Book Title: Sugandhdashmi Katha
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith
Catalog link: https://jainqq.org/explore/090481/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला : अपभ्रंश ग्रन्थांक-६ सुगन्धदशमी कथा [ अपभ्रंश, संस्कृत, गुजराती, मराठी और हिन्दी] सम्पादक डॉ. होरालाल जैन, एम० ए०, डी० लिट्. प्राध्यापक व विभागाध्यक्ष संस्कृत, पाली व प्राकृत, इन्स्टीट्यूट ऑव लेंग्वेजेज एण्ड रिसर्च जबलपुर विश्वविद्यालय ( म०प्र०) भूनपूर्व डायरेक्टर : प्राकृत, जैनधर्म और अहिंसा शोध-संस्थान वैशाली (बिहार) ARTHI HAMEDI EP Y ARTI भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन 4 वीर नि० सं० २४९२ वि० सं० २०२१, सन् ५०.६६ । प्रथम संस्करण ग्यारह रुपये ... Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका General Editorial by Dr. A. N. Ujarihye. प्रस्तावना १. आदर्श प्रतियों का परिचय २. कवि परिचय और रचना काल ३. कथा का मौलिक आधार और विकास ४. कथाका उत्तर भाग ५. फ्रेंच और जर्मन कथाओंसे तुलना १२. अपभ्रंश कथाका विषयानुक्रम | मूल पाठ १. अपभ्रंश - हिन्दी अनुवाद सहित २. संस्कृत -- हिन्दी अनुवाद सहित ३. गुजराती ४. मराठी ५. हिन्दी परिशिष्ट १. मत्स्यगन्धा कथा - महाभारत से २. नागश्री सुकुमालिका कथा - णायाधम्मकहाओ से संकलित 7 ३. श्रावकता कथानक - श्रावकप्रज्ञप्ति टीकासे ४. लक्ष्मीमती कथानक -दरिवंशपुराण से १-२३ ६. कथाका उत्तरकालीन प्रभाव ७. सुगन्धदशमी कथा : संस्कृत ८. सुगन्ध दशमी कथा गुजराती ९. सुगन्ध दशमी कथा : मराठी १०. सुगन्धदशमी कथा : हिन्दी ११. अपभ्रंश व संस्कृत, गुजराती, मराठी और हिन्दी कथानकों की संगति २३ २५ १-७६ १ ३९ ४६ २ ५ ११ ११ १६ १८ १६ २१ २२ ६५ ७९ ९१ २४ ६६ १०० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन यों तो सुगन्धदशमी कथाको मैं अपने बचपनसे सुनता आया हूँ, क्योंकि इसका पाठ पर्युषण पर्वमें भाद्रपद शुक्ल १०वींको नियमित रूपसे जैन मन्दिरोंमें किया जाता रहा है । तथापि इसकी ओरै साहित्यिक दृष्टिसे मेरो विशेष रुचि तब जागृत हुई जब सन् १९२४ में मेरे प्रिय मित्र स्वर्गीय कश्मताप्रसादजीने जसवन्तनगरके शास्त्र भण्डारका एक हस्तलिखित ग्रन्थ भेजा, जिसमें अनेक संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश कथाओं के बीच सुगन्धदशमी कथा ( अपभ्रंश) भी संगृहीत यो । मैंने उक्त ग्रन्थका कुछ परिचय सभी अलाहाबाद यूनिवर्सिटी जनरल, खण्ड १, में प्रकाशित अपने 'अपभ्रश लिटरेचर' शीर्षक लेख में दिया था। सभी मैंने इस कथाकी प्रतिलिपि करके अपने पास भी रख लो यो। किन्तु अन्य संशोधन कार्योम ब्यस्त हो जानेसे मेरी दृष्टि इस रचनापर-से सड़ गयी। सन १९५४ में उस समय संस्कृत एम० ए० के विद्यार्थी और अब डॉ० विद्यापर जोहरापुरकर, प्राध्यापक मध्य प्रदेश शिक्षा विभाग, ने मुझे इस कथाकी जिनसागरकृत मराठी रूपान्तरको यह प्रति टिकलागी जो रंगीन चित्रोंसे युक्त और नागपुर सेनगण भण्डारको है। इसके साथ ही उन्होंने पुरानी गुजरातोकी रचनाको भी प्रतिलिपि मुझं दी और इन दोनों रचनाओंका परिचय भी लिखकर दिया। इसको देखकर मुझे अपनंश रूपका ध्यान आया और साथ ही अपने बचपनमें पढ़ी अंगरेजीकी सिंड्रेला शीर्षक कथाका भी स्मरण हुआ। उसी बोच में वैशाली प्राकृत जैन रिसर्च इंस्टीटयूटको स्थापना हेतु बिहार राज्यमें चला गया । सन् १९५५ में जो ओरियण्टल कान्फरेंसका अधिवेशन अन्नमलाई विश्वविद्यालय, विदाम्बरममें हुमा, उसमें मैंने इस कथाका व उक्त चित्रित प्रतिका परिचय अपने 'पैराललिजिम अब टेल्स बिट्वीन अपभ्रंश एण्ड वेस्टर्न लिटरेचर' शोषक लेखमें दिया, जिससे विद्वानोंको इस ओर विशेष रुचि जागृत हुई, और वे इसके प्रकाशनके लिए उत्सुकता प्रकट करने लगे। तब मैंने इस ओर विशेष ध्यान दिया, एवं संस्कृत और हिन्दीकी कथाओं को भी खोजकर प्रस्तुत संस्करण तैयार किया। भारतीय ज्ञानपीठकी मूर्तिदेवी ग्रन्थमालामें इसके प्रकाशनका प्रस्ताद भी शीघ्र स्वीकृत हो गया, तथा मूल रचनाओं व अनुवादोंके मुद्रणमें बहुत समय भी नहीं लगा। किन्तु मेरी इच्छा थी कि मराठी प्रतिके समस्त चित्रोंकी छाया भी इसके साथ प्रकाशित की जाये। इम कार्यमे बड़ा बिलम्ब लगा और अनेक विघ्न-आधाएँ । चढ़ाव-उतार आये। उन सबको पार कर जिस रूपमें अब या ग्रन्थ पाठकोंके हाथ पहुंच रहा है, आशा है उससे सभीको सन्तोष होगा। उक्त मास्त्र भण्डारों, विद्वानों एवं भारतीय ज्ञानपोठके अधिकारियोंके ही सहयोगसे यह कृति इस रूपमें प्रकट हो सकी है, अतएव में उनका हृदयसे अनुगृहीत हूँ। सिंघई प्रेस, जबलपुरके मालिक श्री अमृतलालजीने चित्रोंके ब्लाक बनवाने और उनका मुद्रण करानेमें विशेष रुचि दिखलायो अत: में उनका बड़ा उपकार मानता हूँ। विद्वदर १० बासुदेवशरण अग्रवालसे मैंने प्रार्थना की कि वे इन चित्रोंका परिचय लिखवा देनेकी कृपा करें। उनके स्वास्थ्यको देखते हुए मुझे भय था कि वे कदाचित् इस भारको स्वीकार न कर सकें, किन्तु मुझे बड़ा हर्ष और सन्तोष है कि उन्होंने इसे सत्काल स्वीकार कर लिया और शीघ्र ही डॉ० गोकुलचन्द्र जैनको चित्र-परिचय लिखवा दिया। इस कृपाके लिए मैं उनका बड़ा आभारी हूँ। इस प्रकार इस प्रकाशनमें जो कुछ अच्छाई और भलाई है, वह उक्त सहयोगका फल है, तथा उसमें जो दोष व त्रुटियाँ रह गयो हों वे मेरे अज्ञान व असामर्थ्यका परिणाम है, जिसके लिए पाठकोंसे मेरी क्षमायाचना है। -होरालाल जैन Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १. प्रादर्श प्रतियोंका परिचय ( अपभ्रंश ) (१) यह प्रति जसवन्तनगरके जैन मन्दिरकी है, जो मुझे स्वर्गीय बाबू कामताप्रसादजी के द्वारा प्राप्त हुई थी। यह एक कथासंग्रह है जिप्तमें कुल ३७ रचनाओंका संग्रह है। इनमें सुगन्धदशमो आदि दम कचाएं अपभ्रंशकी और शेष संस्कृत व प्राकृतकी है। इसी प्रतिपर-से मैंने न् १९२३ में प्रथम बार अपभ्रंश सुमन्धदशम। कथाको प्रतिलिपि की थी और इस आदर्श प्रतिका परिचय अपने अपभ्रंश लिटरेचर शीर्षक लेखम दिया था । ( देखिए-अलाहाबाद यूनिवर्सिटो स्टीज, भाग १, १९२५ )। (२) यह प्रति भी एक कथाकोशके अन्तर्गत उसके प्रथम १३ पत्रों में पायी गयी। इस कचाकोशकी कुल पत्र संख्या १९४ है । प्रथम पत्र अप्राप्य है। अन्तिम पत्रपर निर्देश है थर-वय-कहाकोसु सुपवित्तर विरियड त्रिषुहराइणा । सोहिंउ हरिसक्कित्ति मुणिमा पुगु सुलरियगिरपत्राहिणा ॥ इससे इस संकलनका नाम 'प्रतकपा कोश' पाया जाता है और यह भी ज्ञात हो जाता है कि उसके संग्रहकार विबुधराय थे और उनकी रचनाका संशोधन हर्षकोति मुनिने किया था । अन्त में संबत् १६७६ का भी निर्देश हे जो सम्भवत: प्रस्तुन प्रतिका लेखनकाल है । इस ग्रन्थके पत्रोंका आकार ११ x ४॥ इंच है, प्रति पृष्ठ ९ पंक्तियाँ है, चारों ओर लगभग एक इंच का हासिया है, और बी वमें भी स्त्रस्तिकाकार स्थान छूटा हुआ है । यह प्रति सम्पादकके संग्रहमें है। (३) यह भी ९।। ४ ४ इंच आकारका एक कथाकोश है, जिसको पत्र संख्या १५२ है। किन्तु प्रथम एक तथा अन्त के अज्ञात संख्यक पत्र एवं बोच-बीचके अनेक पत्र अप्राप्य है, जिसमें वर्तमान पत्रोंकी कुल संख्या केवल ६७ रह गयी है। सुगन्धदशमी कथाका प्रारम्भ पव २६ पर हुआ, किन्तु वह पत्र अप्राप्त है । २७ पत्रपर मुद्रित प्रतिके १, १, ३ के 'मणहरू' शब्दसे पाठ प्रारम्भ होकर पत्र २९ के अन्तमें 'तं जायवि भायई ( तं जाएवि भावई १, ४, १७) तक अविच्छिन्न गया है और फिर ३०-३४ पत्र अप्राप्त होनेसे ३५ पत्रपर 'ण एण बंधु', (१,१०,२) से पुनः प्रारम्भ होता है, और पत्र ३८ पर 'इम चितवि पुणु' ( २, २, ६) तक जाता है । आगे ३९-४४ पत्र अप्राप्त है। ४५, पत्रपर 'हमि सुअंघणेण' ( २, ७, १०) से 'कम्मु डहेसइ ( २,८,१३ ) तक जाकर पुन: विच्छिन्न हो जाता है। रवनाकी समाप्ति अगले पत्र ४६ पर हुई होगी, किन्तु वह पत्र अप्राप्त है। प्राचीन ग्रन्थोंको यह दुर्दशा देखकर बड़ा दुःख होता है। (४) यह सुगन्धदशामी कथाकी एक स्वतन्त्र प्रति है, जो पत्र १ पर ' ।।दा ।। ऊ शोधम णमा: ।। सुगन्धदसमी कया । जिण उनीस नवैप्पिणु ॥' इत्यादि रूपसे प्रारम्भ होकर पत्र ११ पर 'तहि णिवासु मह दिउजउ ।। ९ ॥ छ ।। इति सुगन्धदसमी कथा समाप्स ।।' इस प्रकार समाप्त होती है। पत्रोंका आकार १३ ४७ इंच है, प्रतिपत्र १२ पंक्तियां है। यह प्रति काल की अपेक्षा पूर्वोक्त तोनों कथाकोशोंसे पश्चात्कालीन है। इन प्रतियों के पाठान्तर अंकित नहीं किये गये, क्योंकि उनमें सच्चे पाठान्तर पाये ही नहीं जाते। पाठभेद प्रायः चरण, शब्द, अक्षर व मात्राओं के छूट जाने, मात्राओंमें 'ए' और 'रेफ' तथा 'ओ' और 'उ' के व्यत्यय तथा ण और न के प्रयोगको अनियमितता सम्बन्धी मात्र दिखाई दिये। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगंधदामी कथा कथा-रचना-अपभ्रंश सुगन्धदशमी कथामें कुल दो सन्धिया हैं । प्रथम सन्धिमें कड़वकोंकी संख्या १२ है, और दूसरी सन्धिौ ९ । प्रत्येक कहयक पंक्तियोंको संख्या औसतन १७ है। सबसे कम पंबितया १, २ में है, जिनकी संख्या ११ है, और सबसे अधिक ३२ पंक्तियाँ २, २ में है। समस्त इक्कोसों कड़वकोंकी कुल पंक्ति-संख्या ३६४ है। कड़वकोंकी रचना प्रायः पद्धडिया ओर अलिल्लह छन्दोंमें हुई है, जिनमें प्रत्येक चरण में १६ मात्राएं होती है, किन्तु एकके अन्तमें जगण ( लघु, गुरु, लघु ) भाता है, और दूसरेके अन्तम दो लघु मात्राएँ । इन दोनों छन्दोंका इस रचनामें प्रायः मिश्रग पाया जाता है । असे, प्रथम कडनककी ३-४ पंक्तियों में अलिल्लह घोर घोषमें पज्माटिका या पद्धडियाका प्रयोग है। किन्तु दूसरा पाड़बक पूरा अलिल्लहमें है, व तीसरा-चांपा पश्मटिकामे । जहाँ मात्राएँ तो १६ ही हों, किन्तु इन दोनों छन्दोंके धरणान्त मात्राओंका नियम नहीं पाया जाता, यहाँ छन्द पादाकुलक काहलाता है । जैसे २, ७ को प्रथम दो पंक्तियाँ जहाँ चरणान्तमें गुरु मात्रा दिखाई देतो है। कडवक १, ५ में दीपक छन्दका प्रयोग है, जहां दस मात्राएँ हैं व अन्त में लघु । प्रत्येक कहकके अन्तमें जो घसा कहा जाता है, वह सामान्य अपभ्रंश काग्यको रीतिसे सन्धि-भरमें एक-सा ही रहना चाहिए, किन्तु यहाँ इस नियमका पालन नहीं पाया जाता । कवि परिचय और रचना-काल अपभ्रंश सुगन्धदशमी कथा, उसके कर्त्ताने कुछ आत्मनिवेदन रचनाके अन्त में ( २,९,७-११) में किया है। इसके अनुसार वे अपने कुलरूपी आकाशको उद्योतित करनेवाले-उदयचन्द्र नामधार:-चे, और उनकी भार्याका माम देमतिय या देवमती था। उन्होंने इस कथाको गाकर सुनाया था, जिस प्रकार कि शाहोंमे जमहर और गायकुमारके परिवोंको भी मनोहर भाषामें सुनाया था। सम्भव है. उन्होंने स्वयं इन परित्रोंकी भी रचना को हो । इसके अतिरिक्त इस रचनामें हमें कविके विषय में और कोई वृत्तान्त प्राप्त नहीं होता। किन्तु उदयचन्द्र का नाम हमें इस प्रकारकी अन्य भी कुछ यसकथाओं में उपलब्ध होता है। जवाहरणार्थ १-विनयचष्ट्र मुनि कृत 'णिज्झर पंचमी कहा' के आदिमें उदयचन्द्र गुरु और बाल ( बालचन्द्र मुनि) का स्मरण किया गया है पणविधि पंच महागुरु सारद धरिवि मणि । उदयचंदु गुरु सुमरिवि वंदिय बालमणि ॥ घिणयचंदु फलु अफ्सर णिज्सरपंचमिहि । णिसुणहुँ धम्मकहाणउ कहिस जिणागमहि ॥ इसी ग्रन्यो अन्तमें यह भी व्यक्त किया गया है कि इस रामके रचयिता माथुर संघके मुनि विनयचन्द्र थे, और उन्होंने इसको रचना त्रिभुवनगिरिकी तलहटोमें को थी । तिहुयणगिरि तलहटी हहु रास रहा । माथुरसंग्रह मुणिवरु-विणायचंनि कहिङ ।। विमयचन्द्र मुनि कृत एक 'मरग उसारी कहा' भी है, जिसके आदि भी उन्होंने उपयचन्द्र गुरु और बालचन्द्र मुनिका स्मरण तथा नमन किया है । यथा उदयचंदु गुणगणहरु गरुचड़। सो मई भावें मणि अणुसरियउ ॥ बालइंदु मुणि विवि जिरंतरु । णरगउतारी कहमि अहंता । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ३ इस रासके अन्त में उन्होंने यमुना नदी के तटपर बसे हुए महावन नामक नगरके जिन मन्दिरको अपना रवा स्थल प्रकट किया है। यथा अमिय सरीसर जवणजलु । जयरु महावणु सग्गु ॥ सहिं जिणमणि वसंतद्दण | धिरज रासु समग्गु ॥ कि एक बीवरी रचना 'गडी' भी है, जिसमें उन्होंने माथुरसंघके मुनि उदय ( उदयतथा बाको नमस्कार किया है, तथा त्रिभुवनगिरि नगर के अजयनरेन्द्र कृत राजविहारको अपतो चन्द्र रचनाका स्थान बतलाया है। यया माथुरसंघ उदयसुणी सरु | पवित्र बाइंदु गुरु गणहरु || पद विजय मयंक मुणि । agrगिरिं पुरुमिवायत | लग्गखं णं वरथद्धि आय || सहि पिवसंतें मुणिवरें अजय परिंदो राजबिहारहिं । hi विरह चूनडिय सोहहु मुणिवर से सुब धारहिं ॥ पूर्वोक्त समस्त उल्लेखॉपर विचार कर यह प्रतीत होता है कि १. अपभ्रंश सुगन्धदशमी कथा के कर्त्ता में ही उदयचन्द्र हैं जिनका विनयचन्द्र मुनिने अपनी अनेक रचनाओं में गुरु कहकर स्मरण किया है । २. सुगन्धदशमी कथाकी रचनाओ समय कविवर उदयचन्द्र गृहस्थ थे और उन्होंने अपनी पत्नी देवमतीका भी संल्लेख किया है। यही कारण है कि त्रिचन्द्रमुनिने अपनी दो रचनाओंमें उनका गुष रूपसे स्मरण तो किया है, क्योंकि वे उनके विद्यागुरु थे; किन्तु उन्हें नमस्कार नहीं किया, क्योंकि मुनिका गृहस्थको नमस्कार करना अनुचित है। विनयचन्द्र के दीक्षागुरु मुनि बालचन्द्र थे, और उन्हें उन्होंने सर्वत्र नमस्कार किया है । ३. कविवर उदयचन्द्र बादमें दोक्षा लेकर मुनि हो गये। इसी घटना पश्चात् विनयचन्द अपनी 'घूनडी' नामक रचनाएँ उन्हें मुनीश्वर भो कहा है, और अपने दीक्षागुरु बालचन्द्र मुनिके साथ उन्हें भी प्रणाम किया है । तथापि यह ध्यान देने योग्य बात है कि उन्होंने विद्यागुरुके नाते उदयचन्द्रजीका सर्वत्र आदि उल्लेख किया है, और दीक्षागुरु बालका पश्चात् । ४. ये तीनों मुनि उदयचन्द्र, बालचन्द्र और विनयचन्द्र माथुर संघके थे। इसका साहित्यिक उल्लेख सर्वप्रथम अमितनतिके ग्रन्थोंमें मिलता है, जिन्होंने अपना सुभाषित रत्न- सन्दोह नामक ग्रन्थ जनरेश के राज्यकाल में संवत् १०५० में रखा था। इस संघ के दूसरे बड़े साहित्यकार अमरकीर्ति थे, जिन्होंने संवत् १२४७ में अपभ्रंश भाषाका छम्मोवएस ( षट्कर्मोपदेश ) रचकर पूरा किया। तीसरे महान् ग्रन्थकार यशःकीति और उनके शिव्य पण्डित रद्द हुए, जिन्होंने संवत् १४८६ के आसपास अनेक अपभ्रंश ग्रन्थोंकी रचना को ( माथुर संघके विशेष परिचय के लिए देखिए डॉ० जोहरापुरकर कृत 'भट्टारक सम्प्रदाय' शोलापुर १९५८ ) देवसेन- वृत्त दर्शनसार-गाया ४०, आदिके अनुसार इस संघकी स्थापना मथुरा में रामसेन गुरुद्वारा की गयी थी, जिसमें मुनियोंको पोछी रखने का निषेध किया गया था। ५. उदयचन्द्र कविने अपनी सुगन्धदशमी कथामें रचना स्थानका कोई उल्लेख नहीं क्रिया । किन्तु उनके शिष्य विनयचन्द्र ने अपनी 'नरउतारी कथा' का रचना-स्थल यमुना नदी तटपर बसा महावन नगर बतलाया है, और अपनी अन्य दो रचनाओं अर्थात् 'निर्झर-पंचमी कथा' और 'चूनड़ी' को तियणगिरि Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगंधदशमी कथा (त्रिभुवनगिरि ) में रचित कहा है। सौभाग्यसे ये दोनों स्थान पहचान लिये गये हैं। महावन तो मथुराके निकट यमुना नदी के उस पार बसा हुभा है, और वह उत्तर प्रदेशके नकरों में अब भी देखा जा सकता है। कविने इस नगरको स्वर्ग कहा है, जिससे उसको उन दिनोंकी महत्ता प्रकट होती है। तिहयणगिरि आजकलका तिहनगढ़ ( धनगड़ या अनगिर ) है, जो मयुरा या महावन से दक्षिण-पश्चिमकी ओर लगभग साठ मील दूर राजस्थानके पुराने करीलो राज्य व भरतपुर राज्यमें पड़ता है। इस प्रकार इन पन्थकारोंका निवास व विहार का प्रदेश मथुरा जिला और भरतपुर राज्यका भूमिभाग कहा जा सकता है । ६. उक्त समस्त रचनाओं में उनके रचनाकालका निर्देश नहीं पाया जाता । सौभाग्पसे विनयचन्द्र मुनिने अपनी 'चूनडी' नामक रचनामें एक ऐसा संकेत दिया है, जिससे इनके रचनाकालका अनुमान लगाया जा सकता है। उन्होंने कहा है कि 'चूनही' की रचना उन्होंने तिल्हयणगिरिमें अजयनरेन्द्र के राजविहारमें रहते हुए की थी । ऊपर हम देख हो चुके हैं कि यह तिहुयणमिरि आजकलका तिहनगढ़ है । इसके पूर्व इतिहासका पता लगानेपर हमारो दृष्टि वहाँके मकालीन यदुवंशी राजारापर जाती है । भाटोंके ज्ञातों व उत्कीर्ण लेखोंपर-से पता चलता है कि भरतपुर राज्य व मथुरा जिलाके भूमि-प्रदेशपर एक समय यदुवंशी राजाओंका राज्य था, जिसको राजधानो श्रोपथ ( आधुनिक बयाना, राजस्थान ) थी । यही पारहवीं शतोके पूर्वाध में जैतपाल नामक राजा हुए। उनके उत्तराधिकारी विजयपाल थे, जिनका उल्लेख विजय नामसे बयानाके सन् १०४४ के उत्कीर्ण लेख में भी पाया गया है। इनके उत्तराधिकारी हुए त्रिभुवनपाल (तिहनपाल ) जिन्होंने बपानासे १४ मोल दूर बिगुट (जिसढ़ का किला बनवाया । इस यशके अजयपाल नामक राजाकी एक उत्कीर्ण प्रशस्ति महावन से मिली है, जिसके अनुसार सन् ११५० ई० में उनका राज्य प्रवर्तमान था। इनके उत्तराधिकारी हरिपालका भो सन् ११७० का एक उत्कीर्ण लेख महावनसे मिला है । भरतपुर राज्य के अधपुर नामक स्थान से भी एक मूत्ति मिली है, जिसके सन् १९९२ में उत्कोण लेख में सहनपाल नरेशका उल्लेख है । इनके उत्तराधिकारी कुमारपाल ( कुंवरपाल ) थे, जिनका उल्लेख मुसलमानी तवारीख ताजुल मासिरमें भी मिलता है, और वहां कहा गया है कि इनके समय तिहनगढ़ या थनगढ़बर सन् ११९६ ई० में मुइनुद्दीन मुहम्मद गोरीने आक्रमण कर वहकि राय कुंवरपालको परास्त किया और वह दुर्ग बहाउद्दीन तुरिलको सौंप दिया । कुंवरपाल के उत्तराधिकारी अनंगपाल, पृथ्वीपाल व त्रिलोकपाल के नाम पाये जाते हैं। किन्तु सम्भवतः इतिहासातीत कालसे प्रसिद्ध शूरसेन प्रदेश व मथुराके वासुदेव और कृष्णके नामोंसे सुप्रसिद्ध यदुवंशको राज्यपरम्पर। बारहवीं शती तक आकर मुशलमानी आक्रमणकारियों के हाथों समाप्त हो गयो। यहाँ प्रस्तुतीपयोगी ध्यान देने योग्य बात यह है कि सुगन्ध दशमो कथाके कर्ता उदयचन्द्र के शिष्य विनयचन्द्र ने जिस त्रिभवनगिरि (तिहनगढ़ ) में अपनो उक्त दो रचनाएँ पूरी की थी, उसका निर्माण इस यदुवंश के राजा त्रिभुवनपाल ( तिहमाल ) ने अपने नामसे सन् १०४४ के कुछ काल पश्चात् कराया था। तथा अजय नरेन्द्र के जिस राजबिहार में रहकर उन्होंने 'चूनडी' की रचना की थी, वह निस्सन्देह उन्हीं अजयपाल नरेश-द्वारा बनवाया गया होगा, जिनका सन् १९५० का तत्वोण लक्ष महावनसे मिला है । सन् ११९६ में त्रिभुवन गरि उक्त यदुवंशी राजाओके हाथ से निकलकर मुसलमानांके हाथों में चला गया । अतएर त्रिभुवनगिरि के लिखे गये उक्त दोनों ग्रन्योंका रचना-काल लगभग सन् १६५० और ११९६ के बीच अनुमान किया जा सकता है। और चूकि 'चू नहीं' की रचना के समय उपचन्द्र मुनि हो चुके थे, किन्तु सुगन्धदशमीको रचनाके समय वे गृहस्थ थे, अत: सुगन्धदशा मोका रचनाकाल लगभग ११५७ ई० माना जा सकता है । ३. कथाका मौलिक प्राधार और विकास यह बात सुज्ञात और सर्व-सम्मत है कि जीवमात्र अपने सुख-साधनका और दुःखके निवारणका प्रयत्न करता है। कहा है.. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना "जे त्रिभुवन में जीव अनन्त । सुख चारै दुख भयषम्त ॥" ( दौलतर।म : छहवाला) सुखलिप्ताको इसी घेतनासे प्रेरित होकर मनुष्यने एक और कर्मशीलताका विकास किया, जिसके द्वारा उसने घर-द्वार निर्माण, अन्न-पान-संचय, बस्त्राभूषण, औषधि-उपचार आदि सम्बन्धी नाना प्रणालियोंका आविश्कार किया। दूसरी ओर उसने यह भी देखा कि उसके कार्य क्षेत्रके पर कुछ ऐसी भी प्राकृतिक शक्तियाँ है, जैसे अग्नि, वर्षा, वायु, सूर्व आदि जो कभी अनुकूल होकर उसके सुख में वृद्धि करती है। 'और कभी प्रतिकूल होकर उसकी उपर्युक्त सुस्त्र-सामग्रीको नष्ट-भ्रष्ट कर डालती है। उसने इसे अनुभवगम्य मनुष्य-स्वभावके आधार पर उन दिभ्य शक्तियोंके रोष-तोषका परिणाम समझा। यह समझदारी प्राप्त होते ही उसने उन शक्तियोंको अपनी अच-स्तुति-द्वारा प्रसन्न करने और अपने हितोंके अनुकूल बनाने का प्रयल पारम्भ कर दिया । यह स्थिति हम भारतीय प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेदकी ऋचाओंमें प्रतिविम्वित पाते हैं जहाँ यजमान स्पष्ट ही बहता है कि "मैं अग्निका आह्वान करता हूँ, अपने कल्याणके लिए; रात्रि जगत्.भरको विश्राम देतो है, इसलिए मैं उसका भी स्वागत करता हूँ; और सविताको बुलाता हूँ कि वह मेरा परित्राण करे। (ऋग्वेद, १,३५,१) इस प्रकार इन्द्रसे गायों, घोड़ों, धन तथा योद्धाओंकी रक्षा करने. को ( १, ४ आदि), वरुणसे पाससे बचाने ५ पूर्णायु प्रदान करने तथा अपना क्रोध दूर करने की ( १, २४ ); मरुत्से बल-वृद्धि, शत्रु-दमन तथा यमके मागसे बचाने की ( १, ३७.३९); तथा ब्रह्मणस्पतिसे बल, अश्व, बलवान् शत्रुके विनाश आदि (१, ४० ) की प्रार्थनाएं की गयी है, और इन्हीं गुणोंके कारण उन्हें स्तुत्य, पूज्य तथा आह्वान करने योग्य माना गया है । क्रमश: रोश-तोपके कारण भक्तोंका अनिष्ट व इष्ट सम्पादन करने का सामध्ये उन देवताओंके पाचित्र प्रतिनिधि ऋषियों में भी माया। यह क्रान्ति हमें विशेष रूपसे महाभारत व रामायण तथा अन्य पौराणिक साहित्यमें दृष्टिगोचर होती है। इतना ही नहीं, किन्तु ऋषियों में यह शक्ति भी मानो गयी है कि वे रुष्ट कर शाम-नारा मनुष्यको घोर तिमी पहुंचा है, और प्रसन्न होकर सापके निवारण व मनुष्यक उत्थानका भी उपाय बतला सकते हैं। कपिल मुनिन रुष्ट होकर सम्राट् सगर के साठ सहस्र पुत्रीको भस्म कर दिया और फिर प्रसन्न होकर गंगाजल-नारा उनके उद्धारका भी उपाय बतला दिया ( रामायण १. ४. आदि )। शक्काचार्य शानसे सम्राट ययाति एवावस्था में ही वृद्ध हो गये, किन्तु उन्हीके अनुग्रही उन्होंने अपने बेटे पुरुका यौवा प्राप्त कर लिया ( महाभारत १,७८)। ऋषियोंका यह सामर्थ्य इतना भी बढ़ा कि वे स्वयं देवताओं को भी शाप देकर मनुष्यादि योनियोंम गिराने लगे। नहुष इन्द्रपदको प्राप्त होकर भी अगस्त्य ऋषिके शापसे सर्प बनकर अमरपुरीसे गिर प्रष्टा ( महाभारत ), व गौतम ऋषिके शापसे इन्द्रदेव भी विफल (नपुंसक ) हो गये ( रामायण १, ४८, २८-२९)1 ऋषियोके सामर्थ्यकी इस शृंखलामें महाभारतका निम्न आरूपान (परिशिष्ट १) ध्यान देने योग्य है-- अद्रिका नाम की एक प्रसिद्ध अप्सरा थी। कारणवश वह एक ब्राह्मणके कोपका भाजन बन गयी और ब्रह्मदाप-द्वारा यमुना नदी में मछलीको योनिमें उत्पन्न हुई। ( महाभारत १, ५७, ४६) प्रसंगवश उसके उदर में दि-सम्राट् वसुका वीर्य प्रविष्ट हो गया । भके दसवें मासमें वह मछलो धोवरों-द्वारा पकड़ी गया और उसके उदरसे एक स्त्री और एक पुरुष निकाले । मछली तो शापमुक्त होकर पुन: अप्सरा हो गयी, और उसकी मानवी सन्तति-रूप उन स्त्री-पुरुषोंकी राजा वसुको समर्पित किया गया 1 वसुने पुरुषको तो मत्स्य नामसे राजा बना दिया, और कन्याको एक दासको पालन-पोषणके लिए दे दिया। बड़ों होनेपर बह कन्या अपने दास पिताकी सेवा-सहायता करने लगी। और उनकी अनुपस्थिति में नाव चलाकर पथिकोंको नदी पार भी करने लगी। एक बार इस दास-कन्याको नाव-द्वारा पराशर ऋषिको नदो पार कराने का प्रसंग आया। कन्या अत्यन्त रूपवती थी, किन्तु उसके शरोरसे मत्स्यको दुर्गन्ध निकलती थी, जिसके कारण यह मापगन्या Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगंधदशमी कथा भी कहलाती थी। नाव जब नदीके खोचमें पहुँची, सब ऋषि पराशर अपनी कामवासनाको न रोक सके, और उन्होंने मत्स्यगन्धासे प्रेमका प्रस्ताव किया। आसपास के समीपवर्ती ऋषियोंको दृष्टिमे बचने के लिए उन्होंने अपने तोवलसे कुहरेकी सृष्टि को और कन्याकी यह भी वरदान दिया कि उनसे प्रेम करनेपर भी उसका कन्याभाष नष्ट नहीं होगा। ऋषिकी इच्छा पूर्ति करनेपर कन्याने वरदान मांगा कि उसके शरीरकी दुर्गन्ध दूर होकर उसके गात्रों में उत्तम सुगन्ध आ जाये । ऋषिके प्रसादसे ऐसा ही हुआ और वह मत्स्यगन्धा तभीसे गन्धव तो नामसे प्रसिद्ध हुई। उसके पारीरकी सुगन्ध एक योजन तक फैलने लगी, जिससे उसका नाम योजनगन्धा भो विख्यात हुआ। वैसे इस कन्याका नाम सत्यवतो था, जो आगे चलकर कौरव-नरेश शान्तनुको साम्राज्ञो हुई। उसके ही पुत्रका राज्याभिषेक हो, इसी हेतु शान्तमुके ज्येष्ठपुत्र ने अपना विवाह न करनेको भीष्म प्रतिज्ञा धारण की ओर भीडम नामसे विस्थाति पायो । तथा उसीने विचित्रवीर्य नामक राजपुषको जन्म दिया, जिसकी सन्तानसे धृतराष्ट्र और पाण्डु हुए । ( महाभारत १, ५७, ५४ आदि)। __ महाभारतके इस कथानकमें पाठकोंको प्रस्तुत सुगन्धदशमी कथाके मूलतत्त्वोंका दर्शन हुए बिना न रहेगा। ऋपिका अनिष्ट, उसके कारण कन्याके शरीरमै दुर्गन्ध व ऋषिके प्रसादसे दुर्गन्धके स्थानपर सुगन्धकी उत्पत्ति, एवं राज्यपद प्राप्ति, इन सभी बातों में उक्त कथानकोंका मेल बैठता है। किन्तु कुछ अन्य बातोंमें बैविक-परम्पराके उक्त आख्यान एवं जैन-परम्पराकी सुगन्धदशमी कथा विवरण में बहुत भेव है । वैदिक परम्पराके ऋषि तपोरल-समृब तो होते हैं, किन्तु वे म तो गार्हस्थ्यके परित्यागी होते हैं, न ब्रह्मचर्य के परिपालक, और न रागोषसे रहित । निरुक्स ( २, ११ ) के अनुसार उनकी दृष्टि तीक्ष्ण होती है, तथा बे वेदोंके मन्त्रोंका दर्शन करते हैं । ( ऋषिदर्शनात् ) और भरतके अनुसार उनकी विद्वत्ता व विदश्यता प्रसिद्ध है ( विद्याविदग्धमतयः ऋषयः प्रसिद्धाः )। तथापि वे गृहस्थ है ( ऋषयो गृहमेपिनः ) । वे आश्रम बनाकर रहते हैं, गौओं व घनका दान लेते हैं, और गौओंका पालन भी करते हैं। क्रुद्ध होकर वे शाप भी देते हैं, और प्रसन्न होकर वरदान भी। किन्तु जैन-परम्पराके मुनियों को प्रकृति मादितः हो उनसे भिन्न रही है। स्वयं ऋग्वेरके अनुसार वे वातरशना ( सम्भवतः मग्न दिगम्बर ) होते हैं, उन्हें शरीरको निर्मल बनाने की रुचि नहीं होती। वे लौकिक व्यवहारोंसे परे उन्मत्त ( परमहंस ) व मोन सिसे रहते है । वे अध्यात्मी होते हैं । लोग उनके शरीर को तो देख पाते है, किन्तु उनको आध्यात्मिक चेतनाको नहीं ( ऋ१०,१३६ ) । तेसरीय आरण्यक ( १,२१,३,१,२६.७ ) के अनुसार ये बात रयाना मुनि, समाहितासः अर्थात् चित्त को एकाग्र करनेमें अप्रमाथी तथा उध्वमन्थिनः अर्थात् ब्रह्मचारी होते हैं । महाभारत ( अनुशासन पर्व ११५, ७२ ) के अनुसार मुभि वे ही कहे गये है जो मधु. मांस और मछका सर्वथा त्याग करते हैं; तथा गीता ( २,२६ ) के अनुसार मुनि स्थितप्रज्ञ होते हैं, जिन्हें दु.खमें उद्वेग नहीं, सुख की पांछा नहीं, तया भय और कंाघरहित होते हुए वीतराग होते हैं। वातरदाना मुनियोंको परम्परामें हुए भगवान् ऋषभदेव (जैनियोंके आदि तीर्थकर ) ( भागवत पुराण ५,६,२८ आदि ) शरीर मात्र परिग्रह पारी थे, उमत्तयत् नग्न ( गगन-परिधान ) अवधूत, मलिन जटाओमहित रहते थे । पुराण में यह भी कह दिया गया है कि ऋषभदेवका यह अवतार कंबल्यकी शिक्षा देने हेतु हुआ था। इन्हीं मुनियोंत्री साधनाओं का अधिक विस्तारसे वर्णन महाभारतके शान्तिपर्व, अध्याय ९ में किया गया है, जहाँ धर्मराज युधिष्ठिर इच्छा प्रकट करते है कि "मैं तो अब मुनि होकर मुसिर वनमें एकान्तवास करता हुआ भिक्षावृत्ति से अपने शरीरका क्षपण करना चाहता हूँ। धूलि-धूतरित अन्यागार या वृक्षके नीचे निवास करता हुआ, तया समस्त प्रिय और अप्रियका त्यागो होकर, शोक और हर्षसे रहित निन्दा और स्तुतिमें समभाव, कोई आशा व ममता न रखता हुआ निन्द्र और निष्परिग्रह रहना चाहता हूँ। आत्मा में ही मेरा रमण हो, मेरा आत्मा प्रसन्न रहे, आकृति मेरो भले ही जड़, अन्ध और दघिर-जैसी हो । मैं किसी दूसरेसे कोई सलाह-सम्मति नहीं करना चाहता । अपने-अपने गुणधर्मामें स्थित चारों प्रकारके जंगम प्राणियोंके प्रति मेग समता-भाव रहै । न मैं किमोकी हँसी उड़ाऊँ, न कभी किसीपर भुकुटी तानें। समस्त इन्द्रियों Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना को संयमित रखता हुआ मैं सदैव प्रसन्न-मुख रहूँ। म में किसी से मार्ग पू . न किसी के साथ चलें, न किसी देशको अथवा किसों दिशाम जानेको कोई विशेष हस्शा रखू । कोई अपेक्षा न रखता हुआ, पीछेको ओर न देखकर सायबानो रखता हुआ, उस स्थापर जीवोंको बचाता हा संयम भाबसे सीधा गमन करूं। वस्तु. स्वभाव आगे चलता है, अधादि पीड़ाओंका प्रभाव पन्नता ही है. तथा सुख-दुःख आदि दुन्द्र अपना विरोध मोडते नहीं 1 अत: मैं उनकी चिन्ता न पालें। अाप या स्वादहीन जो भी भोजन मिल जाये उसी में सन्तोष करू । न मिले तो भी क्षुब्ध न हो। जब रसोईघरका धुआं शान्त हो जाये, मूसल रख दिया जाय, चूल्हे में माग भी न रहे, लोग भोजन कर चुके, पात्रोंका संचार बन्द हो जाये व सामान्य भिक्षुक चले जाये, तब मैं दिनमें केवल एक बार दो, तीन मा पाँच घरोंसे भिक्षा मागू। स्नेह-बन्धनको छोड़कर मैं इस पृथ्वीपर विचरण कसे । लाश हो या हानि हो मैं समदर्शी रहूँ, और महातपसे विचलित न होऊँ। मेरा आचरण न तो जीने के लिए आतुरता लिये हो, और न मरणकी इच्छासहित । जीवनका में अभिनन्दन न कहे, और म मरणसे द्वेष । कोई वसूलेसे मेरा हाथ काटे और कोई मेरे शारीरपर चादनका लेप करे, तो भी न मैं एकका अकल्याण सोंचूं और न दूसरेका कल्याण । जीवन में सांसारिक अभ्युदयकी क्रियाएँ करना पाक्य है, उन सत्रका में परित्याग करूं, और पलक मारने आदि शारीरिक क्रियाओंमें सावधान रहूँ । इन्द्रियोंफी क्रियाओंमें न में आसक्ति रखू, और न प्रवृत्ति । अपने आत्मकल्याणका संकल्प कभी न छोडूं, और आत्माको मलिन करनेवाले कामोंसे अपनेको बचाता रहूँ। में सब प्रकारके संगोंसे मुक्त रहूँ व सघ बन्धनोंसे परे रहे, किसीके वशमैं न रहूँ । मायुके समान स्वतन्त्र वृत्ति होके । इस प्रकार बीतराग भावसे माघरण करता हुमा में शाश्वत सुख-सन्तोषको प्राप्त करूं । अभीतक तो मैंने अज्ञानके कारण तृष्णाके वशीभूत होकर महापाप फिमा ।" मुनियोंके आचारका जो विधान जैन-शास्त्रों में पाया जाता है उससे उक्त बातोंका भली मोति सामर्थन होता है। ऋषियों और मुनियोंको साधनाओं, प्रवृत्तियों एवं गुणधर्मों में उक्त भेद उन परम्पराओं-सम्बन्धी शाहयानोंमें स्वभावतः प्रतिविम्बित हुआ है। जहां एक ही या एक ही प्रकारको लोक-कथाका उपयोग धार्मिक उपदेशा के लिए किया गया है, यहां अपनी-अपनी परम्पराओं के अनुकूल उसमें हेर-फेर भी हुमा है । महाभारतमें सत्यवतोके शरीरमें दुर्गन्ध आनेका कारण था उसको अप्तरा माताका ब्रह्मशाप और दुर्गन्धसे मुक्ति एवं सुगन्धको उत्पत्तिका कारण था ऋषिका वरदान । इस वरदानको प्राईज किसी धार्मिक साधनाके फलस्वरूप नहीं हुई, किन्तु इषिकी कामवासना-तृप्ति-द्वारा उनका प्रसाद । किन्तु जैन-परम्परामें ये बातें नहीं बन सकतीं । यहाँ मुनि दुःख-सुख में समान रूपसे समताभाव रखते हैं, और उनमें राग-द्वेषका भी अभाव होता है । अनः न तो थे शाप देते हैं, और न वरदान । जैन कर्म-सिद्धान्त अनुसार माताके शापसे पुत्रीका शरीर दुर्गन्धित हो, यह बात भी नहीं बनती। फल प्रत्येक जीवको स्वकृत कर्मके अनुसार ही प्राप्त होता है । हो, मुनिजन अपने ज्ञान द्वारा यह अवश्य विश्लेषण कर बतलानेवा प्रयत्न करते हैं कि कौन-से पापकर्मका फल दुःखमय हुआ और कौन-से पुष्पकमद्वारा उसका निवारण किया जा सकता है । इन सिद्धान्तोंके अनुसार शरीर अप्रियताकी उत्पत्तिका जो आरपान प्राचीन जैन (आगम णायाधम्मकहा १५ ) में पाया जाता है वह इस प्रकार है चम्पा नगरीम सोम, सोमदत व सोमभूति नामक धनी गृहस्थ रहते थे। उन्होंने एक बार विचार किया कि जब हमारे पास प्रचुर धन है तो क्यों न उसका भोग और दानमें सदुपयोग किया जाये । अतएव उन्होंने परस्पर आमन्त्रणों द्वारा भोज और आमोद-प्रमोदका निर्णय किया। जब सोमकी बारी आयो सब उसकी पत्नी नामश्रीने खान-पानकी खूब तैयारी की। किन्तु जब उसने परीक्षाके लिए खूब घृत और मसालों सहित तैयार को गयी लोकीके शाकके एक बिन्दुको पखा तो उसे अत्यन्त कड़वा और विषला पाया । तब उसने उसे अलग रखकर अप शाक तैयार किये व अभ्यागतोंको खूब खिलाया-पिलाया । आमोद-प्रमोदके पश्चात् सब अपने-अपने घर गये। सब बहो धर्मवचि नामके मुनि आहार की भिक्षाके लिए उपस्थित हुए। