथों, पर बहुत से अभ्यर्थी, कामार्थी, भोगार्थी, लाभार्थी, ऋद्धि के