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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
वहाँ भौरे कमलों का परिभोग करते हैं । उसका जल स्वच्छ, निर्मल और पथ्य है । वह कुण्ड जल से आपूर्ण है । इधर-उधर घूमती हुई मछलियों, कछुओं तथा पक्षियों के समुन्नत-गुंजित रहता है, सुन्दर प्रतीत होता है । वह एक पद्मवरवेदिका एवं वनखण्ड द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है।
उस गंगाप्रपातकुण्ड की तीन दिशाओं में तीन-तीन सीढ़ियां बनी हुई हैं । उन सीढ़ियों के नेम-वज्ररत्नमय हैं । प्रतिष्ठान-रिष्टरत्नमय हैं । खंभे वैडूर्यरत्नमय हैं । फलकसोने-चाँदी से बने हैं । सूचियाँ-लोहिताक्ष रत्न-निर्मित हैं । सन्धियाँ-वज्ररत्नमय हैं । आलम्बनविविध प्रकार की मणियों से बने हैं । तीनों दिशाओं में विद्यमान उन तीन-तीन सीढ़ियों के आगे तोरण-द्वार बने हैं । वे अनेकविध रत्नों से सज्जित हैं, मणिमय खंभों पर टिके हैं, सीढ़ियों के सन्निकटवर्ती हैं । उनमें बीच-बीच में विविध तारों के आकार में बहुत प्रकार के मोती जड़े हैं । वे ईहामृग, वृषभ, अश्व, मनुष्य, मकर, खग, सर्प, किन्नर, रुरुसंज्ञक मृग, शरभ, चमर, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्रांकनों से सुशोभित हैं । उनके खंभों पर उत्कीर्ण वज्ररत्नमयी वेदिकाएँ हैं । उन पर चित्रित विद्याधर-युगल, एक आकारयुक्त कठपुतलियों की ज्यों संचरणशील से प्रतीत होते हैं । हजारों रत्नों की प्रभा से वे सुशोभित हैं । सहस्रों चित्रों से वे देदीप्यमान हैं, देखने मात्र से नेत्रों में समा जाते हैं । वे सुखमय स्पर्शयुक्त एवं शोभामय रूपयुक्त हैं । उन पर जो घंटियाँ लगी हैं, वे पवन से आन्दोलित होने पर बड़ा मधुर शब्द करती हैं, मनोरम प्रतीत होती हैं । उन तोरण-द्वारों पर स्वस्तिक, श्रीवत्स आदि आठ-आठ मंगल-द्रव्य स्थापित हैं । काले चँवरों की ध्वजाएँ यावत् तथा शत-सहस्रपत्रों-कमलों के ढेर के ढेर लगे हैं, जो सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ एवं सुन्दर हैं ।
उस गंगाप्रपातकुण्ड के ठीक बीच में गंगाद्वीप द्वीप है । वह आठ योजन लम्बा-चौड़ा है । उसकी परिधि कुछ अधिक पच्चीस योजन है । जल से ऊपर दो कोस ऊँचा उठा हुआ है । वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ एवं सुकोमल है । वह एक पद्मवरवेदिका तथा एक वनखण्ड द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है । गंगाद्वीप पर बहुत समतल, सुन्दर भूमिभाग है । उसके ठीक बीच में गंगा देवी का विशाल भवन है । वह एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा तथा कम एक कोस ऊँचा है । वह सैकड़ों खंभों पर अवस्थित है । उसके ठीक बीच में एक मणपीठिका है । उस पर शय्या है । परम ऋद्धिशालिनी गंगादेवी का आवास-स्थान होने से वह द्वीप गंगाद्वीप कहा जाता है, अथवा यह शाश्वत नाम है- | उस गंगाप्रपातकुण्ड के दक्षिणी तोरण से गंगा महानदी आगे निकलती है । वह उत्तरार्ध भरतक्षेत्र की ओर आगे बढ़ती है तब सात हजार नदियाँ उसमें आ मिलती हैं । वह उनसे आपूर्ण होकर खण्डप्रपात गुफा होती हुई, वैताढ्य पर्वत को चीरती हुई-दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र की ओर जाती है । वह दक्षिणार्ध भरत के ठीक बीच से बहती हुई पूर्व की ओर मुड़ती है । फिर १४००० नदियाँ के परिवार से युक्त होकर वह जम्बूद्वीप की जगती को विदीर्ण कर-पूर्वी-लवणसमुद्र में मिल जाती है ।
गंगा महानदी का प्रवह-एक कोस अधिक छ: योजन का विस्तार-लिये हुए है । वह आधा कोस गहरा है । तत्पश्चात् वह महानदी क्रमशः मात्रा में विस्तार में बढ़ती जाती है । जब समुद्र में मिलती है, उस समय उसकी चौड़ाई साढ़े बासठ योजन होती है, गहराई एक योजन एक कोस-होती है । वह दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं तथा वनखण्डों द्वारा संपरिवृत