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जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-२/४६
क्षीरोदक लाये । तदनन्तर देवराज शक्रेन्द्र ने तीर्थंकर के शरीर को क्षीरोदक से स्नान कराया। सरस, उत्तम गोशीप चन्दन से उसे अनुलिप्त किया । हंस-सदृश श्वेत वस्त्र पहनाये । सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित किया । फिर उन भवनपति, वैमानिक आदि देवों ने गणधरों के शरीरों को तथा साधुओं के शरीरों को क्षीरोदक से स्नान कराया । स्निग्ध, उत्तम गोशीर्ष चन्दन से अनुलिप्त किया । दो दिव्य देवदूष्य धारण कराये । सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित किया ।
तत्पश्चात् देवराज शक्रेन्द्र ने उन अनेक भवनपति, वैमानिक आदि देवों से कहादेवानुप्रियो ! ईहामृग, वृषभ, तुरंग यावत् वनलता के चित्रों से अंकित तीन शिबिकाओं की विकुर्वणा करो-एक भगवान् तीर्थंकर के लिए, एक गणधरों के लिए तथा एक अवशेष साधुओं के लिए । इस पर उन बहुत से भवनपति, वैमानिकों आदि देवों ने तीन शिबिकाओं की विकुर्वणा की । तब उदास, खिन्न एवं आंसू भरे देवराज देवेन्द्र शक्र ने भगवान् तीर्थंकर के, जिन्होंने जन्म, जरा तथा मृत्यु को विनष्ट कर दिया था-शरीर को शिबिका पर आरूढ किया। चिता पर रखा । भवनपति तथ वैमानिक आदि देवों ने गणधरों एवं साधुओं के शरीर शिबिका पर आरूढ कर उन्हें चिता पर रखा । देवराज शक्रेन्द्र ने तब अग्निकुमार देवों को कहादेवानुप्रियो ! तीर्थंकर आदि को चिता में, शीघ्र अग्निकाय की विकुर्वणा करो । इस पर उदास, दुःखित तथा अश्रुपूरितनेत्र वाले अग्निकुमार देवों ने तीर्थंकर की चिता, गणधरों की चिता तथा अनगारों की चिता में अग्निकाय की विकुर्वणा की । देवराज शक्र ने फिर वायुकुमार देवों को का-वायुकाय की विकुर्वणा करो, अग्नि प्रज्ज्वलित करो, तीर्थंकर की देह को, गणधरों तथा अनगारों की देह को ध्मापित करो । विमनस्क, शोकान्वित तथा अश्रुपूरितनेत्र वाले वायुकुमार देवों ने चिताओं में वायुकाय की विकुर्वणा की, तीर्थंकर आदि के शरीर ध्मापित किये । देवराज शक्रेन्द्र ने बहुत से भवनपति तथा वैमानिक आदि देवों से कहा-देवानुप्रियो ! तीर्थंकरचिता, गणधर-चिता तथा अनगार-चिता में विपुल परिमाणमय अगर, तुरुष्क तथा अनेक घटपरिमित घृत एवं मधु डालो । तब उन भवनपति आदि देवों ने घृत एवं मधु डाला ।
देवराज शक्रेन्द्र ने मेघकुमार देवों को कहा-देवानुप्रियो ! तीर्थंकर-चिता, गणधर-चिता तथा अनगार-चिता को क्षीरोदक से निर्वापित करो । मेघकुमार देवों ने निर्वापित किया । तदनन्तर देवराज शक्रेन्द्र ने भगवान् तीर्थंकर के ऊपर की दाहिनी डाढ ली । असुराधिपति चमरेन्द्र ने नीचे की दाहिनी डाढ ली । वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बली ने नीचे की बाई डाढ ली। बाकी के भवनपति, वैमानिक आदि देवों ने यथायोग्य अंगों की हड्डियाँ लीं । कइयों ने जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति से, कइयों ने यह समुचित पुरातन परंपरानुगत व्यवहार है, यह सोचकर तथा कइयों ने इसे अपना धर्म मानकर ऐसा किया । तदनन्तर देवराज, देवेन्द्र शक्र ने भवनपति एवं वैमानिक आदि देवों को यथायोग्य यों कहा-देवानुप्रियो ! तीन सर्व रत्नमय विशाल स्तूपों का निर्माण करो-एक भगवान् तीर्थंकर के, एक गणधरों के, तथा एक अवशेष अनगारों के चिता-स्थान पर । उन बहुत से देवों ने वैसा ही किया । फिर उन अनेक भवनपति, वैमानिक आदि देवों ने तीर्थंकर भगवान् का परिनिर्वाण महोत्सव मनाया । वे नन्दीश्वर द्वीप में आ गये। देवराज, देवेन्द्र शक्र ने पूर्व दिशा में स्थित अंजनक पर्वत पर अष्टदिवसीय परिनिर्वाण-महोत्सव मनाया । देवराज, देवेन्द्र शक्र के चार लोकपालों ने चारों दधिमुख पर्वतों पर, देवराज ईशानेन्द्र