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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
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निपुण थीं, कुशल थीं तथा स्वभावतः विनयशील थीं ।
सब प्रकार की समृद्धि तथा द्युति से युक्त सेनापति सुषेण वाद्य-ध्वनि के साथ जहाँ तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट थे, वहाँ आया । प्रणाम किया । मयूरपिच्छ की प्रमार्जनिका उठाई । कपाटों को प्रमार्जित किया । उन पर दिव्य जलधारा छोड़ी । आर्द्र
शीर्ष चन्दन से हथेली के थापे लगाये । अभिनव, उत्तम सुगन्धित पदार्थों से तथा मालाओं से अर्चना की । उन पर पुष्प, वस्त्र चढ़ाये । ऐसा कर इन सबके ऊपर से नीचे तक फैला, विस्तीर्ण, गोल चंदवा ताना । स्वच्छ बारीक चांदी के चावलों से, तमिस्रा गुफा के कपाटों के आगे स्वस्तिक, श्रीवत्स आदि आठ मांगलिक अंकित किये । कचग्रह ज्यों पांचों अंगुलियों से ग्रहीत पंचरंगे फूल उसने अपने करतल से उन पर छोड़े । वैडूर्य रत्नों से बना धूपपात्र हाथ में लिया । धूपपात्र का हत्था चन्द्रमा की ज्यों उज्ज्वल था, वज्ररत्न एवं वैडूर्यरत्न से बना था । धूप- पात्र पर स्वर्ण, मणि तथा रत्नों द्वारा चित्रांकन किया हुआ था । काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान एवं धूप की गमगमाती महक उससे उठ रही थी । उसने उस धूपपात्र में धूप दिया- । फिर अपने बाएँ घुटने को जमीन से ऊँचा रखा दोनों हाथ मस्तक से लगाया । कपाटों को प्रणाम किया । दण्डरत्न को उठाया ।
वह दण्ड रत्नमय तिरछे अवयव युक्त था, वज्रसार से बना था, समग्र शत्रु सेना का विनाशक था, राजा के सैन्य सन्निवेश में गड्डो, कन्दराओं, ऊबड़-खाबड़ स्थलों, पहाड़ियों, चलते हुए मनुष्यों के लिए कष्टकर पथरीले टीलों को समतल बना देने वाला था । वह राजा के लिए शांतिकर, शुभकर, हितकर तथा उसके इच्छित मनोरथों का पूरक था, दिव्य था, अप्रतिहत था । वेग- आपादन हेतु वह सात आठ कदम पीछे हटा, तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के किवाड़ों पर तीन बार प्रहार किया, जिससे भारी शब्द हुआ । इस प्रकार क्रोञ्च पक्षी की ज्यों जोर से आवाज कर अपने स्थान से कपाट सरके । यों सेनापति सुषेण ने तमिस्रागुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट खोले । राजा को 'जय, विजय' शब्दों द्वारा वर्धापित कर कहातमिस्रागुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट खोल दिये हैं । राजा भरत यह संवाद सुनकर अपने मन में हर्षित, परितुष्ट तथा आनन्दित हुआ । राजा ने सेनापति सुषेण का सत्कार किया, सम्मान किया । अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा - आभिषेक्य हस्तिरत्न को शीघ्र तैयार करो। तब घोड़े, हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं से परिगठित चातुरंगिणी सेना से संपरिवृत, अनेकानेक सुभटों के विस्तार से युक्त राजा उच्च स्वर में समुद्र के गर्जन से सदृश सिंहनाद करता हुआ अंजनगिरि के शिखर के समान गजराज पर आरूढ हुआ ।
[७८] तत्पश्चात् राजा भरत ने मणिरत्न का स्पर्श किया । वह मणिरत्न विशिष्ट आकारयुक्त, सुन्दरतायुक्त था, चार अंगुल प्रमाण था, अमूल्य था - वह तिखूंटा, ऊपर नीचे षट्कोणयुक्त, अनुपम द्युतियुक्त, दिव्य, मणिरत्नों में सर्वोत्कृष्ट, सब लोगों का मन हरने वाला था - जो सर्व-कष्ट निवारक था, सर्वकाल आरोग्यप्रद था । उसके प्रभाव से तिर्यञ्च, देव तथा मनुष्य कृत उपसर्ग - कभी भी दुःख उत्पन्न नहीं कर सकते थे । उस को धारण करने वाले मनुष्य को शस्त्र स्पर्श नहीं होता । से यौवन सदा स्थिर रहता था, बाल तथा नाखून नहीं बढ़ते थे । भय से विमुक्ती होती । राजा भरत ने इन अनुपम विशेषताओं से युक्त मणिरत्न को गृहीत कर गजराज के मस्तक के दाहिने भाग पर बांधा । भरतक्षेत्र के अधिपति राजा भरत