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगंधदशमी कथा नागश्रीने विचार किया कि उस कड़वो अलाबुका शाक जिसमें उतना धृत और मसाला पड़ा है, अन्यत्र फेंकने. की अपेक्षा इस मुनिको दे देना अच्छा। ऐसा विचार करके उसने उस समस्त शाफको मुनिके भिमा-पात्रमें उड़ेल दिया । उसे लेकर धर्मरुचि मुनि अपने गुरु धर्मघोष के पास आये। उन्होंने उसको गन्धका अनुभव कर एक बिन्दुका स्वाद लिया और उसे कटु व अखाद्य जानकर मुनिको टसे एकान्तमें उचित स्थानमें डाल देनेको कहा । धर्मचिने जाकर एक स्थानपर उसका कुछ भाग छोड़ा, और देखा कि जिस-जिस चींटी ने आकर उसे खाया, बही तुरन्त मर गयी। यह देख मुनिने विचार किया कि इसे कहीं भी डालनसे अगणित जीवोंका घात होगा । अतः इससे यही अच्छा है कि मैं ही इसे खा लें जिससे अन्य जीवोंके प्राण न जायें। ऐसा विचार कर उन्होंने उसका आहार कर लिया और वे शीघ्र ही मरणको प्राप्त हुए । इस प्रकार नागप्रोकी करतूतसे मुनिके मरण की बात सर्वत्र फैल गयी । बहुजन समाजने उसको निन्दा और भत्सना की, तथा उसे घरसे निकाल दिया। इस प्रकार निर्वासित और निन्दिन होकर वह घर-घर भीख मांगकर अपना निर्वाह करती हुई श्वास, कास, शूल, कुष्ट आदि सोलहू महारोगोंसे ग्रस्त हो, मरकर नरक जाकर अगले तीन जन्मोंमें पुनः पुनः मछली हुई, फिर अनेक एकेन्द्रियादि जीवोंमें सम्रो बार उत्पन्न हुई । तत्पश्चात् तियंच योनिसे उबरकर वह चम्पानगरी में सागरदस सार्थवाहकी सुमालिका नामक पुत्री हुई। वह यद्यपि रूप और यौवनसे सम्पन्न थी, तथापि उसके शरीरका स्पर्श असहनीय था, जिसके कारण उसका पति उसके पाससे भाग या । मिताने का दरिद्रसे उसका पुनवित्राले कर दिया, किन्तु वह भी उसका स्पर्श सहन न कर, निकल भागा। यह देख पिताने उसका सम्बोधन किया कि यह सब उसके पूर्वकृत कर्मोका फल है। फिर उसने उसे अपने रसोईघरके काम-काजमें अपना चित्त लगानेका उपदेश दिया। कुछ काल पश्चात् वहाँ मापिकाओंका एक संघ आया । उनके समीप सुमालिकाने प्रवज्या ले ली। चम्पामें एक ललिता नामक गोष्ठी थी। एक बार वहीं पांच गोष्ठिक पुरुष देवदत्ता गणिकासहित आमोद-प्रमोदके लिए पहुंचे। किसीने देवदत्ताको अपनी गोदमें निठलागा, किसोने छत्र लगाया, किसीने पुष्प. सज्जा की, किसीने पैरोम माहर लगाया और किसीने घमर होरा समालिकाने यह सब देखा और वह उस स्त्रीके भाग्य को सराहने लगी। उसने निदान किया कि यदि मेरो इस प्रयाका कुछ फल हो तो अगले जन्ममें मुझे भी ऐसा ही प्रेम-सरकार प्राप्त हो। तभीसे वह अपने शरीरकी सजधजको ओर विशेष ध्यान देने लगी। मरनेके पश्चात् वह ईशान स्वर्गमें देवो हुई, और फिर दुपदको राजकन्या द्रौपदो; जिसे पूर्व संस्कारवश अर्जुन आदि पाम पाण्डवोंका पतित्व प्राप्त हुमा । ( परिशिष्ट २) इस कथानकमें न तो मुनिका शाप है, और न वरदान । किन्तु मुनिके प्रति दुर्भाव और दुर्व्यवहारके पापसे उसे स्वयं कुष्ठ आदि रोग हुए, नाना नीच योनियों में भ्रमण करना पड़ा, एवं मनुष्य-जन्ममें उसे उसी कड़वी तूंची-जैसा असह्य शरीर मिला। फिर प्रज्याके पुण्यसे अगले जन्ममें उसे सुन्दर रूपकी प्राप्ति हुई और उसके मनोवांछित पाँच पति भी मिले। पह कथानक अर्धमागधी आगमका है, जिसका उपलम्य संकलन वोरनिर्वाणसे ९८० वर्ष पश्चात् वलभीमें किया गया था। अतः वह ईसवीको पाँचवों शतीसे पूर्वकी रचना सिद्ध है। हरिभद्र सूरि ( लगभग ७५० ई.) विरचित सावयगण्णति ( बावक प्रज्ञप्ति) के पद्य ९३ की टीकामें भी इस प्रकारका एक कथानक सम्पत्वके विचिकित्सा नामक अतिचारके उदाहरण रूपसे आया है, जो इस प्रकार है ___ एक सेंट था। उसकी पुत्रोके विवाहमें कुछ साधुजन आये । पिताने उसे उनकी परिवर्या करनेका आदेश दिया। किन्तु उनके शरीरकी मलिन गन्धसे उसे घृणा हुई, और वह विचार करने लगी कि यदि ये साधु प्रासुक अलसे स्नान कर लिया करें, सो क्या हानि है ? उसने अपने इस दूषिन विचारका कोई आलोचन-प्रतिक्रमण नहीं किया। अतः मरनेपर वह राजगृहकी एक गणिकाके यहाँ उत्पन्न हुई। जन्मसे ही उसके Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना पारसे दुर्गन्ध निकलती थी, जिससे वह बनमें त्याग दी गयो । एक बार राजा श्रेणिक, भगवान् महावीरकी वन्दनाको जाते समय उसी वनसे निकले । दुर्गन्ध पाकर उन्होंने उसकी खोज करायी, और स्वयं जाकर उसे देखा । फिर भगवान्मे उसके विषय में पूछ-ताछ की। उन्होंने उसके शरीर में दुर्गन्ध उत्पन्न होने का कारण जानकर उसके भावी होनहारको बात पूछो । भगवान् ने कहा कि अब उसके पापका फल वह भोग चुकी अब वह तुम्हारी ही अग्रमहिपो होगी, और आठ वर्ष तुम्हारे साथ रमण करके पश्चात् जो करेंगी सो तुम जान लेना । राजा भगवान्को वन्दना कर अपने भवनको गये। उधर उम्र कन्याकी दुर्गन्ध दूर हो गयो, और एक अहीरने ले जाकर उसका पालन-पोषण किया। युवती होनेपर वह अपनी माता के साथ कौमुदी महोत्सव देखने गयो । राजा भी अपने पुत्र अभयकुमारके साथ वेष बदलकर उत्सव देख रहा था । कन्या के अकस्मात् स्पर्शसे उसकी कामवासना जागृत हो गयो, अतः उसने अपनी नामांकित मुद्रिका उसे पहना दी, और अभयकुमारसे कह दिया कि उनको नाममुद्रा किसीने चूरा की, अतः उसकी खोज की जाये। अभयकुमारने नगरके सब द्वार बन्द करा दिये और प्रत्येक मनुष्यकी जांच-पड़ताल करायी। वह बालिका मुद्रिकासहित पकड़ी गयो, और राजा के पास लायो गयो । राजाने उससे अपना विवाह कर लिया। एक बार राजा अपनी अन्य रानियों सहित जलक्रीड़ाको गया, और वह सुन्दरी उनकी नात्रको देखती रह गयी। इस प्रकार राजाद्वारा अपनेको परित्यक्त समझकर उसने प्रज्य ग्रहण कर की। इस प्रकारका तीसरा आख्यान जिनसेन - कृत हरिवंशपुराण ( शक सं० ७०७-७८५ ई० ) में पाया जाता है--भरतक्षेत्र, मगघविषयके लक्ष्मी ग्राम में लक्ष्मीमती नामकी सुन्दर कन्या थो। एक बार वह दर्पण में अपना रूप देख रही थी कि उसी समय भिक्षा के लिए समाधिगुप्त मुनिको आया देख उसे घृणा हो घठी, और वह मुनिको निन्दा करने लगी । इस महापाप के कारण सातवें दिन हो उसके शरीर में कुष्ठ व्याभि उत्पन्न हो गयो । कन्याने अग्नि प्रवेश द्वारा मरण किया। तत्पश्चात् उसने क्रमश: खरो, शूकरी और कुक्कुरीका जन्म ग्रहण किया। फिर वह मण्डूक्रग्राम निवासी मत्स्यजीवीकी पुत्री हुई। उसका शरीर दुर्गन्धमय होने से माताने तो उसका परित्याग कर दिया, किन्तु मातामहीने पाल-पोषकर उसे बड़ा किया। मुनिका संयोग होनेपर उसे धर्मोपदेश मिला। वह आयिकाओंके साथ राजगृह गयो और सिद्धोशिलाको वन्दना करके, नीलगुफामे समाधिस्थ हो, मरकर अच्युत स्वर्ग में महादेवी हुई। बहाँसे उतरकर वह राजा itsart eat feat हुई। यही कथानक महासेन कृत प्रद्युम्नचरित ( सर्ग ८ १४०-१६० ) तथा हरिषेण कृत कथाकोदा ( १०८ ) में भी पाया जाता है। इस कथानक में मुनिके निरादर से कुष्ठरोगको उत्पत्ति, नीच योनियों में जन्म तथा शरीर में दुर्गन्धका होना एवं धर्माचरण से उस गापका निवारण होकर स्वर्ग एवं उच्चकुक्रमें जन्मका फल बतलाया है । हरिषेणकृत बृहत्कथाकोश (५७), ( २३१ ई० ) तथा श्रीचन्द्रकृत अपभ्रंश कथाकोश ( संधि १९ २०, लगभग १०६० ई० ) में एक और कथा है अयोक रोहिणीकी, जिसके अनुसार हस्तिनापुर के समीप नीलगिरि पर्वतकी शिलापर मुनिराज यशोधर आतापन योग करते थे । उनके प्रभावसे वहकि मृगमारी नामक व्याघको कोई शिकार नहीं मिल पाता था। इससे क्रुद्ध होकर उसने जब मुनिराज भिक्षाको गये थे, तब उस शिलाको अग्नि जलाकर खूब तप्त कर दिया। मुनिराजने आकर उसी शिलापर शान्त भावसे समाधिमरण किया । इस पाप के फल से उस व्याधको कुष्ठ रोग हो गया, और वह असह्य वेदनासे सातवें दिन मरकर नरक गया । हाँसे निकलकर नाना तीच योनियों में भ्रमण करता हुआ वह जोब पुनः मनुष्य योनिमें आया, और गोपाल के रूप में उसी नीलगिरिके दावानलमें जलकर भस्म हुआ 1 उसी हस्तिनापुर में सेठ धनमित्र पूतिगन्धा नामक एक कन्या कारण कोई उससे विवाह नहीं करता था। संयोगवश उसी नगरके सेठ था एक बार वह चोरीके अपराध में पकड़ा गया। धनमिने उसे इस शर्तपर राजासे प्रार्थना कर छुड़वा उत्पन्न हुई, जिसकी उम्र दुर्गन्ध के सुमित्रा पुत्र श्रीषेण बड़ा दुराचारी Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० सुगंधदशमी कथा दिया कि वह उसकी उस दुर्गन्धा पुत्रोंसे विवाह करे। किन्तु विवाहके पश्चात् हो यह उसकी दुर्गन्धको न सह सकने के कारण भाग गया। दुर्गन्धाके दिन पुनः दुःखसे बीतने लगे । एक बार सुत्रता आर्थिक धनमित्र के घर आहारको आयो । दुर्गन्धाने भवितसे आहार दान दिया । नगर में मुनिसंघ आया । दुर्गन्धा भी मुनियोंकी वन्दना को गयी। मुनिने उसकी दुर्गन्धका कारण बतलाया कि पूर्वभव में वह गिरिनगर के सेठ गंगदत्तको सिन्धुमती नामक भार्या थी। एक बार सेठ-सेठानी दोनों राजाके साथ वन विहारको जा रहे थे कि समाधिगुप्त नामक मुनि आहार निमित्त आते दिखाई दिये । सेठने अपनी पत्नोको उन्हें आहार करानेके लिए वापस भेजा। सेठानीने क्रुद्ध हो मुनिराजको कड़वी तुम्बीका आहार कराया। उसकी वेदना से मुनिका स्वर्गवास हो गया । राजाको जब यह समाचार मिला तो उन्होंने उसे निरादरपूर्वक नगरसे निकाल दिया। उसे कुष्ठ व्याधि हो गयी, और वह सात दिनके भीतर मर गयी । वह नरकों में तथा कुत्तो, शूकरी, शृगालो, गधो आदि तोच योनियोंमें जन्म लेकर अन्ततः तु अब पूतिगन्धाके रूपमें उत्पन्न हुई है । अपने पूर्वभव का यह वृत्तान्त सुनकर पूतिगन्धाको बड़ी आत्मग्लानि हुई, और उसने मुनिराजसे पूछा कि उस पाप से उसे किस प्रकार मुक्ति मिले। मुनिराजने उसे रोहिणी व्रतका उपदेश दिया, जिसके अनुष्ठान से यह अंगदेशको चम्पानगरीके मघवा नामक राजाकी रोहिणी नामक राजकन्या हुई । मत्र वह यह जानती भी नहीं यो कि दुःख और शोक कैसा होता है । राजकन्या रोहिणी के पति अशोकका भो पूर्वभव मुनिराजने सुनाया । कनकपुरमें सोमभूति के पुत्र सोमशर्मा और सोमदत्त थे । पिताको मृत्युके पश्चात् सोमदत्त राजपुरोहित हुआ, जिसके कारण उसका ज्येष्ठ भ्राता सोमशर्मा उससे द्वेष करने लगा। उसके दुराचारको वार्ता से सोमदत्तको वैराग्य हो गया, और वह मुनि हो गया । अत्र सोमकर्मा राजपुरोहित हुआ। एक बार जब राजा सोमप्रभ विजय यात्रापर जा रहे थे तब उन्हें सम्मुख सोमदत मुनिके दर्शन हुए। इसे सोमशर्माने अपशकुन बताकर मुनिको मरवा डालने की सलाह दी | किन्तु राजाने अन्य ज्योतिषियोंसे यह जानकारी प्राप्त की कि मुनिका दर्शन अपशकुन नहीं किन्तु बड़ा शुभ शकुन माना गया है, जिससे कार्य में अवश्य सफलता प्राप्त होती है। हुआ भी ऐसा ही । तथापि सोमाने द्वेषवश गुप्त रूपसे मुनिका घात कर दिया। यह जानकर राजाने उसे दण्डित किया। सातवें दिन उसे ទ व्याधि हो गयी। दुःख से मरकर उसने अनेक बार नरकौमं तथा मत्स्य सिंह, सर्प, व्याघ्र आदि क्रूर पशुओं में जन्म लेकर अन्ततः सिंहपुर के राजा सिंहसेनका दुर्गन्धी शरीर युक्त पुत्र हुआ। एक बार मुनिराज से अपने पूर्वभवका यह वृत्तान्त सुनकर उसे धार्मिक रूचि उत्पन हो गयी, और रोहिणी व्रत के प्रभाव से वह उस मुनि हत्या के पाप से मुक्त होकर अशोक कुमार उत्पन्न हुआ । पुण्पास्त्र व कथाकोश ( ३६-३७ ) में भी यह कथानक आया है, और वह भी इसी कथाकोशपर आधारित प्रतीत होता है। कथाकोश के अन्तर्गत रोहिणी चरित्रके उपर्युक्त तीनों उपनों में मुनि धातके पासे कुष्ठ रोगकी उत्पत्ति, नरक -गति, नीच योनियों में परिभ्रमण, और अन्तत: धार्मिक आचरण द्वारा उस पापका परिमार्जन, सुगति और सुखोंकी प्राप्ति के उदाहरण उपस्थित किये गये हैं। उपर्युक्त समस्त कथानकोंके मिलानसे इस बात में सन्देह नहीं रहता कि प्रस्तुत सुगन्धदशमी कथाका सबसे निकटवर्ती आचार रोहिणी का पूर्व भववृत्तान्त ही है । प्रस्तुत सभो कथानकों में मुनिनिन्दा या विरादरके पापसे कुछत्र्याधि व दुर्गन्धित शरीरको उत्पत्ति के अतिरिक्त दूसरा प्रबल तत्व है, नोच योनियोंकी दीर्घ परम्परा । महाभारत के मत्स्यगन्धा सम्बन्धी आख्यान में वह परम्परा दूसरे जन्मसे आगे नहीं बढ़ी। किन्तु विष्णुपुराण (३,१८ ) में एक ऐसा आख्यान भी आया है, जिसमें नोच योनियों को एक लम्बी शृंखला दिखलायी गयी है। एक समय राजा शतधनु और उनकी रानी शैम्या गंगा में स्नान करके निकले हो ये कि उन्हें अपने सम्मुख एक डोके दर्शन हुए, जो राजाके Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना घनुबंदी आचार्यका मित्र था। अन: राजाने उससे पोरवपूर्ण मित्रवत् व्यवहार किया। इस पापके फलसे वह मरकर क्रमशः शृगाल, वृक, गुध्र, व्याल व मयूर हमा। प्रत्येक जन्ममें उसकी पतिव्रता पत्नीने उसके पूर्वजन्मोंका स्मरण कराया, जिससे पाषण्डोके साथ सद्ध्यवहारका घोर पाप क्रमश: क्षीण होते-होते वह मयूरके जन्ममें राजा जनकके अश्वमेध यज्ञमें जा पहुँचा । उन्होंने यज्ञानुष्ठानसम्बन्धो अघभूषस्नानके समय उसे भी स्नान कराया, जिसके पुण्यसे वह अगले जन्ममें स्वयं राजा जनकका पुत्र हुआ 1 वैदिक परम्परा के पुराणों में विष्णुपुगण अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन माना जाता है; अतः महाभारतके समान इस पुराणके वृत्तान्तका प्रभाव भो पूर्वोक्त जैन-पानोपर पड़ा हो तो आश्चर्य नहीं। ४. कथाका उत्तर भाग प्रस्तुत सुगन्धदशमी कपाका दूसरा भाग, जो दूसरी सन्धिमें वर्णित है, अपनो मौलिकता और रोचकलाको दृष्टिरो विशेष महत्त्वपूर्ण है। सुगन्धदशमी अतके पुण्पसे दुर्गन्धा अपने अगले जन्म में रत्नपुरके सेठ जिनदत्तको रूपवती पुत्री तिलकमत हुई। किन्तु उसका पूर्वकृत कुछ पाकर्म अभी भी भोगनको शेष रहा था । अतः जन्म के कुछ ही दिन : जसको परकरेगह होगा। पिताने तिवाह किया, और उससे भी एक कन्या उत्पन्न हुई तेजमती। सौतेली मां अपनी पुत्री को बहुत प्यार करती, और तिलकमतीसे उतना ही द्वेष । इस कारण इस कन्याका जीवन बड़े दुःखसे उप्रतीत होने लगा । युवावस्था प्रायी और पिताको कन्याओंके विवाहको चिन्ता हुई 1 किन्तु इमी समय उन्हें वहाँके नरेश कनकप्रभका आदेश मिला कि वे रत्नोंवो स्वरीद के लिए देशान्तर जायें । जाते समय सेठ पत्नीसे कह गया कि सुयोग्य वर देखकर दोनों कन्याओंका विवाह कर देना । जो बर आते वै लिलकमतीके रूपपर मुग्ध होकर, उसीकी याचना करते । किन्तु सेठानी उसको बुराई कर अपनी पुत्रीको हो आगे करती, और उसी को प्रशंसा करती। तो भी बरके हठसे विवाह तिलकमतीका ही पका करना पड़ा। विवाह के दिन सेठानी सिलकमतीको यह कहकर श्मशानमें बैठा आयो कि उनको कुल-प्रथाके अनुसार उसका वर वहीं आकर उससे विवाह करेगा। किन्तु घर आकर उसने यह हल्ला मचा दिया कि तिलकमती कहीं भाग गयो । लग्नको वेला तक उसका पता न चल सकने के कारण वरजा विवाह तेजमतीके साथ कराना पड़ा। इस प्रकार कपटजालद्वारा सेशानीने अपनी इच्छा पूरी की। उधर राजाने महलपर चढ़कर देखा कि एक सुन्दर कन्या घोर रात्रि में श्मशानमें अकेली बैठी है। वह तुरन्त उसको पास गया और पूछ-ताछ कर व सब बात जान-समझकर उसने स्वयं उससे अपना विवाह कर लिया। पूछनेपर राजाने अपना नाम पिण्डार ( बाल-महिषोपाल ) बतलाया और यही नाम कन्याने अपनी सौतेली माको भी बतला दिया । एक पृथक् गृहमें उसके रहनेको व्यवस्था कर दी गयो । राजा रात्रिको उसके पास आता, और सूर्योदयसे पूर्व ही चला जाता । पतिने रन जटित बस्त्राभूषण भी उसे दिये, जिन्हें देख सेठानी घबरा गयो कि निश्चय हो उन्हें उसके पति ने राजाके यहाँसे चुराकर उसे दिये होंगे। इसी धीच सेंट भो बिदेशसे लोट आये और सेशानीसे सब वृत्तान्त सुनकर राजाको खबर दी। राजानं चिन्ता व्यक्त को, और सेठको अपनी पुत्रोसे चोरका पता प्राप्त करने का आग्रह किया। पुत्रीने कहा मैं तो उन्हें केवल परणके स्पर्शसे पहचान सकती हैं। अन्य कोई परिचय नहीं है। इसपर राहाने एक भोनका आयोजन कराया, जिसमें सुगन्धाको आँखें बांधकर अभ्यागतोंके पैर घुलाने का कार्य सौंपा गया। इस उपाय से राजा ही पकड़ा गया । तब राजाने उस कन्यासे विवाह करनेका अपना समस्त वृत्तान्त कह सुनाया, जिससे समस्त वातावरण अानन्दसे भर गया । इस प्रकार मुनिके प्रति दुर्भावके कारण जो राती दुखो दरिद्री दुर्गन्धा हुई थी, वही सुगन्धदशमी व्रतके पुण्य से पूर्वोक्त पापको धोकर पुनः रानी बन गयी । ५. फ्रेन्स और जर्मन कथाओंसे तुलना इस कथा प्रसंगमें महा सिन्ट्रेला नामक अंगरेजीकी एक कहानीका स्मरण आ गया, जिसे मैंने Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगंधदशमी कथा अपने स्कूलके दिनों में पढ़ा था। अच खोजनेपर यह कहानी मुझे "दि स्लीपिंग ब्यूटी एण्ड अदर फेयरी टेल्स फाम दि ओल्ड फ्रेंच, रिटोल्ड माई ए. टी. विचलर-को उच", नामक कथा संग्रहमें मिल गयी । इस ग्रन्थके आविमें कहा गया है कि ग्रन्थकारने प्रस्तुत कथानक फ्रेंच भाषाके के बिने डे फो' नामक कथा-कोशके इको सगों में के मशः मासे लिया है। उसके कता बार्स पेरोल्टका जीवन-काल सन् १६२८ से १७०३ तक माना गया है। संक्षेपतः यह कथानक इस प्रकार है एक धनिकको एक सुन्दर कन्या थी। उसके बचपन में ही उसकी माताकी मृत्यु हो गयी। पिताने दूसरा विवाह किया । इस पत्नौके साथ उसकी पहलेकी दो पुत्रियां भी आयौं। सौतेली माँको अपनी सौतेली पुत्रीसे बड़ा प हमा, क्योंकि उसके समक्ष उसको वे दोनों पुत्रियाँ रूप और मुणोंमें बहुत फोकी पड़ती थीं । मा उस सौतेलो लड़कीसे घरका सब काम-काज कराती, उसे फटे-पुराने कपड़े पहनाती तथा सूखा-रूखा खानेको देती। किन्तु वह अपनी दोनों पुत्रियोंको खूब सज-धजसे रखती, और उनकी भी चाकरी उस सौतेली लड़कीसे कराती । इस लड़की को जब घरके सब काम-काजसे कुछ अवकाक्षा मिलता, तब वह घरके एक कोनमें जहाँ कोयला रखा जाता था, जाकर पड़ आती थो। इसीसे उसका नाम "सिन्ड्रेला' पड़ गया। (सिंडर- कोयना )। एक बार उस नगरके राजकुमारने नस्पोत्सवका आयोजन किया, जिसमें राज्यके समस्त धनी-मानी सिमन्त्रित थे। धनिककी दोनों युवती कन्याओंको भी निमन्त्रण मिला, और वे खूब ठाठ-बारसे नियत समयपर मृत्योरसबमें पहुँचीं। किन्तु उस बेचारी सौतेली लड़की को अपनी उन बहिनोंकी तैयारीका काम तो खूब करना पड़ा, परम्नु उत्सवमें जानेका उसका भाग्य कहाँ ? वह अपने उसी गन्दे कोने में बैठ सिसकसिसककर रोने लगी। रोते-रोते अर्धचेतसी अवस्यामें जब उसने आँखें पोंछकर देला तो अपने सम्मुख एक दिव्य मूर्तिको खड़ा पाया । उसने बड़े प्यार से पूछा, "बेटी, रोती क्यों है ? तू क्या चाहती है ?" इस प्यारकी शेलीसे सिन्ड्रेलाका गला और भो मैंघ गया और वह कुछ भी बोल नहीं सकी । तच देवीने स्ययं पूछा, "क्या दू राजकुमारके नुत्योत्सबमें जाना चाहती है ?" सिन्ड्रेलाके है। कहनेपर देवी ने अपनी जादुको छड़ोसे छूकर एक कुम्हड़ेको सुन्दर गाड़ी का रूप दे दिया, नहोंके घोड़े और प्यादे बना दिये, और कन्याके मेले-कुचले वस्त्रों को सुन्दर बहुमूल्य वेशा व रत्नमय आभूषणोंमें बदल दिया । सिन्ड्रेलाका रुप-सौन्दर्य अच किसी भी राजकन्यासे होन नहीं रहा । दिव्य रूप व वेश-भूषा तथा रामोचित वैभवके साथ सिन्ड्रेला नृत्योत्सवमें गयो । उत्सवमें राजकुमार सिन्ड्रेलाकी ओर ही सबसे अधिक आकृष्ट हुआ । उसने उसोका सर्वाधिक आदरसत्कार किया और उसी के साथ बहुलतासे नृत्य भी किया। अकस्मात् ज्योंही सिन्ड्रेलाने पीने बारह बजे रात्रिकी घण्टी सुनी, स्योंही वह लौटने के लिए अधीर हो उठो, क्योंकि देवीने उसे खूब सचेत कर दिया था कि उसका वह दिव्य वैभव अर्धरात्रिके पश्चात् नहीं ठहरेगा। वह राजकुमारसे तुरन्त एटा लेकर तथा उसके आग्रह करने पर पुन: दूसरे दिन नृत्योत्सबमें आनेका वचन देकर, अपनी बहिनोंके लौटनेसे पूर्व ही घर आ गयी, तथा अपनी फटी-गुरानी वेश-भूषामें उनके आनेको प्रतीक्षा करने लगो । दूसरे दिन पुनः उसी प्रकार, किन्तु उससे भी अधिक सजधनके साय यह नृत्योत्सबमें पहुँचो । आज राजकुमारने अपना सारा समय उसीके साथ व्यतीत किया । यह भी इतनी तल्लीन हो गयो कि उसे अर्धरात्रिसे पूर्व भर लोटन का ध्यान ही न रहा । अकस्मात् जब पूरे बारह बजेकी घण्टो बजनी प्रारम्भ हुई तब वह सचेत हुई और घबराकर तुरन्त वहाँसे भागी। उस जल्दी में उसके परका एक कात्रका जूता निकलकर वहीं रह गया, जिसे राजकुमार ने बड़े चासे उठाकर अपने पास रख लिया। ____ अब घर लौटने के लिए सिन्छे लाके पास न वे गाड़ी-घोड़ा थे और न प्यादे । उसकी पोशाक भी अपने स्वाभाविक मैले-कुचले कपड़ों में बदल गयी थी। रात अंधेरी, मार्ग बहुत पथरीला और ऊपरसे घनघोर Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसाधना १३ वृष्टि । अतः वह बड़े कष्टसे अपने घर पहुँच पायी । सौभाग्यसे उसकी बहिनोंकी गाड़ोका एक चाक निकल पड़ा था, जिससे वे भी बहुल विलम्बसे आयों और सिन्ड्रेला उनके कोपके प्रसादसे बच गयो। सिन्ड्रेलाके लौटनेपर उसकी वह देवी माता सम्मुख वा उपस्थित हुई, और बोली "बेटो तूने मेरी बातका ध्यान नहीं रखा, जिसके कारण तुझे इतना क्लेश भोगना पड़ा। अच्छा, यह जो तू अपनी छातीमें छिपाये हुए है, वह क्या है ?" सिन्ड्रेलाका यह दिग्ध बेश तो बदल गया था, किन्तु न जाने क्यों उसने अपनी वह बची हुई कांचकी एक जूती अपनी अंगियामें छिपाकर रख ली थी, और वह अभी भी ज्योंकी त्यों बनी हुई थी। उसे देखकर देवी ने कहा, "अच्छा यह एक तो है, पर इसकी जोड़ी कहाँ है?" सिन्ड्रेला घबरायो। किन्तु देवी ने कहा, "भला तुम असावधान तो हो, परन्तु जो मेरो देनको इसनो निशानो बचा ली है, वही तुम्हारे भाग्यको विधायक होगी।" इतना कहकर देवो अदृश्य हो गयो । उघर दूसरे ही दिनसे राजकुमार याकुल होकर खोज करने लगा-यह कांच की जूसी किसके पैरफी है ? उसने घोषणा करा दी कि जिसके परमैं वह जूसी लोक बैठ जावेगी, वही उसकी प्रिम रानी होगी। क्रमशः एकसे एक राजकुमारियों व अमीरों-जमोदारों व सेठ-साहूकारोंकी कन्याओंने अपने-अपने भाग्यको परीक्षा की, किन्तु बह जूती किसोके भी परमें ठीकसे नहीं बैठो। सिन्ड्रेलाकी दोनों सौतेली बहिनोंकी भी बारी आयी, किन्तु उन्हें भी निराश होना पड़ा 1 सिन्ड्रेला देख रही थी। उसने कहा, "क्या में भी प्रयत्न करू ?" इसपर उसको बहिनें हंस पड़ी । किन्तु राजपुरुषने कहा, "मुझे इस जूतीको सभी युवतियों के पैरमें पहनाने का आदेश है, इसलिए तुम भी इसे पहनकर देखो।" सबके आश्चर्यका ठिकाना न रहा जब सिन्ड्र ला. का पैर खटसे उस जूतीमें भली प्रकार बैठ गया। यही नहीं, उसने अपनी कमियामे-से उसके जोड़ा जूती निकालकर अपने दूसरे पैरमें पहन ली । अब कोयलेके कोने में रहने वाली सिन्ड्रेला राजमहलको रानी बन गयी। यही कथानक जर्मनी में कुछ हेर-फेरके साथ लोक प्रचलित पाया जाता है। ऐसी लोक-कथाओंका एक संग्रह जेकब लुडविक कार्ल निम ( १७८५-१८६३ ) कृत 'दि किंडर उण्ड हाउसमार्खन' को तोच जिल्दी में प्रकाशित हआ था. जिसका अमवाद अंगरेजीमें 'निम्त टेल्स' में पाया जाता है। इस संग्रह में अश्पुटैलकी कहानीका सार यह है एक धनिककी पत्नीने मरते समय अपनी एक मात्र पुत्रोको पास बुलाकर कहा - "बेटी, तुम सदा भली रहना, मैं स्वर्गसे भी तुम्हारो देख-रेख करूंगी।" माताको मृत्युके पश्चात् पुत्रो प्रतिदिन उसके श्मशान पर जाकर रोया करती थी। ___ उसके पिताने शीघ्र ही दूसरा विवाह कर लिया। इस नयो पलीको पहलेसे दो पुत्रियां थीं, जो देखने में सुन्दर, किन्तु हृदयसे बहुत मैली थों। वे अपनी सौतेली बहनसे घृणा करतो, उससे घरका सब काम. काज करातों, और रूला-सूस्खा खानेको देती थीं । वह रसोईघरके राखके उरके पास सोया करती थी, जिससे उसका नाम अश्पुटैल पड़ गया । एक बार वह पनिक किसी मेलेमें जा रहा था। उसने अपनी पुत्रियोंसे पूछा कि वे मेलेसे क्या मंगाना चाहती है। एकने अच्छसे अच्छे घस्त्र और दूसरीने हीरा-मोती लाने को कहा। अपुटेलसे पूछनेपर उसने कहा-"पिताजी, जब आप घर लौटने लगे, तब जो वृक्षको डाल आपके टोगसे उलझ जाये, उसे ही मेरे लिए लेतं आइए, जस मुझे और कुछ नहीं चाहिए।" घनिफने वैसा ही किया। घोड़ेपर सवार होकर लोटले समय एक झुरमुट के इनमें उसके टोपसे हैजल ( IIazel ) वृक्षको डाल टकरायी । इस उसे हो तोड़ कर रह अपनी अमपुटेल के लिए लेता आया । अट्पुटैलने उसे ले जाकर अपनी मा के श्मशान पर लगा दिया, तपा रो रोकर उसे अपने आंसुओंसे सौंच डाला ।। कुछ समय पश्चात् यहाँके राजाने एक तीन दिनका उत्सव मनाया, जिसमें राजकुमारका स्वयंवर भी होना था। अश्पुटलकी दोनों बहिनोंको उस उत्सबमें जाना था, अतएव अश्पुटलको उनके बालोंकी कंघी Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगंधदशमी कथा करनी पड्नी, उनके जूतोंगर पालिश भी करनी पड़ी, तया उनको पोशाककी साज-सम्हाल भी करनी पड़ी। अश्पुटलने अपनी मासे अपने जाने की भी इच्छा प्रकट की। सौतेली माने उसे टालने के लिए कहा, "अच्छा मैं इन कुंडे भर मटर के दानोंको उस रास्तके ढेर में मिला देती हूँ, यदि तुम उन्हें दो घण्टोंके भीतर चुनकर अलग कर लोगो, तो मैं तुम्हें भी स्वयंवर में जाने दूंगी।" अपुटैलने यह शर्त स्वीकार कर ली, और अपने साथी कबूसरों व अन्य पक्षियोंकी सहायतासे उस कामको एक घण्टे में ही निपटा दिया। किन्तु माने फिर कहा, "नहीं, नहीं, तुम्हारी पोशाक बहुत मलिन है, अतः मैं तुम्हें राजोत्सबमें न जाने दूंगी।" अश्पुटेलके पुनः आग्रह करनेपर उसने कहा, "अच्छा, मैं अब दो कुण्डे मटरके दानोंको रासके ढेरमें मिलाती हूँ, यदि तुम एक घण्टेमें इन्हें चुन लोगी, तो मैं तुम्हें भी जाने दूंगी।" अश्पुटलने कबूतरोंकी सहायतासे यह कार्य भी पूरा कर लिया । किन्तु सौतेली माँका हृदय फिर भी न पसीजा । अन्तमें उसने यह कह कार उसे बिलकुल मना कर दिया कि तुम्हारा वहां जाना बिलकुल निरर्थक है । तुम्हारे पास न तो अच्छी पोशाक है, और न तुम्हें नाचना ही आता है । अतएव तुम्हारे वहां जानसे हम सबको लज्जित होना पड़ेगा। सब राजोत्सव में चले गये, और बेचारो अश्पुटैल अपनी माताकी श्मशान भूमि पर जाकर उस हैजलके वृक्षके नीचे फूट-फूटकर रोने लगी। और गाने लगो - हिलो हिलो तुम हैजष्ट वृक्ष । 'चाँदी सोना बरपे स्वच्छ ॥ इस पर उसके मित्र पक्षाने वृक्षसे उड़कर उसे चोदी-सोनेको पोशाक और रेशमको जूतिया ला दी । उन्हें पहिनकर अश्पुटैल भी स्वयंवर उत्सवमें जा पहुँची। उसकी बहिनों ने उसे देखा, किन्तु वे पहिचान न सकी। उन्होंने समझा वह कोई राजकुमारी होगी। उत्सबमें राजकुमारने अश्पुटल को ही अपने साथ नृत्य करने के लिए चुना, और अन्त तक उसका हाथ न छोड़ा । बहुत रात गये जब वह घर जाने लगी तब राजकुमारने स्वयं उसके साथ जाकर घर पहुँचा देने की इच्छा प्रकट की । किन्तु इस बात से अश्पृटंल बहुत घबराया, और राजकुमारको आँख बचाकर वहाँसे निकल भागी। दूसरे दिनके उत्सवमं भी अशुटैल उसी भांति सुसज्जित होकर पहुंची। आज राजकुमारने निश्चय कर लिया कि वह उसका साय कभी न छोड़ेगा। उत्सवसे विदा होते समय वह उसके साथ हो गया। किन्तु घरके पास पहुंचने पर वह राजकुमारकी आँखे बचाकर छगोचेमें छिप गयी, और चुपके चुपके अपने स्थान पर जा पहुँची। परन्तु राजकूमारने निश्चय कर लिया था, अतएव वह वहीं डटा रहा। अश्पटलके पिताके लौट आने पर राजमारने उससे कहा कि उसकी प्रिया उसी बगीचे में कहीं छिप गयी है। दोनोंने मिलकर बहुत हूंढा, किन्तु उसका पता न चला। तीसरे दिन और भी अधिक सुसज्जित होकर अपुटल उत्सबमें पहुँची। सबको दृष्टि उसीके अनुपम सौन्दर्य और अपार वैभव की ओर थी। राजकुमारने आज पसभर के लिए भी उसका साथ न छोड़ा । जाते समय पुनः उसका पीछा किया। तथापि अपने घरके समीप पहुँचकर अश्पुटैल अदृश्य हो गयो । किन्तु घबराहट में उसके पैरकी एक जूती पैर से निकलकर गिर पड़ी। इस सुवर्णजटित जूतीको राजकुमारने अपने पास रख लिया, और अपने पिताके पास जाकर कहा कि जिसके परमें यह जूती. ठोक बैठ जायेगी, उसीसे मैं अपना विवाह करूंगा । जिस घर में उसकी सुन्दरी प्रिया अदृश्य हुई थी, वह घर तो उसे विदित पा हो । अतः वह जूती उसी घरमें लायी गयो। पहले बड़ी सड़कोने अपना भाग्य आजमाया किन्तु उसके पैरका अंगूठा इतना बड़ा था कि वह जूतीमें किसी प्रकार समाता ही नहीं था। तत्र उसको माने उस अंगूठेको कटवा दिया, और जूती पहनाकर उसे राजकुमारके सम्मुख उपस्थित किया। राजकुमार घोडेपर बैठाकर उसे अपने साथ ले जाने लगा। जब वे उस हेजल वृक्षके समीपसे निकले, तब उसपर बैठा परेवा पक्षी गाने लगा Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना लौटो लौटो राजकुमार । देखो जूती खूब निहार ।। दो अपनी पत्नी प्यारी ! यह रानी नहीं ताहारी ॥ यह सुनकर राजकुमार लोट पड़ा, और उसे ल सके धर उतार दिया, अब माताने अपनी दूसरी पुत्रीके पैरमें उस जूतोको पहनानेका प्रयत्न किया, उसकी एड़ी इतनी बड़ी थी कि वह जूती में नहीं बैठ सकी। तथापि रानी बनाने के लोभसे माने उसे जबर्दस्ती जूती में ढूंस दिया, जिससे एड़ी लहू-लुहान हो गयी । राजकुमार उसे अपने घोड़ेपर बैठाकर ले चला। किन्तु उस हैजल वृक्षसे पुनः वहीं गानेकी ध्वनि सुनायी यो । अतएव राजकुमार फिर लोट पड़ा । लाचार होकर अबकी बार अश्पुटेलके पैरमें जुती पहनायी गयो। यह खटसे ठोक बैठ गयी। उसे लेकर जब राजकुमार हैजल वृक्षके समीपसे निकला तो उसे सुनायी पड़ा अब घर जाभी राजकुमार । खूब को रानीसे प्यार ॥ इतना गाकर वह कपोत पक्षी उहकर उस सुन्दरी के कन्धे पर आ बैठा । वे सब जाकर राजमहलमें प्रविष्ट हुए। इन फेंच और जर्मन दोनों कथाओंमें परस्पर बहुत-सी बातोंमें भेद होने पर भी उनमें निम्नलिखित तत्व समान रूपसे विद्यमान है - एक धनी गृहस्थ, उसकी पत्नी और एक पुत्री । पत्नीके देहान्त हो जाने पर धनीका पुनर्विवाह व नयी पत्नीकी अपनी दो पुत्रिया । इस पलोका अपनी दो पुत्रियोंसे प्यार, और उस सौतेली लड़कीसे दुग्यवहार । राजमहल में उत्सव । सौतेली लड़कोकी अवहेलना, किन्तु एक अदृश्य शक्ति (उसकी मृत माताको आत्मा )-द्वारा उसकी सहायता । दर्शन-मात्रसे राजकुमारका उसकी ओर आकर्षण, और उसको खोजबीन । सौतेली मांफा अपनी पुत्रियोंको रानी बनानेका निष्फल प्रयास । अन्ततः सौतेली लड़को का भाग्योदम और राजमहलकी रानी के रूपमें प्रबंया । ये समस्त तत्त्व प्रस्तुत सुगन्धदशमो कथाके द्वितीय भागमें विद्यमान हैं, और जो भेदकी बातें हैं, वे भारतीय और यूरोपीय सम्यता व संस्कृति के बीच भेदसे सम्बन्ध रखती है। यूरोपीय कथाओंमें धनिकने अपनी पूर्व पत्नीको मृत्यु होने पर एक ऐसी महिलासे विवाह किया, जिसकी पहले से ही दो पुत्रियों भी। यह बात भारतीय स्वस्य परम्पराके अनुकूल नहीं 1 अतएव यहाँ दूसरा विवाह हो जाने के पश्चात् एक पुत्रो उत्पन्न होनेकी बात कही गयी है । उसो प्रकार राजोत्सवका आयोजन, उसमें उन कन्याओंका जाना रामकुमारके साथ नृत्ल करना, तथा जूती के द्वारा राजकुमारको सच्ची प्रेयसीका पता लगाया जाना, यह सब भी यूरोपीय परम्पराके अनुकूल है, भारतीयताके अनुकूल नहीं। दूसरी बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि यूरोपीय दोनों कथाओंमें उस सोसेली कन्याके दुर्भाग्यको पलटनेके लिए बहुत कुछ देवो चमत्कारका आश्रय लिया गया है। किन्तु उक्त भारतीय कथानकमें कहीं भी किसी अप्राकृतिक तत्त्वकी योजना दिखाई नहीं देतो। सर्वत्र ऐसो स्वाभाविकता है जो कभी भी कहीं घटित हो सकती है। यहाँ जुती-वारा पत्नीकी पहचान नहीं, किन्तु पत्नी-द्वारा पतिके चरण स्पर्शसे उसकी पहचान करायी गयी है। वह भारतोय संस्कृतिका अपना असाधारण लक्षण है, जो यूरोपीय रीति-रिवाजके अनुकूल नहीं । उन्त सांस्कृतिक तत्त्वोंको पृथक् करके देखने पर हमें यह प्रतीत हुए बिना नहीं रहता कि सम्भवतः यूरोप और भारतके बीच इस कथानकका आदान-प्रदान हुआ है । मैक्समूलर व हटेंक आदि अनेक विद्वानोंने यह सिद्ध कर दिखाया है कि भारतीय कथाओंका अटूट प्रवाह अति प्राचीनकालसे पश्चिमकी ओर प्रवाहित होता रहा है, जिसके फलस्वरूप वेदकालीन, जातकसम्बन्धी तथा पंचतन्त्र, हितोपदेश व कथासरित्सागर आदि भारतीय आख्यान साहित्यमें निबद्ध अनेक लोक-कथाएं पाश्चात्य देशोंमें जाकर, वहाँके वातावरणके अनुकूल हेर-फेरसहित प्रचलित हुई पायी जाती है। उक्त यूरोपीय कथाके सबसे प्राचीन लेखक पास परोल्टका जीवन काल सन् १६२८ से १७०३ तक माना गया है । उनसे पूर्व इस कथानकके यूरोप में प्रचलित होनेका कोई प्रमाण हमारे सम्मुख नहीं है। इसको तुलनामें भारतकी सुमन्यदशमी कथाको परम्परा Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगंधदशमी कथा अति प्रायोन है । इसका मराठी अनुवाद जिनसागर-द्वारा सन् १७२४ के लगभग, संस्कृत अनुवाद श्रुतसागरद्वारा व गुजरातो अनुवाद जिनदास-द्वारा सन् १४५० के लगभग, एवं अपभ्रंशको मूल रचना सन् ११५० ६० के लगभग हुई पायी जाती है। अत: कोई आश्चर्य नहीं जो भारतीय अन्य कथाओंके सदृश इस कथाका भी देशान्तर-गमन हुआ हो, जिसका प्रसार-क्रम गवेषणीय है। ६. कथाका उत्तरकालीन प्रभाव सुगन्धदशमी कथाका प्रभाव उससे उत्तरकालीन कथा-साहित्यपर पर्याप्त मात्रामें पड़ा दृष्टिगोचर होता है। उदाहरणार्थ-हरिभद्रकृत लम्मत्तसत्तसि (सम्यक्त्वसप्तति ) नामक ७० गाथात्मक एक रचना है, जिसपर गुणशेखर सुरिके शिष्य संघतिलक सूरिने वि० सं० १४२२ ( सन् १३६५ ) में एक मुविस्तृत टीका लिखी है। इस टीकामें उदाहरण रूपसे बोस कथाओंका समावेश पाया जाता है, जिसमें देव-गुरु यावृत्यके उदाहरणमें 'आरामसोहा' नामक प्राकृत गद्यात्मक कथा ( सूरियपुर, वि० सं० १९९७ ) यहाँ ध्यान देने योग्य है - चम्पा नगरीमें कुलघर नामक सेठ और उसकी कुलानन्दा पत्नी रहते थे। उनके कमलश्री आदि सात पुत्रियोंके पश्चात् आठवों कन्या उत्पन्न हुई। उस समय सेठको सम्पत्ति नष्ट हो जानेसे वे दुखी रहते थे। इसीसे इस कन्याका नाम निभंगा पड़ गया । यवती हो जाने पर भी उसके विवाह का सेठ कोई प्रबन्ध नहीं कर पाता था जिससे वह चिन्तित रहने लगा। अकस्मात् एक दिन कोई नवागन्तुक उनके द्वारपर कुछ पूछताछ के लिए आ उपस्थित हुआ। सेठन उसे लोभ देकर अपनी पुत्रीसे विवाह करनेके लिए राजी कर लिया। वह चोल देशसे आया था, अतः वहीं जानेके लिए सेटने उसे अपनी पुत्रीसहित केवल मार्गके लिए मुछ सम्बल देकर विदा किया। उज्जैन में आकर उसने विचार किया कि उनके पास मार्गमें दोनोंके खानेपीने योग्य सामग्री नहीं है। अत: वह अपनी वधूको वहीं स्पेती छोड वर से चल दिया। जागने पर निर्भगा विलाप करने लगी। उसो समय मणिभद्र सेठने वहाँ पहुँच कर उसे आश्वासन दिया और अपने घर ले आया । यहाँ वह घरका काम-काज तथा मन्दिर में धर्म कार्य घड़ी श्रद्धापूर्वक करने लगी। मन्दिरका मूस्खा उद्यान भी उसने अपने परिश्रमसे हरा-भरा कर लिया। अन्तत: परकर वह स्वर्गमें गयो । स्वर्ग में अपनी आयु पूर्ण कर निर्भगा भारतवर्ष में कुसट्ट देशवतीं 'बलासभ' नामक ग्राममें अग्नि शर्मा ब्राह्मणकी पत्नी अग्निशिखाके गर्भसे विद्युत्नभा नामक कन्या उत्पन्न हुई । आठ वर्षकी आयुमें उसकी माताका देहान्त हो गया, और उस छोटी सी बालिकाके ऊपर ही घरका सब काम-काज आ पड़ा। उसका बोझ हलका करने के निमित्त पिताने दूसरा विवाह किया, जिससे एक और कन्याका जन्म हुआ। यह विमाता विद्युप्रभासे अच्छा व्यवहार नहीं करती थी। अतः उसका भार हलका नहीं हुआ, बस्कि दुगुना हो गया, जिससे कन्या अपने दुर्भाग्यको दोषी ठहराने लगी । एक दिन वह सदैवकी भांति अपनी मौओंको चराने ले गयी थी। मध्याह्न हो गया, और वह ऐसे स्थानपर पहुँच गयी जहाँ वृक्षको छामा भी उपलब्ध नहीं थी। वह थक कर धूपमें ही लेट गयी । उसो समय एक काला नाग नहाँ मा पहुँचा, जिसने मानवो भाषामें उसे जगाया, और अपना पीछा करने वाले गारुडिकसे रक्षाके लिए अपनी गोद में आश्रय देनेकी प्रार्थना की। कन्याने वली किया । गाडिकोंके चले जाने के पश्चात् उस नागने अपना दिव्य रूप प्रकट किया, और कन्यासे वरदान मांगनेको कहा । उसने केवल गौओंको चराने की सुविधाके लिए अपने ऊपर छाया प्राप्त करनेकी इच्छा प्रकट की। नागदेवने उसके ऊपर एक सुन्दर उद्यानका निर्माण किया जो उसके साथ-साथ उसकी इच्छानुसार गमन करे। इसके अतिरिक्त उसने यह मो वरदान दिया कि जब भी उसपर कोई विपत्ति पड़े, या साहाय्यके लिए उसका स्मरण करे, तभी वह आकर उसको रक्षा व इच्छापूर्ति करेगा। इन वरदानोंसे उसके दिन सुखपूर्वक बीतने लगे। एक दिन विद्युत्प्रभा गोश्रोंको चराकर मध्या हमें उसी माया-उद्यानकी छाया विश्राम कर रही थी, Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना Pro तभी पाटलिपुत्रका राजा जितशत्रु विजय यात्रा निमित अपनी चतुरंगिणी सेनासहित वहाँसे निकला, और उस सुन्दर उद्यान में ही अपना पड़ाव डालकर विश्राम करने लगा। सैन्यके कोलाहरूले जाकर कन्या अपनी गौमों को देखने चल पड़ी। उसके साथ वह उद्यान भी चल पड़ा। इस आश्चर्य से प्रभाधित होकर राजा था। उसके मन्त्रीने परामर्श कर उससे पूछताछ की और उसका समस्त वृतान्त जानकर उसके पिताको बुलाकर उसकी अनुमति से उस कन्या के साथ अपना विवाह कर लिया । उद्यान के अतिशय के प्रसंग राजाने अपनी इस नयी वधूका नाम आरामशोभा रखा। अपनी सौतेलो पुत्रो के इस सोमाभ्यसे उसकी विमलाके चित्तमें ईर्ष्या और विद्वेषकी अग्नि भड़क उठी और उसने सोचा कि यदि किसी प्रकार उसकी मृत्यु हो जायें, तो राजा उसकी औरस कन्याको हो कदाचि अपनी रानी बना ले। इस आशा से उसने विष मिश्रित मोदक बनाये, और इन्हें अपने पति के हाथों आरामशोभाको खानेके लिए भेजा। किन्तु जब वह विश्वास कर रहा था, तब उस नागद्देघने इस वृसान्तको जामकर, उन दिपम मोदकोंके स्थान पर अमृत मोदकोंसे उस पात्रको भर दिया। उन मोदकोंको राजभवन में बड़ी प्रशंसा हुई। घर लौटने पर उससे सब वृत्तान्त सुनकर, उसकी पत्नीको बड़ी निराशा हुई । उसमे दूसरी बार हाळाहम विवमिश्रित फेनियोंकी पिटारी भेजी, जिसे पूर्ववत् उस नागदेवने अमृतफेनोसे बदल दिया । तृतीय बार तालपुट विषयुक्त मांडे भेजे गये, जो पुनः नागदेव के प्रसादसे अमृतमय होकर राजभवन में पहुँचे । पत्नी के निर्देशानुसार इस बार ब्राह्मणने अपनी गर्भबलो पुत्रोको साथ लिवा ले जानेका भी आग्रह किया । विवश होकर राजाको अनुमति देनी पड़ी। अपने पितृगृहमें आरामशोभाने पुत्रको जन्म दिया तत्पश्चात् अबसर पाकर विमासाने उसे अपने घर के पीछेके कुएँ में ढकेल दिया और अपनी पुत्रीको राजकुमार के समीप सुलाकर उसे ही आरामशोभा प्रकट किया । जब परिचारिकाओंने आरामशोभा को अपने सौन्दर्यादि गुणोंसे होन देखा तो वे बहुत घबराय । उधर राजाकी ओर से मन्त्री आया, और राजकुमार सहित उसकी मालाको पाटलिपुत्र लिवा ले गया । राजाने भी उसे अपने स्वाभाविक रूप तथा अनुगामी उद्यानसे रहित देखकर खेद और आश्चर्य प्रकट किया। पूछने पर नयी आरामशोबाने कपट उत्तर देकर प्रसंगको टाल दिया । उधर कूपमें गिरने पर सती आरामशोभाने नागदेव का स्मरण किया। उसने तुरन्त आकर उसकी रक्षा को, और उसे वहीं पातालभवन बनाकर रखा। कुछ काल पश्चात् आरामशोभाने अपने पुत्रको देखनेको इच्छा प्रकट की । नागदेवने उसे इस प्रतिबन्धके साथ अनुमति देकर राजभवन में पहुंचा दिया कि यदि वह यह सूर्योदय होने से पूर्व लौटकर नहीं आयी तो उसके पास एक भूतनाग गिरेगा और फिर उसे उसके दर्शन न होंगे। आरामशोभाने यह स्वीकार किया और घात्रियोंके बीच सोये हुए पुत्रको लाड़-प्यार कर उसपर अपने दिव्य उद्यानके पुष्पोंकी वृष्टि करके वह घर आ गयी। प्रभात होनेपर घात्रियोंने उन पुष्पों को देख राजाको खबर दी। राजाके पूछने पर उस बनावटी आरामशोभाने कह दिया कि मैंने ही अपने दिय उद्यानके पुष्पोंको अपने पुत्रपर बिखेरा है राजाने कहा कि तुम उस उद्यानको लाकर मुझे दिखलाओ। किन्तु उसने उत्तर दिया वह उद्यान वहाँ दिनको नहीं लाया जा सकता । राजा पुनः शंकित होकर रह गया । । इस प्रकार तीन दिन बीत गये। चौथे दिन राजा सतर्क रहा और ज्योंही आरामशोभा पुत्रपर फूल बिखेर कर जाने लगी, त्योंही राजाने उसका हाथ पकड़ लिया, और उसके प्रार्थना व आग्रह करनेपर भी उसे नहीं छोड़ा, प्रत्युत समस्त वृत्तान्त जानना चाहा । विवश होकर आरामशोभाने अपनी विमालाका वह कपटजाल प्रकट कर दिया। इतने में सूर्योदय हो गया और केशपाशसे मृतमरण गिरा। इसे देख आरामशोभा मूखित हो गयो । सचेत होनेपर उसने अपने रक्षक नागदेवका सब वृत्तान्त कह सुनाया । राजाने रुष्ट होकर उसकी कपटिनी भगिनीको बाँधकर कोड़े मारना प्रारम्भ किया, व उसके पिता और विमाताको नाक-कान काटकर देश से निकाल देनेका आदेश दिया। किन्तु आत्मशोभाने प्रार्थना कर उन Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगंधदशमी कथा सडको क्षमा प्रदान करायी एवं अपनी भगिनीको अपने पास ही रखा । एक दिन आरामशोभाने अपने पतिसे कहा--नाथ में पहले दुःखी थी, पीछे इतनी सुखी हुई, यह किसी पूर्वकृत कर्मका परिणाम होना चाहिए। यह बात आननके लिए राजा-रानी उसी समय विहार करते हुए उद्यानमें आये मुनिराज सूरिके समीप गये, और उनसे अपनी शंकाके निवारणकी प्रार्थना की। मुनिने आरामशोभाफे पूर्वजन्मको कथा सुनायी, और बतलाया कि उसने पूर्वजन्ममें मिथ्यात्वी पिताके गृहमें रहते हुए जो पाप उपार्जन किया था, उसके फलस्वरूप उसे इस जन्ममें उतना दुःख भोगना पड़ा। पीछे मणिभद्र सेठके घरमें रहते हुए उसने ओ देक-गुरु-वैयावृत्य किया था, फसके जलसे उसे वे असाधारण सुखभोग प्राप्त हुए। उसने जो जिनमन्दिरका सूखा उद्यान अपने परिश्रममे हरा-भस कर दिया था उसके फलसे उसे यह दिव्य उद्यान प्राप्त हुआ, इत्यादि । यह सुनकर आरामशोभाको अपना जातिस्मरण हो आया और राजा-रानी दोनों ही अपने पुत्रका राज्याभिषेक कर, प्रवजिप्त हो गये। इस कथानकमें प्रस्तुत सुगन्धदशमो कथाके उत्तर भागका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। आराम. शोभाके बालपन में ही उसको माताको मृत्यु, पिताका दूसरा विवाह, और उससे भी एक कन्याकी उत्पत्ति, विमाताका विद्वेष, बड़ी पुत्रीका भाग्योदय व राजरानी पदको प्राप्ति, विमाता-द्वारा उसके स्थानपर अपनी औरस पुत्री को स्थापित करनेका छल-कपट, आदि तत्त्व वे हो हैं, जो सुगन्धदशमी-कथामें है। किन्तु उनके विवरण और विस्तारमें बहत-सा भेद है, जो इस कथानकका अपना वैशिष्टय है। विशेष ध्यान देने योग्य वहां विमाताका यह प्रयास है, जिसके द्वारा आरामसोभाका विवाह हो जानेपर भी उसने उसके स्थान पर अपनी पुत्रीको रानी बनानेका कपटजाल रचा। दूसरी बात ध्यान देने योग्य है नागदेव-द्वारा आरामशोभाके भाग्योदयमें योगदान, तथा राजभवन में आकर सूर्योदयसे पूर्व लौटने, द अन्यथा उसके नागदेवफे सहयोगसे वेचित हो जाने को । ये प्रसंग पूर्वोक्त सिंड्रेला और अश्पुटैलके च और जर्मन कथानकोंसे तुलनीय है, जह उस सोतेली पुत्री की देवीने सहायता की, माघो रातसे पूर्व राजोत्सबसे लौट आनेका प्रतिबन्ध लगाया व दिमाताने अपनी एक या दुसरी पुत्रीको जबर्दस्ती रानी बनानेका प्रयास किया। आश्चर्य नहीं, सुगन्धदशमोके जिस कथानकका विदेश में प्रसार हुआ, उसमें इस कथाके उक्त तत्त्वोंका भो प्रदेश ब मिश्रण रहा हो । ७. सुगन्धवशमी-कथा : संस्कृत संस्कृतमें वर्णित सुगन्धदशमी-कथा १६१ श्लोकोंमें पूर्ण हुई है, जिनमें अन्तके एक पचको छोड़कर शेष सब अनुष्टुप छन्दमें है। अन्तिम पद्यका छन्द मालिनी है। इसकी होली साधारण कथा-प्रधान है। इसके क ने अपने मुरुक नामका निर्देश रचनाके आदिमें और अन्त में भी किया है। इससे सिद्ध है कि उसके रचयिता विद्यामन्दि यतिके शिष्य श्रुतसागर है। उन्होंने स्वयं अपने व अपनो रचनाके विषयमें इतना और कहा है कि वे वर्णी अर्थात् ब्रह्मचारी ( देशवती साधु ) थे, मुनि नहीं, तथा उन्होंने यह रचना अपने गुरु विद्यानन्दिक अनुरोधसे व उन्हीं के उपदेशसे की थी। श्रुतसागरकी और भी अनेक रचनाएं है टीकात्मक और स्वतन्त्र । इनमें यहा विशेष उल्लेखनीय है उनकी अनेक प्रत कथाएं, जैसे ज्येष्ठ-जिनवर कथा, पोडशकारण कथा, मुक्तावली कथा, मेरुपंकिल कथा, लक्षण-पंक्ति कथा, मेवमालावत कथा, सप्तपरम स्थान कथा, रविवार कथा, चन्दनषष्ठी कथा, आकाशपंचमी कथा, पुष्पाञ्जलो कथा, निष्टुःख सप्तमी कथा, श्रावणद्वादशी कथा व रस्नत्रय कथा। इनमें से कुछ रचनाओं में श्रुतसागरने अपने गुरुके आम्नायादि विषयपर कुछ अधिक प्रकाश डाला है । जैसे षोडशकारण कथामें उन्होंने कहा है श्री मूलसंधे विबुधप्रपूज्य श्रीकुन्दकुन्दान्वय उत्तमऽस्मिन् । विवादिनन्दी भगवान्बभूव स्ववृत्तसारश्रुतसारमाप्तः ।। तत्पादकः श्रुतसागरालो देशवती संयमिनां वरेण्यः। कल्याणक तमुहुराग्रहेण कथामिमां चार चकार सिद्ध्यै ॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १६ इसपरन्ते जाना जाता है कि उनके गुरु विद्यामन्दि मूलसंत्र कुन्दकुन्दान्ब यके आचार्य थे। अन्य प्रमाणोंपर-से इस आम्नायकी सूरत में स्थापित शाखाके निम्न काचार्योंका परिचय प्राप्त होता है-पपनन्दि देवेन्द्रकोति, विद्यानन्दि, मल्लिभूषण, लक्ष्मीचन्द्र आदि । विद्यानन्दिने अनेक मूर्तियोंको स्थापना करायी थी, जिनमें उनके वि सं० १५१३ से १५३७ तकके उल्लेख मिलते हैं। उनके द्वारा सूरत में एक पंचमेरुकी स्थापना सं० १५२६ में करायी गयी थी, जिसके चारों कोनोंपर क्रमशः पपनन्दि, देवेन्द्रकोति, विधानन्दि और कल्याणमन्दिको भूतियो भी स्थापित है । इसपर-से श्रुतसागरका रचनाकाल वि० सं० १५३० ( सन् १४७२ ) के आस-पास अनुमान किया जा सकता है । यहाँ श्रुतसागर की एक रचना प्राकृत व्याकरण विशेष उल्लेख करने योग्य है। उनके इस व्याकरणका नाम औदाय चिन्तामणि है, और उस पर उनको स्वोपज्ञ वृत्ति भी है। उसके आदिम उन्होंने कहा है अथ प्रणम्य सर्वज्ञं विद्यानन्धास्वदमदम् । पूज्यपाद प्रवक्ष्यामि प्राकृतव्याकृति सताम् ।। समन्तभद्रेरपि पूज्यपादै कलङ्कमुस्कलकदेव यदुक्रमप्राकृतमर्थसारं तत्प्राकून च श्रुतसागरेण ॥ इस व्याकरणके द्वितीय अध्यायको पुष्पिका है : इत्युभयभाषाकविश्चक्रवति-पाकरणकमलमार्तण्ड-ताकिफशिरोमणि-परमागमप्रवीणभूरिश्रौदेवेन्द्रकीर्तित - शिष्य-मुमुक्षुबिद्यानन्दिभट्टारकान्लेवासि-मूलसंधपरमात्मविद्वत्सरिश्रुतसागर-विरचिते ओदाय चिन्तामणिनाम्नि स्वोपावृत्तिनि प्राकृतव्याकरणसंयुक्ताव्यनिरूपणो नाम द्वितीयोऽध्यायः । यहां श्रुतसागरकी उभयभाषा अर्थात् संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओंकी विद्वत्ता, ज्याकरणमें निपुणता तथा तर्क व आगममें प्रवीणताका उल्लेख किया गया है । ८. सुगन्यवशमी कथा : गुजराती इस रचनाका ग्रन्थकार में 'रास' नाम दिया है, और उसे प्रथम नमस्कार पद्मके अतिरिक्त आगे 'भासों में विभक्त किया है। इन भालों में क्रमश: २१ + २२ + २२ + २८ + २३ + २४ + २२ + ४३ इस प्रकार कुल २०५ पद्य है । जसोधरनी, विनतिनी, चोपाइनी, रामनी, सुणो सुन्दरिनो, हेलिको, गुणरान भासकी और चौपईनी, ये उन भासाँके नाम दिये गये हैं। चोपई तो हिन्दो पाठकोंका सुपरिचित छन्द है, क्योंकि उसी में तुलसीकृत रामायणकी तथा अन्य अनेक प्राचीन हिन्दी काव्योंको रचना हुई है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि उक्त चौपई भासीका अन्त कुछ 'टूहा' पयोंके. माथ किया गया है। यह चौपईदोहाको पौली अपभ्रश कायके पद्धडिया पत्ता छन्दात्मक मुसम्बद्ध कड़वकोंपर से हिन्दी आदि भाषाओं में अवतरित हुई है। विनति और रास ये गीतोंको दो शैलियाँ रहो प्रतीत होती हैं । 'सुणो सुन्दरि' पद उस भासको प्रत्येक पंक्तिके पद्यमें आया है । और उसी प्रकार 'हेलि' पद उस नामके भासको प्रत्येक पंक्तिके अन्समें आया है। इसीपर-से उन भासोंको वे नाम दिये गये है, सायरनो भास और गुणराज भासमें सम्भावित उस-उस नावफसे सम्बद्ध पूर्व सुपरिचित रचनाको मेय शैलोका अनुकरण किया गया है, जैसे हिन्दीमें कहा जाता है-चाल आल्हाको, या चाल ढोलामारुकी। इन समस्त गद्यशैलियोंको किसी वर्णात्मक या मात्रात्मक छन्दको नियामकतामें बाँधना असम्भव है। वे तो स्वच्छन्द सजीव जय शैलियाँ है, जिनका असलो स्वरूप और माधुर्य तभो आंका जा सकता है, जब उन्हें किसी गायकके मुखसे सुना जाये । इस रासके रचयिताने आदिके पद्म में, तथा दूसरी, पांचवीं, छठी और नवमी भासके अन्तमें, अपना नाम ब्रह्म जिनदास अंकित किया है। इससे स्पष्ट है कि में मुनि नहीं, ब्रह्मचारी साधु थे। इसके अतिरिक्त उन्होंने रचनाके आदि और अन्तमें अपने दो गुरुओं के नाम सकलकीति और भुवनकोलि प्रकट किये हैं। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगंधदसम का ..मद्यपि उहोंने अपतो इस रासमें इन गुरुओंको संघ व गण गच्छादि परम्पराका तथा रचना कालका कोई उक्त नहीं किया, तथापि अन्यत्र प्राप्त उल्लेखोंके द्वारा उनका पता सुलभतासे लग जाता है। सकलकोति और. उनके शिष्प भुक्तकति मूलसंघ, बलात्कार गणकी ईडर ( गुजरात ) में स्थापित शाखाके आदि भट्टारक थे। जिनके उल्लेख मूतियों और अन्योंमें संवत् १४९० से १५२७ तकके मिले हैं। स्वयं जिनदासने अपनी एक रचना-रामायणरासमें सं० १५२० का उल्लेख किया है। इसपर-से सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि उनका प्रस्तुत रचना भो इसी काल अर्थात् सन् १४५० ई. के आस-पास लिखी गयो होगी। ब्रह्म जिनदासको रचनाओंका भाण्डार विशाल है । प्रस्तुत ग्रन्थके अतिरिक्त उनके २. रामायण, ३. हरिवंश, ४. सुकुमाल, ५. चारुदत्त, ६. नोपाल, ७. जीवन्धर, ८, नागो, ९. धर्मपरीक्षा, १०, अम्बिका, ११. जम्बूस्वामो, १२. यशोधर, १३. नागकुमार, १४. जोगी, १५. जीवदया, १६. पंचपरमेष्ठो, १७. आदि. नाथ, १८. श्रेणिक, १५. करकण्ड, २०, प्रद्युम्न, २१. धनपाल, २२. हनुमत्, २३. भाकाशपंचमी,. २४. निर्दोष सप्तमी, २५. कलश दशमो, २६. अनन्त चतुर्दशो, २७, षोडश कारण, २८, दशलक्षण, २९. चन्दनषष्ठी, ३७. भद्रसप्तमो, ३१. लब्धिविधान, ३२. अष्टाह्निक, ३३. पुष्पांजलि, २४. थानणद्वादशो, ३५. पुरन्दर, ३६. श्रुतिस्कन्ध नामक रारा व कथानक पाये गये हैं। इनके अतिरिक्त भी उनकी पूजा-पाठविषयक अनेक रचनाएँ हैं । ब्रह्म जिनदासको इन रचनाओं में अपभ्रंशसे आधुनिक भाषाओं गुजरातो, मराठी, हिन्दी पिके विकास तथा काव्य शलियाँ गोतों और छन्दोंक प्रादुर्भावको समझने की प्रचुर सामग्रो विद्यमान है । ब्रह्म जिनदासके कुछ शिष्यों और उनकी भी साहित्यसेवाके कुछ प्रमाण मिलते हैं। उन्होंने अपने रामायण-रास च हरिवंश-रास में ब्रह्म मल्लिदास और गणदास नामक शिष्योंका उल्लेख किया है। सधा - शिष्य मनोहर रूबदा म मलिदास गुणदास । पनो पढ़ावा विस्तरे जिम होइ सौख्य निवास ॥ इनमें से गणदासने मराठी में श्रेणिक चरिणको चार अध्यायों व ओयो छन्दमें रचना की। उसमें कहा गया है शिष्यु सकलकीति देवाचा। तो जिनदासु गुरु आमुचा ॥ प्रसादु लाधला त्याचा गुरादास खा । ( अ० ४, ओ० ९५) जिनदासके एक अन्य शिष्य शान्तिदासने अपभ्रंश, गुजरातो व संस्कृत मिश्रित पूजापाठविषयक अनेक ग्रन्थ रचे । शान्तिनाथ जाके अन्त में वे कहते हैं - मया श्रुत्वा गुरुः पादत्रे हास्यहेतु निवेदयन् । ब्रह्मश्री जिनदासेन आश्वासनं ददौ मम ॥ पूज्यपादकृतं स्तोम्नं श्रुससिन्धुकृताष्टकम् । आशाधरोफमषगाहा ग्रन्थमतं मया कृतम् ॥ उस समयको चालू संस्कृतका यह एक नमूना है। 'मद्रित पाटका संशोधन सेनगण दिगम्बर जैन मन्दिरके शास्त्र भण्डारसे उपलटा तोन हस्तलिखित संग्रह प्रतियों पर से किया गया है। तीनों प्रतियों में और भी अनेक रचनाएं हैं। तोनों प्रतियोंके पावभेद भी यहाँ अंकित किये गये हैं। इन प्रतियों का विदोष परिचय इस प्रकार है अ-क्रमांक। इसमें ९" " आकारके १७१ पत्र सिले हुए है जिनमें प्रस्तुत कथा पत्र ११ से र तक पायी जाती है। यहाँ इसी काकी अन्म कथा-रचनाएँ हैं - आकाशपंचमो, निर्दोषसप्तमी, 1 सालमा दशमो, अनन्तयत, चनषष्ठी, पोशशकारण, दशलक्षण, अम्बिका, सुकुमाल रास वचारसारास । अन्य रचनाएं है - ज्ञानसागरकृत वादशो प्रतकथा, बिमलकोतिकृत आराधना व मेघराजकृत जसोधर रास (मराठी)। प्रारम्भिक वाक्य है - 'अथ सुगन्धवशमी कथा प्रारम्पते', तथा अन्तिम वाक्य है-'इति सुगम्यदशमी रास कथा सम्पूर्ण समाप्त' 1 भासशीर्षक और विराम चिन्ह लाल स्याहो में लिखे गये है, और शेष भाग काझी स्याहीम । लेखन-कालका मिदेश महीं है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ प्रस्तावना ब— क्रमांक २१ । इसमें १० x ६" आकार के ५९० पत्र सिले हुए हैं जिनमें प्रस्तुत कथा पत्र ५५७ से ५६९ तक पायी जाती है । यहाँ अन्य रचनाएँ संकलित है-बनारसीविलास, सुमतिको तिकृत धर्मपरीक्षा रास, सामुद्रिक लक्षण व माधवानल तथा स्वयं जिनदासकृत रचनाएँ हैं— श्रीपाल रास, नागकुमार रास व आकाशपंचमी, निर्दोषसप्तभी, कलशदामी, सोलह कारण पुष्पांजलि व चन्दनषष्ठी-ये कथाएँ । अन्तिम पुष्पिका वाक्य है - हे पोथी पठनार्थ सावजी नेमासा तथा पुत्र गौराता व बाम्बूसा मालविवास्त खोत्रपुर सुभं भवतु । सके १६४१ मिति अधिक सुद चौदस १४ । लेखनार्थ पंचक शैत्र सेनगण | शुभं भवतु । स- क्रमांक १९ | इसमें ७" x ६" आकारके २९६ पत्र सिले हुए है जिनमें प्रस्तुत कथा पत्र २१५ से २३६ तक नामी जाती है। अन्य रचनाएँ है अष्टाह्निका, सोलहकारण, दशलक्षण, चन्दनषष्ठो, दत्त लधिविधान, निर्दोषसप्तमी, आकाशपंचमी, श्रीपाल, नागपंचमी, मोइसप्तमो श्रुतस्कंध, पुरन्दर, अम्बिका, षट्कर्म, पुष्पांजलि, कलशदशमी, अनन्त, होली और श्रावण द्वादशी । लेखन-कालका निर्देश नहीं है । संस्कृत कथा के रचयिता श्रुतसागर और गुजराती कथाके लेखक ब्रह्मजिनदासकी जो गुरुपरम्पराएँ - ऊपर बतलायी गयी है उनसे एक पोड़ो और ऊपर जानेपर में एक ही गुरुसे जुड़ जाती हैं । यह बात निम्न वंशवृक्षसे स्पष्ट हो जाती है --- देवेन्द्रकोति (सूरत) विज्ञानन्दि T श्रुतसागर नन्दि सकलकोति ( ईडर ) सुचनको त ब्रह्मजिनदास ६. सुगन्धदशमी कथा मराठी मराठी भाषा में निवच सुगन्धदशमी कथामें कुल १३६ पथ है । इनको रचना विविध छन्दों में हुई है, जो इस प्रकार है - उपेन्द्रवज्रा ४२, भुजंगप्रयात ३८, रथोद्धता २१, स्वागता ८, शालिनी ६ उपजाति ६, शार्दूलविक्रीडित ५, माहिती ४, कलहंसा २, वसन्ततिलका १ सर्वचा १ द्रुतविलम्बित १, शिखरिणी १ । इन छन्दोंके नाम जहाँ में आये हैं स्वयं मूलमें ही दिये गये पाये जाते हैं, और उन्होंके अनुसार इस रचनाका प्रकरण विभाग हुआ है। इस प्रकार यह मराठी कविता संस्कृत छन्दों में निबद्ध है । ग्रन्थकारने ग्रन्थके अन्त में प्रकट किया है कि वे देवन्द्रकीतिके शिष्य जैनादिसागर अर्थात् जिनसागर है । यद्यपि कति नामके अनेक आचार्य हुए हैं, तथा जिनसागरको अन्य अनेक रचनाओंमें जो उनका स्थान व काल-निर्देश पाया जाता है, उसपर मे वे कारंजाकी मुलसंघ बळात्कारगण शाखाके देवेन्द्रकीति तृतीय सिद्ध होते हैं, जिनका भट्टारक काल संवत् १७५६ से १७८६ तक पाया जाता है। जिनसागरकी आदित्य व्रतकथाकी रचना कारंजा ( जि० अकोला, बरार ) में शक १६४६ में हुई थी। उनकी जिनकथा भी कारंजामें ही शक १६४९ में पूर्ण हुई थी । पुष्पाजंलि कथाका रचनाकाल शक १६६०, तथा जोबन्धर पुराण का शक १६६६ निर्दिष्ट पाया जाता है । इस प्रकार १८वीं शती ईसवीका मध्यभाग उनका रचनाकाल सिद्ध होता है। कुछ रचनाओंमें उनके रचनास्थल शिरड (जि. परभणी ) का उल्लेख है । उक्त रचनाओंके अतिरिक्त उनकी निम्नलिखित कृतियाँ पायी गयी है - अनन्तव्रतकथा, लवकुश कथा, कलशदशमी व समो कथा पादर्वनाथ, शान्तिनाथ, पद्मावती व क्षेत्रपाल स्तोत्र, पंचमेरु, ज्येष्टजिनवर, नवग्रहपूजा, दशलक्षण, Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ सुगंधदशमी कथा महावोर, पद्मावती व षोडशकारण भारती। इन रचनाओंमें जो रचनास्थलोंका उल्लेख आया है, उसपर से कषि विदर्भप्रदेशक्ती सिद्ध होते हैं। स्वभावतः जिनसागरको भाषामें वैदभी मराठोकी अनेक विशेषताएं दिखाई देता है । उदाहरणार्थ प्रस्तुत ग्रन्थमें (११) का म्हणून के लिए काम्हुनि (११) म्हणून के लिए म्हुनि ( ५७ ) टुकानाहूनके लिए दुकानूनि ( ६६ ) सर्वनामोंके स्त्रोलिंगी रूप एकारान्त-जैसे जे एकता ( जो एकता ) बोलेचना ते ( बोलचेना तो ) आज्ञाध नियाने दोघंतर रूप, जैसे - बदवीस ( वदव ) आई (जा), साखरका उच्चारण साकर, अनु. स्वारों का प्रयोग कम मात्राम आदि ऐसी प्रवृत्तियां हैं जो आज भी विदर्भ की बोली में प्रचलित हैं। __कारक विभक्तियोंम यहां प्राचीनताके लक्षण दिखाई देते हैं। जैसे शारदेसी ( शाददेला दि०), घमरे ( चमराने तृ) दुकानूनि ( दुकानाहून पं० ) सिंहासनी ( सिंहासनावर स० ) भोजना लाग ( भोजना करता च. ) मनाभाजि ( मनांत स० ) । यहाँ स्पष्टतः हमें अपभ्रंशकी प्रवृत्तियों तथा परसों के प्रादुर्भावका दर्शन होता है । शब्दावलि में भी गंगावग (वेणी), निवाडी (निर्णय), कूड ( कूट-प्रोध), बोजा ( आदरसे ), घाला ( तप्त ), ओटीत ( आंचलसे ), बिरालो ( उद्विग्न ), सेजारिनी ( पडोसिमें), मलवट ( कुंकुमकी रेखा ) आदि शान्दोम देशी प्रभाव दिखलाई पड़ता है। सामान्यतः रसता सर्वत्र ही संस्कृत व अपभ्रंशसे प्रभावित है। ग्रन्थके संशोधनमें तीन हस्तलिखित प्रतियोंका उपयोग किया गया है जो इस प्रकार हैं - क - यह सेनगण गन्दिर, नागपुर के शास्त्रभण्डारकी है, जिसका क्रमांक १२ है । इसमें 'x ६' आकारक ३२ पत्र सिले हुए है, जिनमें प्रस्तुत रचना पत्र १३ से २४ तक है। इसी कर्ताको जिनकथा व अनन्तव्रत कथा तथा ब्रह्म शान्तिदासकृत निरमाइलरास भी इसमें संगृ होत है। प्रति लेखनके कालका निर्देश नहीं है। ख- यह प्रति श्री भा० स० महाजन, नागपरके निजी संग्रहकी है। मौक ११ । इसमें ७१-५३" आकारके ७२ पत्र मिले हुए है। प्रस्तुत रचना पत्र १ से १२ तक है 1 तत्पश्चात् इसी लेखक त्यवत और अनन्तखत कथा, तथा बुफ्भकृत नववाड, मेघराजकृत भरतक्षेत्र विनति, कान्हासुत कमलकृत बलभद्र विनति, महीचन्द्रकृत कालीगोरी बाद तथा पद्मावती.सहस्रनाम, इन रचनाओंका संग्रह है। इनके अतिरिक्त पद्मावती, वृषभनाथ, चन्द्र नाथ, पाश्वनाथ, सिद्ध तथा मक्तागिरिके पूजापाठ भी यही सम्मिलित हैं । लेखनकालका निर्देश नहीं है। __ ग - यह प्रति भी सेनगण भण्डार नागपुरकी है, और पड़ी महत्त्वपूर्ण है। इसमें १०३" x ६" माकारक २३ प ( ४६ पृ० ) है, जिनमें कथावर्णचके साथ साथ विविध प्रसंगोंके रंगीन चित्र भी है । आश्चर्य नहीं जो यह लेखन और चित्रण स्वयं प्रन्यकर्ताका हो । इस सम्पूर्ण प्रतिके चित्र यहाँ प्रकाशित किये जा रहे हैं। उनका वर्णन भो अन्यत्र दिया जा रहा है । १०. सुगन्धदशमी कथा : हिन्वी हिन्दी सुगन्धदशमो कथाको रचना दोहा-चौपाई छन्दोंके १४३ पद्योंम हई है। चौपाइयों के बीच. बीच में दोहे गाये हैं, किन्तु उनको संस्था एकरूपता नहीं है। उदाहरणार्थ आदिमें आठ चौपाइयोंके पश्चात् एक बोहा आया है । फिर पन्द्रह चौपाइयों ( १०-२४ ) के पश्चात् दो दोहे आये हैं। फिर छह भोपाइयोंके पश्चात् एक दोहा है । इस प्रकार अनामसे रचनामें कुल एक सौ इक्कीस चौपाइयाँ और उन्नीस दोहे हैं । बीच में तीन पञ्च ( ६७.६९ ) चौदह मात्रात्मक अन्य छन्दके हैं। ___इस कथाके रचमिताने अपना नाम ग्रन्यके अन्समें खुस्याल ( खुशाल या ग्लुशालचन्द्र ) प्रकट किया है। उन्होंने वहां यह भी कह दिया है कि उनकी इस रचनाका आधार श्रुतसागर-कृत सुगन्धदशमी कथा है। यह वही संस्कृत कथानक है, जो यहाँ भी संकलित किया गया है. और जिसका परिचय भी अन्यत्र दिया Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २३ जा चुका है। चूंकि श्रुतसागरका काल १६वों शती सिद्ध होता है, अतः प्रस्तुत रचना उससे पश्चात्कालीन है। इस कविको और भी अनेक कृतियाँ पायी जाती है, जिनमें उनके रचनाकालका भी उल्लेस्त्र मिलता है, व अन्य कुछ और भी परिचय । तदनुसार उनका उपनाम काला था, और च सांगानेर ( राजस्थान ) के निवासी थे। उन्होंने हरिवंशपुराणको रचना सं० १७८७ में, यशोधर चरित्रकी सं० १७८१ में, पद्मपुराणकी १७८३ में, व उत्तरपुराणकी १७९९ में की थी। उनको अन्य रचनाएँ धन्यकुमार चरित्र, ब्रतकथाकोश, चम्बूचा रस, गोदीसी एसा आदि भी मिगी है: साकी आपामें राजस्थानी व विशेषत: जयपुरकी ढुंवारी भाषाको पुट पायी जाती है। इस रचनाका प्रस्तुत पाठ इसको एक मुद्रित प्रतिपर-से तैयार किया गया है, जो कस्तूरचन्द छाबड़ा, भादधा ( जयपुर )न्नारा संगृहीत तथा जिनवाणी प्रेस, कलकत्ता-द्वारा दीपावली संवत् १९८६ में द्वितीय बार मुद्रित कही गयी है। इसमें प्रस्तुप्त सम्पादकको केवल साधारण मुद्रणादि दोषोंके संशोधनको आवश्यकता पड़ी है। अपभ्रंश व संस्कृत, गुजराती, मराठी और हिन्दी कथानकोंको संगति अपभ्रंश संस्कृत गुजराती मराठी हिन्दी सन्धि १कडवक ३-. १- ९ ३०-२२ २,१२-२१ ७ -१. १०-५ १६-२५ २२-२३ २१-२५ २६-३६ ३६-४३ ४३-४१ ५०-५४ २५-५४ १२-१३ १५-१९ २०-२६ २७-३६ ३, १५-२२ ३५-३६ ४०-४२ ४०-४२ ४३-४५ ४४-४८ ४९-५८ ४, ८-११ ५, १२-१७ ४, १८-२२ ११ १६-७३ ४४- ४५-५० सन्धि -२ ५५-६६ ७४ - ८३ ६ -१०६ ५, १-१३ ५, १५-२८ ५१-६१ ६१-९१ १०७-११९ ., १०-२० १२-९१ F५-१०३ १२०- २२ १२३-१३६ १९ १००-१५५ १०४-104 ११०-१२० ८,१०-१३ १३७-१२ ९, -१३ १, १४-३२ १, ३३-११ १२१-१२६ १२७-४० १४१-१४२ १२१-१३५ १५७-०६ १६१ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश कथाका विषयानुक्रम सन्धि -१ चतुर्विशति जिनको नमस्कार, श्रेणिकके प्रश्न के उत्तरमें तीर्थकर-द्वारा सुगन्धदशमी कथाका न्याख्यान । काशी देशका वर्णन । ३ वाराणसी पुरी, राजा पद्मरथ और रानी श्रीमती, वसन्त ऋतुका आगमन । ४ दुर्गन्धके कारण चाण्डाला-द्वारा उसका अटवीमें परित्याग व आठ वर्ष तक 'फलों च पत्तोंसे उसकी जीवनवृत्ति । मुनिसंघका उस ओर विह िव गुरु-द्वारा शिष्यको उसकी दुर्गन्धके कारणका तथा उस पापसे छूटनेका उपाय बतलाना । उत्तम नमावि दश धर्म, पंच उदुम्बर, निशि-भोजन व महापान त्यागका उपदेश । दुर्गन्धा-द्वारा यह सुनना और उसपर श्रद्धान तथा उसके प्रभावसे अगले जन्ममें उज्जयिनीके एक दरिद्र कुटुम्बमें पंदा होना। १० वसन्त का उद्दीपन और दमणियों द्वारा गीत, नृत्य, रास चर्चरी आदि लीलाएँ १५ राजाका रानियों सहित उद्यान-क्रीझके लिए प्रस्थान । मार्गमें सुदर्शन मुनिका दर्शन व रानीको घर लौटकर मुनिको आहार दानका राजाका आदेश । ६: । उसकी दुर्गन्ध कुछ कम हो गयी, जन्म होते ही माताका मरण लकड़ी, घास बेचकर जीवनवृत्ति । नगरमें मुनिआगमन, राजा जयसेनको दर्शन-यात्रा। दुर्गन्धा भी वहाँ पहुँच गयो । ११ रानीका कोप व मुनिराजको कडवी तूम्बोका आहार-दान । मुनिको पीड़ाकी उत्पत्ति । रानीका तुरन्न उयानगमन । देखते ही राजाकी रानीसे विरक्ति। ७ रानीके मुखसे दुर्गन्धकी उत्पत्ति । लौटकर राजा ने मुमिकी मूर्छाका समाचार सुना। राजाका क्रोध व रानीका परित्याग | रानीका आतध्यानसे मरण व ममकी योनिमें दूसरा जन्म, सरोवरकी कीचड़ में फंसकर मरण | तीसरे जन्म में शूकरी, चौथेमें: साँभरी और पाँचबेमें योजन दुर्गन्धा चाण्डालिमीके रूपमें जन्म | मुनिराज के दर्शनसे दुर्गन्धाको मूर्छा, सचेत होने पर राजाके प्रश्न के उत्तर में अपना पूर्व वृत्तान्त-निवेदन | १२ १० राजाके प्रश्न के उत्तरमें मुनि-द्वारा दुर्गन्धा के वृत्तान्त का समर्थन व कर्मों के छेदके लिए सुगन्ध दशमी ऋतका निर्देश । उसी बीच विमान-द्वारा ध्रुवंजय विद्याधरका आगमन । मुनिराज-द्वारा सुगन्धदशमी व्रत पालन व उसके उद्यापनके उपदेशकी प्रतिज्ञा। १३ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची २५ १२ सुगन्धदशमी प्रतके उद्यापनकी विधि-१६ सुगन्धदशमी प्रत पालन विधि। -१५ सन्धि --२ राजा व नगरवासियों तथा दुर्गन्धाद्वारा व्रतका पालन । इस पुण्यके प्रभावसे दुर्गन्धाका राजा कनकप्रभ-द्वारा शासित रमपुरके सेठ जिनदत्तकी पुत्री तिलकमतीके रूप में पुनर्जन्म । उसका सुन्दर और सुगन्ध युक्त शरीर | माता जिनदत्ताकी मृत्यु व सेठका दूसरा विवाह और पुत्री तेजमती। सेठका द्वीपान्तरसे आगमन; विवाहके वृत्तान्तका पत्नीके मुखसे श्रवण, तथा उन आभूषणों को राजाके पहचान कर राजाको निवेदन । राजा-द्वारा चोरका पता लगानेका आदेश । पुत्रीसे सब बातें जानकर सेठका राजाको पुनः निवेदन । राजा-द्वारा सेठके घर भोजका आयोजन। सौतेली माँका अपनी पुत्रीका पक्षपान और तिलकमतीसे दुर्व्यवहार ! सेठका रत्न खरीदने विदेश गमन व सेठानीको पुत्रियों के विवाहका आदेश। तिलकमती. का विवाहकी रात्रिको श्मशान प्रेषण और उसके स्थानपर तेजमतीका विवाह । राजा कनकप्रभा श्मशानमें जाकर तिलकमतीसे विवाह । -१६ तिलकमतीद्वारा आँखोंपर पट्टी बाँधकर भी पैर धुलानेके मिषसे चरण-स्पर्श-द्वारा पतिकी पहचान । राजा-द्वारा स्वयं समर्थन, आनन्द, उत्साह और विवाह । तिलकमतोका रानीफे रूप में वैभव, अन्समें संन्यास-द्वारा मरण; व स्त्रीलिंग छेवकर ईशान स्वर्गमें देवोत्पत्ति । –२५ प्रातः महिषीपाल के रूपमें अपना परिचय तथा प्रतिदिन रात्रिमें मिलनका आश्वासन देकर राजाका प्रस्थान | सेठानीद्वारा उसकी खोज व लोक प्रपंच । सन्ध्याको राजाका वस्त्राभरण लेकर तिलकमतीके पास आगमन। -२० जिनेन्द्रका श्रेणिकको सम्बोधन व सुगन्ध दशी व्रतके प्रभावका वर्णन। –२६ सुगन्धदामी व्रत पालनका भावना-सहित कथा-पाट करनेका, व्याख्यानका, सुनने तथा श्रद्धान करने ब सीखनेका सुफल । ग्रन्थकारका आत्म-निवेदन। .