Book Title: Agam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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[५८] विषय १३ 'ऊर्धादि सभी दिशाओं एवं विदिशाओंमें सूक्ष्मबादरादि
सभी प्राणियोंकी विराधनारूप कर्मसमारम्भ होता है - इस बातको जान कर मेधावी साधु न स्वयं इन षड्जीवनिकायोंके विषयमें दण्डका समारम्भ करे, न दूसरोंसे करावे, न करते हुए की अनुमोदना ही करे । हे शिष्य ! तुम्हें इस प्रकारसे विचारना चाहिये कि इन दण्डसमारंभ करनेवालों के साथ वार्तालाप करने में भी मुझे लज्जा होती है, फिर मैं दण्डसमारम्भका अनुमोदन कैसे करूँ ? मैं कभी इसका अनुमोदन नहीं कर सकता । इस प्रकार निश्चय कर के साधुमर्यादामें व्यवस्थित, प्राणातिपातसे भयभीत तुम, उस अनर्थकर प्राणातिपातादिरूप दण्डका, अथवा अन्य दण्ड का समारम्भ कभी नहीं करना ।
४०४-४०५ ॥ इति प्रथम उद्देश ॥
॥अथ द्वितीय उद्देश॥ १ द्वितीय उद्दशका प्रयम उद्देशके साथ सम्बन्धकथन, प्रथम सूत्र ___ और उसकी छाया ।
४०६-४०७ २ श्मशान आदिमें स्थित साधुको अकल्पनीय अशनादिक
लेने के लिये यदि कोई गृहपति आग्रह करे तो साधु उसके आग्रहको कभी भी नहीं स्वीकारे।।
४०८-४१२ ३ द्वितीय सूत्रका अवतरण, द्वितीय सूत्र और छाया। ४१२-४१३ ४ उस साधुके समीप आ कर कोई गृहपति उस साधुको,
अकल्पनीय अशन आदि ला कर देवे, या रहनेके लिये अकल्पनीय उपाश्रय देवे, तो साधुको चाहिये कि वह उस
गृहपतिके वचनोंको कभी भी स्वीकार नहीं करे। ४१३-४१६ ५ तृतीय सूत्रका अवतरण, तृतीय सूत्र और छाया।
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श्री. मायाग सूत्र : 3