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जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-३/१२४
राजा भरत अपने पूर्व जन्म में आचीर्ण तप के, संचित निकाचित पुण्य कर्मों के परिणामस्वरूप मनुष्य जीवन के सुखों का परिभोग करने लगा ।
[१२५] किसी दिन राजा भरत ने स्नान किया । देखने में प्रिय एवं सुन्दर लगनेवाला राजा स्नानघर से बाहर निकला । जहाँ आदर्शगृह में, जहाँ सिंहासन था, वहाँ आया । पूर्व की ओर मुँह किये सिंहासन पर बैठा । शीशों पर पड़ते अपने प्रतिबिम्ब को बार बार देखता रहा । शुभ परिणाम, प्रशस्त - अध्यवसाय, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं, विशुद्धिक्रम से ईहा, अपोह, मार्गण तथा गवेषण - करते हुए राजा भरत को कर्मक्षय से कर्म-रज के निवारक अपूर्वकरण में अवस्थिति द्वारा अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न हुए ।
तब केवल सर्वज्ञ भरत ने स्वयं ही अपने आभूषण, अलंकार उतार दिये । स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया । वे शीशमहल से प्रतिनिष्क्रान्त हुए । अन्तःपुर के बीच से होते हुए राजभवन से बाहर निकले । अपने द्वारा प्रतिबोधित दश हजार राजाओं से संपरिवृत केवली भरत विनीता राजधानी के बीच से होते हुए बाहर चले गये । कोशलदेश में सुखपूर्वक विहार करते हुए वे अष्टापद पर्वत वहाँ आकर पर्वत पर चढ़कर सघन मेघ के समान श्याम तथा देवसन्निपात के कारण जहाँ देवों का आवागमन रहता था, ऐसे पृथ्वीशिलापट्टक का प्रतिलेखन किया । वहाँ संलेखना - स्वीकार किया, खान-पान का परित्याग किया, पादोपगत- संथारा अंगीकार किया । जीवन और मरण की आकांक्षा - न करते हुए वे आत्माराधना में अभिरत रहे । केवली भरत ७७ लाख पूर्व तक कुमारावस्था में रहे, १००० वर्ष तक मांडलिक राजा के रूप में रहे, १००० वर्ष कम छह लाख पूर्व तक महाराज के रूप में रहे । वे तियासी लाख पूर्व तक गृहस्थवास में रहे । अन्तमुहूर्त्त कम एक लाख पूर्व तक वे केवलिपर्याय में रहे । एक लाख पूर्व पर्यन्त बहु-प्रतिपूर्ण श्रामण्य पर्याय का पालन किया । चौरासी लाख पूर्व का समग्र आयुष्य भोगा । एक महीने के अनशन द्वारा वेदनीय, आयुष्य, नाम तथा गोत्र - इन चार भवोपग्राही, कर्मों के क्षीण हो जाने पर श्रवण नक्षत्र में जब चन्द्र का योग था, देह त्याग किया । जन्म, जरा तथा मृत्यु के बन्धन को छिन्न कर डाला - । वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत तथा सब प्रकार के दुःखों के प्रहाता हो गये ।
[१२६] यहाँ भरतक्षेत्र में महान् ऋद्धिशाली, परम द्युतिशाली, पल्योपमस्थितिक - एक पल्योपम आयुष्य युक्त भरत नामक देव निवास करता है । गौतम ! इस कारण यह क्षेत्र भरतवर्ष या भरतक्षेत्र कहा जाता है । गौतम ! भरतवर्ष नाम शाश्वत है- कभी नहीं था, कभी नहीं है, कभी नहीं होगा ऐसा नहीं है । यह था, यह है, यह होगा । ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित एवं नित्य है ।
वक्षस्कार - ३ - का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
वक्षस्कार-४
[१२७] भगवन् ! जम्बूद्वीप में चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप में चुल्ल हिमवान् नामक वर्षधर पर्वत हैमवतक्षेत्र के दक्षिण में, भरतक्षेत्र के उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में बतलाया गया है । वह
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