-२८ उसे सुसज्जित देख माताका कोप, व उनका परिहरण । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुअंधदहमी कहा [ अपभ्रंश ] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुअंघदहमीकहा पढमो संधी जिण चवीस वेपिणु हिंयई थरेप्पिणु देवत्तहं चउबीसह । पुणु फ्लु माहासमि धम्मु पयासमि पर सुअंघदसमिहि जह।। पुच्छिउ सेरिगएरा तिर्थकरु। कहहि सुधदसमि-फलु मणहरु । भाइ जिविंदु रिगसुणि अहो सेणिय | भव्यरयण गुणरया निसेणिय । इह जंबुदी सुरगिरि - समयणे। लवणारणव-परिवेढिय-स्वयसे । तहिं भरहु वि नामें परिसु सति । जहिं सुरवर गार खेयर रमति । तहि कासी गामई विसउ अस्थि । जहिं सहि चल जूह भमंत हस्थिी जहि सरवर कमलालय हसति । रहिं सरिणह रह - चक्कई धरति । जहि सरिउ पवर पारिणय सहति । सूलिणि-करपालहि अणुहरंति । हिन्दी अनुवाद चौबीसी जिन भगवान्को नमस्कार करके तथा चौबीस देवताओंको हृदयमें धारण करके मैं श्रेष्ठ सुगन्धदशमी व्रतका जो फल होता है उसका व्याख्यान करते हुए धर्मका स्वरूप प्रकाशित करता हूँ | राजा श्रेणिकने चौबीसवें तीर्थकर भगवान् महावीरसे पूछा 'हे भगवन् ! सुगन्धदशमी व्रतके पालनका जो फल होता है उसका कथन करनेकी कृपा कीजिए।' श्रेणिक नरेशका यह प्रश्न सुन कर भगवान् महावीर जिनेन्द्र चोले-हे श्रेणिक ! तुम भव्य जीवों में श्रेष्ठ और गुणरूपी रत्नोंके निधान हो । अतः तुम्हें मैं सुगन्ध दशमी व्रतके फलकी कथा सुनाता हूँ। तुम ध्यान लगाकर सुनो | सुरगिरिके समान, लवण-समुद्रसे वेष्टित तथा रमणीक इस जम्बूद्वीपमें भरत नामक देश है, जहाँ उत्तम देव, मनुष्य व खेचर समी रमण करते हैं । इस भरत क्षेत्रमें काशी नामक प्रदेश है जहाँ हाथियों के झुण्ड विचरण करते हैं, और जहाँ सरोवर कमल-पुष्पोंसे शोभायमान हो रहे हैं । वे चकवों को धारण करते हुए ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे रथी अपने रथों के चक्कों को धारण किये हो । इस प्रदेशकी सरिताओमें प्रचुर पानी बहता रहता है और इस प्रकार वे उन शूल व Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१,१,१० सुअंघवहमीकहा अहिं सरसई सुअ-चुचिय घणाई।। मुहकमल पुरंघिहि जिह वरणाई । जहिं सधणइं पयपूरई सहति ।। गामई जलहरहं वि अणुहति । जहिं कंसदला-लंगलकराई। पामरई व हरि-बल-सारणहाई। जहिं तिलयसालिवर-संजुभाई। छत्ताई व कामिणि ऐ दियाई। जहिं मुहमइलघु थहिम थरणाहं। करपीडणु ताहं जि गज जरगाह। चचलता जहि तिय-लोयणाहं । मउ कलहु वि कुंजर-साहणाहं । घत्तान्तहो देसहो मज्झे पसिद्धिया पुरि बाणारसि थिय पवर । परिहा-पायारहिं परियरिय घयमालालकरियपर ॥१॥ १५ बहुवरण रेहइ एं भड-संगरु । वर-धवलहर-जुत्त कइलासु च। रेहइ सरु जिह सउणावासिय । जोह कुडुचु व दाविय-वरसरु । चोर-कुडुंड व थिय वइवेसुव । कारण जिह वर-कइहिं शिवासिय । कृपाणधारी वीराङ्गनाओका अनुसरण करती हैं जिनके शस्त्रोंकी धारें खूब पानीदार अर्थात् पैनी हैं । वहाँ के सघन वन-उपवन सरस फलोंसे व्याप्त हैं जिनका शुक चुम्बन करते हैं; जिस प्रकार कि वहाँ की पुरनारियोंके मुखकमल लावण्ययुक्त हैं जिनसे वे अपने पुत्रोंके मुखौंका खूब चुम्बन करती हैं । उस प्रदेशके ग्राम धन-धान्य तथा जलसे परिपूर्ण होते हुए शोभायमान हैं और इस प्रकार वे वहाँ के इन्द्रधनुष और पयसे पूर्ण जलधरों अर्थात् मेधोंकी समानता करते हैं। वहाँ के ग्रामीण किसान जब अपने काँसके खेतोंको जोतनेके लिए. हलोंको हाथमें लेकर चलते हैं तब वे विष्णु और हलधर ( बलभद्र) के समान दिखाई देते हैं। वहाँ के खेतोंमें तिलक नामक वृक्षों तथा उत्तम शालिधानको प्रचुरता होनेसे वे वहाँकी उन कामिनी स्त्रियोंकी तुलना करते हैं जो भालमें तिलक दिये हुए हैं और अपने घरों अर्थात् पतियोंके सहित सुखसे रहती हैं । वहाँ मुखकी मलिनता, कठोरता एवं करपीडन तो केवल स्त्रियों के स्तनोंमें देखे जाते हैं न कि जनतामें । उसी प्रकार वहाँ चपलता केवल स्त्रियोंके लोचनों में पाई जाती है और मद व कलह केवल सेनाके हाथियोंमें, न कि लोक-समूहमें । इस प्रकारके उस सुन्दर, समृद्ध और सदाचरणशील (काशी देशमें सुप्रसिद्ध और विशाल वाराणसी नगरी है जो परिखा और प्राकार अर्थात् पुरीकी रक्षाके निमित्त बनाई हुई खाई और कोटसे सुसज्जित है । वहाँ के घर ध्वजा मालाओंसे अलंकृत रहते हैं ॥१॥ वह नगरी अपने अनेक वनोपवनोंसे ऐसी शोभायमान है जैसे योद्धाओंका युद्ध व्रण अर्थात् शस्त्राघातोंसे परिपूर्ण होता है। वहाँ जो उत्तम सरोवर दिखाई देते हैं उससे वह नगर शरोंसे सुसन्त्रित योद्धाओंके समूहके समान प्रतीत होता है। वहाँ के धवलगृहोंके द्वारा नगर कैलाश पर्वत-सा दिखाई देता है । वहाँ व्रतियोंके वेश्म अर्थात् धार्मिक लोगोंके घर स्थित हैं, अतः वह चोरोंके कुटुम्बके सदृश हैं जो विना घर-द्वारके रहते हैं । शकुन अर्थात् पक्षियोंसे परिपूर्ण वहाँका सरोबर ऐसा सुन्दर दिखाई देता है मानो वह शकुनों अर्थात् शुभ सूचनाओंका घर ही हो । यहाँ उत्तम कवियोंका निवास देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो वह कपियों अर्थात् बन्दरोंसे बसा हुआ कोई वन ही हो । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो संधी तहिं पिउ पोमणाहु विषसाइउ । रणं सई सग्गहु इंदु पराइउ । रणे अरि-करिहिं जीह पंचारण। लच्छी सणाहु पारायणु । तहो पिय सिरिमइ सिरि-अग्रोसर । रगं हिमवेतही गंग महासरि । एं पोमावई वि धरणिदहो ! हाहो गरि जिम रोहिणि चंदही । तउ तहो पिययमरहिं पहारिणय । जिम दहमुह मंदोदर राणिय । ताहि जा ते समु रज्जु करतउ । ताम बसंतमासु संपत्तउ। धत्ता-कल-कोइल-सहहिं महुअरविंदर्हि रणं आलावरिण वजह । सुअपढणसहासहिं बहुविहभासहि गड वसंतु रण गज्जइ ॥२॥ रे ३ एहु जगुरु गच्चई रण काई। वियु मेहहिं को सरवर भरेइ । विए, कहिं गिबंधइ को वि कछु । मई विष्णु को जरा बहु भासाहि । एत्थंतरे जाणेवि जणे वसतु । ता तरूणिहिं पारभिउ सुरम्मु । मई विष्णु उग्गिरणय-चित्तु पाई। विगु सुहबहि को संगरु करे । जिणदेवह विणु को कहइ दन्न । गच्चावइ चच्चरि रासयहिं । श्रायउ विरहिरिण-सोसणु वसंतु | मुरिण-मयगुद्दीवण गेयकम्मु | __उस वाराणसी नगरीका सुविख्यात राजा पद्मनाथ था, जो अपने प्रभावसे ऐसा दिखाई देता था मानो स्वर्गसे स्वयं इन्द्र ही भूतल पर आ उतरा हो । वह अपने शत्रुरूपी हाथियोंके लिए सिंहके समान शूरवीर योद्धा था और अपनी राज्यलक्ष्मी सहित साक्षात् नारायण सा प्रतीत होता था। उस पद्मनाथ राजाक्री प्रिय रानी श्रीमती थी जो श्री अर्थात् लक्ष्मीसे भी अधिक सुन्दर थी; मानो हिमवान् पर्वतकी स्वयं गंगा महानदी हो, धरणेन्द्र देवकी पद्मावती देवी हो अथवा शिवजीकी पत्नी गौरी ब चन्द्रमाकी पत्नी रोहिणी हो । श्रीमती पद्मनाथ राजाकी प्रियतम रानियों में प्रधान थी, जैसे दशमुख अर्थात् रावणकी रानियोंमें मन्दोदरी प्रमुख थी। पद्मनाथ जब श्रीमतीके साथ बनारसमें राज्य कर रहे थे, तब वसन्त मासका आगमन हुआ। उस समय कोकिलोंकी ध्वनियों और मौरोकी गुंजारसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे आलापिनी वीणा बज रही हो। शुक अर्थात् तोतोंके सहस्रों प्रकारके पाठों और नानाविध स्वरोंसे ऐसा लगने लगा मानो घसन्त नट बनकर गरज रहा हो ॥ २ ॥ वह बसन्त रूपी नट क्या कह रहा था सो सुनिए-"अरे, अरे, ये लोग नृत्य क्यों नहीं कर रहे ? मानो मेरे बिना वे चित्तमें निरुत्साह हो रहे थे। विना मेघोंके सरोवरोंको कौन भरे और मुभटोके विना युद्ध कौन करे ? कवियोंके विना काव्योंकी रचना करनेवाला तथा जिनदेवके बिना द्रव्योंका कथन करनेवाला मला अन्य कौन है ? इसी प्रकार मेरे विना विविध भाषाओं में लोगोंको रासों सहित चर्चरी नचाने वाला और कौन रखा है ?" ऐसा समझकर ही लोगोंके बीच विरहिणी स्त्रियोंको सन्ताप उत्पन्न करनेवाला वसन्त मास आया । ___ वसन्तके उत्साहमें तरुणी स्त्रियोंने सुरम्य गीत गाना प्रारम्भ किया जिससे कि मुनियों के Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१,३,७ सुअंघदमीकहा क वि एचई जण-संतोसयारि। कवि राम मगार विरदिगाह मारि । कवि चाचरि देश हाँति ताल । कवि दावइ थरण तह मिसिण बाल । क विरासु रमइ णिय-कंत-जुत्त । हिंदोलइ क वि तह गीयरत । कवि कोरल करइ जलि पिय-समाण । पालविय रमइ तह के विजुवारण । पत्ता-इय रणायरजण उद्दीपियमरण, रमइ बसंतही लोलए। ता सिवइ सकतउ परियणजुत्तउ चलिउज्जारणहो कीलए ।। ३ ।। ता लय उ पसाहरण रागिरह । बहुवराण क्स्थ शिव-मारिणएगह । मयगलि आरूढउ परवरिंदु। रेहइ अइरावद गाइ इंदु । श्रद्धासणे पिय उवह कम । तिणयण हो भडारिय गरि जेम। पहि चलिउ ससाहरा णिवा जाम।। आर्चतर दिह, मुणिदु ताम । परिपालिय साधय-क्यधरैए। सम्मत्त - अडंबर-धुरधरेण । शिवाहिय-अतिहिइ गिम्मए । जिणधम्म-पर ज्जिय-चित्तएरण । दिहउ वि सुदंसणु मुणिपरिंदु।। मयलंडणहीण अउच्च-इंदु। दो-दोसा-प्रासा-चत्तकाउ । गायत्तय-जुत्ता वीयराउ । मनमें भी रागका उद्दीपन हो उठे। कोई लोगोंको सन्तोषदायक रीतिसे नृत्य करने लगी, और कोई विरही जनोंको मार डालनेवाला रास कहने लगी। कोई ताल दे देकर चर्चरी नाचने लगी और कोई बाला ( युवती) उसी बहाने अपने स्तनों का दर्शन कराने लगी। कोई अपने पतिके साथ रास खेलने लगी, और कोई गीतमें मस्त होकर हिंडोला झूलने लगी। कोई अपने पतिके साथ जलक्रीड़ा करने लगी, और कोई अपने आलापों द्वारा युवकोंके मनको रमाने लगी। इस प्रकार नगर-निवासी मदोन्मत्त होकर बसन्तकी लीलामें रमण करने लगे । तब राजा पद्मनाथ भी अपनी रानी श्रीमती तथा परिजनों सहित उद्यान-कोड़ाके लिए निकला || ३ ॥ उद्यान क्रीड़ाके लिए रानियोंने अपना शृङ्गार किया । राजाकी प्रियाओंने रंग-बिरंगे वस्त्र धारण किये । मदोन्मत्त हाथी पर सवार हुआ नरेश ऐसा शोभायमान था जैसे इन्द्र ऐरावत पर सवार होकर निकल रहा हो । राजाके साथ अर्ध आसन पर उनकी प्रिय रानी श्रीमती बैठी ऐसी शोभायमान हुई जैसे त्रिनयन अर्थात् महादेवजीके साथ भगवती गौरी ही विराजमान हो। इस प्रकार जब राजा सजधजसे उद्यान क्रीड़ाके लिए जा रहा था, तभी उसने एक मुनीन्द्रको आते हुए देखा | राजा पद्मनाथ श्रावकके व्रतोको धारण किये हुए थे और उन ब्रतोको भलीभाँति पालते भी थे। वे सम्यक्त्वको उसके समस्त अंगों सहित धारण करते थे और सम्यक्त्वी जीवोंमें अग्रेसर थे। वे अतिथियोंका नम्रतापूर्वक सत्कार करते थे। उनका चित्त जैन धर्मके प्रभावसे पूर्ण था। ऐसे पद्मनाथ राजाने जब उन सुदर्शन नामक मुनिवरको देखा, तो वे उन्हें ऐसे प्रतीत हुए मानो मृगरूप कलंकसे हीन कोई अपूर्व चन्द्रमा ही हो। वे मुनि राग और द्वेष इन दोनों Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १,५,४] पढमो संधी सबंग-मलेण विलित्वगत्तु । चउविकहा-बएणणे जो पिरत्त । परमेसरु सिरि मासोपवासि। गिरि कंदरे अहब मसाए वासि ।। सो पंक्तिवि परमाणदए । पभागिय पिय परमसरोहएण। इह पेसणजोग्गु रण भरण को वि। तो हङ मि अह व फुड पत्तु होइ । जाएप्पिा अगाएग वुत | पारणउ करावहि मुणि तुरंत । खभइ पियमेल ग भवसमुदे। वराकीलारोहण गयपरिदे। इउ सुलहउ जीवही मवि जि भए । दुलहउ जिणधम्मु भवरणवए । दुलहउ सुपादाण विधिमलु । मुत्ताहल-सिप्पिहि जेम जलु । घसा-तं जाएवि भावई गुरु-अारायइं देहि जोग्गु जं एयहो। फासु सुगिल्लउ महुरु रसिल्लउ जाउ कम्मु जिण एयहो ॥ ४ ॥ ता चलिय जंपति । कोवेरा कंपति । कहि भाउ पाविट्ट । एहु विह, सिक्कि है। मह विधु पिययस्स। किउ एम मोयस्स। चरिण निक्रिय सह जामि । सायद कीलामि। दोषोंसे मुक्त थे, वे मति,श्रुति और अवधि इन तीन ज्ञानोंके धारी और वीतराग थे । उनका समस्त शरीर मलसे विलिप्त था ( क्योंकि वे मुनियोंको निषिद्ध स्नान नहीं करते थे व उन्हें अपने शरीरका कोई मोह नहीं था)। वे राजकथा, चोरकथा, स्त्रीकथा व भोजनकथा, इन चारों प्रकारकी विकथाओंसे विरक्त थे। वे मुनीश्वर मासोपवासी थे अर्थात् एक एक मासके अन्तरसे केवल एक बार आहार करने निकलते थे, और शेष समस्त काल पर्वतकी गुफाओंमें अथवा श्मशानमें ध्यान द्वारा व्यतीत करते थे। ऐसे उन परम मुनीश्वर सुदर्शनका दर्शन पाकर राजाको परम आनन्द हुआ और उन्होंने बड़े स्नेहसे अपनी प्रिय रानी श्रीमतीसे कहा—"हे प्रिये । इस समय हमारा जो कर्तव्य है उसको निभानेकी योग्यता अन्य सेवक-सेविकाओंमें नहीं है। इसके लिए पात्र तो स्पष्टतः तुम हो अथवा मैं । अतएव तुम स्वयं जाकर धर्मानुराग सहित मुनि महाराजकी तुरन्त पारणा करा आओ । इस भवसागरमें प्रिय-मेलन, वन-क्रीड़ा, गजारोहण आदि सुख तो इस जीवको जन्मजन्मान्तरमें सुलभ हैं; किन्तु इस भवसमुद्र में जिन-धर्मकी प्राप्ति दुर्लभ है। और उसमें भी अति दुर्लभ है शुद्ध सुपात्र दानका सुअवसर, जिस प्रकार कि मुक्ताफलको सीपके लिए स्वाति नक्षत्रका जलबिन्दु दुर्लभ होता है। अतएव सद्भाव सहित धर जाकर खूब अनुराग सहित इन मुनि महाराजको ऐसा योग्य आहार कराओ जो प्राशुक और गीला हो, मधुर और रसीला हो जिससे इनका धर्म-साधन सुलभ हो ॥ ४ ॥ राजाकी यह बात सुनकर रानी कोपसे काँप उठी और यह कहती हुई घरको वापिस चली कि "यह पापी, ढीठ, निकृष्ट मनुष्य इसी समय यहाँ कहाँ से आ गया ? अपने प्रियतमके साथ उद्यानमें जाकर आनन्द कीड़ाका जो मुझे सुख होता, उसमें इसने विन्न उत्पन्न कर दिया" Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुअंधदाहमीकहा [१,५,५इय चितवंताए । मुणि धरिउ ता तीए। पुरण दु-रुलाई । पारविड मुणि ताई। कड हलई दिरागाई। जे डहई अंगाई। जिउ हरई तुरियाई। एवं गिम्ह-किरणाई। तं लेवि मुरिगएण। मणि सरिस अमिएरण। कड आसियत जाम । तण भमिउ तहो ताम। चितिर ला सक्के मि ! चणि अज्जु जाएमि। ता अज्जु जिण-भवरे । अच्छमि अइरमणे। इय चितवंतो वि। जिण-भवण, पचो वि। ताहि दिवसु थिउ एक्क। आहार जा पक्कु । ता तेहिं सावेहि । किउ विएउ तहु तेहि । पुरि खोहु संजाउ। हा हा रउरगाउ घत्ता–उत्तहे देवी तुरिय गय रिणवइ-पासे जा भवण हो । ता दिट्ठ परिदई झत्ति तहि विरह जयंती रिणय-मरणहो ॥ ५ ॥ साहरण करालिय भावियाय । उदिह चित्रे रायाहिराय। एत्यंतरे भाइय सिविड जाम । मुहि एह दुर्गधु वि पउरु ताम । ता गांतरे पुरि पइसंतरण। गिसुपिउ कोलाहलु तहिं गिरण । ऐसी ही कुभावना मनमें धारण करती हुई रानीने मुनिको अपने साथ लिया । घर जाकर उस दुष्ट रानीने रोषसे मुनिको कडुए फलोंका आहार कराया जिनसे अंगोंमें दाह हो और जिनसे अल्पकालमें मृत्यु भी सम्भव हो, जैसे ग्रीष्मकी प्रचण्ड किरणें । मुनि महाराजने उस आहारको भी अमृत सदृश मानकर ग्रहण कर लिया। किन्तु उन्होंने ज्योंही वह कडुए फलोंका आहार किया त्योंही उनके शरीरमें चक्कर आने लगे। तब उन्होंने विचार किया "अब मैं आज वनको तो वापिस जा नहीं सकता। अतः आजका दिन मैं यहींके अति रमणीक जिन मन्दिरमें व्यतीत करूँगा।" ऐसा विचार करते हुए वे जिन-मन्दिरमें आये । वहाँ वे एक दिन रहे जिससे उनका वह आहार पच जाय । मन्दिरमें श्रावकोंने विनयसे उनकी सेवा की । समस्त नगरीमें इस समाचारसे बड़ा क्षोभ उत्पन्न हुआ और लोग हाय, हाय, करने लगे। वहाँ रानी मुनिके आहारको दुष्ट भावसे निपटाकर झट पुनः अपने पति के पास उपचनमें जा पहुँची । राजाने उसे आते देखा, किन्तु उनके मनमें तत्काल उसके प्रति अरुचि उत्पन्न हो उठी ॥ ५॥ भगवान महावीर राजा श्रेणिकसे कहते हैं-हे राजाधिराज, उस समय यद्यपि रानी वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत थी, तथापि वह विकराल दिखाई देने लगी,और उसके चित्तमें भी अधीरता आ गई । भवितव्यता ऐसी होती है । इसी बीच जब रानी समीप आई, तब राजाको प्रतीत हुआ कि उसके मुखसे बहुत दुर्गन्ध आ रही है। अनन्तर जब राजाने नगरमें प्रवेश किया तो उन्हें Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो संधी १,६,१७ ] पुच्छित कि जिणहरे पउरु खोह। ता एक भएण विचविउ तेत्थु । राएण बुत्त, कहि कहिउ तेगा। देविए तुम्हई वि सुशेसियाई। तं सुणिवि गरिदए कोवरण । जइ मारमि तो जरो तिय-पवाउ। इय चिंतिवि मुक्क गिरत्थ करिवि । उप्पर म्हइसिन्कुच्छिए हवि । बहु रिणिधिराति सा झसियकाय । सा अगाहिं दिणे तरहाई तत्त । मररोग मुणीसर दि जैत । ता सुत्त खंधु पंकर मरेवि । मुश्र मायरि छुहाइ म खीरणगत । तहिं मुन्न पुगण संवरि मसियकाय । कि चोज्जु कवण किं को विरोह । जइ अभउ देइ जिउ कहामि तत्थु । मुच्छाविउ भागवत परवतरण । दिएणउ अपक्कु आहारु ताई। चिंतिउ किउ सयलु अजुत्तु, एण। अच्छई परिहारई दूह ठाउ । वइ अणुहवेवि दुत्तण मरिवि । मुत्र माइरि सेहत्तइ ण कोवि । किमि सिमिसिमंत दुध जाय । पहे सरिहे पइडिय पंकि खुत्त । सिरु धुगइ सकोबई हाचित्त । उभ्यरण रिणवइ-सूवरि हवेवि । ताडिज्जइ लोयहिं किं कियत्त । पुए, मुख चंडालिहिं गम्भे जाय ! वहाँ महान् कोलाहल सुनाई पड़ा । राजाने पूछा कि जिन-मन्दिरमें इतना क्षोभ क्यों हो रहा है ? वहाँ कोई कौतुक हो रहा है या कुछ लड़ाई-झगड़ा उठ खड़ा हुआ है । तब किसी एक नागरिकने भयभीत होते हुए राजासे प्रार्थना की "हे महाराज, यदि अभय प्रदान करें तो मैं सत्य बात कहूँ ।" राजाने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर उसे वृत्तान्त कहने के लिए आदेश दिया । तब उसने कहा "हे महाराज, आपके द्वारा प्रेषित होनेपर रानीजीने मुनिवरको अपश्व आहार दिया, जिसके कारण परवश होकर मुनिराजको मूर्छा आ गई ।" यह वृत्तान्त सुनकर राजाको बड़ा क्रोध आया । चे विचारने लगे "इस रानीने यह बहुत ही अयोग्य कार्य किया है । यदि मैं इसे मार डालूँ तो लोगोंमें यह अपकीर्ति होगी कि राजाने स्त्रीघात किया । और इसे यों ही राजमहल में रहने दूं तो लोग यह दोष दंगे कि राजाने रानीके घोर अपराधके लिए उसे कोई दण्ड नहीं दिया।" ऐसा चिन्तन करके राजाने रानीके सब वस्त्राभूषण छीन लिये और उसे निर्धन करके राजमहलसे निकाल दिया। तब रानी. बड़े क्लेशका अनुभव कर आर्तध्यानसे मरणको प्राप्त हुई। पश्चात् उसने एक भैसकी कुक्षिमें जन्म लिया। उसके जन्म लेते ही माताका मरण हो गया और उसका पालन करनेवाला कोई न रहा । बहुत झूक-झूक कर वह कुछ बड़ी हुई, किन्तु उसका शरीर नितान्त दुर्बल था । उसके शरीरमें कीड़े पड़ रहे थे जिससे उसकी दुर्गन्ध भी आने लगी। एक दिन वह प्याससे तप्त होकर एक सरोवरमें घुसी और वहाँ कीचड़में फैंस गई। उसी समय टस मार्गसे एक मुनीश्वर निकले। किन्तु उन्हें देखकर वह कोपसे सिर हिलाने लगी और उन्हें मारनेको उसे इच्छा हुई । इससे उसके कन्धे भी कीचड़में डूब गये और यह वहीं मृत्युको प्राप्त हुई। भैसकी योनिसे निकलकर उस रानीका जीव, हे राजन् , एक शूकरीके गर्भ में आया। उसे जन्म देनेवाली शूकरीका शीघ्र ही मरण हो गया और यह भूख प्याससे क्षीण-शरीर हो गई। लोग उसको मनमाना मारने पीटने लगे। निदान वह मरणको प्राप्त हुई। शूकरीकी योनिसे निकलकर पुनः उस रानीका जीव साँभरी ( मृगी) की योनिमें आया। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१,६,१८ सुअंधमोकहा घसा-गमस्थहे मुड चंडालु तहे मायरि पुरए जम्मंतियहे । जोयण दुग्गंधु सरीरहो वि आवड फुडु तहे .तीयहे ॥६॥ असहंतहि चंडाल हि दुगंधु ।। चिंतिउ कि किन्जइ पडिणिबंधु । छुड एकई बहुअहं होइ दुक्तु: तोपरा मोचु । इम जपिवि अडविहि गइ मुक्क । वरिसट्ठ जाम ता तहिं मि थक्क । पिप्पल पिलिखिरिण उंबर फलाई। भक्खइ पालुंबार सदलाई। एत्यंतरे के मुहासरेण । गुरु पुच्छिउ सविणय णुअसिरेण । परमेसर पूरिय-पासरंधु । कहिं प्रावइ एहु अइसय-दुगंधु । मुणि पभराइ रिणय-हिय-कोषकरणि ।। चिरु रिसिहि उपरि संसार-सरणि । ते पावई एहु दुग्गंधु जाउ। तं सुशिवि चविउ सिसु पुरण सराउ । मिच्छरिहइ किम एह एह पाउ । ता कहिङ मुरिगदें तहो उवाउ । मेल्लेवियु जिरणवर-धम्मसारू। को जीवहं अराणु जि होइ तारु । दयमूलु खंति मद्दव परदु । अजव सउच्च सचोवविंदु । उसका शरीर यहाँ भी बहुत दुर्बल था | और शीघ्र वह यहाँ भी मरणको प्राप्त हुई। साँभरीकी योनिसे निकलकर वह रानीका जीव एक चाण्डालिनीके गर्भ में आया। गर्भमें आते ही उसके चाण्डाल पिताकी मृत्यु हो गई और उसको जन्म देनेकी पीड़ामें ही माताका मरण हो गया । इस चाण्डाल-सुताके शरीरसे एक योजन तक जानेवाली दुर्गन्ध निकलने लगी ॥ ६ ॥ इस मातृ-पितृ-विहीन चाण्डाल-कन्याफी उस घोर दुर्गन्धको उसके पड़ौसी चाण्डाल भी सहन न कर सके । तब वे सोचने लगे कि इस आपत्तिका क्या उपाय किया जाय । जब किसी एकके कारण अनेकोंको दुःख उत्पन्न हो, तो इस एकका तिरस्कार कर दिया जाय, इसीमें भलाई है। ऐसे आपसमें विचार कर उन्होंने उस दुर्गन्धा कन्याको एक अटवीमें ले जाकर छोड़ दिया । वहाँ चह आठ वर्ष तक रही। वह पीपल, पिलखिन, ऊमर आदि अभक्ष्य उदुंबर फलोंको मय पत्तोंके भक्षण कर जीवित रही। एक दिन उसी अटवीके समीप कुछ मुनि विहार कर रहे थे । एक मुनिने अपने गुरुको प्रणाम कर विनय भावसे पूछा... हे गुरुवर, यह हमारी नाकको भरनेवाली महान् दुर्गन्ध कहाँ से आ रही है ? तब उन मुनीश्वरने उत्तर दिया--"एक स्त्रीने अपने हृदयमें मुनिराजपर क्रोध धारण किया था, उसी पापके फलसे उसके मुँहमें दुर्गन्ध उत्पन्न हुई है, जो जन्म-जन्मान्तरमें भी उसका पीछा नहीं छोड़ती ।" गुरुकी यह बात सुनकर उस शिष्यने मुनिसे फिर भक्तिपूर्वक पूछा-हे गुरु कर, अब हमें आप कृपाकर यह बतलाइये कि उस स्त्रीका यह पाप कैसे दूर होगा ? तब मुनिराज उस पापके निवारणका उपाय बतलाने लगे। वे बोले इस संसारमें सारभूत वस्तु जैनधर्म ही है । उस जैनधर्मको छोड़कर और कौन इस जीवका तरण-तारण कर सकता है । दयामूलक उत्तम क्षमा और मार्दव ये पुरोगामी गुण हैं; आर्जव, शौच Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १,८७] पढमो संधी संजमु तह पोसणु श्रावणीउ । तउ गउ जलउत्तहि तारणीउ ! वैउब्विय करि तह ममि खंभु । दह धम्महं गावइ पुरउ घंभु । इउ पालइ पंचुंबर-विरत्ति । रिणसिभोज्जह मज्जह किंय गिवित्ति । इस कहिउ असेतु वि मुसिवरेण । तेरा वि पायरिणउ प्रायरेण । पुणु सद्दहाणु किंज धम्मु तेगा। णियमिय-पंचुंबर-भक्खरणेग । एतहे विश्राउ परिपुरा जाउ। मुअ धम्महं उपरि घरंति भाउ । घत्ता-तहु चयह पहावई उक्सम-भावई दालिदिय-दियबरहो घरि । जाइवि उप्परिणय देह कुवरिणय उज्जेरिणहि पासरण धरि ।। ७॥ तहि कोसु एक्कु दुग्गंधु जाइ । बहु-पावहु कहिमि रा छेउ होइ । तहि मायरिं मुश्रतहु दियहु कंत। माया-विहीग बहु-दुक्ख-तत्त । जामच्छइ कन्याडु वि करति । खड-का-परण-फल विकिणति । ता अरणहि दिणि गंदण-वरणम्मि। उज्जेणि-तडिहिं तरवर-घणमि । आयउ वि सुदंसणु मुणिपरिदु । गय-वाहणु रेहड़ एवं सुरिद ।। तिइंसगुण संकरु विहाइ। चउभासापट्टणु बंभु पाइ। गय-रहिउ अउब्यु नि विराहु भाइ। बहुगुणा वरणगउं रण कहिमि जाइ । व सत्य, सेज गुणों के सहायक उपद हैं. इन गुमेला पोषण करनेवाला है, तप और त्याग जलोदधिके तारनेवाले है)। विक्रिया अर्थात् अकिंचन उनका मध्यस्तम्भ है और ब्रह्मचर्य मानो दशों धर्मांक आगे है।। इन दश धोंके अतिरिक्त पंच उदुम्बरका परित्याग करना चाहिए तथा रात्रिभोजन व मद्यपानसे भी निर्वृत्ति रखना चाहिए । इस प्रकार मुनिराजने समस्त धर्मका सारभूत उपदेश दिया जिसे उस दुर्गन्धा चाण्डाली ने भी आदर सहित सुना । इसे सुनकर उसने धर्मपर श्रद्धा की और पंच उदुम्बरका त्याग किया | शीन ही उसकी आयु भी पूर्ण हुई। तब वह धर्ममें भावना रखती हुई मृत्युको प्राप्त हुई। उस व्रतके प्रभावसे तथा भरणकालके उपशम भारसे वह उज्जैनीमें एक दरिद्री ब्राह्मणके घर जाकर कुरूप कन्या उत्पन्न हुई।॥ ७ ॥ इस मवमें अब उस कन्याकी दुर्गन्ध एक कोस तक ही जाती थी। तीन पापका अन्त शीघ्र नहीं हो पाता । जन्म होते ही उसकी माता द्विज-पत्नीका भरण हो गया । मातृ-विहीन होकर इसने बहुत दुःख पाया। वह धास, लकड़ी, पत्ते, फल आदि बेचनेका कबाड़ करके अपना पेट पालने लगी । तब एक दिन उस उज्जयिनी नगरीके समीप सघन वृक्षों वाले नन्दन वनमें सुदर्शन मुनिवरका आगमन हुआ। वे मुनीन्द्र गतवाहन अर्थात् बाहनरहित थे जिससे उसकी उपमा सुरेन्द्रसे दी जा सकती है जो गजवाइन अर्थात् हाथी पर आरूढ़ होते हैं। ये तीन दर्शनोंके (चक्षु अचक्षु और अवधि ) के धारक थे जिससे वे त्रिदर्शन अर्थात् तीन आँखों वाले शंकरके समान थे । वे चार भाषाओंके पाठी थे जिससे वे ब्रह्माके समान थे जो चार वेदोंका पाठ करते हैं। वे गदारहित होनेसे अपूर्व विष्णु के समान दिखाई देते हैं। ये इतने गुणवान् थे कि उनके समस्त गुणों का वर्णन करना अशक्य है । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] दहमीकहा यरिहिं जणु जत्तहिं गयउ ताम । गउ जत्तरं सहु तेरे । या गुरुमत्तिएं मुणिवरासु । wer firefig - तियाय । आव ज वहु असंखु एहु । जवस पराय एक्कु एत्थ । fue आय पेक्es अरा कोउ । गय राहुति कोऊहले । पुच्छंतर जम्मंतरई । दुfears पणाes afणव भासइ जासु वि जाई रिंतर ॥ ८ ॥ ह एहउ परमेसरु आउ जाम । जससेणु पराहिउ परियणे । तिलय मोहरि भज्ज तासु । ता संतरि सादियतणिय तरस्य । पुच्छिउ कि दीसह यरि खोहु । ता कारण विकहिउ तेत्थ । तहो चंदणमत्तिए जाउ लोउ । fure मेल्लिऊण । यत्ता-ता दिट्टज लोयउ पुरउ वइहउ तो धम्मम्मो फतु विकेवि । तर तासु सुबु | उम्मूलिउ जे भवतरुहु मूलु । भूलिउ यत्तय- भूसणेण । frase महिय तहि अवसरेण । पुच्छहि वयदाराहि अराए वि । अवलोय मुणि चूरिज सतत जिं मगहर | तिसूलु । तक्खऐस ! जं दिवि स पु for fres aणीसरेण । [१,८,८ १० १५ ५ ऐसे परम मुनीश्वर के आनेपर नगर निवासियों की उनके दर्शनके लिए यात्रा प्रारम्भ हो गई। राजा जयसेन अपने अन्तःपुर एवं परिजनों सहित यात्राको निकले। उनकी वनतिका नामक मनोहर मार्या भी बड़ी भक्ति सहित मुनिवरके समीप आयी । इसी बीच वह विजकन्या दुर्गन्धा भी घास लकड़ी लिये हुए बहींसे निकली । उसने लोगों से पूछा "नगर में इतनी हलचल क्यों हो रही है और वनकी ओर ये असंख्य लोग क्यों आ रहे हैं । तब किसी ने उसे बतलाया कि वहाँ एक यतिवर आये हैं और उन्होंकी वन्दनाके लिए लोग भक्ति सहित जा रहे हैं। और की तो बात ही क्या, स्वयं राजा भी उनके दर्शनके लिए आया है। यह बात सुनकर उस द्विजकन्याको मी कौतूहल हुआ और वह अपना भार वहीं छोड़कर बनकी और चल पड़ी । वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि वहाँ बहुत लोग बैठे हुए हैं और वे अपने-अपने जन्मान्तरकी बातें पूछ रहे हैं । मुनि महाराज जिस किसीसे बोल लेते हैं उसके निरन्तर पापका विनाश हो जाता है ॥ ८ ॥ वहाँ कोई मुनिराजसे धर्म और अधर्मका फल पूछ रहे थे, तो अन्य कोई व्रत और दानका फल जानने की इच्छा कर रहे थे। इसी बीच दुर्गन्धाने वहाँ पहुँचकर और उनकी सब बातें सुनकर मनोहर मुनिवरकी ओर देखा । वे मुनिराज सामान्य नहीं थे । उन्होंने अपने संयम और तपके प्रभावसे भव रूपी वृक्षके मूलको नष्ट कर दिया था और त्रिशूल-सा चुभने वाले मिथ्यात्व माया और निदान इन तीनों शल्योंको चूर-चूर कर दिया था । वे दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों रत्नोंसे विभूषित थे। मुनिराजपर दृष्टि पड़ते ही दुर्गन्धा उसी समय मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ी। मुनिराजने उसे अपने समीप मँगा लिया और गोपीर रससे उसका सिंचन कराया। वह क्षण भरमें सचेत हो गई । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १,१०,१] कानो संधी [ १३ सिंचाविय गोसीर हु रसेण । एत्यंतरे पुच्छिय रयरवरेण । ता भगिउ णिसुगि राग्राहिराय । परिसाहिवि सक्कई जिएवरिंद। जइ भएड लेसु एक्कु जि कहेमि । ता भरिएउ गरि दईजेत्तिया वि। सा मगाइ एत्थ सुपसिद्ध जाय । तहि सारवड गामें पउमणाहु । हुई सिरिमइ यामें तासु कंत । ता अरणहि दिणि घणकीलणेण । ता दिठ्ठ मणीसह सुमुहु रंतु । ता रायएं हिल यह पेसियाई। ते पावे तहि भवे रिवेण चत्त । खणभेजकई चेयण लइय तेरण । तुहुँ मुच्छिय कवरणहि कारणेगा । महु तरिणय अहम्म कहाणियाय । मह दुक्खसंस्त्र अह वा मुरिंद । पीसेस ए कहणहं सरकएमि । सक्कहिं कह पयडहि तेत्तिया विन रामेण वरणारसि रणयरि राय । जिरणवर-पय-भसलु महीसरणाहु । अपारा पियारी गुरगमहंत । जा चल्लिय बिरु अद्धासरणेण । पुष्यकियकम्महो जो कयंतु । खावाविउ मई विसरोसियाई । मुअ कुटिणि होइवि दुक्खतत्त । घत्ता--हुन महिसि सिंगालिय सूवरि कालिय पुगु संवरि चंडालि तह । एवहिं हुव बंभारण दुयख-णिसुंभणि एत्तिए भव-श्रावलिय-कह ।। ४ । २० ता णिवेण वृत्त मुणि मज्झ भासि । इन सच्चु चवइ कि अलिगरासि । दुर्गन्धाके सचेत होनेपर राजाने उससे पूछा कि हे कन्ये, तू यहाँ मूच्छित किस कारण से हुई ? तब दुर्गन्धाने कहा "हे राजाधिराज, मेरी अधर्मभरी कहानी सुनिये। मुझे जो असंख्य दुख सहन करने पड़े हैं वे या तो जिनेन्द्र ही कह सकते हैं अथवा ये मुनीन्द्र । यदि मुझे ही कहना है तो मैं केवल एक लेशमात्र कहती हूँ। समस्त वृत्तान्त कहना मेरी शक्ति के बाहर है। तब राजाने कहा जितनी कथा तू कह सके उतनी ही कह । तब दुर्गन्धाने कहा इसी भरत क्षेत्रमें बनारस नामकी सुप्रसिद्ध नगरी है। वहाँ एक बार पद्मनाथ नामका राजा राज्य करता था । वह राजा जिनपदभक्त अर्थात् जैन धर्मका उपासक था। मैं उसी पश्यनाथ राजाकी रानी श्रीमती थी । सर्वगुणसम्पन्न होनेसे राजा मुझे अपने प्राणोंके समान प्यार करता था। एक दिन जब मैं राजाके साथ अर्धासनपर बैठी हुई वन-क्रीड़ाके लिए जा रही थी, तब सम्मुख आते हुए एक मुनिराज दिखाई दिये। वे पूर्वकृत कोंके क्षय करनेमें कृतान्त अर्थात् यमराजके समान थे। उनके दर्शन होनेपर राजाने मुझे उन्हें आहार कराने के लिए वापिस घर भेजा । मैंने आकर क्रोध भावसे उन्हें कड़वे फलोंका आहार कराया । उस पापके फलस्वरूप राजाने उसी मवमें मेरा परित्याग कर दिया । मैं कुष्ट रोगसे पीड़ित हो गई और दुःखसे तप्तायमान होते हुए मैंने प्राण विसर्जन किये। जन्मान्तरमें मैं क्रमशः भैंस, शृंगाली, काली शूकरी, फिर साँभरी और फिर चण्डालिनी होकर अब इस जन्ममें ब्राह्मणी हुई हूँ। यही मेरे भवभ्रमणकी दुःखपूर्ण कहानी है ॥ ९ ॥ दुर्गन्धाके जन्म-जन्मान्तरोंकी दुःखपूर्ण कथा सुनकर राजाने मुनिराजसे पूछा 'हे मुनीन्द्र । