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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
जिस समय कौशलिक, अर्हत् ऋषभ कालगत हुए, जन्म, वृद्धावस्था तथा मृत्यु के बन्धन तोड़कर सिद्ध, बुद्ध तथा सर्वदुःख-विरहित हुए, उस समय देवेन्द्र, देवराज शक्र का आसन चलित हुआ । अवधिज्ञान का प्रयोग किया, भगवान् तीर्थंकर को देखकर वह यों बोला-जम्बूद्वीप के अन्तर्गत् भरतक्षेत्र में कौशलिक, अर्हत् ऋषभ ने परिनिर्वाण प्राप्त कर लिया है, अतः अतीत, वर्तमान, अनागत देवराजों, देवेन्द्रों शक्रों का यह जीत है कि वे तीर्थंकरों के परिनिर्वाणमहोत्सव मनाएं । इसलिए मैं भी तीर्थंकर भगवान् का परिनिर्वाण-महोत्सव आयोजित करने हेतु जाऊँ । यों सोचकर देवेन्द्र वन्दन-नमस्कार कर अपने ८४००० सामानिक देवों, ३३००० त्रायस्त्रिंशक देवों, परिवारोपेत अपनी आठ पट्टरानियों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, चारों दिशाओं के ८४-८४ हजार आत्मरक्षक देवों और भी अन्य बहुत से सौधर्मकल्पवासी देवों एवं देवियों से संपरिवृत, उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चंड, जवन, उद्धत, शीघ्र तथा दिव्य गति से तिर्यक्-लोकवर्ती असंख्य द्वीपों एवं समुद्रों के बीच से होता हुआ जहाँ अष्टापद पर्वत और जहाँ भगवान् तीर्थंकर का शरीर था, वहाँ आया । उसने उदास, आनन्द रहित, आँखों में आँसू भरे, तीर्थंकर के शरीर को तीन वार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की । वैसा कर, न अधिक निकट न अधिक दूर स्थित होकर पर्युपासना की ।
उस समय उत्तरार्ध लोकाधिपति, २८ लाख विमानों के स्वामी, शूलपाणि, वृषभवाहन, निर्मल आकाश के रंग जैसा वस्त्र पहने हुए, यावत् यथोचित रूप में माला एवं मुकुट धारण किए हुए, नव-स्वर्ण-निर्मित मनोहर कुंडल पहने हुए, जो कानों से गालों तक लटक रहे थे, अत्यधिक समृद्धि, द्युति, बल, यश, प्रभाव तथा सुखसौभाग्य युक्त, देदीप्यमान शरीर युक्त, सब ऋतुओं के फूलों से बनी माला, जो गले से घुटनों तक लटकती थी, धारण किए हुए, ईशानकल्प में ईशानावतंसक विमान की सुधर्मा सभा में ईशान-सिंहासन पर स्थित, अट्ठाईस लाख वैमानिक देवों, अस्सी हजार सामानिक देवों, तेतीस त्रायस्त्रिंश-गुरुस्थानीय देवों, चार लोकपालों, परिवार सहित आठ पट्टरानियों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, सात सेनापतियों, अस्सी-अस्सी हजार चारों दिशाओं के आत्मरक्षक देवों तथा अन्य बहुत से ईशानकल्पवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरापतित्व, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरकत्व, आज्ञेश्वरत्व, सेनापतित्व करता हुआ देवराज ईशानेन्द्र निरवच्छिन्न नाट्य, गीत, निपुण वादकों के वाद्य, विपुल भोग भोगता हुआ विहरणशील था । ईशान देवेन्द्र ने अपना आसन चलित देखा । वैसा देखकर अवधि-ज्ञान का प्रयोग किया । भगवान् तीर्थंकर को अवधिज्ञान द्वारा देखा । देखकर शक्रेन्द्र की ज्यों पर्युपासना की । ऐसे सभी देवेन्द्र अपने-अपने परिवार के साथ वहाँ आये। उसी प्रकार भवनवासियों के बीस इन्द्र, वाणव्यन्तरों के सोलह इन्द्र, ज्योतिष्कों के दो इन्द्र, अपने-अपने देव-परिवारों के साथ वहाँ अष्टापद पर्वत पर आये ।
__ तब देवराज, देवेन्द्र शक्र ने बहुत से भवनपति, वानव्यन्तर तथा ज्योतिष्क देवों से कहा-देवानुप्रियो ! नन्दनवन से शीघ्र स्निग्ध, उत्तम गोशीर्ष चन्दन-काष्ठ लाओ । लाकर तीन चिताओं की रचना करो-एक भगवान् तीर्थंकर के लिए, एक गणधरों के लिए तथा एक बाकी के अनगारों के लिए । तब वे भवनपति आदि देव नन्दनवन से स्निग्ध, उत्तम गोशीर्ष चन्दनकाष्ठ लाये । लाकर चिताएँ बनाई । तत्पश्चात् देवराज शक्रेन्द्र ने आभियोगिक देवों को कहादेवानुप्रियो ! क्षीरोदक समुद्र से शीघ्र क्षीरोदक लाओ । वे आभियोगिक देव क्षीरोदक समुद्र से