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जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति - ३/१२२
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राजा भरत था, वहाँ आकर उन्होंने हाथ जोड़े, राजा भरत को जय-विजय शब्दों द्वारा वर्धापित किया । थोड़ी ही दूरी पर शुश्रूषा करते हुए - प्रणाम करते हुए, विनयपूर्वक सामने हाथ जोड़े हुए, राजा की पर्युपासना करते हुए यथास्थान बैठ गये । तदनन्तर राजा भरत का सेनापतिरत्न यावत् सार्थवाह आदि वहाँ आये । उनके आने का वर्णन पूर्ववत् है केवल इतना अन्तर है कि वे दक्षिण की ओर के त्रिसोपान मार्ग से अभिषेकपीठ पर गये ।
तत्पश्चात राजा भरत ने आभियोगिक देवों को आह्वान कर कहा- मेरे लिए महार्थ, महार्घ, महार्ह - ऐसे महाराज्याभिषेक का प्रबन्ध करो - राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर वे आभियोगिक देव- ईशान कोण में गये । वहाँ जाकर वैक्रिय समुद्घात द्वारा उन्होंने आत्मप्रदेशों को बाहर निकाला । शेष वर्णन विजयदेव के समान है । वे देव पंडकवन में मिले । मिलकर दक्षिणार्थ भरतक्षेत्र में विनीता राजधानी आये । प्रदक्षिणा की, अभिषेकमण्डप में आकर महार्थ, महार्घ तथा महार्ह महाराज्याभिषेक के लिए अपेक्षित समस्त सामग्री राजा के समक्ष उपस्थित की । ३२००० राजाओं ने श्रेष्ठ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र एवं मुहूर्त में - उत्तरा भाद्रपदा नक्षत्र तथा विजय मुहूर्त में स्वाभाविक तथा उत्तरविक्रिया द्वारा निष्पादित, श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठापित, सुरभित, उत्तम जल से परिपूर्ण १००८ कलशों से राजा भरत का बड़े आनन्दोत्सव के साथ अभिषेक किया । अभिषेक वर्णन विजयदेव के सदृश है उन राजाओं में से प्रत्येक ने इष्ट वाणी द्वारा राजा का अभिनन्दन, अभिस्तवन किया । वे बोले - राजन् ! आप सदा जयशील हों । आपका कल्याण हो । यावत् आप सांसारिक सुख भोगें, यों कह कर उन्होंने जयघोष किया । तत्पश्चात् सेनापतिरत्न, ३६० सूपकारों, अठारह श्रेणि- प्रश्रेणि नों तथा और बहुत से माण्डलिक राजाओं, सार्थवाहों ने राजा भरत का अभिषेक किया । उन्होंने उदार, इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनाम, शिव, धन्य, मंगल, सश्रीक, लालित्ययुक्त, हृदयगमनीय, हृदयप्रह्लादनीय, अनवरत अभिनन्दन किया, अभिस्तवन किया ।
१६००० देवों ने अगर आदि सुगन्धित पदार्थों एवं आमलक आदि कसैले पदार्थों से संस्कारित, अनुवासित अति सुकुमार रोओं वाले तौलिये से राजा का शरीर पोंछा । यावत् विभिन्न रत्नों से जुड़ा हुआ मुकुट पहनाया । तत्पश्चात् उन देवों ने दर्दर तथा मलय चन्दन की सुगन्ध से युक्त, केसर, कपूर, कस्तूरी आदि के सारभूत, सघन सुगन्ध-व्याप्त रस - राजा पर छिड़के । उसे दिव्य पुष्पों की माला पहनाई । उन्होंने उसको ग्रन्थिम, वेष्टिम, पूरिम तथा संघातिम मालाओं से विभूषित किया । उससे सुशोभित राजा कल्पवृक्ष सदृश प्रतीत होता था । इस प्रकार विशाल राज्याभिषेक समारोह में अभिषिक्त होकर राजा भरत ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । उनसे कहा- देवानुप्रियो ! हाथी पर सवार होकर तुम लोग विनीता राजधानी के तिकोने स्थानों, तिराहों, चौराहों, चत्वरों तथा विशाल राजमार्गों पर यह घोषणा करो कि इस उपलक्ष्य में मेरे राज्य के निवासी बारह वर्ष पर्यन्त प्रमोदोत्सव मनाएं । इस बीच राज्य में कोई भी क्रय-विक्रय आदि सम्बन्धी शुल्क, नहीं लिया जायेगा । ग्राह्य में - किसी से यदि कुछ लेना है, उसमें खिंचाव न किया जाए, आदान-प्रदान का, नाप-जोख का क्रम बन्द रहे, राज्य के कर्मचारी, अधिकारी किसी के घर में प्रवेश न करें, दण्ड, कुदण्ड न लिये जाएं। राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर वे कौटुम्बिक पुरुष बहुत हर्षित तथा परितुष्ट हुए, उन्होंने विनयपूर्वक राजा का आदेश स्वीकार किया । शीघ्र ही हाथी पर सवार हुए, उन्होंने