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जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-२/३७
ये होते हैं, किन्तु उन मनुष्यों के उपयोग में नहीं आते । क्या उस समय भरतक्षेत्र में सिंह, व्याघ्र, वृक, द्वीपिक, ऋच्छ, तरक्ष, व्याघ्र, श्रृगाल, बिडाल, शुनक, कोकन्तिक, कोलशुनक ये सब होते हैं ? गौतम ! ये सब होते हैं, पर वे उन मनुष्यों को आबाधा, व्याबाधा, नहीं पहुंचाते और न उनका छविच्छेद करते हैं | क्योंकि वे श्वापद प्रकृति से भद्र होते हैं ।
क्या उस समय भरतक्षेत्र में शाली, व्रीहि, गेहूँ, जौ, यवयव, कलाय, मसूर, मूंग, उड़द, तिल, कुलथी, निष्पाव, चौला, अलसी, कुसुम्भ, कोद्रव, वरक, रालक, सण, सरसों, मूलक ये सब होते हैं ? गौतम ! ये होते हैं, पर उन मनुष्यों के उपयोग में नहीं आते । क्या उस समय भरतक्षेत्र में गर्त, दरी, अवपात, प्रपात, विषम, कर्दममय स्थान-ये सब होते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता । उस समय भरतक्षेत्र में बहुत समतल तथा रमणीय भूमि होती है। वह मुरज के ऊपरी भाग आदि की ज्यों एक समान होती है । क्या उस समय भरतक्षेत्र में स्थाणु, शाखा, ढूंठ, कांटे, तृणों का तथा पत्तों का कचरा-ये होते हैं । गौतम ! ऐसा नहीं होता । वह इन सबसे रहित होती है । क्या उस समय भरतक्षेत्र में डांस, मच्छर, जूयें, लीखें, खटमल तथा पिस्सू होते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता | वह भूमि डांस आदि उपद्रव-विरहित होती है । क्या उस समय भरतक्षेत्र में साँप और अजगर होते हैं ? गौतम ! होते हैं, पर वे मनुष्यों के लिए आबाधाजनक इत्यादि नहीं होते । आदि प्रकृति से भद्र होते हैं ।
भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में डिम्ब, डमर, कलह, बोल, क्षार, वैर, महायुद्ध, महासंग्राम, महाशस्त्र-पतन, महापुरुष-पतन तथा महारुधिर-निपतन ये सब होते हैं ? गौतम! ऐसा नहीं होता । वे मनुष्य वैरानुबन्ध-से रहित होते हैं । क्या उस समय भरतक्षेत्र में दुर्भूत, कुल-रोग, ग्राम-रोग, मंडल-रोग, पोट्ट-रोग, शीर्ष-वेदना, कर्ण-वेदना, ओष्ठ-वेदना, नेत्र-वेदना, नख-वेदना, दंतवेदना, खांसी, श्वास, शोष, दाह, अर्श, अजीर्ण, जलोदर, पांडुरोग, भगन्दर, ज्वर, इन्द्रग्रह, धनुर्ग्रह, स्कन्धग्रह, कुमारग्रह, यक्षग्रह, भूतग्रह आदि उन्मत्तता हेतु व्यन्तरदेव कृत् उपद्रव, मस्तक-शूल, हृदय-शूल, कुक्षि-शूल, योनि-शूल, गाँव यावत् सन्निवेश में मारि, जन-जन के लिए व्यसनभूत, अनार्य, प्राणि-क्षय-आदि द्वारा गाय, बैल आदि प्राणियों का नाश, जन-क्षय, कुल-क्षय-ये सब होते हैं ? गौतम ! वे मनुष्य रोग तथा आतंक से रहित होते हैं ।
[३८] भगवन् ! उस समय भरतक्षेत्र में मनुष्यों की स्थिति-आयुष्य कितने काल का होता है ? गौतम ! आयुष्य जघन्य-कुछ कम तीन पल्योपम का तथा उत्कृष्ट-तीन पल्योपम का होता है । उस समय भरतक्षेत्र में मनुष्यों के शरीर कितने ऊँचे होते हैं ? गौतम ! जघन्यतः कुछ कम तीन कोस तथा उत्कृष्टतः तीन कोस ऊँचे होते हैं । उन मनुष्यों का संहनन कैसा होता है ? गौतम ! वज्र-ऋषभ-नाराच होता हैं । उन मनुष्यों का दैहिक संस्थान कैसा होता है ? गौतम ! सम-चौरस-संस्थान-संस्थित होते हैं । उनकी पसलियों २५६ होती हैं । वे मनुष्य अपना आयुष्य पूरा कर कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! जब उनका आयुष्य छह मास बाकी रहता है, वे एक युगल उत्पन्न करते हैं । उनपचास दिन-रात उनका पालन तथा संगोपन कर वे खांस कर, छींक कर, जम्हाई लेकर शारीरिक कष्ट, व्यथा तथा परिताप का अनुभव नहीं करते हुए, काल-धर्म को प्राप्त होकर स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। उन मनुष्यों का जन्म स्वर्ग में ही होता है ।