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जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति - ३ / ७३
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लवणसमुद्र में प्रवेश किया । शेष कथन पूर्ववत् । प्रभास तीर्थकुमार ने भी प्रीतिदान के रूप में भेंट करने हेतु रत्नों की माला, मुकुट यावत् राजा भरत के नाम से अंकित बाण तथा प्रभासतीर्थ का जल दिया और कहा- मैं आप द्वारा विजित देश का वासी हूँ, पश्चिम दिशा का अन्तपाल हूँ । शेष पूर्ववत् जानना ।
[७४] प्रभास तीर्थकुमार को विजित कर लेने के उपलक्ष्य में समायोजित अष्टदिवसीय महोत्सव के परिसम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला । यावत् उसने सिन्धु महानदी के दाहिने किनारे होते हुए पूर्व दिशा में सिन्धु देवी के भवन की ओर प्रयाण किया । राजा भरत बहुत हर्षित हुआ, परितुष्ट हुआ । जहाँ सिन्धु देवी का भवन था, उधर आया । सिन्धु देवी के भवन के थोड़ी ही दूरी पर बारह योजन लम्बा तथा नौ योजन चौड़ा, श्रेष्ठ नगर के सदृश सैन्य शिबिर स्थापित किया । यावत् सिन्धु देवी की साधना हेतु तेल किया। पौषधशाला में पौषध लिया, ब्रह्मचर्य स्वीकार किया । यावत् यों डाभ के बिछौने पर उपगत, तेले की तपस्या में अभिरत भरत मन में सिन्धु देवी का ध्यान करता हुआ स्थित हुआ । सिन्धु देवी का आसन चलित हुआ । सिन्धु देवी ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया । भरत को देखा, देवी के मन में ऐसा चिन्तन, विचार, मनोभाव तथा संकल्प उत्पन्न हुआजम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में भरत नामक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ है । यावत् देवी रत्नमय १००८ कलश, विविध मणि, स्वर्ण, रत्नाञ्चित चित्रयुक्त दो स्वर्ण-निर्मित उत्तम आसन, कटक, त्रुटित तथा अन्यान्य आभूषण लेकर तीव्र गतिपूर्वक वहाँ आई और बोलीआपने भरतक्षेत्र को विजय कर लिया है । मैं आपके देश में आज्ञाकारिणी सेविका हूँ । देवानुप्रिय ! मेरे द्वारा प्रस्तुत उपहार आप ग्रहण करें । शेष पूर्ववत् । यावत् पूर्वाभिमुख हो उत्तम सिंहासन पर बैठा । सिंहासन पर बैठकर अपने अठारह श्रेणी प्रश्रेणी- अधिकृत पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा कि अष्टदिवसीय महोत्सव का आयोजन करो ।
[ ७५ ] सिन्धुदेवी के विजयोपलक्ष्य में अष्टदिवसीय महोत्सव सम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न पूर्ववत् शास्त्रागार से बाहर निकला । ईशानकोण में वैताढ्य पर्वत की ओर प्रयाण किया । राजा भरत वैताढ्य पर्वत की दाहिनी ओर की तलहटी थी, वहाँ आया । वहाँ बारह योजन लम्बा तथा नौ योजन चौड़ा सैन्य शिबिर स्थापित किया । वैताढ्यकुमार देव को उद्दिष्ट कर तेला किया । पौषध लिया, वैताढ्य गिरिकुमार का ध्यान करता हुआ अवस्थित हुआ । वैताढ्य गिरिकुमार का आसन डोला । आगे सिन्धुदेवी के समान समझना । राजा की आज्ञा से अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित कर आयोजकों ने राजा को सूचित किया । अष्ट दिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न पश्चिम दिशा में तमिस्रा गुफा की ओर आगे बढ़ा । राजा भरत ने तमिस्रा गुफा से थोड़ी ही दूरी पर बारह योजन लम्बा और नौ योजन चौड़ा सैन्य शिबिर स्थापित किया । कृतमाल देव को उद्दिष्ट कर उसने ला किया यावत् कृतमाल देव का आसन चलित हुआ । शेष वर्णन वैताढ्य गिरिकुमार समान है । कृतमाल देव ने राजा भरत को प्रीतिदान देते हुए राजा के स्त्री-रत्न के लिए रत्ननिर्मित चौदह तिलक सहित आभूषणों की पेटी, कटक आदि लिये । राजा को ये उपहार भेंट किये । राजा ने उसका सत्कार किया, सम्मान किया, विदा किया । यावत् अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित हुआ ।