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुअंधदहमोकहा [१,१०,२ता मणिउ मुणिदें सयलु सच्चु । अराणारिसु अस्थि रण एरण बचु । पुणु तत्थ सारिदै वुत्त साहु । किम कम्मछेउ होसइ सुलाहु । कहि को विउवाउ अउन्यु तेम ! चलि पावड़ मुहगड एह जेम । ता भगिउ सुअंघदहामि करेइ । दुत्तरु कम्मोवहि तिरण तरेइ । तहि अवसरि ताई गरेसरेण । भालयलि गिहियकर-ण असिरेण । पभरिणउ परमेसर कहहि तेम। किन्नइ दिज्जइ उजमण जेम। एत्वंतरि गहि जंतउ विमाए । पडिखलिउ विचितइ ता बिमाण । यामेरा धुर्वजउ खगवई ।। रिणय तेश्रोहामिय-गहबईसु ।। अच्छइ कि अरि महु कूरभाउ । कि मुरिगवर को विउझिय-कसाउ। १० इम चिंतिवि झायउ जा मम्मि । ता जागिऊ मुरिंग गिम्मनु जामि । अच्छइ पयतउ. धम्मसार। लइ जाउ ए गच्छद जहि कयारु । इम चिंतिवि खेयरु पाउ तेत्थु । अच्छह मुणि गायर-जणु विजेत्यु । वंदेपिणु तहिं उबइट ठ जाम । एल्यंतरे पनि लह कह नाम । घसा-णिसुणहि णियपुत्तिए प्रायम-जुत्तिए णिसुरणहि अवर वि सयलह । १५ भासमि विहिकरणउ पुणु उज्जमए उ फलु सुगंधदहमिहि जह ॥१०॥ यह जो दुर्गन्धा ब्राह्मणीने कहा है वह सब सत्य है या झूठ बातोंका पुंज है । मुनिराजने कहा'जो कुछ इसने कहा है वह सब सस्य है, औरोंके समान उसने झूठ कहकर धोखा देनेका प्रयल नहीं किया । तब राजाने मुनिसे पूछा 'हे मुनिराज, अब इस ब्राह्मणीको अपने कर्मोका छेद करनेका अबसर कब और कैसे मिलेगा ? आप कोई ऐसा अपूर्व उपाय बतलाइये जिससे कि आगे चलकर यह कन्या शुभ गतिको प्राप्त हो सके । राजाका प्रश्न सुनकर मुनिराज बोले 'इस कन्याको सुगन्ध दशमी व्रतका पालन करना चाहिए। उसी व्रतके द्वारा यह काँके दुस्तर समुद्रको पार कर सकती है।' इस अवसरको पाकर राजाने सिरपर हाथ जोड़ मुनिको नमन करके प्रार्थना की 'हे मुनिराज, अब यह बतलानेकी कृपा करें कि यह व्रत कैसे किया जाता है और उसके उद्यापनकी विधि क्या है ? ठीक इसी बीच आकाशसे गमन करता हुआ एक विमान वहाँ आकर सहसा रुक गया। अपने विमानको अवरुद्ध हुआ देखकर उसमें आरूढ़ हुआ विद्याधर भी विमान अर्थात् मानहीन होकर चिन्तामें पड़ गया । विमानका अधिपति ध्रुवंजय नामक विद्याधरोंका राजा था जिसने अपने तेजसे ग्रहपति अर्थात् चन्द्रमाको भी पराजित कर दिया था । अपने विमानके अकस्मात् रुकनेले वह विद्याधर सोचने लगा 'क्या यहाँ कोई मेरा शत्र बैठा है जो मेरे प्रति क्रूर भाव रखता है; अथवा यहाँ कोई मुनिवर विराजमान हैं जिन्होंने अपने क्रोधादि कषाय त्याग दिये हैं ?" यह चिन्ता उत्पन्न होनेपर ज्योंही उस विद्याधरने मनमें ध्यान लगाया त्योंही वह जान गया कि वहाँ एक निर्मल स्वभाव और प्रचण्ड तपस्वी मुनिवर लोगोंके बीच बैठे हुए उन्हें धर्मका सार समझा रहे हैं । 'तो मैं भी शीघ्र वही जाऊँ जहाँ कुकर्मी नहीं जाता' ऐसा विचार कर वह विद्याधर भी वहीं आ पहुँचा जहाँ चे मुनिराज और नगरनिवासी बैठे थे । विद्याधर मुनिवरकी वन्दना कर जब वहाँ बैठ गया तब मुनिराजने अपना धर्मोपदेश देना प्रारम्भ किया । उस दुर्गन्धा कुमारी तथा अन्य उपस्थित जनोंको सम्बोधन करते हुए मुनिराज बोले Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १,११,१४ ] पढ़मो संधी भद्दति सियपंचमि उपसिज्जड़। पंचदिवसि कुसुमंजलि दिज्जइ । गायफलहि फणस-विजजरहि । फोफल-कुंभडहिं रणालियरहि । कुसुमहि पंच-पयार-सुअंधहि । महमहंत-वरघुबहि दीवहिं । पुणु दहमाहिं सुअंधङ किन्नइ । तहिणि आहार वि गियमिज्जा। अहवा पोसहु गऊ सबकेज्जई । एयभत्त तो पियमई किजद । स्यगिहि जिण चउबीस रहविजई । दहबारे दह पुज्जउ किज्जइ । दहमुह-कलस करेवि थपिज्जा । पुणु दहंगु तहे धूउ दहिजई । कुंकुभाइ दहदब्बई जुत्त। किंज्जइ जिग-समलहणु पवित्तउ । पुणु दह भतिहि अक्खय-जुत्तउ । लिहियई मंडल अंसु विचित्तउ । तहि दह दीवय उपरि धरिजई । दह फल मणहर अगई दिज्जई । दह पयार हो विजई किज्जई। दह वारइं जिणणाहु थुगिज। इय विहिए किज्जइ दह वरिसई। दह पाणई परिवडिय-हरिसई । घसा-इय विहाणु मिसुरिणउ पिवद पुराणु रिशमुणहि उजुमरण । (तं तह) श्राहासमि कमिण पयासमि होइ जेम जे करणउ ॥ ११ ॥ "हे पुत्रि तथा अन्य नगरनियासियो, सुनो। मैं तुम्हें आगम और युस सहित यह समस्त विधि बतलाता हूँ जिसके अनुसार सुगन्धदशमीव्रतका पालन और फिर उसका उद्यापन करना चाहिए । मैं यह बतलाऊँगा कि इस व्रतके पालनका फल क्या होता है ॥ १०॥ सुगन्धदशमी व्रतका पालम इस प्रकार किया जाता है-भाद्रपद शुक्ल पंचमीके दिन उपवास करना चाहिए और उस दिनसे प्रारम्भ कर पाँच दिन अर्थात् भाद्रपद शुक्ल नवमी तक कुसुमाञ्जलि चढ़ाना चाहिये 1 कुसुमाञ्जलिमें फनस, बीजपुर,फोफल,कूप्माण्ड,नारियल आदि नाना फलों तथा पंचरंगी और सुगन्धी फूलों तथा महकते हुए उत्तम दीप,धूप आदिसे खूब महोत्सबके साथ भगवान्का पूजन किया जाता है। इस प्रकार पाँच दिन नवमीतक पुष्पाञ्जलि देकर फिर दशमीके दिन जिन-मन्दिरमै सुगन्धी द्रव्यों द्वारा सुगन्ध करना चाहिए और उस दिन आहारका भी नियम करना चाहिए। उस दिन या तो प्रोषध करे, और यदि सर्व प्रकारके आहारका परित्याग रूप पूर्ण उपवास न किया जा सके, तो एक वार मात्र भोजनका नियम तो अवश्य पाले। रात्रिको चौबीसी जिन भगवानका अभिषेक करके दश वार दश पूजन करना चाहिए । एक दशमुख कलशकी स्थापना करके उसमें दशांगी धूप खेना चाहिए | कुंकुम आदि दश द्रव्यों सहित जिन भगवान्की पवित्र पूजा स्तुति करना चाहिए । पुनः अक्षतों द्वारा दश भागों में नाना रंगोंसे विचित्र सूर्य मण्डल बनाना चाहिए । उस मण्डलके दश भागों में दश दीप स्थापित करके उनमें दश मनोहर फल और दश प्रकार नैवेद्य चढ़ाते हुए दश बार.जिन भगवान्की स्तुति वन्दना करना चाहिए । इस प्रकारकी विधि हर्ष पूर्वक मन वचन कायसे पांचों इंद्रियोंकी एकाग्रता सहित प्रति वर्ष करते हुए दश वर्ष तक करना चाहिए । मुनि महाराज कहते हैं, हे राजन् सुगन्धदशमी व्रतके विधानको तुमने सुना । अब आगे इस व्रतकी जो उद्यापनविधि है, उसमें जो कार्य जिस प्रकार करना चाहिए, उसे यथाक्रमसे बतलाता हूँ ॥ ११ ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुअंधवमीकहा [१,१२,१ १२ दह परिसई पूरिहिं उज्जुमणऊ। किज्जइ जिणवर-देवहं राहवराउ । पुणु मणहरू फुल्लहरउ किज्ज । अंगारण चंदोबउ ताहिजइ । दह-धएहिं उभिज्जद जिणहरु । नारइय हु लंबिजई मणहरू। दिज्जइ घेट चमर जुअलुल्लउ.। धूवडहणु भाररिउ मल्लल । दह पोत्थय वत्थई घलिज्जई। दह पुरण पोसह-दापई दिज्जई। दह साडय दिज्जई वयधारिहि । दह अच्छापय तह बंभारिहि । पुशु दह मुरिहिं रसहि छहि जुराउ | दिज्जइ श्राहारो वि पविचाउ । दह कंचुल्ल खीर-घय-जुराई। दिज्जई सावय-परिसु पवित्लाई । रिसर । कहिल असेसु चि मई तुह सिरिहर । अहवा एति जई विरण पुज्जई तो णियसलिए थोक्न दिज्जइ । थोवई होणु पुराण उप्पज्जइ । एज या चित्ति कयाधि धरिज्जइ । अहियह तउ गिय-सत्तिए दिरगाउ। थोवई अहिज पुराणु पडिवर एका सगहु पिंडु कहाणिय जारिसु। होइ अपांतु पुणु इह तारिसु । पत्ता-इय विहिय-विहागाई सहु उज्जमाउ जो करेड़ तिय पुरिसु लहु । सो कम्मई खंडिवि भवदुहु छडिवि पुणु पावई सिउपयहु सुहु। इय सुधदहमीकहाए पढमो संधी परिच्छो समतो ॥१॥ स १५ जब सुगन्धदशमी व्रतका विधिपूर्वक पालन करते हुए दश वर्ष पूर्ण हो जायँ तब उस व्रतका उद्यापन करना चाहिए । मन्दिरजीमें जिन-भगवान्का अभिषेक पूजन करना चाहिए । समस्त जिन-मन्दिरको पहले मनोहर पुष्पोंसे खूब सजाना चाहिए, आँगनमें चंदोवा तानना चाहिए, दश बजाएँ फहराना चाहिए और मनोहर ताराएँ भी लटकाना चाहिए । मन्दिरजीको घंटा और चामरोंकी एक जोड़ी तथा अच्छी धूपधानी और आरती चढ़ाना चाहिए । दश पुस्तकें और दश बस्त्र भी चढ़ाना चाहिए तथा दश व्यक्तियोंको औषधिदान देना चाहिए। जो व्रतधारी ब्रह्मचारी आदि श्रावक हो उन्हें दश धोतियाँ और दश आच्छानक (छल्लों) का दान देना चाहिए । फिर दश मुनियोंको षडरस युक्त पवित्र आहार देना चाहिए। दश कटोरियाँ पचित्र खीर और घृतसे भरकर दश श्रावकोंके घरों में देना चाहिए। हे श्रीमान् नरेश, यह सुगन्धदशमी ब्रतका उद्यापन विधान है जो मैंने तुम्हें समस्त बतला दिया । यदि इतना विधान करना ५ दान देना अपनी शक्तिके बाहर हो तो अपनी शक्ति के अनुसार थोड़ा ही दान करना चाहिए । थोड़ा देनेसे हीन पुण्य उत्पन्न होता है, ऐसा विचार चित्तमें कदापि न लाना चाहिए । बहुत दानकी अपेक्षा जो भी अपनी शक्तिके अनुसार दिया जाता है उससे अधिक ही पुण्य उत्पन्न होता है। माना स्वगाँकी प्राप्तिकी जो नाना कहानियों कही जाती हैं उनके ही समान इस सुगंधदशमी व्रतके पालनसे भी अनन्त पुण्यकी प्राप्ति होती है । ऊपर बतलाये हुए विधि विधानके अनुसार जो कोई स्त्री या पुरुष सुगंधदशमी व्रतका पालन करता और उद्यापन कराता है वह अपने कर्मोंका खण्डन करके व संसारके दुःखोंको छोड़कर उत्तम स्वर्गादि पदोंके सुखका अनुभव करता है ।। १२ ॥ इति सुगंधदशमी कथा प्रथम सन्धि । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ संधी दह मीहे वउ किंजइ मणि अणुराए। कलिमलु अपहरइ पुव्यकिय मुबह पायें । इउ कहिउ मुगिदई जाम अत्थु । तहि दिणि तहिं हुइ दहमि तत्थु । किड व ता सयलेतेउरेण | उराएं सह परिकार। किन रायरिहिं लोयहि सयलएहिं । कि ते दुर्गघई अवरएहिं । ता दिरगाउ चैदशु केण ताहे । केण वि कुसुमक्खय दण्याहे । केण वि तह अपिउ रहवां अमलु | केरा वि चरू दीक्उ धूउ-सहल्छ । तेरण विकिउ गुरु-अणुराएण! रहवणचणु सहुँ उक्वासएगा। मुरिगणाहहो भाउसु मुगिउ ताहे। अख्मियहे समप्पिय सुव्वयाहे । ता छटोवासई कंजियाई। एक्कंत-राय-रस-वजियाई । अवराई मि बहु भेयाई जाई। गुरुकायकिलेसई कियई ताई। अवसाण-यालि जिणु संभरेवि। मुअ चउविहु सरणासा करवि । उप्परिणय सुणि सेणिय-गरिंद। जहिं षयहं पहावई अरि-मईद । द्वितीय संधि सुगंध दशमी व्रतका पालन मनमें अनुराग सहित करना चाहिए। इससे कलिकालके मलका अपहरण होता है और जीव अपने पूर्वमें किये हुए पापोंसे मुक्त होता है। जिस दिन मुनिराजने यह सुगंध दशमी व्रतके विधानका उपदेश दिया उसी दिन भाग्यसे वहाँ दशमीका दिन था । अतः इस व्रतको राजाने और उनके समस्त अन्तःपुर तथा परिवारके लोगोंने धारण किया । नगर-निवासी सभी लोगोंने भी प्रत किया । और सबके साथ उस दुर्गन्धाने भी व्रत धारण किया । उस दीन बालिकाको किसीने चन्दन दे दिया और किसीने फूल व अक्षत दे दिये । किसीने उसे निर्मल अभिषेककी सामग्री दे दी तथा किसीने नैवेद्य, दीप, धूप व फल प्रदान किये । इस समस्त सामग्रीको पाकर दुर्गन्धाने बड़ी भक्तिसे उपवास धारण किया और भगवानका अभिषेक-पूजन भी किया। मुनि महाराजने अपने अबधिज्ञानसे उसकी आयु अल्प शेष रही जान उसे सुव्रता नामक अर्जिकाको सौंप दिया । दुर्गन्धाने अर्जिकाके समीप रहते हुए पाठोपवास अर्थात् लगातार दो-दो दिनके उपवास किये तथा राग और रससे वर्जित कांजीका आहार लिया । और भी जो उपवासोंके अनेक भेद हैं तथा जो कायक्लेश रूप व्रत हैं उन्हें दुर्गन्धाने विधिपूर्वक पाला । आयुका अन्त आनेपर उसने जिन भगवानका स्मरण करते हुए खाद्य , स्वाद्य, लेह्य और पेय इन चारों प्रकारके आहारका संन्यास अर्थात् सर्वथा परित्याग करके मरण किया । मगवान् महावीर राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि 'हे शत्ररूपी मृगोंके लिए सिंह नरेन्द्र, उस सुगंध दशमी व्रतके प्रभावसे वह दुर्गन्धा मरकर पुनः अगले जन्ममें जहाँ उत्पन्न हुई उसकी कथा सुनिए Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १- 7 सुअंघदहमीकहा [२,१,१३रयण उरि रायरि वर-करणय-काउ।। करणयप्पड रणामई अस्थि राउ । तहो कणयमाल सामेण कंत । अइमणहर पड़-गुरु-विण्यवंत । अह नहिं पुरि वरिण जिरायत्तु णाम । जिरायत्त भज्ज रइ-सोक्ख-धाम । तहो सेहि-अपुत्हो पुत्ति जाय। उपराणी जाएवि तहि मि साय । णामेण तिलयमइ णिसुणि राय । बहुलक्षण-संछिय करणयकाय । असहव सुकलालय विहाइ। तणुअंगें चंदहो रेह पाइ। मइलिजइ ता तहे कुंकुमेण । रहाविजइ पुणु चंदण-रसेण । सई एइ सुगंधु सरीरि ताहे कपरिण तारि मायगायाहे। बहुभावहिं लालिनंतियाहे । मुझ मायरि अराह दियहि ताहे। पत्ता ता ताएं परिणिय अराण तहिं धीय नाहे उप्परगी। गामेण राय सा तेयमई लक्खरण-गुण-संपरणी ॥१॥ सा लालाइ सज्जद गियय बाल | वहील इयर वि गिरु सुषाल । आहरणई पत्थई णियहे दे। उहालिवि इयरहि पासि ले। आहार पाण णियसुअहि देड । इयर वि मरगति य उ लहेइ । रत्नपुर नगरीमें उत्तम कनकके समान सुन्दर शरीर कनकप्रभ नामके राजा राज्य करते थे । उनकी प्रिय भार्याका नाम कनकमाला था जो बड़ी मनोहर और अपने पति तथा गुरुजनोंके प्रति बड़ी विनयवती थी । उसी रत्नपुर नगरमें सेठ जिनदत्त रहते थे जिनको पूर्ण सुख देनेवाली भार्याका माम जिनदत्ता था। जिनदत्त सेठके कोई पुत्र नहीं था। उनके एक मात्र कन्या उत्पन्न हुई थी जिसका नाम था तिलकमती । हे राजन् , सुनिए - वह तिलकमती नामक कन्या सभी सुलक्षणोंसे सम्पन्न थी और शरीर तो इतना सुन्दर था जैसे मानो सुवर्णका ही बना हो। वह सुभग कन्या समस्त कलाआंकी भी निधान थी जैसे मानो कोमल शरीर धारण करके चन्द्र-कला ही उत्पन्न हुई हो । जिनदत्त सेठ उस कन्याको इतने लाड़-प्यारसे रखते थे कि केशरसे तो उसके शरीरका मालिश किया जाता था और चन्दनके रससे उसे स्नान कराया जाता था। उसके शरीरमें स्वभाक्से ऐसी सुगन्ध आती थी जैसी कपूर और कस्तुरी में भी नहीं पाई जाती। ऐसी उस सुन्दर लावण्यवती कन्याका जब नाना प्रकारके लाड़-प्यारसे लालन-पालन किया जा रहा था तब एक दिन अकस्मात् उसकी माता जिनदत्ता का स्वर्गवास हो गया । अपनी प्यारी भार्याकी मृत्यु के पश्चात् उसके पिता सेठ जिनदत्तने दूसरा विवाह किया । इस दूसरी सेठानीके गर्भसे भी एक कन्या उत्पन्न हुई। हे राजा श्रेणिक, इस लक्षणों और गुणों से सम्पन्न कन्याका नाम तेजमती रखा गया ॥१॥ सेठानी अपनी औरस पुत्रीको तो खूब लाड़ करती और सजाती थी, किन्तु उस दुसरी सौतेली कन्या तिलकमतीका उसके भले स्वभावकी होनेपर मी तिरस्कार करती थी । सेठानी अपनी पुत्रीको अच्छे आभरण और वस्त्र देती थी, किन्तु सौतेली पुत्री के पास जो कुछ होता उसे भी छीन लेती थी। अपनी सुताको वह अच्छा भोजन खिलाती-पिलाती थी, किन्तु बेचारी सौतेली कन्या माँगनेपर भी भरपेट खानेको नहीं पाती थी । अपनी पुत्रीको सेटानी सदैव अपने पास Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २,२,१५ ] सीओ संधी णिय सुअ धरेइ अप्पुण पासि । इयर वि कम्माषइ ओम दासि । ता ताएं जाणिउ महु सुमाहे । रण सहेइ सक्किहि बिरहु ताहे। इम चिंतिवि पुणु दुवि दासिमाउ । ऐवित्तिय करिवि समप्पियाउ। एत्तरे रयाइं लेवि साहु । पेसिड रगरगाहें सायराहु । जंतरण कंत पभरिणय विवाहु । विहि जणिहि करेनहि भोयलाहु । ता पिच्छिवि मरगहि सुवरण करण । रणामेरा तिलयमइ कणयवरण | ता दावइ अग्गई शिया करण । सरणई लावर गाई राह परण ! इयर पिणिभंडा दूसराय । विहिरियल धून कय सुंदराय । इय वयणहि केण वि बरिय सा वि | इयर विजा रग लहिय मणहरा वि । ता किज संजोउ विवाहकम्म । मंडउ चज चंडरिए वेइ रम्मु । पुणु तइल-पमुह वरणई वराई । कीयइं विहि जणिहिं. मणोहराई । परिणयण-दिवसि रयणीहि तेण । मुक्किय मसाणि सिंगारिएण। आवेसई को इह वरु पसत्थु । परिणावहि अप्पुणु पुत्ति एत्थु । चउपासहिं दीवय चारि देवि । चउ वारई चउपासहि यवेवि। आईसहं दासिहि इय भरगवि। एक्काझिय तहि सा वणि मुगवि। प्रत्येतरि णिउ सोयल-सिहरि । ता पेक्खइ थिउ उत्तुङ्ग-पपरि । रखती थी, किन्तु उस सौतेली पुत्रीको सदैव काममें लगाये रखती थी, जैसे कि वह कोई दासी हो । तिलकमतोके पिताने समझ लिया कि सेठानी उसकी पहली पुत्रीको पास रखना उसी प्रकार नहीं सह सकती जिस प्रकार कि वह अपनी पुत्रीका बिरह नहीं सहन करती । इस चिन्तासे सेठने अपने घरमें दो दासियाँ नियुक्त कर दी। इसी बीच एक और प्रसंग आ गया | राजा कनकप्रभने सेठ जिनदत्तको बुलाकर बड़े आदरसे उन्हें रत्न खरीदनेके लिए देशान्तर जानेकी आज्ञा दी। जाते समय सेठने सेठानीसे कहा "मैं तो राजाको आज्ञासे देशान्तर जाता हूँ, किन्तु तुम अपनी इन दोनों पुत्रियोंका विवाह दो योग्य वर देखकर कर देना जिससे वे सुखसे रहें।" यह कहकर सेठ तो देशान्तरको चले गये। इधर जो भी वर कन्याओंको देखने आता वह उसी कनकवर्ण सुन्दरी तिलकमतीसे ही विवाहकी याचना करता था। किन्तु सेठानी अपनी पुत्रीको ही आगे करके दिखाती और कहती यही कन्या सुन्दरवर्ण और लावण्यवती है। वह अपनी उस सौतेली कन्याकी बुराई करती और उसे कुरूप बनाकर दिखाती । इन वचनोंसे किसी वरने उस कन्यासे ही विवाह करना स्वीकार किया और उस मनोहर दिखाई देनेवाली दूसरी कन्यासे नहीं। सेठानीने विवाह पक्का कर लिया। विवाहका समय आया । मंडप सजाया गया जिसमें चैवरी लटकाई गई व रमणीक विवाह-वेदी बनाई गई। दोनों कन्याओंकी तेल हलदी आदि विवाहकी उत्तम विधियाँ उत्सव पूर्वक की गई । विवाहके दिन रात्रि होते ही तिलकमतीका शृङ्गार करके सेठानी उसे नगरके बाहर श्मशानमें ले गई और उसे वहाँ बैठाकर बोली "हे पुत्रि, तेरा श्रेष्ठ वर यहीं आवेगा और तुझसे विवाह कर लेगा।" ऐसा कहकर उसके चारों ओर चार दीपक रखकर तथा चारों पार्यों में चार कलश स्थापित करके "दासियोसहित आऊँगो" ऐसा कहकर सेठानी तिलकमतीको श्मशानमें अकेली छोड़कर घर लौट गई। उसी समय राजा कनकप्रभ अपने राजमहलकी ऊँची अट्टालिकापर चढ़कर Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुअंधदहमीकहा [२,२,२०चिंतिउ कि दीसइ जविखणीय । कि साहइ विजई मासिणीय । किं देवि का विगंधधि एह । कि अचरि वर लावरण-देह । अहवा कि एण वियप्पएण। पुच्छमि लहु तुइ भंति जेण । इम चिंतिवि बिउ संपत्त नेत्थु । अच्छइ मसाणि वर बाल जेत्थु । चिंतिउ पर होइ ण जक्षिणीय । लोयणहु फडफडु मासिएगीय । इम चिंनिवि अप्पु वि पर होइ । गार हनुजगारि सियडु सोइ । बुल्लाविय का तुहं एत्थु काई ।। कि ईहहि भणु महु बालियाई । सा भरणा कुमारिय वरु गिरमि। परिणयपु एत्थु अज्जु चि करेमि । महु पेसिउ ताउ गरेसरेण । देसंतरु रयणहं कारण। पच्छई सावक्किर मायरीए। पारधु विवाहु मोहरीए । णियसुअहे गेहि महुतणउ इत्थु । ता राएं जाणिक सयनु अत्यु । घत्ता-तहिं रायए संजोउ करि परिणिय ता तहिं सुंदरि । जिह हरेण गंग अदिरिणय वि. तह सा णयण-मनोहरि ॥२॥ ___ २५ पञ्चूसि सिवइ हरु जाइ जाम। धाएप्पिा अंचलु धरिज ताम। पुणु भणिउ कत्थ मइं परिणिजए। चझिउ कहि एवहिं छडि डऊए। नगरकी शोभा देख रहे थे। श्मशानकी ओर ज्योंही उनकी दृष्टि पड़ी त्योंही वे विचारने लगे"श्मशानमें यह कौन दिखाई पड़ रही है ? क्या यह यक्षिणी है, अथवा कोई मनुष्यनी ही है जो किन्हीं विद्याओंकी साधना कर रही है। या यह कोई देवी है,या कोई गन्धर्पिणी है,या श्रेष्ठ लावण्यवती कोई अप्सरा है ? अथवा इस संकल्प-विकल्पसे क्या लाभ ? वहाँ जाकर ही मैं उससे क्यों न पूछ लूँ जिससे मेरी सब भ्रान्ति दूर हो जाय ।" पेसा विचारकर राजा उसी श्मशानमें आया जहाँ यह सुन्दर सेठ-कन्या बैठी हुई थी । राजाने उसकी ओर अच्छी तरह देखकर यह तो निश्चय कर लिया कि यह यक्षिणी नहीं है क्योंकि इसकी पलकें ढलती और उघड़ती हैं, अतएव यह मनुष्यनी ही है। इतना मनमें निश्चय कर राजा प्रकट होकर उस कुमारीके समीप गया। राजाने सम्बोधन कर कहा "हे बालिके, तु मुझे बतला कि तू कौन है, यहाँ क्यों बैठी है व क्या चाहती है ?" राजाकी यह बात सुनकर वह कुमारी बोली "मैं यहाँ अपने उस घरकी प्रतीक्षामें बैठी हूँ जिससे आज ही मेरा विवाह होना है । राजाने मेरे पिताको रत्न खरीदनेके लिए देशान्तरको भेज दिया। तत्पश्चात् मेरी मनोहर सौतेली माँ ने यह विवाहका समारम्भ किया है। आज ही उसकी निजी पुत्रीका बिवाह घरपर और मेरा यहाँ पर होनेवाला है।" उस कन्याकी ये बातें सुनकर राजाने समस्त वृत्तान्त समझ लिया और स्वयं उस नयन-मनोहर सुन्दरीसे अपना विवाह कर लिया, जिस प्रकार कि हर अर्थात् महादेवने गंगा देवीसे विना किसी के द्वारा कन्यादान दिये विवाह कर लिया था ॥२॥ उस रात्रि राजा उस कन्याके समीप वहीं रहा । प्रातः सूर्योदयसे पूर्व ही जब राजा वहाँसे घरको चलने लगा तब उस कन्याने दौड़कर उसका अंचल पकड़ लिया और बोली "आप मुझसे विवाह करके मुझे यहाँ अकेली छोड़ कर कहाँ जा रहे हैं ? अब आपको आजन्म मेरा Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २,३,१८] बीओ संधी आजम्मु जाम परिपालियाहि । मा विसहरु जिह दंसेवि जाहि । ता परथई साणंदउ हसेवि। सा लत्तिय सुंदर विहसिएवि । हजं जाउं घरई तुह झिलई संतु । श्राएसमि दिणि दिगि सिसि तुरंतु । ताताएं गणिज को तुहं पयासि । हज म्हइसिवालु गुणरयरणरासि । गउ परि पिउएतहि मायरीए । वाहाविय मंडवि बाउरीए । पुणु जंपिउ कहिं गय शिक्कलेवि । केरिसु तहे तायहो वयसु देवि । इय जंपिवि जोगहुँ चलिय जाम । दिद्विय स मसारिण वह ताम। पुपिछय दीसहि परिणियहि छाय। वर-वस्थ-मउड कंकण-कराय। ते भरिपउ माए पिंडारएण।। आवेप्पिा परिणिय एत्थु तेण । ता जंप पेक्खहु चरिज एहि । महो सयमवग्ग दूसणु थवेहिं । करि विहि जणीहि मरिराज विवाहु। कारावमि लोयहु भोयलाहु । गय मंडवहुतिय सिक्कले वि। अप्पड पिंडारह अपवेवि । जसु तराउ कम्मु जारिसु फुरंतु | अवतरिहइ तहु तारिसु भवंतु । इम वयणहि रंजिउ सयलु लोउ। कवडेण पयारिज तहि मि सोउ। पुणु दुत्त पुत्ति एहि भरणहि कंतु । आएइ तहारइ घरे तुरंतु । घत्ता-एथंतरि रायई मणि अणुरायई लेविण वस्थाहरणु तहि । आयउ सई संझहिं खलह दुगेज्झई मंदिरे अच्छइ मन जहि ॥ ३ ॥ पालन-पोषण करना होगा। सर्पके समान डसकर आप मेरे पाससे अन्यत्र नहीं जा सकते ।" राजाने युवतीके ये वचन सुनकर आनन्द पूर्वक हँसकर कहा "हे सुन्दरि, अभी मैं अपने घर जाता हूँ। मैं प्रतिदिन रात्रिको तुम्हारे घर आया करूँगा ।" युवतीने यह सुनकर कहा "आप मुझे यह तो प्रकट करके बतला दीजिए कि आप कौन हैं ?" राजाने कहा "हे गुण रूपी रत्नोंकी राशि ! मैं महिषीपाल हूँ।" इतना कहकर राजा अपने घर चला गया। इधर माताने अपने घर बड़ी आतुरताके साथ मण्डपमें अपनी पुत्रीका विवाह कर दिया। फिर तिलकमतीके वहाँ न दिखाई देनेका बहाना कर कहने लगी "यह बालिका घरसे निकलकर कहाँ चली गई ? अपने बापकी इसने कैसी अपकीर्ति की " ऐसा कहते हुए यह उसे ढूँढ़नेके बहाने चली । श्मशानमें पहुंचकर उसने तिलकमतीको वहाँ बैठे देखा । उसने कन्यासे पूछा "तेरी छवि विवाहित स्त्री जैसी दिखाई देती है, अच्छे वस्त्र, मुकुट और हाथमें कंकन विवाहके चिह्न हैं।" तब कन्याने कहा "हे माता ! एक पिंडार (ग्वाल)ने आकर यहाँ मुझसे विवाह कर लिया है ।" यह सुनकर सेठानी बोली "देखो तो इस कन्याका चरित्र ? परिवारके सब स्वजन बन्धु मुझे ही दोष देते हैं। मैंने तो यह विचार किया था कि दोनों पुत्रियोंका निश्चित किये हुए चरोंके साथ विवाह कराकर लोगोंको जीमनवार कराऊँगी। किन्तु यह स्त्री भरे मण्डपमें से निकल गई और एक पिंडारको उसने आत्मसमर्पण कर दिया। अब मैं क्या करूँ ? जिसका जैसा कर्म उदयमें आता है तैसा ही उसे फल भोगना पड़ता है।" इस प्रकारके वचनों द्वारा समस्त लोगोंका सन्तोष करके उसने कपट शोक प्रकट किया ! फिर उससे बोली 'हे पुत्रि, जो हुआ सो हुआ, अब अपने प्रिय पतिसे तू यह कह कि वह तुम्हारे घर तुरन्त आकर रहने लगे। इसी बीच राजा अपने मनमें उस कन्यासे अनुरक्त होकर वस्त्राभरण लेकर सन्ध्याकालमें उस भवनमें आया जहाँ वह कन्या रहती थी और जहाँ खल पुरुषोंका कोई प्रवेश नहीं था ।। ३ ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुअंधहमीकहा [२,४,१ पइ पिक्सिवि उहिय तहि सराय। गुरुभत्तिए केसहि लुहिय पाय । पुण्णु देविण पासणु घाविभाए । उपविष्ट गियडु अणुराइयाए । एत्तरे रायई देवि चत्य। पाहरण पिलेक्स बहु मयत्य । दिएगाउ कंचुलिउ मणिमयाज। सुतेउ थणहं उज्जोइयाउ । मरिण मउ सिरि मउडु सुतार हार। सोहंति विविह रयरोहि फार । अरमा वि ककरण मणि-खंचियाय। ढोइय दत्तेण वुहार णाय । इय सयलु समष्यिपि गयड जाम । पच्छा जररोग सा दिट्ठ ताम। पुणु लोयहिं जाइ वि कहिङ ताहे। विउमाबहे दुवसहावयाहे। तामाइय कोवई कंपमाण। पेक्खेपिरयु भासइ तहे समारण। हे भरिंग णिलक्खणितुहूं हयासि । कि चोरई परिणिय एत्थु दासि | शिवभूसगाई एउ होहिं अरणा ।। चोरेप्पिा के वितुम दिएण। मारावियाई मायाइयाय ! तृहुं कुलखउ करिवई जाई जाय । इम जपिवि उपवि ते विलेवि। गय घरहं चोरु नहि खंडु देवि ! घत्ता-थिय रिणयपर जाम वि जणभउ लाएवि बाहिरि कोवारउ करिवि । अच्छइ मरिण मुद्धिय संसर छुद्धिय कम्मु पुराणऊ संभरिवि ॥४॥ १५ एत्यंतरि दीवहं जाइ एवि। संपतु सेहि रिशयमंदिरे वि। अपने पतिको माया देखकर अनुराग सहित तिलकमती उठी और बड़ी भक्ति सहित अपने केशोसे पतिके चरणोंको पोंछा | फिर दौड़कर पतिके लिए आसन दिया और उनके निकट स्नेह सहित बैठ गई । तब राजाने उसे लाये हुए वस्त्र,आभरण, विलेपनादि बहुत प्रकारकी शृंगारकी सामग्री प्रदान की। उन्होंने उसे लजटित चोलियाँ दी जो अपने तेजसे स्तनोको उद्योतमान करती थी। सिरके लिए एक मणिमय मुकुट और अच्छी लड़ियों वाले हार जो नामा प्रकार के रत्नोंसे शोभायमान थे,तथा अन्य मणियोंसे जड़े कंकन आदि अपनी प्रिय पत्नीको पहनने के लिए दिये। राजा ये सब वस्त्राभूषण देकर चला गया और पश्चात् यहाँ लोगोंने तिलकमतीको वे सब धारण किये हुए देखा । देखकर उन्होंने जाकर उसकी उस दुष्ट -स्वभाव विमातासे कहा । माताने स्वयं आकर उसे देखकर और कोपसे कंपायमान होते हुए उसे कहा-"अरी भगोड़ी,कुलक्षणा,हत्यारी,दासी ! क्या तुने किसी चोरसे अपना विवाह किया है ? ये जो आभूषण तू पहने हुए है वे और किसीके नहीं, स्वयं राजाके हैं और वहाँसे चुराकर किसीने तुझे दिये हैं। तू अपने बाप आदिको मरवाने,आतापित कराने तथा हमारे कुलका नाश करानेके लिए ही उत्पन्न हुई है।" ऐसा कहकर उस चिमाताने उसके वे सब वस्त्राभूषण उतरवा कर ले लिये और उसे पुनः एक फटा पुराना चीरका टुकड़ा पहनाकर अपने निवासको चली गई । इधर तिलकमती लोगोंसे भयभीत हुई तथा बाहर कोपसे रुदन करती और मनमें मूढ़ भावसे शंकित और क्षुब्ध हुई अपने पूर्व कमोंका स्मरण करती हुई घरमें बैठ रही ।। ४ ।। यहाँ जब रत्नपुर नगर में यह सब घटना हो रही थी तभी सेठ जिनदत्त द्वीपान्तर जाकर Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २,५,१६] तादि विवाह-परिक्रमो वि । ता दियि पिय श्रमणोज्जियाई । संताविय हउं तुह जाइयाई । परिणिय चोरई कि ईरिए‍ । तिम जैपिवि दाविउ ते सन्दु | fire areaण । farar देव मुणमि कज्जु । ताम घरि जायज विवाहु । afa चोप दिए । ताराएं शिवि साहुवय ! लइ सयलु खमि महं तुझ एज । जें परिशिय सो दाहि शिरुत् । मोक्कलिता व गउ घरस्मि । बीओ संधी परिदies aहिं मन को वि पुच्छिकार वर ताई । सकिय विद्दु माइयाई । कारण मुणिज्जर कि पितेण । आहरण-वत्थ-कंचुलिय-दच्यु । area rural arखणेण । देसंतरु जाइवि आज अज्जु | अवि संपत करण्याहु | इउ तुम्ह त स होइ अणु ! जेवर सराउ पसंत वषणु । पर तुह सूत्र चोर कहज भेउ । श्रोणि पइ भणि तुरंतु । पुत्रिय सुविy विजयम्मि । पई सई परिणात्रि कय अजुत्ति । saafi freet तासु पाय । [ २३ ५. १५ लक्खहि परिणिय जेरा पुत्ति । rees for मुणामि तस्य । और वहाँ से लौटकर अपने घर आया । आते ही उसने वह सब विवाहका उपक्रम तो देखा, किन्तु विवाहके आगे पीछे भी जो स्वजन परिजनोंकी भीड़भाड़ रहा करती है यह उसे कुछ दिखाई नहीं दिया; सब सूना पड़ा था। उसने जाकर अपनी प्रिय पत्नीको देखा जो विना किसी शृंगार उदास बैठी हुई थी । सेटने इस उदासीका कारण पूछा। तब सेठानी बोली"तुम्हारी इस पुत्रीले मैं बहुत संतप्त हुई हूँ। इसने उन्मादमें आकर अपना विवाह स्वयं कर लिया है। मैं आपसे क्या कहूँ ? इसने अपना विवाह किसी चोरसे किया है । इसका कोई कारण मेरी समझ में नहीं आता ।" ऐसा कहकर सेठानीने अपने पतिको वे आभरण, वस्त्र, कंचुकी आदि समस्त मूल्यवान् वस्तुएँ दिखाई। उन्हें देखकर सेठ भी स्वयं भयभीत हो उठा । वह तो चतुर था, अतः उसने उसी समय वे सब वस्तुएँ ले जाकर राजाको दिखलाई । सेठने राजासे कहा - "हे देव, मुझे यहाँका सब कार्य कुछ भी ज्ञात नहीं है। मैं तो देशान्तर जाकर आज ही वापिस आया हूँ । मेरे आनेसे पूर्व ही इधर मेरे घर में मेरी पुत्रियों का विवाह हो गया है, और यह एक नया सुवर्ण-लाभ हुआ है। किसी चोरने चुराकर ये सब वस्त्राभूषण मेरी कन्याको दिये हैं । किन्तु ये सब वस्तुएँ तो आपकी ही हैं; वे और किसीकी नहीं हो सकती ।" राजाने जिनदत्त सेटके ये वचन सुनकर प्रेमसे हँसमुख होते हुए कहा - "देखो सेठ, यह सब तुम्हारा अपराध तो मैं क्षमा करता हूँ; किन्तु तुम्हारी पुत्रीको उस चोरका भेद बतलाना पड़ेगा | जिसने उससे विवाह किया है उसे निश्चयसे मुझे दिखलाओ। अच्छी तरह यह सब देख भाल कर तुम शीघ्र मुझे सूचना दो ।" इस प्रकार राजाके पाससे मुक्ति पाकर सेट अपने घर गया । सेटने अपनी उस पुत्रीको एकान्तमें लेजाकर उससे पूछा - "हे पुत्रि, तुमने अयोग्य रीतिसे जिसके साथ स्वयं अपना विवाह कर लिया है उस पुरुषको मुझे बतलाओ ।" अपने पिताके ये वचन सुनकर कन्याने कहा - "हे तात, मैं निश्चयसे तो अपने पतिको उसके चरणों का स्पर्श करके ही पहचान सकती हूँ, क्योंकि मैं नियमसे उसके चरणोंका ही स्पर्श करती रही हूँ।" अपनी पुत्रीकी इस बात को Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुअंधदामीकहा [२,५,१७ताज परिण इय व्यत्ति लेवि। उपइटव असेसु विणिव कहेवि । ता राएं दुत्तु विवाह-भोज्जु । वह गेहि करेसमि हउं मि अज्जु । तेमई चोरहु उवलंभु करहु । परिणिय अदिएण सुभ सो जि धरहु । घसा-ता सेठिहे घरि संजोउ किउ संपत्तु राउ परिमिय-सहइ । २० उबईटव कमेण वि सहु जणहि तहि मि चोज्जु सयल वि कहर ॥ ५॥ प्राणहि सुय रायगई झपऊण । ता श्राणिय परिरणा बुत्त सा वि। सा भरण्इ धुभावहु मई मि पाय । ताताएं पाय धुआवियाय | शिव-पायह कर छुड लग जाम । इहु चोरु विजें हउं परिणियाय । एत्थंतरि गिवें साणंदए। तहि सयलहं मणि पाणंदु जाउ । एत्थंतरि पुगरवि किउ विवाहु । जिम कह चोरु ओलविखकरण । ओलक्खहि जे तहुं परिणिया वि। गिलि दिउ मोलक्समिस ताय । धोति संति तहि आर्षियाय । ओलक्खिउ तायहि कहिङ ताम । राउ अएणु होइ इम जंपियाय । गीसेसु कहिउ वित्तंतु तेण । अइपुरणवंति पिउ लधु राज। सहु सयणहि बिउ घर जिणवराहु । लेकर सेट पुनः राजाके पास गया और जो कुछ उसने अपनी पुत्रीसे सुना था वह सब राजाको कह सुनाया । तब सेठकी बात सुनकर राजाने कहा-"अच्छा, मैं आज ही अपनी ओरसे तुम्हारे घर पर विवाहके भोजका आयोजन करूँगा। उसी भोजमें उस चोरको पहिचान लेना, और जिसने तुम्हारी पुत्रीको विना कन्यादानके विवाह लिया है उसे पकड़ लेना ।" इस प्रकार कहकर राजाने सेठके घर भोजकी तैयारी कराई । स्वयं राजा अपनी सभाके कुछ गिने चुने सम्योंके साथ बहाँ पहुँचे। सब अभ्यागत मिलजुल कर सेठके घर में बैठे। सब लोग यहाँ होनेवाले कौतुककी ही चर्चा कर रहे थे ॥ ५ ॥ राजाने आज्ञा दी कि सेठकी वह कन्या आँसे ढंककर वहाँ लाई जाय, जिससे कि वह उस चोरका पता लगा सके । सेठ अपनी कन्याको वहाँ ले आया और उससे कहा- "हे पुत्रि, अब तू उस पुरुषको पहिचान कर जिसने तुझसे विवाह किया है ।" कन्याने कहा- "हे तात, मैं तो अभ्यागतोंके पैर धुलाकर ही उनमेंसे अपने पतिको पहिचान सकूँगी, क्योंकि रात्रिमें ही उनके दर्शन होनेसे मैं उनकी मुखाकृतिसे भलीभाँति परिचित नहीं हूँ।" तब सेठने अभ्यागतोंके पैर धुलवानेका आयोजन किया । कन्या अपने हाथोंसे प्रत्येक अतिथिके पैर धुलाती जाती थी और वे यथा स्थान बैठते जाते थे। राजाको भी वारी आई । राजाके पैरोंका कर-स्पर्श होते ही कन्याने अपने पतिको पहिचान लिया और पितासे कह दिया- "हे पिता, यही वह चोर है जिसने मुझसे विवाह किया है, अन्य कोई नहीं।" कन्याके ऐसा कहने पर राजाने आनन्दित होकर वह सब वृत्तान्त वर्णन करके सुना दिया। उस वृत्तान्तको सुनकर सबके मनमें आनन्द हुआ और वे सब कहने लगे-"यह कन्या बड़ी पुण्यवान् है जिसने स्वयं राजाको अपना पति पाया ।" इस वृत्तान्त के पश्चात् कन्या तिककमतीका राजा कनकप्रमके साथ पुनः विधिवत् विवाह Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २,७,३] पीओ संधी जिगु वंदिवि तहिं उवट्ट जाम | पुणु तिलयमइए संदिट्टु ताम । पुच्छिा परमेसर पइ पिएवि। __ महु हु काई बहुइ सुरवि । ता मुणिणा कहिउ असेसु कज्जु । जिह भमिय भवंतर भुतु रज्जु । जिह क्या सुअंध मणोहरो वि। एत्यंतरे पायउ देउ को वि। तेण विं पवेप्पिणु पुणु मुणिदुः। पुणु तहे तियहे चरणारविंदु । पभगिउ सामिरिण महं तुअ पसाउ। वउ चरिउ तेण हुउ अमरराउ। इस जतिपनि मूसा काय नि कर दिव्वहि पुणु पुणु थुइ करेवि । घसा-सा गहिरिण हुन तहु गरवाही जिम रइ कामहो पाणपिय । अग्गेसरि सयलंतेउरहो विविह भोय मुंजति थिय ।। ६॥ सा सूहब सयसतेउरहो। सा सुमहुरवाणिय हंसगई। सा श्रासारिया दुत्थियाह। सा मणहर सयलहो परियगाहो। सा पीणपभोहरि सुद्धसई । सा भूरुह दीणहं पंथियाहँ। किया गया। विवाहके पश्चात् वर-कन्या जिन-मन्दिरमें लाये गये। वहाँ जिन भगवान्की वन्दना करके वे यथास्थान बैठ गये। वहाँ एक मुनिराज भी विराजमान थे । तिलकमतीने उन मुनिराजके दर्शन करके उनसे पूछा. -"हे, परम मुनीश्चर, यह बतलाइए कि अपने पतिके प्रथम दर्शन मात्र से मेरा उनके ऊपर इतना प्रेम क्यों उत्पन्न हुआ।" यह सुनकर मुनिराजने समस्त वृत्तान्त कहा जिस प्रकार कि उसने अपने पूर्व भवमें राज्यका उपभोग करके भवान्तरोंमें दुःख पाते हुए भ्रमण किया था और जिस प्रकार कि अन्तमें उसका शरीर पुनः सुगन्धयुक्त और मनोहर हुआ। जब मुनिराज उस सुगन्धा कन्याके पूर्व भवोंका वृत्तान्त कह रहे थे, तभी वहाँ एक देव आ पहुँचा। उसने मुनिराजको प्रणाम करके उस कन्याके भी चरणकमलोंमें अपना मस्तक नवाया । फिर वह देव बोला- "हे स्वामिनि, मैंने भी तुम्हारे प्रसादसे उसी सुगन्ध दशमी व्रतका पालन किया था और उसीके प्रभावसे मुझे यह अमरेन्द्र पद प्राप्त हुआ है।" इतना कहकर और तिलकमतीको भूपण,वस्त्र देकर एवं पुनः पुनः स्तुति करता हुआ यह देव वहाँ से चला गया । इस प्रकार तिलकमती राजा कनकप्रभको उसी प्रकार प्राणप्रिया गृहिणी हो गई जिस प्रकार रति कामदेवकी प्राणप्रिया हुई। वह राजाके समस्त अन्तःपुरकी प्रधान पटरानी बनकर नाना प्रकारके सुखोंका उपभोग करती हुई रहने लगी। अब तिलकमती ही समस्त अन्तःपुरकी सौभाग्यवती सुन्दरी थी। वह समस्त सेवकों व परिजनोंके मनको आकर्षित करती थी। उसीकी वाणी सबसे अधिक मधुर और उसीकी गति हंसके समान सुन्दर समझी जाती थी। वही सबसे अधिक रूपवती और शुद्ध सती माने जाने लगी। यह दुखी दरिद्री जनोंकी आशाओं और प्रार्थनाओंको पूरा करती थी व दीन लोगोंको उसी प्रकार आश्रय प्रदान करती थी जैसे वृक्ष पथिकोंफो शीतल छाया देकर सन्तुष्ट करता है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] सुअंघदछमीकहा [२,७,४सा पुण्णवंति बहु प्रायरीय । सातियपहाण सयलहँ धरीय । सा दुक्ख अदुखियणह वरीय । गुरु लछिय णियपियशायरीय । सा उविहु-दागु-पयासयारि। सा जिणवरधम्मुजोयकारि । सा रोय-सोय-णिरणासयरि । सा समयरयाण महा सरि सा पुत्त-पउत्तई पत्तिया। देवखवि दोहित्तई पोत्तिया। वर सवणह ऐतह तरयमाणु। जुङ जुवणु होतउ बलु पराणु । जे वसिय दहमि सुअंधरो। इह दुक्खु ण देखिइ एक्कु तेण । इम रज्जु करेवि असंखु कालु ! जायरोपितु पुणु अवसाण-कालु। चउविहु भाराहणु भाविजण। सरणासें मुअजिणु माइऊण | पत्ता-ईसाणविमाणे सुहहो णिहारो उप्परिणय सुरवर हवेवि । लियालशु हग पर फम्भु रहायशु जिणसुपासचरपई गवेवि ।। ७॥ अहो सेणिय जीपहो वउ दुर्लभु। क्यएण वि पुणु सयलु वि सुलभु। सा ययहं पहावे अमरराज। हुन मणि-बाहरणहि जुत्तकाउ । उस पुण्यवतीका सब कोई बड़ा आदर करते थे और सभी उसे स्त्रियोंमें एक प्रधान रन रूप मानते थे । वह नाना क्लेशोंसे दुखी जनों के लिए महान् लक्ष्मी देवीके समान थी और उसके पति भी उसका उसी प्रकार आदर-सम्मान करते थे। वह आहार, औषधि, अभय और शास्त्र इन चारों प्रकारके दानका खूब प्रचार करती तथा जैन धर्मक्री प्रभावना बढ़ाती थी । जनतामें यदि कोई रोग या शोक फैल जाता तो वह तुरंत उसके निवारणका उपाय करती। धर्मानुरागी स्त्री-पुरुषोंके लिए तो वह एक महान् सरिताके समान उपकारी थी। उसने खूब दीर्घायु पायी जिससे कि उसे अपने पुत्र और पौत्र और नातियोंको तथा दौहित्र और प्रपौत्रों को देखनेका सुख मिला । वह अपने स्वजनोंके नेत्रोंकी तारिका ( पुतली ) के समान रहती हुई यौवनसे निकलकर वृद्धावस्थामें प्रविष्ट हुई । तथापि उसने जो सुगन्ध दशमी बतका परिपालन किया था उसके प्रभावसे उसे फिर कोई एक भी दुख देखने मात्रको भी नहीं मिला। इस प्रकार उसने चिरकाल तक राज्यके सुखका उपभोग किया । तत्पश्चात् अपनी आयु पूर्ण होती हुई जानकर उसने दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप यह चार प्रकार आराधनाकी भावना प्रारम्भ कर दी और जिनेन्द्र भगवानका ध्यान करते हुए संन्यास पूर्वक उसने अपने प्राणोंका परित्याग किया। इस समस्त धर्माचरणके फलम्वरूप भगवान् सुपार्श्वनाथके चरणोंको चन्दना करते हुए उसने अपने स्त्री लिंगका छेदन कर दिया और अपने दुप्कमौका भी नाश कर डाला जिससे वह समस्त सुखोंके निधान ईशान स्वर्गके विमानमें उत्तम देव हुई ।। ७ ।। भगवान महावीर राजा श्रेणिकसे कहते हैं--"हे श्रेणिक, इस जीवके लिए धार्मिक व्रत ही धारण करना बड़ा दुर्लभ है। किन्तु जहाँ एक बार जीवको व्रत धारण करनेका सुअवसर मिल गया, तहाँ फिर उसके लिए सकल पदार्थ सुलभ हो जाते हैं। देखो वह दुर्गन्धा व्रतके प्रभावसे कैसी सुगन्धा हो गई और उसका शरीर मणिमयी आमरणोंसे अलंकृत हो गया। इस Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २,६,४] दहमहि फले दहमिहि फले दहमिहि फले क्रुड सायराज । दहमिहि फलेण सेविय सुरेहिं । दहमहि फलेण वरु आयवन्तु । दहमिहि फलेण सयलहं पहाणु । दहमिहि फलेण वरकंतिकाउ । वि किं बहु after | to विदुलहउ जयहं सारु । त अवहिणासु । को डिनरेहिं । aat--तहि तिहुश्रण सारउ aft परभवि होस बीओ संधी fior-महरु विमाणु । सेविज्जइ सत्तावीस हि । देवंग - वत्थ- मूसिय काउ | fers वहिं चामरेहिं । अराव मराहरु गुलुगुखंतु । पडिलय कहि भिण तासु माणु । यि तेत्रो हामिय-गहपहाणु । को विसरि पुज्जइ भुवणि तेण । तं तमु संपञ्चइ बहुपयाह । मयण - विचारत जिणु सुपासु चंदइ अमरु | कम्मु डसर सिद्धि-वरंगण-तण्ऊ वरु ॥ ८ ॥ ६ जा इह दहम करइ तिथ अह एरु । जो बाच सुक्खर भावई । जो earns गुरु गुरायई । जो णिसुरखुइ मणि उबसमन्भावई । सो अचिरेण होइ सुरु मणहरु | सो जि महंतु पुरणफलु पावइ । सो मुञ्च पुत्रक पावई । तासु देहु उ लिप्पड़ आवई । [ २७ ५ १० और सुगन्ध दशमी व्रत के फलसे उसे अवधिज्ञान हुआ किंकिणी- पंक्तियोंकी कलध्वनिसे युक्त मनोहर स्वर्ग विमान भी मिला। इस सुगन्ध दशमी व्रत के फलसे सत्ताईस कोटीश्वरों की सेवा का सुख भी मिलता है । दशमी के फलसे यह शरीर देवांग वस्त्रोंसे विभूषित होता है। दशमीके फलसे देव सेवा करते हैं और धवल चैंबर ऊपर ढोले जाते हैं। दशमीके फलसे श्रेष्ठ आतपत्र ( छत्र ) पास होता है व मनोहर गुडगुडाते हुए ऐरावत हाथीपर आरूढ़ होनेका सुख मिलता है । दशमी फरसे सबके बीच प्रधानता प्राप्त होती है और कहीं भी उसका मानभंग नहीं होता । दशमीके फलसे ही ऐसी उत्तम शरीर कान्ति मिलती है कि उसके तेजके आगे चन्द्रमाकी कान्ति भी फीकी पड़ जाय । अन्य बहुत विस्तारसे वर्णन करने की क्या आवश्यकता है ? संक्षेप में इतना ही कहना पर्याप्त है कि सुगन्ध दशमी व्रत के पालन करनेवाले के समान अन्य किसी मनुष्यका संसारमें आदर-सत्कार नहीं होता । अन्य जो कुछ भी इस जगत् के सारभूत पदार्थ हैं. वे सभी नाना प्रकारके व्रतधारीको प्राप्त हो जाते हैं । ईशान विमानमें भी वह सुगन्धाका जीव देव होकर त्रिभुवनमें सारभूत, कामदेवका निवारण करनेवाले जिन भगवान् सुपार्श्वनाथ की बन्दना करना नहीं भूलता था । अगले भवमें वह देव मनुष्य योनिमें आकर और अपने शेष समस्त घाति अघाति कमको संयम और तपके द्वारा भस्मसात् करके सिद्धि रूपी वरांगनाका पति अर्थात् मोक्षगामी होगा ॥ ८ ॥ ह जो कोई स्त्री या पुरुष इस सुगन्ध दशमी व्रतका पालन करता है वह शीघ्र ही मनोहर देवके पदको प्राप्त हो जाता है। जो कोई इस सुगन्ध दशमी व्रत की कथाका भावना सहित शुद्ध पाठ करता है वह भी महान् पुण्यके फलको पाता है । जो खूब धर्मानुराग सहित इस कथाका व्याख्यान करता है उसे अपने पूर्वकृत पाप कर्मोंसे मुक्ति मिलती है । जो इसे शान्त भावसे 1 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] सुअंधदहमीकहा [२०६-५ जो पुगु सद्दहेइ णिसुरोप्पिगु । अहिउ पुराणु तहो भासइ जिणु पुणु । ५ जा पुणु जाण्इ एह कहारिणय । सातिय होइवि महियलि राणिय । इय सुअदिवखहि कहिय सवित्थर । मई गावित्ति सुगाइय माहर। सिय कुलणह-उज्जोइय-चंदई।। समण-मा-कय-रायणाएंदई। भवियण-करणग-मणहर-भासई । जसहर-गायकुमारहो वायई। बुहयरण-सुयाहं विणज करतई। अइसुसील-देमइयहि कतई । एमहि पुणु वि सुपास जिणेसर।। करि कम्मरखउ महु परमेसर । घत्ता-जहिं कोहु ण लोहु सुहि ण विरोहु जिउ जर-मरण-विच जिउ । साहि हरिसु विसाउ पुराणु रस पाउ तहि शिवासु महु दिजउ । इय सुअंघदहमीकहाए बीओ संधी परिच्छे ओ समत्तो ॥ २॥ सुनता है उसके शरीरको कभी कोई आपत्ति नहीं व्यापती । जो कोई इसे सुनकर उसपर श्रद्धान करता है उसको जिन भगवान्ने विशेष पुण्यकी प्राप्तिका फल कहा है। जो स्त्री इस कथानकको भले प्रकार सीख लेती है उसे इस जगत्में रानी होनेका सुस्व मिलता है। इस कथानकको श्रुतदशी शास्त्रकारोंने विस्तारसे वर्णन किया है। मैंने उसीके अनुसार संक्षेपमें इसे मनोहर रीतिसे गाकर सुनाया है । इस मनोहर गीति काव्यके रचयिता हैं अपने कुल रूपी नभको उद्योतित करनेवाले चन्द्र जिन्होंने सज्जनोंके मन और नेत्रोंको आनन्दित किया है, भव्यजनोंके कण्ठाभरण रूप मनोहर भाषामें यशोधर और नागकुमारके चरित्रोंको बाँचकर सुनानेवाले, विद्वानों और सज्जनोंका विनय करनेवाले तथा अतीव शीलवती देवती नामक भार्याके पति ( श्री उदयचन्द्र जी)। वे प्रार्थना करते हैं कि हे सुपाचं जिनेश्वर, मेरे कर्मोंके क्षय करनेमें सहायक होवें और जहाँ न क्रोध है, न लोभ है, जहाँ न मित्र है और न शत्रु है, जहाँ जीव जरा और मरणसे रहित है, जहाँ हर्ष-विषाद तथा पुण्य व पाप कुछ भी नहीं है, वहाँ ही मुझे निवास अर्थात् मोक्ष प्रदान करें। इति सुगन्धदशमीकथा द्वितीय संधि । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगन्धदशमीकथा [ संस्कृत ] Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगन्धदशमीकथा पादाम्भोजान्यहं नत्वा श्रीपदं परमेष्ठिनाम् । शृण्वन्तु साधको वक्ष्ये सुगन्धदशमी-कथाम् ॥१॥ गुरूणामुपरोधेन श्रीविद्यानन्दिनामिदम् । सरस्वत्याः प्रसादेन रच्यते श्रुतसागरैः ॥२॥ अथ प्रणम्य भूपाल श्रेणिकः सन्मतिं प्रभुम् । गोतम पृच्छति स्मेदं भक्त्यावनत-मस्तकः ।।३।। अकारण-जगबन्धो भव्यान्जवनभास्कर । श्रताम्बुधि-महापोत विमुक्तिपदनायक ॥४॥ अहो पाखण्डलैश्वर्यवर्य श्रीगोतम प्रभो । प्रज्ञापारमितानेनः केन व्रतमिदं कृतम् ॥ ५ ॥ कथं ना कियत के वा फलमस्य महामते। भगवन् श्रोतुमिच्छामि कृपाजलनिधे पद ॥६॥ शृणु भो मगधाधीश सुगन्धदशमी-व्रतम् | साधु पृष्टं त्वया घीमन् कथयामि यथायथम् ॥ ७॥ इदं श्रवणामात्रेण 'अनन्तभवपातकम् । छिनत्ति च कृतं भक्त्या भुक्ति-मुतिफलप्रदम् ॥ ८॥ हिन्दी अनुवाद पंच परमेष्ठीके चरण-कमल रूप लक्ष्मीके निवासको नमस्कार करके मैं सुगन्धदशमी कथाको कहता हूँ। साधुजन इसे सुनें । यह कथा श्री विद्यानन्दि गुरुके आदेशसे तथा सरस्वतीके प्रसादसे श्रुतसागर नामक आचार्य द्वारा रची जाती है || १-२ ।। अथ सन्मति प्रभु अर्थात् भगवान् महावीर स्वामीको प्रणाम करके राजा श्रेणिकने भक्तिपूर्वक नतमस्तक होकर गोतम गणधरसे पूछा-हे अकारण जगद्वन्धु, भव्यजन रूपी कमलोंके वनको सूर्यके समान प्रफुल्लित करनेवाले, शास्त्र रूपी समुद्रको पार करनेके लिए महापोत, मोक्षपदको ले जानेवाले नायक, इन्द्र के समान उत्तम ऐश्वर्यके धारक, प्रज्ञाके पारगामी विद्वान् , पापहीन, श्री गोतम प्रभु ! मेरी यह सुनने की इच्छा है कि इस सुगन्धदशमी व्रतको किसने पालन किया, यह व्रत कैसे किया जाता है और इस व्रतका फल क्या है ? हे महामति कृपासागर, यह सब मुझे बतलाइए ॥ ३-६ ॥ राजा श्रेणिकके इस प्रश्नको सुनकर गोतम स्वामी बोले-हे विद्वान् मगधनरेश, तुमने बहुत अच्छा प्रश्न किया । अतः मैं तुम्हें सुगन्धदशमी व्रतका समस्त विवरण सुनाता हूँ । तुम ध्यान पूर्वक सुनो ॥ ७॥ इस सुगन्धदशमी कथाके सुनने मात्रसे ही अनन्त भवोंके पाप कट जाते हैं और इस व्रतके भक्तिपूर्वक पालन करनेसे संसारके भोग तथा अनुक्रमसे मोक्ष फलकी प्राप्ति होती है ॥८॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] सुगन्धदशमीकथा प्रशस्तवस्तुसङ्कीरणे द्वीपे जम्बूद्वमाश्तेि । जिनजन्मादिभिः क्षेत्रे पवित्र भारताभिधे ।। || निवेशे सम्पदा देशे काश्यां त्रिभुवनश्रुते । बरे वाराणसीनाम्नि पत्तने तु चिरन्तने ।। १०॥ बभूव भूपतिनाम पद्मनाभोऽमितप्रभः। श्रीमतीललनानेत्रनीलवार्जन्मचन्द्रमाः ॥११॥ आन्वीक्षिकी यी वार्ता दण्डनीतिसमाझ्याः। चतस्रो वेत्ति यो विद्याः सम्यगाससमन्वयाः ॥१२॥ सन्धि च विग्रह यानमासनं संश्रयं तथा। द्वैधीभावं गुणानेष पैत्ति षट्पाट स्फुटम् ।।१३।। त्रिवर्गच क्षयस्थानवृषिसंज्ञमनुत्तरम् । वारमनोदैवसिदीनां स जानीते समाश्रयम् ।।१४।। चयं चोपचयं मिश्रमितीदृगुदयत्रयम् । विभति मिनितागनिः शिवशानिनिहतान् ।।१३।। काम-क्रोध-महा मान-लोम-हर्षमदाहयान् । स जिगायारिषड्वर्गानन्तरङ्गसमुद्भवान् ॥१६॥ प्रभुजा मन्त्रजोत्साहसम्भवाः शक्तयः प्रभोः। तस्य स्फुरन्ति तिस्रोऽपि श्रावकान्वयजन्मनः ॥१७॥ स्वाम्यमात्य-सुहृत्कोश-देश-दुर्गबलाश्रितम् । राज्यमित्येव सप्ताङ्गमासवान् जिनभाषितम् ॥१८॥ समस्त उत्तम वस्तुओंसे परिपूर्ण जम्बू वृक्षसे अंकित इस जम्बू द्वीपमें भारत नामक क्षेत्र है जो कि तीर्थङ्करोंके जन्म आदि कल्याणकोंसे पवित्र हुआ है। इस भारत क्षेत्रमें काशी नामका प्रदेश है जो सम्पत्तिका निधान और त्रिभुवनमें विख्यात है। इस काशी नामके उत्तम देशमें वाराणसी नामकी प्राचीन नगरी है। इस नगरीमें एक समय अपार प्रतिभावान् पद्मनाभ नामका राजा हुआ जो अपनी श्रीमती नामको रानीके नेत्ररूपी नील कमलोंको चन्द्र के समान प्रसन्न करनेवाला था || ६-११॥ यह गजा आन्वीक्षिकी (विज्ञान), त्रयी (वेद), वार्ता ( अर्थशास्त्र ) और दण्डनीति ( राजनीति ) इन चारों विद्याओको मले प्रकार समन्वय रूपसे जानता था। वह सन्धि ( मेल करना ), विग्रह ( लड़ाई करना), यान ( आक्रमण करना), आसन (घेरा डाल बैठना), संश्रय ( अन्य राजाका आश्रय लेना ) तथा द्वैधीभाव ( फूट डालना ) इन राजनीतिके छह गुणोंको भी स्पष्ट रीतिसे जानता था । वह त्रिवर्ग अर्थात धर्म, अर्थ और कामरूप पुरुषार्थोंके स्वरूपको तथा क्षय, स्थान और वृद्धि नामक व्यवस्थाओंको असाधारण रीतिसे जानता था। वह यह भी जानता था कि वचन, मन और दैव रूप सिद्धियोंमें कैसे सामञ्जस्य बैठाया जाय । चय, उपचय और मिश्र अर्थात् चयापचय इन तीनों अभ्युदयोंको वह अपने शत्रुओपर विजय और लोक कल्याण द्वारा निरन्तर साधा करता था। उसने काम, क्रोध, मान, लोभ, हर्ष और मद नामक छह अन्तरंग शत्रुओंको जीत लिया था । श्रावक कुलमें उत्पन्न उस राजाके प्रभुशक्ति, मन्त्रशक्ति और उत्साहशक्ति ये तीनों राजशक्तियों स्कुरायमान थीं | जिन भगवान्ने जो स्वामी, अमात्य, Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ ] संस्कृत [३३ सहायं साधनोपायं देशं कोशं अलाबलम् । विपत्तेश्च प्रतीकारं पचास मन्त्रमाश्रयत् ।।१६।। सामदानं च भेदं च दण्डमुद्दण्डभरखनम् । यथायोग्यं यथाकालं वेत्युपाय-चतुष्ट यम् ॥ २० ॥ वाग्दरडयोः स पारुष्य त्यक्तवानर्थदृषणम् । पान-स्त्री-मृगया-छूतमिति व्यसनसप्तकम् ॥ २१ ॥ स एकदा तया सार्धं मधुकी डामना वनम् । यानपश्यत्पुरोद्वारे मुनि मासोपवासिनम् ।। २२॥ भोजयषिम, दैवि भगित्वा श्रीमती मिति । तद्भुक्त्यै प्रेषयामास स्वयं च गतवान् धनम् ॥ २३ ॥ भोगान्तरायकृत्पापः कुत एष समागतः । इति ध्यात्वा नृपाद् मीता तं नीत्वा सागता गृहम् ॥ २४ ॥ इक्ष्वाकुमिश्रिताहारं ददौ तस्य महामुनेः। स योग्यमिति सञ्चिन्त्य भुक्त्वा यावदन व्रजेत् ।। २५ ।। वेदना महती तावदोऽभूदा चाध्वनि । निपपात जनैनीतः कृतो जिनसवानि ॥२६॥ तत्र तैभक्तिकैरुक्तं हा हा घिग्मेदिनीपतेः। यस्य वल्लभया दूनः कदन्नेन महामुनिः ॥ २७॥ mar,....... . . vvi,Ah सुहृत् , कोश, देश, दुर्ग और बल ये राज्यके सात अंग; बतलाये हैं उन्हें भी इस राजाने प्राप्त कर लिया था । सहाय, साधनोपाय,देशकाल-विमाग,कोश एवं बलाबल (?) तथा विपत्ति-प्रतीकार, ये जो मन्त्रसिद्धि के पाँच अंग बतलाये हैं उनका वह सदैव आश्रय लिया करता था । उद्दण्ड पुरुषोंके दमनार्थ जो साम, दान, भेद और दण्ड ये चार उपाय कहे गये हैं उन्हें भी यह राजा खूब जानता था । वाक पारुष्य, दण्ड पारुण्य, अर्धदूषण, मद्यपान, वेश्यागमन, मृगया और द्यूतक्रीड़ा इन सात व्यसनोंको भी राजाने छोड़ दिया था ॥ ११-२१ ।। एक दिन राजा पद्मनाभ अपनी श्रीमती रानीको साथ लेकर वसन्त-क्रीडाकी इच्छासे वनको जा रहे थे कि उन्हें नगरके द्वारपर ही एक मासोपवासी मुनिराजके दर्शन हुए । तत्काल उन्होंने श्रीमती रानीको आदेश दिया कि हे देवि, तुम लौटकर राजभवनको जाओ और मुनिराजको विधिपूर्वक आहार कराओ। रानीको इस प्रकार आदेश देकर राजा स्वयं वनको चले गये ॥ २२-२३ ॥ वन क्रीड़ा में इस अकस्मात् उत्पन्न हुए विनसे रानीको बहुत बुरा लगा | वह मनमें विचारने लगी-मेरे भोगोंमें अन्तराय करनेवाला यह पापी कहाँसे आ गया । तथापि राजाके भयसे वह बिना कुछ कहे मुनिराजको साथ लेकर घरको लौट आई । उसने उन महामुनिको इक्ष्वाकु ( कहवीं तुम्बी ) मिश्रित आहार दिया। मुनिराजने उसे ही योग्य समझकर ग्रहण कर लिया और आहार करके वे वनकी ओर चल पड़े ।। २४-२५ ॥ किन्तु मार्गमें ही मुनिराजके शरीरमें महान् वेदना उत्पन्न हो उठी । यहाँ तक कि वे शिथिल होकर भूमिपर गिर पड़े । लोग बड़े कष्टसे उन्हें जिन-मन्दिरमें लाये । मक्तजनों में Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] सुगन्धदशमीकथा [२८ आगतोऽय वनाद राजा जनकोलाहल-श्रुतेः। विवेद दुरनुष्ठान महिष्याः स्वस्य दुर्मः ॥ २८॥ उहाल्य भूषणान्याशु चोक्प्रेण ताडित।। अवथ्याऽसि दुराचारे तेनागाराद्विवारिता ॥ २६ ॥ पूजितान्तःपुरेणापि मानमरुन दुःखिता। सद्योऽपि कुष्ठिनी जाता पाध्यानेन सा मृता ।।३।। महिषी महिषी जाता पापेन मृतमातृका । पल्वले कर्दमे मग्ना नग्नाटं पश्यति स्म सा ।। ३१ ॥ तमेव वैरभावेन क्रुखा शृङ्गे विधुन्वती। मारितुं प्रसभं मग्मा मृताभूदथ गई भी ।। ३२।। पाश्चात्यपादघातेन स मुनिः पुनराहतः। बजन चर्यामनार्याणां दुर्लभोऽपि च सध्वनि ॥ ३३ ॥ भूयोऽपि पापिनी मृत्वा बभूव पुरशूकरी। भक्षयन्ती विर्श विश्वकद्भुमिश्वाप्युपद्रुता ।। ३४ ॥ क्षत्पिपासादिता मातृवर्जिता च पुनर्मुता। संबरीभूय चाण्डाल्या दुष्टग पुनः स्थिता ।। ३५ ॥ हाहाकार मच गया। वे कहने लगे धिक्कार है इस पृथिवीपतिको जिसकी वल्लभा रानीने ऐसे महामुनिको कुत्सित अन्नका भोजन कराकर इस प्रकार पीड़ित किया ।। २६-२७ ।। ___ इसी बीच लोगोका कोलाहल सुनकर राजा वनसे लौट आये और उन्होंने अपनी दुर्बुद्धि रानीके कुकृत्यकी कथा सुनी । राजाको रानीपर बड़ा क्रोध उत्पन्न हुआ। उन्होंने तत्काल रानीके सब आभूषण उतरवा लिये, वज्र समान कठोर शब्दोंसे उसकी ताड़ना की और उसे यह कहकर घरसे निकाल दिया कि हे दुराचारिणी, स्त्री होनेके कारण तू अवध्य है, नहीं तो मैं तुझे इस घोर अपराधके लिए प्राणदण्ड देता || २८-२९ ।। जो रानी समस्त अन्तःपुरमें पूजी जाती थी उसे स्वभावतः अपने इस मान-भंगसे बड़ा दुःख हुआ। वह शीघ्र ही कुष्ठ रोगसे पीड़ित हो उठी और बड़े आर्तध्यानसे उसका मरण हुआ ॥ ३० ॥ जो राजमहिषी थी बह अपने पापके कारण अगले भवमें महिपी अर्थात् भैंस हुई। उत्पन्न होते ही उसकी माताका मरण हो गया । एक दिन वह ज्योंही अपनी प्यास बुझानेके लिए तालाबमें प्रविष्ट हुई त्योंही कीचड़में फंस गई। उसी दशामें उसे एक नग्न मुनिके दर्शन हुए। किन्तु पूर्व बैर-भावके कारण उसे उनपर क्रोध आया और वह उन्हें मारनेकी इच्छासे अपने सींगोंको हिलाने लगी। इसका परिणाम यह हुआ कि वह और भी गहरी कीचड़ में मम्न होकर मर गई ॥ ३१-३२ ॥ अपने दुर्भावके फलसे वह रानीका जीव इस बार मरकर गर्दभी हुआ। एक बार अनार्याको दुर्लभ मुनिराज चर्याको जा रहे थे। उन्हें देखकर उस दुष्ट गर्दभीने रेंकते हुए अपनी पिछली लातोंसे उन्हें चोट पहुँचाई ॥ ३२-३३ ॥ वह पापिनी गर्दभी मरकर अबकी बार ग्राम-शूकरी हुई और विष्टा खाती फिरने लगी। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत [ ३५ तदैव तत्पिता जातमाभ्यां च जननी मृता। योजनेकमहापूतिगन्धा बन्धुभिरुमिता ॥ ३६॥ फलान्यादुम्बरादीनि भक्षयन्ती वने स्थिता। सूरिणा सह शिष्मेण दैवयोगाद्विलोकिता ॥ ३७ ।। पूतिगन्धोऽयमत्यन्तं कुत एति महामुने । शिष्येण ऋषिराभारिण पुनरेतेन भण्यते ।। ३८॥ कृतो यया पुण साधो पूज्य पुजाव्यतिक्रमः । पापाद् भ्रान्त्वा भवे जाता सेयं चाण्डाल घालिका ।। ३६॥ संसारसागरं शाखसागरेषा तरिष्यति । कश कथय भी नाथ निग्रन्थेनाथ कश्यते ॥४०॥ महापापावृतो जन्तुजैनधर्मेण शुद्धयति । किमत्र जानत्तोऽप्येतत्वया धीमन् प्रपृच्छ्यते || ४१॥ श्रुत्वा परस्परप्रश्नोत्तरोपन्यासमञ्जसा । सा श्रद्धयोपशम्याप्त-पञ्चजं तु फलवता ।। ४२ ।। किचिच्छुभाशया नेत्य पुरीमुजयिनीमिता । जातैककोशदुर्गन्धा दुविधनासणाङ्गजा ॥ ४३ ।। उसके पीछे कुत्ते लगे रहते थे। वह भूख-प्याससे पीड़ित रहती थी। उसकी माता पहले ही मर चुकी थी 1 इस प्रकार दुःख भोगते हुए उसका मरण हुआ ॥ ३४-३५ ।। शूकरीकी पर्यायसे निकलकर रानीका जीव साँभरी हुआ और पुनः मरकर एक चाण्डालोके दुष्ट गर्गमें आया । उत्पन्न होते मात्र ही तत्काल उसकी माताकी मृत्यु हो गई और उसका पिता भी उसी समय मर गया। उसके मुस्खसे एक योजन तक फैलनेवाली महा दुर्गन्ध निकलती थी। इस विपत्ति के कारण उसके बन्धुओंने उसका परित्याग कर दिया । अब वह ऊमर आदि फलोंका मक्षण करती हुई वनमें रहने लगी ॥ ३६-३७ ॥ दैवयोगसे एक दिन अपने शिष्य सहित एक मुनिराज वहाँसे निकले । मुनिराजने उसे देख लिया । शिष्यने उसकी दुर्गन्ध पाकर मुनिसे पूछा--हे महामुनि ! यह अत्यन्त बुरी दुर्गन्ध कहाँ से आ रही है १ तब मुनिराजने बतलाया हे साधु ! यह जो चाण्डाल बालिका दिखाई दे रही है, उसने अपने एक पूर्वजन्ममें पूज्य मुनिराजका निरादर किया है। उसी पापके फलसे संसारकी नाना नीच योनियों में परिभ्रमण करते हुए अब इसने यह चाण्डाल-बालिकाका जन्म पाया है और उसीकी यह दुर्गन्ध फैल रही है। इस बातको सुनकर शिष्यने अपने गुरुसे फिर पूछा-हे शास्त्रसमुद्रके पारगामी नाथ | मुझे यह भी बतलाइए कि अब यह चाण्डाल-बालिका किस प्रकार इस संसार रूपी सागरको तर सक्नेगी ? अपने शिष्यके इस प्रश्नको सुनकर वे निग्रंथ मुनि फिर बोले हे साधु ! महाघोर पापसे युक्त जीव भी इस जैनधर्मके द्वारा ही शुद्ध होते हैं । हे विद्वन् , तुम इस बातको जानते हुए भी मुझसे क्यों पूछते हो ? ॥ ३८-४१ ॥ इस प्रकार गुरु और शिष्यके बीच हुए प्रश्नोत्तरोंको उस दुर्गन्धा बालिकाने सुन लिया । उसने अपनी श्रद्धाके बलसे अपने द्रव्य, क्षेत्र , काल, भव और भाव सम्बन्धित उपार्जित कर्मोंका उपशम कर लिया था। इस उपशभके फलसे कुछ शुभ भावना सहित मरण करके उसने उज्जैनी Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६] [४४ सुगन्धदशमीका तत्रापि पितरौ तस्या मृतिमापतुरेनसा । वृद्धिगता समं कष्टः पीड़िता साशनायया ।। ४१॥ अत्रान्तरे पुरोद्याने महामुनि-समागमम् । यशासेनमहाराजं वनपालो न्यवेदयत् ।। १५ ।। तं सुदर्शननामानं महामुनिशतावृतम् । नमस्कर्तुं महीभा निर्गतो दुर्गनिश्छिदम् ॥ ४६॥ निजंगामानु तं देवी महादेवीति विश्रुता ।। वसन्ततिलकाधालिवृत्तान्तपुरसंगता ।।१७।। गजानिजादथोत्तीर्य वयाप्तजनवेष्टितः। त्रिः परीत्य नमस्कृत्य तं नृपः पुरतः स्थितः ॥४८॥ साऽपि मेलापकं दृष्ट्वा तृणाधुत्तार्य मूर्खतः। भवान्तरादि जल्पन्तं तं नतातिविदूरतः ।। १६ ।। श्रावं श्रावं शुभध्याना धर्माधर्मफलश्रुतिम् । जाता जातिस्मरा भूमौ पपात किल मूच्छिता ।। ५०।। राज्ञा शीतोपचारेण सचेताः किल कारिता। पृष्टा च किमिदं पुनि यत्त्वमप्यत्र मूविता ।। ५१ ।। नगरीके एक गरीब ब्राह्मणके घरमें बालिकाका जन्म ग्रहण किया। उसके शेष कौके पापसे अभी भी उसकी दुर्गन्ध एक कोस तक जाती थी। जन्म होते ही उसके माता-पिताका मरण हो गया और वह भूख-प्यासके घोर कष्टोंसे पीड़ित होने लगी || ४२-४४ ।। इसी समय एक दिन उस नगरीके महाराज यश:सेनको वनपालने आकर खबर दी कि नगरके उद्यानमें महामुनि संघका आगमन हुआ है । सौ महा मुनियों के संघ सहित विराजमान दुर्गतिका नाश करनेवाले सुदर्शन नामक उन मुनिराजको नमस्कार करनेके निमित्त राजा अपने महलसे निकले । उनके पीछे उनकी महादेवी पदकी धारक देवी बसन्ततिलका आदि प्रमुख सखियोंके साथ समस्त अन्तःपुर सहित चल पड़ीं ॥ ४५-४७॥ जब वे उद्यानके समीप पहुँचे तब राजा अपने हाथीपरसे नीचे उतर पड़े और अपने कुछ चुने हुए मात्र साथियोंको लेकर मुनिराजके समीप पहुँचे । राजाने मुनिराजकी तीन बार प्रदक्षिणा की और वे नमस्कार करके उनके सन्मुख बैठ गये ।। ४८ || उस समय वह दुगंधा बालिका घास लकड़ीका गट्ठा लिये हुए यहाँ से जा रही थी। उद्यानमें लोगोंका मेला देखकर उसने अपना वह घास आदिका गट्ठा सिरसे उतारकर भूमिपर रख दिया और भवान्तरादि रूप उपदेश देते हुए उन मुनिराजको बहुत दूरसे ही प्रणाम किया ।। ४६ ॥ उसने मुनिराजके मुखसे धर्म और अधर्म के अच्छे और बुरे फलोंका उपदेश सुना। उस उपदेशको लगातार शुभ ध्यान पूर्वक सुनते-सुनते उसे जाति-स्मरण हो गया, जिससे उसने जान लिया कि किस पापके फलसे उसे रानीकी पर्यायसे च्युत होकर दुगंधा होनेके दुःख भोगने पड़े हैं । यह जानकर वह मूच्छित हो गई और भूमिपर गिर पड़ी। राजाने शीतोपचार कराकर उसे सचेत किया और उससे पूछा – हे पुत्रि,क्या कारण है जो तू यहाँ मूच्छित हो गई ? ||५०-५१॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] संस्कृत सा जग पूर्ववृत्तान्तं देवाहं राजवल्लभा । atrateginnerfoणी कुष्टिनी मृता ॥ ५२ ॥ गर्वरी (?) गर्दभी जाता शूकरी संवरी तथा । पुनर्योजन दुर्गन्धा चाडाली विजाधुना ॥ ५३ ॥ नेक वाक्यानि स्मृत्वा दुःखानि मूच्छिता | मम ज्वरयते सेयं साधुगा कटुम्बिका ।। ५४ ।। वचः सत्यमिदं साधी परमं नृप नान्यथा । भूयोऽपि कुतकाद्राज्ञा विशेषात्तत्कथा श्रुता ॥ ५५ ॥ परेका भविष्यन्ति शुभावहाः । अमुष्या अथ स प्राह सुगन्धदशमीत्रतात् ॥ ५६ ॥ तत्कर्थ क्रियते तात भूपताविति जल्पिते । faarateeना घनशय वियचरे ॥ ५७ ॥ areer समासीने सावधानेऽखिले जने । वक् (?) प्रति नृपं कामकरिकण्ठीरवो मुनिः ॥ ५८८ ॥ भाद्रपदे मासे शुक्लेऽस्मिन् पंचम दिने | उपोष्यते यथाशक्ति क्रियते कुसुमाञ्जलिः || ५६ ॥ [ ३७ .... राजाके उस प्रकार पूछनेपर दुर्गंधा अपने पूर्व भचका वृत्तान्त बतलाने लगी । वह बोली-- हे देव ! मैं अपने पूर्व जन्ममें राजाकी प्यारी श्रीमती नामकी रानी थी। मैंने दुष्ट भावसे मुनिराजको कुत्सित अन्नका भोजन कराकर सन्ताप पहुँचाया। उसी पापके फलस्वरूप मैं कुष्टिनी होकर मरी । तत्पश्चात् मैंने क्रमशः गली भैंस, गदही, शूकरी और साँभरीकी पर्याय धारण की। फिर मैं एक योजन दुर्गंध छोड़नेवाली चाण्डाल-पुत्री हुई। वहाँ से निकलकर अब इस भवमें मैं ब्राह्मण कन्या हुई हूँ | मुनिराजके वचनोंको सुनकर मुझे अपने वे सत्र पूर्वं पर्यायोंक दुख स्मरण हो आये। इसी कारण मैं मूच्छित हो गई। साधुको दिया गया वह कड़बी तुम्बीका आहार अभी तक मुझे दुःख पहुँचा रहा है ।। ५२-५४ ॥ सत्य हैं दुर्गाबात सुनकर राजाने मुनिराजसे पूछा- हे साबु, क्या दुर्गंधाकी कही हुई बातें मुनिराजने उत्तर दिया- राजन्, जो कुछ इस बालिकाने कहा है वह सब परम सत्य है, उसमें कुछ भी झूठ नहीं है। तब राजाने पुनः कौतुकाश दुर्गंधाको कथा विशेष रूपले विस्तार पूर्वक कहलवाकर खुनी । उस कथाको सुनकर राजाने फिर पूछा- हे मुनिराज, इस कन्याका परलोक कैसे सुधर सकेगा ? मुनिराजने कहा- सुगन्ध दशमी व्रतके द्वारा ही इस बालिकाका परलोक सुधरेगा । राजाने फिर पूछा- हे मुनिराज, सुगन्ध दशमी व्रत किस प्रकार किया जाता है ? राजाने जब यह प्रश्न किया, उसी समय वहाँ आकाश मार्ग से आते हुए धनंजय नामक विद्याधरका विमान स्खलित हुआ। वह विद्याधर अपने विमानसे उतरकर मुनिराज के दर्शन को आया और मुनिराजको नमस्कार करके यथास्थान बैठ गया । समस्त दर्शक जन भी सावधान हो गये । तब कामरूपी हस्तीको सिंहके समान दमन करनेवाले मुनिराज राजा के प्रश्न के उत्तर में सुगन्धदशमी व्रत का पालन करने की विधि बतलाने लगे ।। ५५-५८ ॥ मुनिराज बोले- उत्तम भाद्रपद मासके शुक्लपक्षकी पंचमी तिथिके दिन उपवास करना Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] सुगन्ध दशमी कथा तथा षष्ठयां च सप्तम्यामष्टम्यां नवमीदिने । faererent भूयो दशम्यां जिनवेश्मनि || ६० ॥ उपवासं समादाय विधिरेष विधीयते । चतुर्विंशति तीर्थेशां स्नपनं प्रीयते ॥ ६१ ॥ पूजने स्तवनं जापं दशशः कियते बुधैः । मुखैर्दशभिरामासी घटस्तत्र निधीयते ॥ ६२ ॥ धूप दशविधस्तत्र दाने मृदुनाग्निना । कृष्णागुर्वादिरचैर्य विशेषेण विधीयते ॥ ६३ ॥ कुङ्क मागुरुकर्पूरचन्दनादिविलेपनम् ! तत्प्रकारं च विज्ञेयं तद्वदेवातादिकम् ॥ ६४ ॥ संलिखेत्सप्तभिर्धान्यैः स्वस्तिकं तत्र दीपकान् । स्थापयेदश चेत्येवं दशाब्दान् परिकल्पयेत् ॥ ६५ ॥ पूर्णेऽथ दशमे वर्षे तदुद्यापनमाचरेत् । शान्तिकं वाभिषेकं वा महान्तं विधिवत्सृजेत् ।। ६६ ।। gruti करं कुर्याजिनायें च तदङ्गने । fafe दशभिर्वतानं च वितानयेत् ॥ १७ ॥ ध्वजान् दशपताकांश मादिन्यस्तारिकास्तथा । चामराणां युगैर्धूपदहनामि दश क्रमात् ॥ ६८ ॥ [ ६० चाहिए और भगवान्को कुसुमाञ्जलि चढ़ाना चाहिए । उसी प्रकार जैन मन्दिरमें ष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी और फिर दशमीको भी भगवान के आगे कुमुमाञ्जलि चढ़ाना चाहिए। दशमीको पुनः उपवास धारण करके निम्न विभिसे व्रत पालन करना चाहिए— उस दिन चौबीसी भगवान्का अभिषेक कराकर दश पूजाएँ करना चाहिए । दश स्तुतियाँ पढ़ना चाहिए और दश बार जाप देना चाहिए। दशमुख वाले एक घटकी स्थापना करके उसमें मन्द अग्नि जलाकर दशांगी धूपका होम करना चाहिए | इस विधि काली अगरबत्ती आदि सुगन्धी द्रव्यों का उपयोग विशेष रूपसे करना चाहिए। केशर, अगर, कर्पूर और चन्दन आदिको घिसकर शरीर में लेप करना चाहिए और अक्षतादि अष्ट द्रव्य तैयार कर पूजन करना चाहिए। जिस प्रकार यह विधान किया जाता है उसकी समस्त विधि शास्त्र से जान लेना चाहिए | सात प्रकारका धान्य लेकर उससे स्वस्तिक लिखना चाहिए और उसमें दश दीपक रखकर जलाना चाहिए | इस प्रकार यह समस्त विधि दश वर्ष तक करना चाहिए ।। ५९-६५ ।। प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ला पंचमी से लेकर दशमी तक उक्त प्रकार व्रत पालन करते हुए जब दश वर्ष पूर्ण हो जाँय तब उस व्रतका उद्यापन करना चाहिए। उस अवसर पर शान्ति विधान या महाभिषेक या इसी प्रकारकी कोई महान् विधि प्रारम्भ करना चाहिए। जिन भगवान् की वे आगे मन्दिरके आँगनमें खूब फूलों की शोभा करना चाहिए। दश रंगों का चित्र-विचित्र चदेवा तानना चाहिए। दश ध्वजा, दश पताका, दश बज्रनेवाली तारिकाएँ ( घण्टिका ), दश जोड़ी चमर और दश धूप घट, ये सब दश दश सजाना चाहिए। इस अवसरपर आरातीय Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] संस्कृत रातिकानि पुस्तानि सवखाणि सहौषधैः । भवन्ति संघदानानि तथार्याद्यंशुकानि च ॥ ६६ ॥ शौच-संयम- संज्ञानसाधनानि हि यानि च । थायोग्यं प्रदेयानि मुनिभ्योऽन्यान्यपि श्रुवम् ॥ ७० ॥ Friesi aferiत्यो भक्त्या बहुफलप्रदः । फलं न सर्वथा चिन्त्यं स्तोकेन स्तोकमित्यपि ॥ ७१ ॥ शापिessदानेन रत्नदृष्टिः प्रजायते । तद् भक्ति कालापेक्षया च निदर्श्यते ॥ ७२ ॥ नरो वा पनिता वापि व्रतमेतत्समाचरेत् । इहैव सुखितामेत्य स्वर्गभूत्वा शिवभवेत् ॥ ७३ ॥ श्रुति समजो राजा पूतिगन्धा द्विजाङ्गजा | हन्ति स्म व्रतं प्रायः सर्वेऽपि हितकांक्षया ॥ ७४ ॥ साहाय्यात्सा नृपादीनां समाराध्योत्तमं व्रतम् । समाधिना मृतार्याणां समीपे जिनभावना ॥ ७५ ॥ अथारित विश्वविख्यातं पुरात्नं कनके पुरम् | तस्मिन्कनकमालेष्टः कनकप्रभभूमिभृत् ॥ ७६ ॥ [ ३६ अर्थात् आधुनिक पुस्तकों, वस्त्रों और औषधोंका दान संघको देना चाहिए | अर्जिकाओं को भी वस्त्रादिक प्रदान करना चाहिए। मुनियों को शौच के साधन कमण्डल, संयम के साधन पिच्छिका, ज्ञानके साधन शास्त्र तथा इसी प्रकारके अन्य धर्म व ज्ञानकी साधना में उपयोगी वस्तुओंका यथायोग्य दान करना चाहिए ॥ ६६-७० ॥ ऊपर कही गई व्रत उद्यापनकी विधि यदि अल्प रूपमें भी भक्ति सहित की जाय तो वह बहुत फलदायक होती है। ऐसा कभी नहीं सोचना चाहिए कि सजावट व दान आदिकी विधि यदि थोड़ी की जायगी तो उसका फल भी थोड़ा होगा साग मात्रका थोड़ा-सा भोजन सुपात्रको करानेसे भी रत्नोंकी दृष्टि रूप महान फल प्राप्त होता है । यह सब मुख्यता से भक्तिका ही प्रभाव है । उस भक्तिके प्रदर्शनका स्वरूप द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार बतलाया जाता है। जो कोई नर अथवा नारी इस व्रत का पालन करता है, वह इस जन्ममें सुख पाता है, मरकर स्वर्ग में देव होता है और फिर अनुक्रमसे सुख भोगता हुआ मोक्षके सुखको भी पा लेता है ।। ७१-७३ ॥ मुनि द्वारा बतलाई हुई सुगंध दशमी व्रतके पालन करने की विधिको सुनकर उस राजाने, उसकी समस्त प्रजाने, तथा उस दुर्गंधा द्विज कन्याने एवं प्रायः सभीने अपने हितकी वांछासे उस व्रतको ग्रहण किया । राजा व अन्य धार्मिक जनोंकी सहायता से दुर्गंधाने उस उत्तम व्रतकी भले प्रकार आराधना की । इस प्रकारके धर्माचरण सहित दुर्गंधाने इस बार आर्यिकाओंके समीप जिन भावना पूर्वक समाधि-मरण किया || ७४-७५ || अथ कनकपुर नामका एक विश्वविख्यात प्राचीन नगर है। वहाँ कनकप्रभ नामका राजा अपनी कनक्रमाला नामक रानी सहित राज्य करता था । इस राजाका जिनदत्त नामक Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] सुगन्धदशमीकथा राज्ञः श्रेष्ठी बभूधास्य पुण्यधीजिनदत्तवाक् । तत्सनामा प्रियतस्य तनूजा सामवत्तयोः ।। ७७ !! अदृष्टापत्ययात्रेण श्रेष्टिना बहुमानिता । रूपलावण्यसदीप्ति भाग्यसोभाग्यराजिता ।। ७८।। सवलक्षणसम्पन्ना सर्वावयवसुन्दरा। सिताप्राधिकसौरभ्यसुगन्धितदिगन्तरा ॥ ७E || योषितां तिल कीभूता तिल कादिमतिनता । नरनारीकराम्भोजकुचकुडमललालिता ॥१०॥ अथान्यस्मिन्दिने कन्या पापशेषेण बीक्षिता। बभूव तत्प्रतापेन भूयोऽपि मृतमातृका ॥१॥ प्रथास्ति पणिजा नाथो वरे गोवर्धने पुरे। सुधीः ऋषभदत्ताख्यो बन्धुमत्यङ्गजास्य च ।। ८२ ॥ लम यूटमान्य पेरतामती तामसोजसा। रजोदर्श तया युद्ध्या नेमे तेजोमती सुताम् ॥ ८३ ॥ स्नानविलेपनर्वस्त्रभूषणः शयनासनैः।। लालयामास तामन्यां दुनोति स्म विदप्रस्तुः ॥४॥ तद्विलोक्य बणिग्जायायशः संक्षन्धमानसः । प्रशिक्षयद् द्वयं दास्योः समये तिल कामिति ।। ८५ || युवाभ्यां सवेयत्नेन पालनायेयमजसा। ऋते मातुरपत्यानां दुष्करा जीवनक्रिया ॥८६॥ पुण्यवान् सेठ था। इसकी सेठानीका नाम था जिनदत्ता। इन्हींके यह दुगधाका जीव पुत्री रूपसे उत्पन्न हुआ। सेठने अभी तक अपनी सन्तानका मुख नहीं देखा था । अतः उसने इस कन्याके जन्मको ही धन्य माना । कन्या भी रूप, लावण्य, कान्ति एवं भाग्य-सौभाग्यसे परिपूर्ण थी। वह समस्त लक्षणोंसे सम्पन्न व अपने सभी अंगोंसे सुन्दर थी । उसके शरीरसे निकलनेवाली चुगन्ध कर्परसे भी बढ़कर थी और सब दिशाओंको सुगन्धित करती थी। वह समस्त नारियोंमें तिलक के समान श्रेष्ठ थी जिससे उसका सार्थकनाम तिलकमती रखा गया। वह समस्त नर-नारियोंके हस्तकमलों व स्तनशन द्वारा लालित पालित होने लगी ।। ७६-८० ॥ किन्तु इस कन्याका पूर्वोपार्जित पाप अभी भी शेष था जिसके प्रतापसे उसे मातृवियोग का दुःख भोगना पड़ा । तब उसके पिताने कामके वशीभूत हो गोवर्धनपुरके धीमान् चणिग्बर ऋषभदत्तकी पुत्री चन्धुमतीसे अपना विवाह कर लिया। उसके साथ तामसी वृत्तिसे भोगबिलास करते हुए उसके एक पुत्री हुई जिसका नाम रखा गया तेजमली || ८१-८३ ॥ नीच प्रकृति सेठानी अपनी इस औरस पुत्रीको स्नान, विलेपन, वस्त्र,आभूषण,शयन,आसन आदि द्वारा खूब लाड़-प्यारसे पालने लगी और अपनी उस सौतेली कन्याको दुःख देने लगी । सेठ अपनी नयी सेठानीके चशमें था । तथापि सेठानीका वह व्यवहार देखकर उसके मनमें बड़ा क्षोभ उत्पन्न हुआ। उसने अपनी तिलकमती नामक कन्याको दो दासियोंके सुपुर्द किया और उन्हें आदेश दिया कि तुम सब प्रकार यत्नपूर्वक इस कन्याका पालन-पोषण करो। सच है माताके बिना बाल-बच्चोंकी जीवन क्रिया बड़ी कठिन होती है ।। ८४-८६ ।। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५] संस्कृत [४१ अथ दीपान्तरं राज्ञो निदेशाद्रलहेतुना। व्रजन बन्धुमती प्रोचे गिरः सांयात्रिकोत्तमः ।।८७॥ विप्रकृष्टः प्रिये पंथा नृपस्तु दुरतिक्रमः । तनजयोः क्रमाक्कायों विवाहः संपदानया ॥८॥ गतंऽथ वागजा नाथे सुगन्यां याचिंतामपि । न दत्ते दर्शयन्ती सा निजां तेजोमती सुताम् ॥८६॥ कुलीनो गतरुग्विद्वान वपुष्मान् शीलवान् युवा । पक्षलक्ष्मीपरीवारबरो हि भवतां सुतः ।।६० ॥ जन्मना भक्षिता माता पिता दूरं प्रवाप्सितः। लक्ष्महीना गृहेऽस्माकं सपत्नीयसुता विमा ॥३१॥ इयं तेजोमती साक्षाद्रती रम्मा तिलोत्तमा । याच्यते न कथं हृद्या मुक्तामालेव निस्तुला ।। ६२ ।। तयैवं जल्यिते तैस्तु सैव भूयोऽपि मागिता। असह्य न भवेत्प्रीतिरिति दत्ते स्म तां सका ।।६३॥ दर्शिता तिलकोदोदु मरिडता दुहिता निजा। शाम्बरी सहजा स्त्रीणां किं पुनर्ने कुदुद्भवा ॥६॥ विवाहस्याथ सामग्रयां कृतायां चारुसम्पदि । समागते शुभे लग्नदिवसे सुप्रतीक्षिते ॥ ५ ॥ ___ एक दिन सेठजीको राजाका आदेश मिला कि वे किसी दूसरे द्वीपको जाकर अच्छे-अच्छे रन खरीदकर लावें । सेठने विदा होते समय बन्धुमती सेठानीसे कहा-हे प्रिये, मैं बहुत दूर विदेशको जा रहा हूँ, क्योंकि राजाकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं किया जा सकता | किन्तु तुम यथासमय कमसे दोनों पुत्रियोंका विवाह कर देना ॥ ८७-८८ ॥ सेठके चले जानेपर सुगन्धाकी याचना करनेवाले वर आने लगे । किन्तु सेठानी उसका विवाह स्वीकार न कर अपनी औरस पुत्री तेजमतीको ही उन्हें दिखलाती थी। वह याचना करनेवाले माता-पिताको कहती देखिए, आपका पुत्र कुलीन, निरोग, बिद्वान् , चंगा, शीलवान्, युवा और कुल-परिवारसे सम्पन्न वर है, जब कि हमारे घरकी इस लड़कीने जन्म लेते ही अपनी माताका भक्षण कर लिया और बड़े होते ही पिताको दूर देश भिजवा दिया। यह कुलक्षणा मेरी सपलीकी पुत्री है। इसके विपरीत यह जो तेजमती कुमारी है वह साक्षात् रति, रम्भा व तिलोत्तमाके समान सुन्दरी है और मोतियोंको मालाके समान अनुपम हृदयहारिणी है; उसे आप क्यों नहीं वरण करते ? ।। ८९-९२ ॥ किन्तु सेठानीके इस प्रकार तिलक्रगतीको निन्दा और तेजमतीकी प्रशंसा करनेपर भी वरोंने तिलकमतीकी ही याचना की। सेठानीने जब यह जान लिया कि जबरदस्ती किसीकी किसीसे प्रीति नहीं कराई जा सकती, तब उसने तिलकमतीका ही कन्यादान करना स्वीकार कर लिया । किन्तु फिर भी सेठानीने छल करना नहीं छोड़ा। उसने विवाहके लिए दिखला तो दी तिलकमतीफो, किन्तु मण्डन और शृङ्गार किया अपनी कन्या तेजमतीका ही। ठीक ही है, स्त्रियों में कुटिल चातुरी स्वाभाविक होती है, फिर कृत्रिम छलकी तो बात ही क्या है ॥९३-९४॥ अब विवाहकी सब सामग्री भले प्रकार बहुमूल्य रूपसे होने लगी। जब विवाहका Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] [६६ सुगन्धवशमीच्या प्रदोषे मङ्गलस्नान-विलेपन-विभूषणैः उपस्कृत्यानयत्प्रेतयनं सा तिखकावतीम् ।। ६६॥ चतुदिक्ष चतुदपिमावारकसमन्वितम् । निवैश्य तामिति प्रोच्य विमाता तिलकावतीम् ॥ ७ ॥ स्वयोग्यं वरमत्रस्था गवेषय शुभानने । चेदिकासहिता वेश्म दुरात्मा सा निजं गता ||८|| तस्मिन्नेव शुभे लग्ने तेनैव सुवरेण च । कन्या तेजोमती ब्यूटा जनन्यनुमतेन सा ॥ ६ ॥ अत्रान्तरे महीपालः प्रासादात्प्रेक्षते स्म ताम् । चिन्तयामास हृधे किंमेषा सुरकन्यका ।। १०० ॥ यक्षी वा किन्नरी किं वा योगिनी पूजनोद्यता। किं स्विद्विद्याधरी कापि नारी का काप्युपस्थिता ।। १०१।। कौशेयकं करे कृत्वा भूपः कौतहली गतः । श्मशानं पृच्छति स्मैवं का खमत्र व्यवस्थिता ।। १०२॥ अमीर्मजनको राज्ञा प्रेषितो. रत्नहेतवे। विवाहे वञ्चिता मन्ये विमात्रा स्थापिताऽत्र मे ।।१३।। एवं बभाग सा पुत्रि खबरोऽत्र समेध्यति । तेनात्मानं विधानेन सति त्वं परिणाययः ।। १०४ ॥ पुनर्गता गृहं साहं वरं वाटे महामते । नने तेजोमतीस्तत्र परिणीता भविष्यति ।।१०५| प्रतीक्षित शुभदिन आया तब सन्ध्या समय सेठानीने तिलकमतीको मंगल स्नान कराया और उसे विलेपन-भूषणोंसे सुसज्जित किया। पश्चात् सेटानी उसे श्मशान भूमिमें लिया ले गई। उसके चारों ओर उसने चार दीपक आवारक सहित प्रज्वलित कर दिये और तिलकमतीसे कहाहे शुभानने, यहाँ बैठकर तू अपने योग्य वरकी प्रतीक्षा कर । इतना कहकर वह दुष्ट विमाता अपनी दासियों सहित अपने घर वापस आ गई और उसी शुभ लग्नमें उसी वरके साथ अनुमति देकर अपनी कन्या तेजमतीका विवाह कर दिया । ९५-१९ ॥ उसी रात्रि अपने महलकी छतपरसे राजा नगरकी शोभा देख रहा था । श्मशानमें तिलकमतीकी ओर दृष्टि पड़ते ही वह अपने मनमें सोचने लगा-यह हृदयहारिणी कोई सुरकन्या है। अथवा कोई यक्षिणी या किन्नरी या कोई योगिनी किसी पूजामें लगी हुई है, अथवा कोई विद्याधरी या नारी वहाँ जा बैठी है ? कुतूहलवश राजाने अपने हाथमें तलवार ली और वह श्मशान भूमिपर जा पहुँचा। उसने कन्यासे पूछा-हे कन्ये, तू कौन है और किस कार्यके लिए यहाँ बैठी है ? कन्या बोली --मेरे पिताको राजाने रत्न लानेके लिए बाहर भेज दिया है। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि मेरी सौतेली माताने मुझे विवाहके सम्बन्ध में धोखा देकर यहाँ विठला दिया है। उसने मुझसे कहा है हे पुत्रि, तेरा घर यही आवेगा। उसीसे तू विधिवत् अपना विवाह कर लेना । हे महामति, अब मैं पुनः घर जाकर अपने वरको देवूगी। यह तो निश्चित है कि वहाँपर तेजमतीका विराह हो चुका होगा || १००-१०५ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] [४३ संस्कृत यद्येचं सुन्दरि स्वं मां वृणीष्य मृगलोचने । धृता पाणी नृपेणाशु तयोमित्युदिते सति ।।१०६ ।। प्रभाविकसने पूष्णः प्रातरुत्थाय स व्रजन् । दष्टवाहिवत्या यासि व तया चेलाञ्चले धृतः ॥१०७ ।। नकं नक्तं समेष्यामि प्रियेऽहं वेश्म ते वहम् । गच्छोकः स्वमित्युक्ते गोपोऽहमिदमब्रवीत् ।। १०८ ॥ गते राज्ञि निजं सौंध बन्धुमत्यवदाजनान् । मङ्गलावसरे पापा न जाने सा क्वचिद् गता ॥ १० ॥ नारिके धारिके चम्पुरहि नाश करणिके। धर्म्य कार्य जिते धन्ये तिलका दहशे किमु ।। ११० ।। पृच्छन्ती स्त्रीजनाने दर्शयिष्यामि कि मुखम् । भर्तुर्गता गिरन्तीत्थं श्मशान मिस्तेहम् ।। १११ ।। समक्षं सर्वलोकानां दृष्ट्वा तामित्युवाच सा। दुःपुत्रि क्व गता रसडेऽनुष्ठितं किमिह त्वया ॥ ११२ ।। मातमतेन तेऽत्रस्था वलवन विवाहिता । पश्यताकृत्यमेतस्यास्तच्छु त्वा पूच्चकार सा ।।११३।। आनीता सा ग्रहं धृत्वा तया रञ्जितलोकया । नूनं निष्पादिता धात्रा स्त्रियः केवलमायया ॥११॥ तिलकमतीकी बात सुनकर राजाने उससे पूछा-हे मृगलोचने सुन्दरि, यदि ऐसी बात है, तो तू मुझसे ही अपना विवाह क्यों नहीं कर लेती ? इतना कहकर और उसके 'ओम्'का उच्चारण करनेपर राजाने उसका पाणिग्रहण कर लिया ॥ १०६ ॥ प्रातःकाल ज्योही सूर्यको किरण प्रकट हुई त्योंही राजा वहाँ से उठकर प्रस्थान करने लगा। तब तिलकमतीने उसका अँचल पकड़कर उसे रोक लिया और कहा-आप सर्पके समान मुझे दशकर कहाँ जाते हो ? तब राजा बोला- हे प्रिये, मैं प्रतिदिन रात्रिको तुम्हारे घर आया करूँगा। तुम भी अब अपने घर जाओ। इतना कहकर और 'मैं गोप हूँ' ऐसा अपना परिचय देकर राजा वहाँ से अपने महलका चला गया ॥ १०७ -१०८ ॥ ___ यहाँ श्मशानमें जब यह घटना हो रही थी तब सेठके घरपर क्या हो रहा था सो सुनिए । सेठानी बन्धुमतीने श्मशानसे लौटते ही लोगोंमें यह कहना प्रारम्भ किया--अरे, यह पापिनी कन्या इस बियाह के मंगलावसरपर न जाने कहाँ चली गई ? हे तारिके, हे धारिके, हे चंपुरंगि, हे चंगि, हे कुरंगिके, हे धन्ये, हे कम्ये, हे जिते, हे धन्ये, क्या तूने तिलकाको देखा है ? इस प्रकार स्त्रीजनोंको पूछती हुई और कहती हुई-'अब पतिके सम्मुख मैं किस प्रकार अपना मुँह दिखलाऊँगी' वह घरसे निकलकर अन्ततः उस छलके स्थान श्मशानमें जा पहुँची। वहाँ तिलकमतीको देखकर सब लोगोंके समक्ष सेठानी कहने लगी-अरी कुपुत्रि ,तू यहाँ कहाँ चली आई ? अरी रण्डे, तूने यहाँ क्या किया ? सेठानीके ये बचन सुनकर तिलकमती बोली-हे माता, तुम्हारी ही इच्छासे तो मैं यहाँ आकर बैठी हूँ और एक गोपके साथ मेरा विवाह हुआ है । कन्याकी यह बात सुनकर सेठानीने उसे धुतकारा और कहा-देखो इस लड़कीकी करतूत । फिर सेठानी उसे Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४] सुगन्धदशमीका तथा गच्छति तत्पस्त्यं प्रशस्तं कनकप्रभे । तयोः प्रसर्पति स्वैरं प्रशाम्यति मनोभुवि ॥ ११५ ॥ बन्धुत्योदितं मुग्धे त्वयास शोधनीद्वयम् । पिण्डारोऽगारमायातो याचितव्योऽतिशोभनम् ॥ ११६ ॥ तया तिलकमत्येवं कृते सोऽन्येद्युरुत्तमम् । नानारत्नमयं हेममानिनायेतयोर्द्वयम् ॥ ११७ ॥ कञ्चुक काचनाद्यर्च्य वस्नयुग्मं महाधनम् । शामरणोपेतं ददौ तस्यै मनोरमम् ॥ ११८ ॥ सा सती केशहस्तेन तस्य पादाम्बुजद्वयम् । प्रमृज्य क्षालयामास प्रश्रयः स्त्रीषु मण्डनम् ॥ ११६ ॥ अथ स्त्रीरत्नमालिया प्रतते नृपे । तत्सर्वं दर्शयामास स तस्यै दाह ॥ १२० ॥ राजनामाङ्कितं दृष्ट्वा तदित्याह दुरात्मिका । चौरस्त्यामोन्टे मु यावत्र वीक्षिता ॥ १२१ ॥ निर्मर्त्य मुहुरुवाल्य तथाकल्प जरत्पटम् ! दत्त्वा सुलूषिताकारां कृत्वा तस्थौ महासती ॥ १२२ ॥ श्रथायात वणिक् सत्यपरमेष्ठी निजं गृहम् । श्रेष्ठी साराणि रत्नानि गृहीत्वा पुण्यवानलम् ॥ १२२ ॥ [ ११५ पकड़कर अपने घर लिवा लाई और इस प्रकार उसने लोक रंजनका ढोंग रचा । सचमुच ही विधाताने स्त्रियोंको केवल मायाचारके लिए ही बनाया है ।। १०९-११४ ॥ फिर राजा कनकप्रभ प्रतिदिन तिलकमतीके घर जाने लगा, और उन दोनोंमें परस्पर प्रेमानुराग होने लगा । एक दिन बन्धुमती सेठानीने तिलकमती से कहा - अरी मूह, तू अपने पिंडार पतिसे जब वह तेरे घर आवे तत्र अच्छी दो शोधनी ( बुहारी ) तो माँग १ तिलकमतीने वैसा ही किया । तब उसके पतिने दूसरे दिन उन दोनोंके लिए नाना रत्नजटित सुवर्णमय दो उत्तम झाड़नी लाकर दीं। साथ ही उसने उसे सोनेकी जरीसे जड़ी हुई कंचुकी, बहुमूल्य एक जोड़ी वस्त्र तथा सोलह प्रकारके उत्तम आभरण भी दिये । इसपर उस सत्तीने अपने केश हाथ में लेकर अपने पतिके पैर मलकर धोये । विनय ही तो स्त्रियोंका भूषण है । पतिने अपनी सती स्त्रीका आलिंगन किया और उस रात्रि वे वहीं रहे ।। ११५-१२० ॥ प्रातःकाल जब पति उसके पाससे चला गया तब तिलकमतीने वे सब वस्त्राभूषण अपनी माता को दिखाये | किन्तु सौतेली माँ होनेके कारण उसे वे हृदय में दाहके समान लगे । आभू I पर राजाका नाम अंकित देखकर वह दुरात्मा विमाता बोल उठी- अरी मूर्ख, किसी चोरने तेरा पाणिग्रहण किया है । उतार जल्दी इन भूषणों और वस्त्रोंको, जब तक कि कोई अन्य इन्हें देख नहीं पाया । इस प्रकार डाँट फटकार बतलाकर सेठानीने उसके वे सब भूषण वसन उतरवा कर ले लिये और उस महासती को फटे पुराने कपड़े पहनाकर व कुरूप बनाकर अपने निवास स्थानको चली गई ॥ १२१-१२२ ॥ इसी बीच वह परम सत्यवान् और पुण्यवान् सेठ बहुतसे उत्तम रलोको लेकर अपने घर Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ ] संस्कृत पश्य कान्तानया चौरः स्वीकृतस्ते तनूजया । राजे मुषितस्तेन मया मम्रेऽतिभीतया ।। १२४ ॥ अयं चूडामणिर्नाथ बाल पश्येयमद्भुता । पत्रपाश्या महाय कर्णिका कुण्डलद्वयम् ॥ १२५ ॥ इदं वे सारं निर्मये ललन्तिका । प्रालम्बिकोत्तमस्वर्ण सुमुक्तावत्स सूत्रिका ॥ १२६ ॥ ਰਕ ਵਾਤਾਵੇ ਰਾਜਪਾ heart स्थितः सोऽयं तरलः प्रविराजते || १२७ ।। कटकाङ्गकेयूरमूर्मिकाः कङ्कणादिकम् । सप्तकीर्य तुलाकोटिद्वयं हंसकसंयुतम् ॥ १२८ ॥ रणन्तं श्रवणानन्दममन्दं किङ्किणीगणम् । पत्रो पश्य नाथेदं महाघनमनाहृतम् ॥ १२६ ॥ अन्तरीयमतिश्रेष्ठं संव्यानमतिसुन्दरम् । रत्नोपरचितं कामनिधान निप्रकम्पनम् ॥ १३० ॥ कुलक्षये कालरात्रिरेषा समुत्थिता । रजोवृष्टिः कुटुम्बस्य सूनां तु दुहितुमषात् ॥ १३१ ॥ निशम्य चनितावाक्यं समीक्ष्य समलडकृतीः | tresarva era चकितवान्कृती ॥ १३२ ॥ वणिक तरसर्वमादाय नृपामे न्यक्षिपत्सुधीः । वेद केनचित् दस्युमा दुहितुर्भ ।। १३३ ।। [ ४५ लौट आया। उसके आते ही सेठानी उसे सुनाने लगी- देखो कान्त, तुम्हारी इस पुत्रीकी करतूत | इसने किसी चोरको अपना पति बना लिया है और उसने राजाकी चोरी करके इसे ये आभूषण दिये हैं। मैं तो डरकर मर गई । हे नाथ, यह वह चूड़ामणि है । इस अद्भुत बालाको देखिए | यह बहुमूल्य पत्रपाश्या है, यह कर्णफूल है और ये दो कुण्डल हैं । यह सुन्दर कण्ठा है और यह है उज्ज्वल रुलंतिका । यह उत्तम सोनेकी बनी, अच्छे मोतियोंसे जड़ी और सुन्दर सूत्रमें गुँथी लम्बी माला है । यह देवच्छंदपर स्थित तरल तो ऐसा विराज रहा है जैसे आकाशगंगाके प्रचाहमें बाल सूर्य तैर रहा हो | ये कटक हैं, ये अंगद हैं, ये केयूर हैं, ये ऊर्मिकाएँ हैं, ये कंकणादिक हैं, यह सप्तकी है, यह तुलाकोटिकी जोड़ी है जिस पर हंस बने हुए हैं । ये किंकिणी हैं जो अपनी झुनझुन ध्वनि द्वारा निरन्तर कानोंको आनन्द देती हैं। और नाथ, इस पत्रोर्णको भी देखिए जो बड़ा बहुमूल्य है और बिलकुल नया है । यह अति श्रेष्ठ अन्तरीय है, यह अत्यन्त सुन्दर संत्र्यान है और यह कलश-संपन है जो, हे कान्त, रलोंसे जड़ा हुआ है । यह दुहिता क्या है, अपने कुटुम्बके सिरपर धूलकी वर्षा तथा कुलका नाश करनेवाली कालरात्रि ही आ गई है ।। १२२-१३१ ।। 1 1 अपनी पत्नीकी ये सब बातें सुनकर और उन अलंकारोंको देखकर वह धीर प्रकृति और अनुभवी सेठ भी कुछ चकित हो उठा । चतुर सेठने उन सब वस्तुओं को ले जाकर राजा के सम्मुख रख दिया और कहा - महाराज, आपकी इन सब वस्तुओंको किसी चोरने ले जाकर मेरी पुत्रीको Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगन्धदशमीकथा [१३४ तद् गृहाण महाराज नृपघ्रग न भवाम्यहम् । तारमत्य स मनाशाह स्वस्तु यम तस्करम् ||१३४ ॥ आगत्य स सुतामूचे कल्कमूर्ते निजं पतिम् । जानासि, तात जानामि पादयोः क्षालनादहम् ॥ १३५.।। स चाह नृपतेरमें तेनोक्तं त्वद्गृहे मया । तम्छोधनार्थमन्त्तव्यं परिवारजनैरमा ।। १३६ ।। एवमस्त्विति सामयर्थ विधाय्याकार्य भूभुजम् । कमेण क्षालयामास तदनीनक्षिकंपितम् ॥ १३७ ॥ बहूनां धौतपादेषु नायं नायें न चाप्ययम् । भगन्तीत्वं विभोदूरमस्पृशत्पादपंकजम् ॥१८॥ पितमलिग्लुचः सोऽयं रतेमें मन्मथः ख्यम् । स्यादिदं सत्यमित्येथे बाहुजा जहसुषम् ॥ १३६ ।। कार्ट मो मा वृथा हास्यमवश्य दस्युरस्म्यहम् । कथं देवेदमित्याह नृपस्तत्पूर्ववृत्तकम् ।। १४० ।। तदा लोका जगुर्धन्या कन्येये भूभुजं वरम् । प्राप भक्त्या पुरा कि बानया ब्रतमनुष्ठितम् ॥ १४१ ।। भुक्तेरनन्तरं श्रेष्ठा राजमान्यो महोत्सवम् । विवाहस्याकरोद् बन्धुमतेश्च मषिषन्मुखम् ॥ १२ ॥ दिया है। आप इन्हें वापिस लीजिए । मैं राजद्रोही नहीं बनना चाहता। सेठकी बातें सुनकर राजा कुछ मुसकराये और बोले-अच्छा, इन वस्तुओंको तो रहने दो, पर तुम उस चोरको पकड़ो ।। १३२-१३४ ।।। सेठ राजाके पाससे घर आया और अपनी उस कन्यासे कहने लगा हे कल्कमूर्ति, क्या तु अपने पतिको जानती है ! पुत्रीने कहा—जानती हूँ, तात, किन्तु केवल उनके पैर पखारनेके द्वारा । सेठने जाकर यह बात राजासे कही। राजाने कहा-इस बातकी खोजबीन करनेके लिए मैं अपने समस्त परिवारके लोगों सहित शीघ्र तुम्हारे गृहमें भोजन करूँगा । 'अच्छी बात है महाराज' यह कहकर सेठ अपने घर लौट आया। उसने भोजनकी सब तैयारी की और राजाको निमन्त्रण भेज दिया। अभ्यागतोंके आनेपर तिलक्रमती अपनी आँखें बाँधकर उनके पैर धुलबाने लगी। उसने अनेकोंके पैर धुलवाये और कहती गई—यह नहीं है,यह नहीं है,यह भी नहीं है । जब राजाकी बारी आई,तब वह उनके चरण-कमलोंका स्पर्श करते ही बोल उठी हे पिता, यही वह चोर है जो रतिका मन्मथके समान मेरा पति हुआ है। तिलकमतीकी यह बात सुनकर समस्त क्षत्रिय राजाकी ओर देखते हुए हँस पड़े और बोले- क्या यह बात भी सत्य हो सकती है १ अपने क्षत्रिय बन्धुओंको हँसते हुए देखकर राजा बोले-अरे, व्यर्थ हसी मत करो । सचमुच मैं ही वह चोर हूँ। तब उन्होंने पूछा-हे देव, यह कैसी बात है ? इसके उत्तरमें राजाने अपना समस्त पूर्व वृत्तान्त कह सुनाया ॥ १३५-१४० || इस प्रकार जब राजाने तिलकमतीका पति होना स्वीकार कर लिया, तब सब लोग बोल उठे-धन्य है यह कन्या जिसने राजाको अपना वर पाया। इसने पूर्व जन्ममें कैसा भक्तिपूर्वक व्रत पालन किया होगा ? भोजनके उपरान्त उस राजमान्य सेठने विवाहका महोत्सव कराया और बन्धुमति सेठानीका काला मुँह । दुर्जन साधुको दुख पहुंचाता है, किन्तु उससे साधुको विशेष Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] संस्कृत दुःखयत्यसुहृत्साधुं स चेति पुरुसम्पदम् । तापमातनुते भानुः श्रियमेति सरोरुहम् ॥१४३ । अथ पट्टमहादेवीपदमाप्य महासती । असालयत्पदो राजीसहस्रशिरसां ततो ॥१५॥ समं पत्येकदा जैनी जगाम वसति जिनम् । पूजयित्वानमत्साध्वी मुनीन्द्रं श्रुतसागरम् ॥ १५५ ।। नृपः प्राह समाकर्य धर्म कर्मान्तकारिणम् । मुने मम महादेव्या किं पुरा सुकृतं कृतम् ॥ १५ ॥ जो योगीश्वरः सर्व पूर्ववृत्तं शुभाशुभम् ।। प्रभावं तु विशेषेण सुगन्धदशमीभवम् ।।१७।। प्रविश्य तत्सदः कोऽपि देवो देवं जिनं श्रुतम् । गुरुं प्रणम्य तद्देवीपादयोन्य॑फ्तद् मृशम् ॥ १८ ॥ स्वामिनि त्वत्मसङ्गेन सुगन्धदशमीवतम् । मया विद्याधरणेदं सता पूर्वमनुष्ठितम् ।। १४६ ॥ तेनाहमभवं स्वर्ग महदिरमराधिपः । धर्म हेतुरभूदेवि ततस्त्वां द्रष्टुमागतः ।। १५० ।। एक्माभाष्य तां दिव्यैरर्चयत्रभूषणः। जनन्यसि ममेत्यक्त्वा प्रणम्य गतवान् दिवम् ।। १५१ ॥ तत्प्रमावं समीक्ष्य ते सर्वे भूयोऽपि तद्वतम् । सातप्रत्यय चक्रुः शमादिसुखसाधनम् ॥ १५२ ।। समृद्धि ही प्राप्त होती है। सूर्य ताप देता है, किन्तु उससे कमल शोभा रूपी लक्ष्मीको ही प्राप्त होता है। अब तिलकमती पट्टमहारानीके पदको प्रात हो गई और अपने पैरोंको सहस्रों रानियोंके सिरोंकी पंक्तिपर शोभित करने लगी ॥ १४१-१४४ ॥ एक दिन रानी तिलकमती अपने पति महाराज कनकप्रभके साथ जिन-मन्दिरको गई। वहाँ उस साध्वीने जिनेन्द्र भगवानकी पूजा की और श्रुतसागर मुनीन्द्रको नमस्कार किया । राजाने कर्मक्षयकारी धर्मका उपदेश सुनकर मुनिराजसे पूछा- हे मुनीश्वर, मेरी इस महादेवीने अपने पूर्व जन्ममें कौन सा सुकृत कमाया था ? राजाके इस प्रश्नके उत्तरमें योगीश्वरने तिलक मतीके पूर्वजन्म सम्बन्धी समस्त शुम और अशुभ कर्मोक फलका वृत्तान्त सुनाया। विशेष रूपसे मुनिराजने राजासे सुगन्धदशमी व्रतके प्रभावका वर्णन किया ॥ ११५-१४७ ॥ . इसी अवसरपर उस समामें किसी एक देवने प्रवेश किया। उसने जिनेन्द्र देव, जैनशास्त्र और जैन गुरुको प्रणाम किया और फिर वह महादेवी तिलकमतीके चरणों में आ गिरा। वह बोला-हे स्वामिनि, अपने विद्याधर रूप पूर्वजन्ममें तुम्हारे ही प्रसंगसे मैंने सुगन्धदशमी व्रतका अनुष्ठान किया था । उसी व्रतानुष्ठानके प्रगाबसे मैं स्वर्ग में महान् ऋद्धिवान् देवेन्द्र हुआ हूँ। हे देवि, तुम मेरे धर्म-साधनमें कारणीभूत हुई थी,इसीसे तुम्हारे दर्शन करनेके लिए मैं यहाँ आया हूँ । इस प्रकार कहकर उसने दिव्य वस्त्र और भूषणोंसे रानीकी अर्चना की और बोला--हे देवि, तुम मेरी जननी हो 1 इतना कहकर और रानीको प्रणाम करके वह देव आकाशमें चला गया ॥ १४८-१५१ ॥ सुगन्धदशमी व्रतके इस प्रकार माहात्म्यको देखकर वहाँ उपस्थित समस्त लोगोंका और Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगन्धदशमीकथा [ १५३-१६१ ] तिलकादिमतिः साधु नृगोऽपि कनकभः । प्रणम्य परमानन्दाजग्मतुनिजमन्दिरम् ॥ १५३ ।। पात्रेषु ददती दान पूजयन्ती जिनेश्वरम् । पालयन्ती सुरक् शीलं सोपवासं स्थिता सुखम् ।। १५४ ।। विधाय विधिना साध्वी सुगन्धदशीव्रतम् । शुभध्यानेन च प्राप्य प्रायोपगमनान्मृतिम् ।। १५५ ।। द्विसागरायुरीशाने बभूव सुरसत्तमः । निन्यस्त्रैणच्युतो भाविभवनि तिरदद्भुतः ।। १५६ ॥ सुपर्व वनिताकमकरसंवाहितकमः । पुरामवद्यतः शीलवतेष सहितकमः ।। १५७ ।। शशाङ्ककरसवाशेश्चामरैरेष वीजितः। यतः कामोऽङ्गिनां तेन भवदुःखसची जितः।।१५८।। ध्योमयानमथारुह्य स्म याति स मुदा बने । नमश्चकार येनार्य जन्तुजातं सदा बने ।। १५६ ।। वन्दते स्म जिनाधीशपादपद्माननेन सः। आराधितो मुदा येन पुरा विधिरनेन सः ।।१६०॥ कृतिरिति यतिविद्यानन्दिदेवोपदेशाजिनविधुवरभक्तेर्वणिनस्तु श्रुताम्धेः । विबुधहृदयमुक्तामालिकेव प्रणीता सुकृतधनसमा गृढता ता विनीताः ।।१६१ ॥ इति वणिंना श्रुतसागरेण विरचिता सुगन्धदशमी कथा समाता। भी दृढ़ विश्वास हो गया और वे सभी उस इन्द्रादि सुखोंके साधनभूत व्रतके पालनमें तत्पर हो गये । तिलकमती रानी और कनकप्रभ राजा साधुको प्रणाम करके आनन्द सहित अपने भवनको चले गये ॥ १५२-१५३ ।।। अब तिलकमती रानी पात्रोंको विधिपूर्वक दान देती, जिनेन्द्र भगवान्की पूजा करती, सम्यग्दर्शन और शीलका पालन करती व उपवास धारण करती हुई सुखपूर्वक रहने लगीं । उन्होंने विधिपूर्वक सुगन्धदशमी व्रत करके प्रायोपगमन धारण किया और शुभ ध्यान पूर्वक समाधि मरण किया | इस धर्म-साधनाके प्रभावसे उनका जीव अपनी निन्ध स्त्री पर्यायको छोड़कर ईशान स्वर्गमें दो सागर कालकी आयुबाला देव हुभा और अगले भवमें उसे संसारसे मुक्तिरूप अद्भुत फल प्राप्त होगा। पूर्व जन्ममें उसने शील-बतोंमें अपनी हित-कामनासे आचरण किया, इसीके फलस्वरूप उसे सुन्दर वनिताओंके कोमल हायों द्वारा अपने पैर दबानेको मिले। उसने पूर्व में संसारके दुखोंको देनेवाले कामको जीता था, इसीलिए उसे अप चन्द्रकिरणों के समान उज्वल चामरों द्वारा पंखा झले जानेका सुख मिला। उसने सदा वनमें समस्त जीव-जन्तुओंको नमस्कार किया था, इसीलिए अब उसे विमानमें बैठकर हर्षपूर्वक वनमें क्रीड़ा निमित्त जानेका सुख मिलने लगा। पहले उसने मोदसे जिन भगवान्की विधिपूर्वक आराधना की थी, इसीलिए अब उसे जिनेन्द्र के पापहारी चरणारविन्दकी वन्दना करनेको मिली || १५४-१६० ॥ इस सुगन्धदशमी कथाकी रचना यति विद्यानन्दि देवके उपदेशसे जिनचन्द्रमें श्रेष्ठ भक्ति रखनेवाले ब्रह्मचारी श्रुतसागरने विद्वानोंके हृदयकी मौक्तिकमालके समान की है। इसे धार्मिक जन सुकृत और धनके समान ग्रहण करें ॥ १६१ ।। इति वर्णी श्रुतसागर द्वारा विरचित सुगन्धदशमी कथा समाप्त । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगन्धदशमीकथा [ गुजराती ] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुगादशमीकथा [गुजराती] [१] पंच परम गुरु पंच परम गुरु प्रणमेसु सरस्वति स्वामी वलि विनन्यु। श्री सकलकीरति गुणसार भुवनकरति गुरु उपदेस्यु । करम्य राल निरभ सुगंधदमि कथा रूबड़ी । ब्रह्म जिनदास मणे सार भबियण जन संघीयया । जिम होइ पुण्य विस्तार जिम होइ पुण्य विस्तार ।। [२] भास जसोधरनी जंबुव दीप मझारि सार भरत क्षेत्र ववाणी । कासिय देस छे रुवडो वानारसि नयर मुजाणौ ॥१॥ पदमनाभि तिनि नयरि राब गुणवंत अपार । जैन धरम फरै निरमली त्रिभुवन भवतार ॥२॥ श्रीमति गणी तेह तणी रूप तणी निधान । धर्म चिवेक बहु रूबदा मन माहि बहु मान ॥३॥ वसंत मास अति रूवडो आयो सचिशाल । वनसपती अति गहगही फलफूल गुणमाल ||४|| पदमनामि राजा रूवडी चाल्यौ गुणवंत । क्रीडा करवा निरमलो ते छै जयवंत ॥५॥ सयल सजनस्यु निरभरयो परिवार विशाल । गज वर स्थ बह पालखी तुरंगम गुणमाल ॥६॥ साम्ह मुनिवर भेटिया स्वामी गुणवंत । सुदर्शन नाम रूवडा संजम जयवंत ॥७॥ त्रा ज्ञान करि लंकरो चारिन चुडामनि । दुइ पाम्बडे" पारणौ करे सुखम्बानि ॥८॥ तिनि अबसर राजा हरपियो वंद्या गुरुचंग । रागिए परते इमि कहि राजा मनि रंग ॥९॥ तम्हे पाछा बलो सुंदरि मुनिवर गुणवंत । पारणी कराव्यो निरमलो भाव धरि जयवंत-|१०|| १. स प्रनमिणं, २. स स्तक, ३. उपस्यु, ४. स हूँ निरमलो, ५.स निरमली, ६. सब जं तस छोषवा, ७. श्रच जंबूद्वीप, म. पास . स विहु नडी ६. अ आल्यो से रूबडो तक का पाठ छूट गया है, १०. स गोवर । ११. बस पखवाडे, १२. स जग गुरु । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२] [२, ११ सुगन्धवशमीकथा दिगंबर गुरु परम पात्र जो दीजै दान । मनवांछित फल पामियइ वलि उपजै ज्ञान ||११॥ ते रानि मिश्यातनि मान्यो नहि बात। भयथकि पाछि वली मुख कियौ निज काली ॥१२॥ मुनि पडगाझा निरमला आवी निज गेह | मुझ रमती विधन कियौ ते बळं मुझ देह ॥१३॥ इम मन माहि चितवि कोप कियौ तिनि थोर । सद्गुरु काजै विरुध दान दियौ तिने घोर ॥१४॥ पाणि पात्र जन्ही पडियौ दान तव्ही लियौ मुनिस्वामि । राग द्वेष थका वेगला समता गुणमाल ॥१५।। कटुक आहार तो अति अपार ते चटो मुनि काजे । बिह्वल शरीर हवौ गुरु तणो शरीर तब धूज ॥१६॥ तिहा थका सद गुरु आविया जिन भुवने उत्तंग । श्रावक श्राविका रूचडी आवि तिहा चंग ॥१७॥ हाहाकार तव उपनो भविमण दुख धरै ।। सार करि अति रूबडी भगति बहु करे ॥१८॥ ओषध" दान दिये निरमलौ वैयावृत्य करे चंग । दूहा—बिनय सहित गुरु राखिया आपणे मनि रंग ॥१९|| दुष्ट आहार तिहा जिरव्यौ मुनिवर हुआ निरोग । स्थाभी वनमाही गया ध्यान धरो आरोग ॥२०॥ ए कथा हवे इहा रही अवर सुणो सुजान | ब्रह्म जिनदास इणि परि धणे जिम जाण्यौ गुण ज्ञान ॥२१॥ [३] भास बिनतिनी विरुध आहार देइ थोर रानि आवि उतावलिए । राजा कन्हे बनमाहि पाप जोडि करी कसमलिए ॥१॥ तब राजाने मोह तेहना उपरि ठलि गयौए । ततक्षणि लागु पाय राजा कोप धरि रह्यौए ॥२॥ सौभाग गयो तेह थोर दोभाग आवियो अतिघणोए । अपजस उपनौ अतिथोर जस गयौ बहु तेह तणोए ॥३॥ दुरगंध हवौ शरीर कोदिनि होइते पापिनिए । पछताप करै ते जान मे बुरो कियो मिथ्यातणिए ॥४॥ १. स रानी धनी, २. स तेह गमे नहि बोल, ३. स मूलमती, ४. बस तिणे बले, ५. स इणि परि, ६. स संत, ७, अ'शरीर हवी गुरु तणों छूट गया है, ८. स निपणी, ६. प्रभविय, १०. अनार, ११. स ओखद, १२. स हवे अवर कथा, १३. स गली । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३, १६ ] [५३ गुजराती सदगुरु आज्या मुझ घरि चंग ते पापिमि कोप कौए । छति सामग्री होति मुझ गेह विरुद्ध आहार स्वामिनइ दियोए ॥५॥ ते पाप लागौ मुझ थोर तिन पापई रोगिनिह रहिए । महत गयौ मुझ सार कीरति सदगुरु अति घधीए ॥६॥ इम जाणि कीजै बहु सेच देव गुरु तिनि निरमलाए । जिम मन चांछित फल बहु होइ मति उपजे वलि उजलिए ॥७॥ राजाइ जाण्यौ सयल वृत्तांत ते उपसर्ग रानिय कियौए । तव राजा मनि कोप अपार राणि उपरि घणो कियोए ||८|| उदास मुकी राणी गुणहीन राय मनि दुःख उपनौए । मे पापी दियो उपदेश ए पाप मुझ निपणौए ॥९॥ इम कहि सदगरु कन्हे जाइ प्रायश्चित लियौ अतिघणौए । निंदा गहि कीधी आपनि थोर पाप निगमौ राजा आपणौए ॥१०॥ राणि आरतध्यान मरेवि भैस हुई ते पापिनिए । दुःख भोगवै तिहा अपार माय विहुनि दया मणिए ॥११॥ पाणी पीवा गई एक बार सरोवर माहि दुबलिए । कादव माहि खुती जाण दुख दिगंति हावलिए ॥१२॥ मरण पामी बलि तिहाँ थोर सुहरि हुई ते पापिनिए । माय पाखै दुःख दिठो थोर वलि मरण पामिय ते ॥१३॥ सांवरि" जोनी गइ बलि तिहा दुःस्व दीठा थोर । बलि मरन पापिनि दिन फल भोगवै पाप तणोए ॥१४॥ अंतधरि चलि उपनि धीह दुरगंध पापे जडिए । माय मरण पामी बलि जाणि जाणौ दुःख तणी घडिए ।।१५।। जिम जिम मोठी होइ ते बाल तिमि तिम दुरगंध बाधे घणोए । गंध सहि सके नहि कोइ सयल सजन तेह" तणोए ॥१६॥ पछे नाखि ते वनह मझार ते एकलि दुःखे भरिए । कुवर फल खायै जानि पट बरिस लै ते जीवोए ॥१७॥ पछे आच्या मुनिवर भवतार श्रुतसागर मुनि निरमलाए । गुणसागर सरिसौ छइ शिष्य तप संजम करै उजलाए ।।१८|| ते चंडालि दिठी तिणे ठामे गुणसागर तव बोलियाए । कवन पाप किया अनै थोर तेह कहो गुण तोलियाए ॥१९॥ १. ब स कियोए, २. स पापे ते, ३. हुइए, ४. स गई मझ, ५. प्र यह पंक्ति छूट गया है। ६. स लागियोए, ७. स देख्या तिणे, ८. स ते वेलि, ९. स सुरारि, १०. स मुई मिथ्यातणिए, ११. म साठरि, १२. स एह, १३. स उंबर, १४. स सेवियाए, १५. स ते हो स्वामी गुणनिलए । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ सुगन्धदशमीकथा दूहा - सदगुरु स्वामी चोलिया मधुरिय सुललित बानि । सुणो वच्छ लम्हे रूवडा भवांतर कहु दुःखखानि ||२०|| श्रीमति राणी आदि करि कही सयल अवतार | तब दुरगंधा मनउ बांधा सदगुरु पाय ||२१|| आठ मूलगुण तिनि लिया वार वरत वलि चंग | पाप सयल निवारिया धर्म लिधो उत्तंग ||२२|| [४] भास चौपनी 3 तिहा कि मरन पामि वलि जान । उजेनी उपनी दुखखान || ब्राम्हनने घरि बेटी थोर । बलि दुरगंधा हुई घोर || १|| बाप मरण पानी तिनि बार । पाम्या दुःख तेनि अपार ॥ हल हल मोठी हुइ ते जाणि | माता मुई चली दुखखानि || २ || काष्ट भार आने ते घोर । पुण्य चिन कष्ट करइ घनघोर ॥ इनि परि पेट भरे आपनौं । दुःख स तिहा अतिघणौ ॥ ३ ॥ तिनि अवसर मुनिवर भवतार | सुदर्शन आव्या गुणधार || समकित ज्ञानचरितगुणवंत | तप करे स्वामी जयवंत || ४ || अश्वसेन राजा तिहा अतिचंग | चाँदवा आव्या निज मनि रंग || पूज्या चरण कमल सार | पूछो धर्म तणौ विचार ॥५॥ मचित्रण आध्यातिहा बलि जाणि । साँभलवा गुरु निरमल वानि ॥ ले लोक दीठा अतिबंग | दुरगंधा हरषी मनरंग ॥६॥ काष्ठमार नाख्यौ तिनि चार | ते आवी तिहा सुविचार | संघसहित दीठा मुनिरा | जाति स्मरन उपनौ तिनि टाय ॥७॥ मुरा आवि पडी तिनि यम । राजा पूछै तब सिर नाम || कहौ स्वामि त्रिभुवनभवतार | कवन गुणे गुण पडिथ नार ॥ ८॥ सदगुरु कहे तब मधुरिय चानि । भवांतर का सबै जानि ॥ तब विस्मय पाम्यां ते धरम वरत दियौ एह सुगंध दशम वरत अति तिनि अवसरि विद्याधर ते आव्यौ तिनि अवसर उजालो राय । वलि पूज्या स्वामी मुनिराय ॥९॥ सार । जिम ए छुटै पाप अपार | चंग ए बरत करौ उत्तंग ॥ १० ॥ सार । जयकुमार तेह नाम विचार || जान । सुनवा सद्गुरु लुलकित बान ॥ ११ ॥ पाख । दशमी के दिन करो उपास ॥ उत्तंग | जाउ भवियण भनि रंग ॥ १२ ॥ भाद्रव मास पाछै जिनवर भवन [ ३, २० १. स उपसम्यु, २ स लियो, ३. स पाम्यो, ४ सवारोवार, ५ स वांदन, ६ ब मनमाहि, ७. अ व प्रति, ८ अ व दुरडा, ६ स पूछे । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४,५] [५५. गुजराती पंच चरण' स्वस्तिक मांडियौ । दश कमल करौ अति सविचार ॥ (तेह उपरि कलस मुको एक चंग | जिनवर बिंब थाप्यो मन रंग) ||१३|| अष्ट प्रकारी पूज्या सार । पूज्या जिनवर त्रिभुवन सार' । दश अष्टक दीजै गुणवंत । स्तवन दश पढिजे जयवंत ॥१४॥ छंद छप्पयं जयमाला सार । विनति पढिजे भवतार ।। रास भास गीत सविशाल । धवल मंगल गीत गुणमाल ॥१५॥ अष्टोत्तर सौ जपी चलि जाप । पुष्पगंध लेइ गुणमाल ॥ इनि परि महोछत्र कीजे चंग । राति जागरण मनि रंग ॥१६॥ पछे निजपरि आवौ गुणवंत 1 जिनवर स्वामि पूजौ जयवंत । सुपात्रह दीजै वलि दान । विनय भाव सहित गुण गाण ॥१७॥ इनि परि दश बरस लागै सार । ए वरत कीजै भवतार ।। वरत पुरै उजवनौ चंग । दश दश बाना चडाचो मनिरंग ॥१८॥ पकवान फल फूल अपार । उपकरण आनो ते अपार ॥ चंद्रापक आदि अति चंग | विस्तारौ जिनभवने उत्तंग ॥१९॥ उजबनों जो सकत नहि होइ । ती प्रत बिमनौ करौ सहु कोइ ।। सदगुरु वानी सांभलि चित् । भवियण आनंदा जयवंत ॥२०॥ दहा-बरत लिधौ सदगुरुं कन्हे श्रावक भचियण चंग । राय विद्याधर रूवडा राणिय सहित अभंग ॥२१॥ दुरगंधा वलि व्रत लियौ सुगंधदशमि भवतार । नमोस्तु कियो अतिरूवडी निपनी जयजयकार ॥२२॥ [५] भास रासनी पछै निजधरि आवियाए सयल श्रावक गुणवंत तो । दशमि वरत कियौ रूवडोए जिनभुवने जयवंत तो ॥१॥ दश घरस लग रूवडोए पछै उजवनौ सार तो । सयल संघ मिलइ निरमलोए महोछव जय जयकारतो ॥२॥ पूज्या श्रावकै दियौए ते ब्राह्मणिते सार तो। दान मान पाम्या घणुए धर्मफलै सविचारतो ॥३॥ दुरगंध फिटि गयौए सरीर हुचौ निरोग तो । संजम श्री आर्जका कन्हेए अनुव्रत लियो गुणजान तो ॥४॥ पछे आयु थोडौ हवीए कनक राजा जयवंत तो । कनकमाला राणि तेइ तणिए, रूपसौभाग अपार तो ॥५॥ १. अदिवस, २. अछूट गया है। ३. प्रसार, ४. स पहिलो, ५, स वस्तु स्तवन, ६. स गुण व्याप, ७. स सविशाल ८. स ते वरत लियौ गुरु ९. म निपन । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६] [४,६ सुगन्धदशमीकथा धरम करम करें जिनवर ताणौ समकित पालै भवतार तो । जिनदास साह तिहा बसिए जिनदत्ता तेह नारि तो ॥६॥ तेह बेह कुरखे उपनाए सुगंध कुवरि सविचार तो ॥७॥ रूप सौभागे आगलिए शरीर सुगंध हुवौ चंग तो । माय बाप सुख उपनोए महोछच कियौ मनि रंग तो ॥८॥ असुभ करम फलै माता मुइए दुख उपनी तव घोर तो । हा हा सुंदरि रूबडीए धर्मवंती गुण थोर तो ॥९॥ सजन सयल मनि दुख धरेए जिनदत्त विन सविशाल तो । जिनदास साह संबोधियोए झणि दुख धरौ गुणमाल तो ॥१०॥ वलि पनि राणि सुंदरिए जिम घर वसइ तम्ह सार तो । बेटिय तम्ह तणी उछरेए चंस वाधह अपार तो ॥१२॥ तव साह बोलि मानियोए परनि नारि सविशाल तो । रूपिनि मारि नाम छे तेह तणोए सागरसाहनी बाल तो ॥१२॥ तेनिए बेटि जाइ रूवडिए शामा तेह तनो नाम तो । रूपिणि मोह करे अति घणोए तेह उपरि बहु मान तो ॥१३॥ सावकि पुत्री देखि करीप द्वेष करै अति घोर तो । वर्तु करावै अति घणुए कोप करै धन घोर तो ॥१४॥ बेटिए तणौ दुःख दियौए साह कहै तब बात तो । सुगंध कुवरि दुरबलि हुइए मलिण दिसइ तेह गात्र तो ॥१५॥ रूपिनि तब कोप चढोए बोली करकस वानि तो। वांदिए अनावौ तम्ह एहनीए जिम होइ सुख खानि तो ॥१६॥ तव साह बांदि ल्यावोए आनि निज घर सार तो । ते वांदि तिने वस करिए रूपिनि कठिन अधीर तो ॥१७॥ तब साह जुवौ रझौए चेटि सयरिसौ जानिजो । रंघन करइ बीजि स्वडिए जिमे बापे गुणवंत तो |१८|| तव सुख पामियोए बाप पुत्रि गुणवंत तो । देखी न सके ते पापिनिए कपट कर चलि चंग तो ॥१९॥ वेलु धालि धान माहे घनिए मीठ घालि बलि थोर तो। साह जिमवा बैसै निरमलोप दुल उपजै तव घोर तो ॥२०॥ १. यह पंक्ति तीनों प्रतियोंमें नहीं है। स प्रतिमें ११ वें पद्यको तीन पंक्तियोंका मानकर श्लोकोंका अनुक्रम ठीक कर लिया है। २. तव घोधियोए, ३. बस नारि, ४, अब वतु, ५. स देखियोए, ६. स दूलि, ७. स काही अपार, ८. स बेटि, ९. स बलिवंत । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६, ७] गुजरातो कपट जाण्यौ तब नारि तणौए साह भाग्यौ' मन माहि तो। त्रियाचरित्र कले नहिए ज्ञान दृष्टि इम चाहि तो ॥२१॥ इम जाणि साह बोलियौए मधुरिय सुललित वानि तो । ए बेटि छइ तम्ह तणौए तम्ह खोलि घालि जानि तो ॥२२॥ दूहा-इम कहि साह निरमलौ धर्मभ्यान करै सार । समकित पाले रूबडौ व्रत सहित भवतार ॥२३॥ साह बोलायो निरमली राजाई गुणवतं । रत्न कारनि ते मोकल्यो दिपांतरै जयवंत ||२४|| तव साह घरि आवियो सिख दिई तव सार । निज नारीते रूवडी सुरखे रहिजो सविचार ॥२५॥ दुहि कन्या छै रूचडी परनावोजी तम्हे चंग । घर वर सूडो देखि करि' सजन सहित उत्तंग ||२६॥ इम कहि साह निसरयो रनदीप भणि सार । नमोकार मनमाहि धरि सनी सनी तेनि वार ॥२७॥ ए कथा हवे इहा रही अवर सुनो सुजान । ब्रह्म जिनदास भणे रूवौ जिम जाणौ गुणज्ञान ॥२॥ [६] मास सुणो सुंदरिनी तिने अवसरि साह आवियोए-सुणो सुंदरि-चांगदत्त तेह नाम । चांगवती नारी तेह तणीए-सुणो सुंदरि-रूपसौभागनो ठाम ॥१॥ तेह बेहु कुखे उपनिए -सुणो सुंदरि-गुणपाल गुणवंत । रूप सौभागै आगलौए-सुणो सुंदर-सुललित छै जयचंत ॥२॥ तेहनै मागवा कारणौए-सुणो सुंदरि-कलिंग गाम थका जानि ! आव्या सरस सुहावनाए-मुणो सुंदरि-रत्नपुर सुख खानि ॥३॥ सुगंधा तणौ रूप देखियोए-सुन सुंदरि-रीझौते अपार । मागनौ करै अति रूवडोए-सुन सुंदरि-विनय सहित सविचार ॥४॥ अवगुण बोली अति घणाए-सुन सुंदरि-रुपिनि अतिहि सविशाल | बड़ी बेटीको अति घणोए-सुन सुंदरि-वस्वाणौ" निज बाल ||५|| चांगदत्त साह बोलियोए.सुन सुंदरि-ते कन्या तम्ह देउ । अवगुण सयल मे पतगरया-मुन सुंदरि-इम जाण्यो तम्हे भेउ' ॥६॥ तब विवाह तिण मेल्योए-सुन सुंदरि-सुगंध कुवरिनौरंग । लगन धयो तव रूबद्धोए-सुन सुंदरि-महोछब होइ तिहा रंग ॥७॥' १. स चितवे २. स मुझ, ३. स अति जयवंत, ४. प्रतुहि, ५. स देखो रूवडि, ६. स अवर कथा, ७. स उपनोए, ८. स कर्लफ, ९. स रोश्या, १०.स वखान्या, ११. स भाव, १२. स सुगंधिनी तव । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ ॥॥ सुगन्धदशमीकथा [६,८लगन दिवस आन्यो रूवडाए-सुन सुंदरि-रूपिनि बोली तब वानि । सुगंधकुवरि तम्हे सुणोए-सुन सुंदरि-जिम होइ सुख खानि ॥८॥ विवाह करू हवे तम्ह तणौए-सुन सुंदरि-आव्यो तम्ह अम्ह साथ | हा कदि ई निसीए-सुन सुंदर साड़िय जमणे हाथ ॥९|| मसान माहि लेइ करिए-सुन-सुंदरि-मकिप ते सुणो बाल । चहु गमा दिप बलै घणाए-सुन सुंदरि-सुगंधा बेटि गुणमाल ॥१०॥ चहु गमा च्यारि ध्वजा रोपियोए-सुन सुंदरि-लहलहै अतिहि अपार । इहा आवे कुवर रूवडोए-सुन सुंदरि-ते परणीजो सबिचार ॥११॥ इम कहि पाछि बलिए-सुन सुंदरि-आविए निज घरि चंग। फोलाहल करइ अति धणोए-सुन सुंदरि-जन जन आगलि रंग ॥१२|| जो जो सजन सुहायणाए-सुन सुंदरि-जो जो बाल गोपाल । विवाह मेलव्यो मे रूबडिए-सुन सुंदरि-कुवरि नहि सविचार ॥१३॥ विवाही ते आवियाए-सुन सुंदरि-किहा गइ सुगंधि कुवार। हा हा घरि हुवौ घणौए-सुन सुंदरि-जोवे घर-घर चाल ॥१४॥ मे कहियों होतो आग लिए- सुन सुंदरि-ए बेटी नहि संत | विवाह दिन नासी गइए-सुन सुंदरि-तम्हे न जाणो जयवंत ॥१५॥ तम्हारि पोते पुण्य घणाए-सुन सुंदरि-भाग्यवंत एह पर | पासे न पडिया पह तणाए-सुन सुंदरि-इम जाण्यौ पुण्यघार ॥१६॥ हवे गला किम जाइ-सुन सुंदरि-तम्हे सजन गुणावंत । मुझ बेटि गुण आगलिए-सुन सुंदरि-ते दियु जयवंत ॥१७॥ तव तिणे बोले मानियौए-सुन सुंदरि-परणि स्यामा सविचार । ते गया निज स्थानकेए-सुन सुंदरि-धर्म करइ भवतार ॥१८॥ ए कथा हवे इहा रहिए-सुणो सुंदरि-अचर सुणो गुणवंत । तम्ह जिनदास भणे रूबडोए-सुन सुंदरि-जिम सुख होई महंत ॥१९॥ दृहा-सुगंध कुचरि रूचडी मसान माहि बेठी जाण । एकलही गुणे आगली रूप सियल गुणखान ॥२०॥ ते नयरको राजियो कनकप्रभ तेह नाम । मध्यराति ते उठियो गोक्ष बैटो गुण जाने ॥२१॥ दिपमाला दिठि रूवडी मसान माहि सचिसाल । कुपरि दीठि बलि निरमलि विस्मय पाम्यौ गुणमाल ॥२२॥ कौतुक जोवा कारणेइ एकलडोए जयवंत । खडग हाती धरि करी आव्यौ तेह गुणवंत ॥२३॥ १. स परिय जिम नइ हाथ, २. स लहकती, ३, स जन आगलि रडे मनि रंग, ४. स दीठो बर, ५. स सविशाल, ६. स बिहाई, ७. स मानौ, ८. स कहा, ९. स शील, १०. स गोष्टी करइ सुजान, ११. स आज्या तिहा जयवंत । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७, १६ ] गुजराती [ ७ ] भास लकी उभौ रह्यौ तिहा सार बोल्यौं वानि सुहावनी हेलि । कहो सुंदरि तम्हे कोण एकलडी गुण आगली हेलि ॥ १ ॥ की सरगणी देवि की अप्सरा' सोहजलो - हेलि । काइ नागिनि गुणवंत की विद्याधरि निरमली - हेलि ॥ २ ॥ केह तणि कुबरि सुजान मसान माहि काइ एकली- हेलि | रौद्र दिए ठाम कवन पापइ तू मोकली - हेलि ||३|| ते तव बोलि सार मधुरिय वानि सोहावनी - हेलि । जिनदत्त साह् मुतणी बाप जिनमति माता मुझ तणी - हेलि || ४ || मुझ जनम्या पुढे चंग माय मुई मुझ रूवडी हेलि | मुझ तणौ पिता जान अवर नारी कीधी पापे जडी- हेलि ॥५॥ मुझे पिता गुणवंत राजाइ मोल्यो दिपांतर हेलि । मुझ तणी सावकि माय तिणिइ इहा घरी - हेलिं ॥६॥ इहा वर आवजे चंग ते परणौ तम्हे रुवडो हेलि । ते परणीजेचंग सुललित कुवरि रूपे जड्यो हेलि ॥७॥ तब जाण्यो ते भाव राजा कहै सुणौ सुंदरि हेलि । हूँ आव्यों ते वर मुझ परणो तम्हे सुंदरी - हेलि || ८|| इस हि तिणि चार बैठो तिहा गुण आगलो-हेलि | हरषबदन गुणवंत परनि करी मोहें सोहजलो-हेकि ||९|| पारनि करि तिहा सार पछि निसरयो घरी भणी - देलि । पालय धरियो जाण कुबरि तिहा बोलियो" हेलि ॥ १० ॥ मुझ पर निन आज झनि जाऊ तुम्हे रूवडी - हेलि । हु तुम बिन केथि जाउ म मन तम्ह गुणे जड्यो हेलि ॥११॥ राजा कहै सुनो देवि स्यणि तम्हे घरि आविसु-हेलि । तब लीति भाष दिसै निज काम करु- हेलि ॥१२॥ कुवरि कहि सुजाण दिसे कैसु काम करूँ - हेलि | तव बोले ते राब बात हुँ गोवाल तम्हे मणि धरों ॥ १३ ॥ इम कहिं गुणवंत आयो निज घरि निरमलि-हेलि | कही नही ते बात के आगलै ते सोहजलौ हेलि ॥ १४ ॥ दिनकर भ्यो सार वलि रूपिनि कलकल करें - हेलि । सहज सुण तम्हे बात बेटि जोवा जाउ रूवडी " हेलि ||१५|| आयो तम्ह अम्ह साथ वनमाहि जोबा जाउ रूवडी- हेलि । एणि बेटि अह थोर संताच्या दुःख जड्यो हेलिं ॥१६॥ [ ve १. बस अपसरा रूप, २ स दिठाइ ३ स आव्यो तम्ह, ४. स महोछन, ५. स बोलो सुजाण, ६. स कंत किहा, ७. स दिसे निज घरि जाइसु, ८ अ व में यह चरण छूट गया है, ९. य स सजन, १०. स जोउ मनि साव धरी । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] सुगन्धदशमीकथा सजन जाय्यौ तेह भाव रूपिनि दृष्टि छ आपनि हेलि | मौन करि रह्या सार नाचे सरसा आपनि हेलि ||१७|| ते एकली वन माहि जोवा जाइ परपंच करि-हेलि । ર 3 आनि सुगंध कुवरि बडबड करइ निज करि-हेलि ||१८|| मे जोड्यो एको विवाह तु कहा गइअ चांगली हेलि । तव बोली ते वानि सरल चिर्चे अति निरमलो हेलि ||१९|| दूहा - तम्हे मोकलि हू निरमली' रहिजो वनमाहि चंग । गोवाल एक आवियो तिणेए परणी हुं चाहिँ ||२०|| तत्र रूपनि कहि कसमली झूठी तू गवार । आपनि सात जाइ करि गोवाल परणौ अविचार ||२१|| इम कहिले साची हुई लोक न जाणे भेद । जिम कुशास्त्र सुनि करि मन आने बहु खेद || २२ ॥ बलि पूछै कुवरी कन्हें कहि आवसे तम्हे वार | राति आवसै रूवडौ सुणौ मा सिधार ||२३|| इम कहि अति रूडौं निज घर रहि गणवंत | दुधवडी पुण्य ||२४|| [ = ] भास गुणराज भार्स की रातिए आयौ राय सुगंधकुवरि रूवढोए । पान फुलए बहु भोग विशाल ते राजा मोहे जड्योए ॥१॥ पाछलि स्यनि चंग राजा निज घर गयौए । रुपिणिए पुछि भाव कहो बेटि ते आवियोए ||२| तेह कन्हे मागइजो आज हार गुंजतणौ रूवडौए । गवततणाए आमरणए विशाल गोवाल वर रंगे जब्योए ||३|| सयल चाणाए माभ्याए तिण जाणी राय आनि दिया निरमलिए । मोलिय हार विशाल रत्नजडित आनि कंचुकिए || ४ || 10 पट" कुल तनु आनियों चुरवलि नवरंग घाटडिए । सोलाए आमरण आण्या अतिचंग हिस मानिक मोति जड्याए ||५|| निज राणि तपाए आणि आविया सार नाम अंकित अति रूवडौए । अहिरा रुचडा अपारए मन मानिक मोति जड्याए || ६ || प्रभात हवो सार राजा राजभवनि गयोए । उठियो सुगंधकुवारि सामायिक रुवडो कियौए ||७॥ पहए भूषण सार रुपिनि आगल दाखल्याए । दिसइए अतिही सुरंग देखि दुःख व्यापियौए ||८|| [ ७, १७ १. स दुष्ट छे पापिनि, २. स गई, ३. स ईको, ४. सबात, ५ मुकी हू एकली, ६. स जाणि, ७. प्र व सुविचार, ८. बस ब्रह्म, ९. व आवियो ९. स आवमा १० अ कप, ११. स नाम कीरति स्वडिए । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६, २] गुजराती राय राणि तणाए चंग तम्हे कारण कोण दियाए । चोरे परणी जाण इम कहिउ बालियाए || ९॥ तिथे अवसर आवियो साह नारि दिय दुख भरए । पुछे कारण बात साह मनि विस्मय करिए ॥ १०॥ ते दाखत्र्या भूषण सार राय तथा अति रूबडाए । परणिए धीह तिणं दिया रते ते खाए ॥११॥ मे कुल घर जोइ सार वर आण्यौ अति निरमलौए । उलंघए मुझ तणु बोट चोर' बन्यो इणे कसमलिए ||१२|| देव न हिए इह तणौ चंग कुलक्षनि बेटि तम्ह तणिए । सांभलिए तेह तनि चानि साह चिंता करि घणिए ॥ १३ ॥ विस्मय पामियो सोर एह बात कहु किम घटदए । तब दाखवाए भूषण सार राय तणौ नाम दिठोएं ॥ १४ ॥ भाषा हवौए तब साह मन माहि छह घणोए । ते आमरण अति सुविशाल ते कलिया रायतणीए ||१५|| चालियौए राजमंदिर राय भेटौ तिन गुणवंतोए । रन आण्याए स्वामि अति चंग दिपांतर थकाए जयवंत ॥ १६ ॥ रत्न दिठाए राजाए तिणे जगा ज्योति अति रुवडाए । पुर लोकैए दिठा वलि चंग राय बोल्यो तब भात्र जडयौ ॥ १७॥ कवण वस्त छै एमाहि सार ते कहो तम्हे निरमलाए । जिनदत्तए कहै सुणो स्वामि मुझ चयण अति सोहजलाए ॥१८॥ हु गयौ होतो ए देशावर सार रत्न आनवा स्वामि तम्ह तणाए । रत्नदिप है अति सुविशाल तिहा दिन लागा अति घणा ॥ १९ ॥ दहा - तिणि अवसर बेटि मुझ तनि परनी चनह मझार | मध्यम रयन रूवडी वर आवियो सविचार ||१ ॥ जाति कुल नवि जानिविद्द नवि दिठो तेह रूप | ति आभरणए तम्ह तथा आण्या जाणख भूप ||२|| [६] भास चौपईनी सुगंध कुवरी दीघी चंग । आण्या आमरण अतिहि सुरंग ॥ ए आभरण तम्हे तणा सार । तम्हणे लेउ स्वामि सविचार ॥१॥ तब राजा कहे सुणो तम्हे साह । अवर अम्ह तण बहु काज ॥ ते वस्त तम्ह आनो आज । "सरे तह तो बहु काज ॥२॥ १० [ ६१ १. स बहु रतनजडबाए, २. स उलट्या, ३. स गोवाल वर, ४. स तणा ५. स दिठाए, ६. स बिहे, ७. स जगमगता, ८. ब णिसुणी, ९. स अवर वस्तु जोक गुण सार, १०. अब में यह चरण छूट गया है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] सुगन्धदशमीकथा बलिवंत । मो छोड तम्हणे गुणवंत || आपनी । चोर ओलखाको गुणधनी ॥३॥ सविशाल | साह आण्यौ निज वरि सविचार || नहि बर चोर अनो कुबरी पूछो तम्हे राय वयण सुण्या कुबरी बोलिचि तिणि आपनी बात पूलै चोर तणी ॥ ४ ॥ कैसो वर से तम्ह तणो चंग । ते सुम् आगलि कहो मन रंग ॥ तब कुचरी बोली गुणवंत । पाय धोविय' ओलखु जयवंत ||५|| साह कही सुणौ महाराज | चरन कमल ओलखि पुत्रि आज || तब राजा कहै सुणी साह | मुझ तणी बुद्धि करो सविचार ||६|| जमवा तेरौ सयल परिवार । घर बोलायौ गुणधार || 고 चरण कमल ओलख तेह तथा । मान दिन दिऊ अति घणा ॥७॥ साह्रै बोल माण्यौ गुणवंत । अनेक कुबरनहु तय जयवंत ॥ निज घर बोलाच्या देह मान । आव्या कुवर सयल सुजान ॥ ८॥ पsaौ बाँधि तिहा अति चंग। एक एक कुबर बेठ्या उत्तंग || चरण कमल काढि कर कमल सरखारतो फल ए माहि नहि मुझ तब भूषै देखाडौ हाथे लेइ जोया एह वर मुझ तण तणो निज जोइ । सुगंध कुवरि कहि ए नवि होइ ॥ १ ॥ पाय । पद्म चिह्न ते वलि ते काय ॥ कंत । इम जाण्यौ सजन जयवंत ॥ १०॥ पाय । वस्त्र करि ढाकि बलिं काय ॥ सविचार | ओलख्या हरिणी तिथे वार ॥ ११॥ गुणवंत । मे लाभ स्वामी गुणवंत || तब राजा ह 1 सुजान | प्रगट हवौ जिम दिनकर भान || १२ || सजन आनंद्या तिहा जयवंत जिनदास साह हुवो जयवंत ॥ विवाह महोछव कियो तिहा चंग । राजा परणौ तिहा उत्तंग ॥ १३ ॥ परनि कुवरि भाग्यौ सविचार | हरष चदन हुवौ गुणधार ॥ पटरानी थापी निज चंग। धर्म फल तिहा उतंग || १४ || तब राजा कोप्यो अति थोर । रूपिणि उपरि सुनो घनघोर || इणि ए कपट कीयाँ गुणहीन । हत्रे दंड दियू करू दीन || १५ || तब सुगंध कुवरि सविचार | बोलि सुललित सुणौ गुणमाल || ए मुझ माता सुणौ तब राजा रीझो मन तम्हे धीर । एहनि दंड झनि देउ गंभीर ||१६|| माहि । क्षमा तणी गुण निर्मल चाहि || चंग । राजा सौख्य भोगवह उत्तंग ॥ १७॥ अवतार | एह कन्हे समकित होसै सार ॥ धन धन ए तणौ मत धन धन ए नारि परसंसा करह तेह तणी । सजन श्रावक भवियण अति घणी ॥ १८ ॥ [ ६, ३ १. स दि २. स देखाडो, ३. स दान, ४ सनिवत्मा, ५. स सरिखा छे कोमल, ६. सराय, ७. स एहने । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ३४ ] गुजराती जस विस्तन्यो हुवौ आनन्द । बाध्यौ धर्म तणौ तिहा कंद ।। पटरानी थापी निज सार । पीती वाधी तिहा अपार ॥१६॥ धर्म करी जिनयरतणौ चंग | राज सौख्य भोगवै उत्तंग ।। जिनवर भुवन कराव्या सार । विंच भराव्या भवतार ॥२०॥ ................. ) प्रतिष्ठा महोछव वलि सबिसाल । सिद्धक्षेत्र यात्रा गुणमाल ॥२१॥ दानपूजाँ निरंतर करै । सामाइक नित मन माहि धरै ।। महामंत्र गुणै नवकार । वरत नेम पालै भवतार ||२२।। इनि परि राज भोगवे सविशाल । पर उपगार करै गुणमाल || एक बार जिन भवन उत्तंग । गयौ राज आपने मनि रंग ।।२३।। सुगंध राणि सहित सुजान । चलि श्राचक आव्या गुणमाल ॥ पूजा जिनबर त्रिभुवन तार | वांद्या सदगुरु धमह काज ॥२४॥ तिणि अचसरि आन्यौ एक देव । सरग थकौ भाव सहित सहेव ॥ पूजा जिनवर सदगुरु पाय । सफल कीधी जिम निज काय ॥२५॥ सुगंधा राणि दिठि गुण जयवन्त । हरप बदन हुचौ जयवंत ॥ धन धन राणी तम्ह अवतार । तम्ह परसादे देच हुवो सार |२६|| पहिले भवि निरमलियौं उत्तंग । सुगंध दशमि व्रत लियौ उत्तंग ॥ हु विद्याधर होतो राय | तम्ह सरिसी व्रत कियौ भवतार ॥२७॥ ते भणि साधर्मि मुझ सार । तुस हो चरि बहिनि विचार ।। इम कही पूजी ते बाल । वस्त्राभरण करी गुणमाल ॥२८॥ महोछच कियौ बलि तिहा जानि । बोल्या सुललित मधुरिय वानि || धन धन जिनशासन अति चंग । इम कहि आपने मनि रंग ॥२९॥ पछै गयौ आपने निज ठाम । जिनवर चरण कमल सिर नाम || राजा आन्यौ निज घरि सार । जिनवर धर्म करें भवतार ॥३०॥ काल घणौ भोगव्यौ राज सार । करता बहु पर उपकार ।। पछै मरन साधौ गुणवंत । महामंत्र गुण जयवंत ॥३१॥ ईशान सर्गि' लाधो अवतार । ते देव हुबौ अवधार॥ नारी लिंग परिहरियो जानि । इंद्र पद लाधौ सुगंधी सुजान ॥३२॥ अवधिज्ञान उपज्यो तिहा सार । व्रत फले जाणी सविशाल ॥ जिनशासन उपरी मोह चंग 1 समकित धर्म पालौ उत्तंग ॥३३॥ विमान चैसि करि अतिं गुणवंत । जिनवर यात्रा करै उत्तंग ॥ पंच कल्यानिक करै चंग । जिनवर धर्म करै उत्तंग ॥३४॥ १. साधी, २. यह पंक्ति तीनों प्रतियोंमें नहीं है, ३. स आत्रा, ४. स देव, ५. स सुणो हैक, ६. स कुवरि, ७. स निर्नामक, ८. स घिरभाव, ९. स सरग, १०. व गूणधार । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] [., ३५-४३ सुगन्धदशमीकथा सुपार्थ जिनबर भवतार | समोसरण स्वामिको सविचार || ते देव तिहा जाइ आनंद । पूजे चरन कमल गुणकंद ॥३५॥ केवल वानि सुणे गुणवंत । तत्त्व पदारथ चलि जयवंत ।। जिनशासन उपरि दृढ चित्त । समकित वस्त पाल सुललित ॥३६॥ दहा-स्वर्ग तण सुख भोगवी दह सागर अति चंग । देवि सहित सुहावणौ धौ फलै उत्तंग ॥३७|| तिहा थको चवि करि रूवडो उत्तम कुल अवतार | संजम लेसै निरमलो दिगंबर गुरु धार ॥३८|| ध्यान बले कर्म क्षय करी केवल ज्ञान विशाल । अनेक जीव भवियण संबोध्या गुणमाल ||३९|| पछै मुगति रमनी वरइ सिद्ध हुआ गुणमाल । आठ कर्म रहित नमू आठ गुण जयवंत ॥४०॥ ते स्वामी हु भ्याइसु मनि घरह अविचल भाव । अविचल ठाम हु मागसु उपमा रहित पसाउ ॥४॥ श्रीसकलकीरति प्रणमिणइ मुनि भुवनकीरति भवतार । रास कियौ मे निरमलौ सुगंधदशमि सविचार |॥४२॥ पढे गुण जे सांभलैं' मनि घरइ अति भाव | वम जिनदास भणे रूवडी ते पामै सुख ठाम ॥४३|| ॥ इति ॥ १. स जिन, २. स गुण, ३. स संबोधि करी भवियण, ४. ध में चरणका इतना अंश छूट गया है, ५. स साम्हल, ६. स निरमलो । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगन्धदशमीकथा [ मराठी] Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगन्धदशमी कथा [ मराठी ] शार्दूल० श्रीमन्मंगल देवमूर्ति जिन हा सिंहासनी बैसला | छत्रे तीन विशालकाय शशि हा सेवा करू पातला । पाहा दक्षिनवामभाग चमरे गंगावने ढालिला । सूर्याचे नभि तेज कोटि लपले ऐसा विभू देखिला || १॥ अजंग० मी बोललो प्रार्थनि' शारदेसी । माते जरी तूं वरदान देसी || वाणी रसाला चदवीस काही । जे ऐकता साकर गोड नाही ||२|| आधीच या जैन कथेस गोडी । चाखोनि पाहा मग घ्या निवाडी || घेता बहू रोग तुटोनि जाती । होईल पुण्याश्रय थोर कीर्ती ॥३॥ जंबू महाद्वीप विशाल पाहे । त्यामाजि हे भारत क्षेत्र आहे || काशी बरा देश विशिष्ट जेथे । वाराणसी नम्र पवित्र तेथे ॥४॥ तेथे वसे भूपति पद्मनाभी | पुण्याश्रयी पूर्ण विशालनाभी ॥ त्या श्रीमती नाम कुभाव राणी | पुण्याविना केवल पापवाणी ॥५॥ वसंत I आला वसंत फुल्ले तरु मोग-याचे । जाई जुई बकुल चंपक पाडलीचे ॥ पुष्प फले लवति पादप अंबराई । छाया सुशीतल वनी जनि सौख्यदायी ॥६॥ उपेन्द्र ० आरूढ होउनि स्थावर हो कस । राजा निघाला रवि भास हो जसा ॥ पुढे बरे बोलति भाट वाणी । मार्गी जना वारिति दंडपाणी ||७|| सूर्यासवे जाइ सुदीप्ति जैसी । राणी नृपासंनिध होय तैसी || मार्गी जवे देखियले मुनीला । मासोपवासी दृढ हेत ज्याला ॥ ८ ॥ त्रिज्ञानधारी सुपवित्रदेही । सुदर्शन ख्यात जनात पांही ॥ I राजा तदा टाकुनि चाहनाला । भावे मुनीला प्रणिपात केला ||९|| १. बंदुनि, २. ग मालतीचे । : Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ ] १. ग क्रोध, ७. गरिघाली । सुगन्धदशमी कथा राणीस सांगे सदनासि जाई । मुनीश्वरा भोजनदान देई || रानी मनी कूड धरोनि राहे । मिथ्यातिनी पाप विचारिताहे ॥ १० ॥ जाई राजा वर काननासी । मी काय जाऊ सड़नासि कैसी । आनंद माझा घडि एक गेला । पापी मुनी काम्हुनि आजि आला || ११| बोलेच ना ते सदनास आली । मुनीस ते भोजन काय घाली ॥ कडू दुध्या रांधुनि पाक केला । कुमाव चित्ती मुनि जेवचीला ॥१२॥ गेला मुनी घेउनि आहरासी । जैनालाई ध्यान घरी सुखेसी ॥ त्या आहरे विव्हल देह जाले । हा हा करी लोक समस्त आले || १३ | तो श्राविका श्रावक दुःख भारी । हे विघ्न कैस्यापरि कोण वारी ॥ ऐसी कसी पापिणि कोण आहे । मुनीस हा आहर दीवला हे ||१४|| केले तदा औषध शुद्ध पाही । गेला स्वभावे मग रोग काही ॥ जाला मुनी देह निरोग जेव्हा । सुखी मुनी जाय चनासि तेव्हा || १५ || हे तो कथा या स्थलि राहिली । नृपा घरी सांगण काय जाली ॥ तो भाव लोकी श्रुत त्यासि केला । भूपासही कोप चढोनि आला ||१६|| माझ्या घरी काय पदार्थ नाही । हे बाइको पापिन काय पाही ॥ जलो इचे तोंड दिसोचना की। कुसंगती पाप घडे जना की ||१७|| त्यानंतरे भूपति एक दीसी । गेला पहा सद्गुरुवंदनेसी || निदुनिया आपुलिया भवासी । करोनि प्रायश्चित ये घरासी ॥ १८ ॥ राजा तिला पाहुनि कोप आणी । श्रृंगार हारादिक घे हिरोनी ॥ सौभाग्य गेले मग दोन जाली । हे कर्कसा बोलति लोक बोली ||१९|| दुर्गंध तो आमय व्यक्त जाला । देहावरी कोड चढोनि आला || तो बास साहू न सकेचि कोन्ही । जलो जलो बोलति ठोक वाणी ॥२०॥ शालिनी राणी तेव्हा दुःख आणी मनासी । हा हा देवा पाप जाले जिवासी || कैसी बुद्धी आठवे पापिणीसी । कैसी गोष्टी सांगणे हे जनासी ॥२१॥ राणी तेथे आर्तध्याने मरोनी । म्हैसी जाली पापिणी दुःखखाणी ॥ माता गेली जन्मता कालगेही । चारापाणी ते मिलेनाचि काही ||२२|| जाली देहीं दुर्बली चालवेना | काही केल्या दुःख तीचे सरेना ॥ पानी घ्याव्या ते तटाकी निघाली । तेथे कैसी कर्दमी मग्न जाली ||२३|| गेली प्राणे सूसरी काय जाली । माता नाही ते पड़े पाप जाली ॥ तेथोनीया साँवरी पापयोनी । तेथेही ते दुःख भोगी निदानी || २४|| [ १० २. ग. सुख, २. ग क्रोध, ४. कग व्याप्त, ५. ग दुःख, ६ क ग पाही, Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] मराठी उपेन्द्र ० अनुक्रमे जन्म भरोनि गेला । चांडाल गेही मग जन्म जाला ॥ दुर्गंध आंगी बहु दुःख दाटी । कोन्ही तिला बैसविनाचि पाटी ||२५|| माता मरे दुःख विशाल दीसे । सर्वत्रही देखुनि लोक हासे ॥ ते एकली टाकियली वनांत । रखे पडे दुःख घरी मनांत ॥२६॥ ते उंबराची फल खात राहे । गेले ऋतू वत्सल कर्मले हे ॥ तेथे वना एक मुनींद्र आला । नामे श्रुताब्धी शुभ भाव ज्याला ||२७|| असे गुणाब्धी र शिष्य त्याचा । तो बोलिला सद्गुरुसी सुवाचा ॥ संदेह हा दूर करावयासी । आता पुसावे बरवे गुरूसी ||२८|| अहो अहो श्रीगुरुराज देवा । हे कोण चांडालिणि पापठेवा || चंदे गुरू आइक बालका रे 1 इच्या भवाची कथनी कथा रे ||२९|| हे श्रीमती पूर्वि राजकांता | मुनीस दे आहर दुष्टचिता । तुंबीफलाचे कडु दान केले । त्याचे असे पाप फलासि आले ||३०|| गेली कथा पूर्विक व्यक्त केली । चांडालिनीसी श्रुत सर्व जाली ॥ हा हा वदे सिंदुनि पाप बाला । तेहा स्वभावे गुरु वंदियेला ॥३१ ॥ कुमाव गेला शुभ भाव झाला । पुनःपुन्हा चंदियले गुरुला ॥ घेवोनिया मूलगुणासि आठा । बास नते पालिति पुण्यपाठा ॥ ३२॥ तेथोनिया ते मरणासि पावें । पुढे कथा सांगण ऐक भावे || श्रृंगारिला मालव देश शोभा । तेथे पुरी उज्जनि रत्नगाभा ||३३|| ते ब्राह्मणाचे घरि हो कुमारी होताच बापावरि होय मारी । काही वाढे मग माय मेली । उच्छिष्ट खात्ता मग वृद्धि जाली ॥३४॥ आणीतसे काष्ट विशेष भारा | पुण्याविना केवि सुखासि थारा ॥ ऐसी भरी ते उदरासि बाला । तेथे सुनी तो तब येक आला ||३५॥ सुदर्शना काम विकार नाही । सम्यक्त्वधारी व्रत पूर्ण पाही || राजा पहा तेथिल अश्वसेन | वंदावया चालियला सुजाण ॥ ३६ ॥ घेऊनिया अष्टक द्रव्य पूजा । त्या गाविचा लोकहि जाय बोजा || गुरुसि केला प्राणपात तेही । सम्यक्त्व माचाविण हेत नाही ||३७|| सुमार्ग तो ऐकुनि लोक धाला । बहूत धर्मावरि हेत जाला || सांगे सुधर्मा गुरु तो म्हणाचा । या वेगला तो कुगुरू गणाया ||३८|| मोली सिरी घेउनि दुष्टगंधा | आली अकस्मात करीत धंदा || पुढे बरे देखिले सुनीसी । ते आठवे पूर्विलिया' भवासी ॥ ३९ ॥ 1 शालिनी मूर्छा आली ते पड़े भूमिकेला । राजा पाहे लोक विस्मीत जाला ॥ काहो स्वामी पातली ईसि मूर्द्धा । ऐसे सांगा आमुची भव्य पृच्छा ||४०|| १. ग पूर्विलच्या, २. क भ ऐसी ↓ [ ६६ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .] सुगन्धदशमीकथा स्थोद्धता यदे मुनी केवल दिव्य वाणी । भवांतरानी कमली कहानी || ऐकोनिया विस्मित भूप जाला । म्हणे विभू सांग उपाय याला ॥४१॥ करील हे एक बया व्रतासी । तो सर्व हा जाइल पापरासी ।। इन्हे सुगंधा दशमी करावी । जाईल पापासि महा स्वभाची ॥४२॥ पुढे मुनी सांगतसे नृपाला । तो स्थानकी तो वग एक आला ।। जयादि हो नाम कुमार रासी । तो बैसला बंदुनिया गुरूसी ॥४३|| मासामी भाद्रपदासि मानी । ते शुक्लपक्षी दशमी पुराणी ।। करोनिया पाँचहि रंग गाढा | कोठे दहा त्यात विचित्र काढा ||१४|| त्या मध्यभागी कलसासि ठेवा । त्याहीवरी चौविस जैन देवा ।। वसु प्रकारे मग भक्ति पूजा । ऐसे करा साधन आत्म काजा ।।४५|| मालिनी देशविजिनपूजा या परी ते करावी । दृढतर जिनभक्ती अंतरी आठवावी ॥ दशविध जयमाला पाठ भावे पढावा । त्यजुनि सकल धंदा हेतु तेथे जड़ावा ॥४६॥ सवैया जय जय मोहनरूपधरा शिवमार्गकरा भवदुःखहरा । जय जय केवलबोधभरा रविकोटितिरस्कृतकांतितरा ।। जय जय हे हरिविष्टरभूषण मन्मथदूषण मुक्तिबरा । जय जय कामकुतूहलवारण पापविदारण पुण्यपरा ॥४७॥ जिनकथा करिता क्रमल्या निशा । निरसिला तम उझलिल्या दिशा ॥ उगवला रवि तो दुसऱ्या दिशी । पुनरपी करि पूजन सौरसी ॥४८॥ उपेंद्र ऐसे दहा वर्ष करा व्रतासी । उद्यापनाला करणे विधीसी ।। दहाच चंद्रोपक तारकाही । लाडू करावे शत एक पाही ॥४९॥ उपास आधी सुकरोनि चोजा । पंचामृताची अभिषेक पूजा ।। उद्यापनाची जरि शक्ति नाही । करी दुणे हे व्रत पूर्ण पाही ।।५०|| समस्तही हा विधि ऐकुनीया । भावे करीती व्रत घेउनीया । देती तिला श्रावक द्रव्यपूजा' । ते आचरी ब्राम्हणि धर्म काजा ॥५१॥ भावे असे हे व्रत पूर्ण केले । तिला व्रताचे फल इष्ट जाले ॥ दुर्गंध जायोनि सुगंध आला ! हे तो सुगंधा जन बोलियेला ॥५२।। ऐसा करी जो चरच्या व्रतासी । तो निश्चये पावल जो सुखासी ।। आयुष्य थोडे मग काल केला । तिचा पुढे सांगण जन्म जाला ॥५३॥ १. क ग मुनीसी, २. ग मधे, ३. क बसु ४. क ते धरावी, ५. क ग उज्जलिल्या, ६. ग पूर्ण, ७.कग ऐसे । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ ] मराठी भुजंग० असे आर्यखंडात सुभारताते । पुरी कंचनी ते असे शुद्ध त्याते ॥ सदा तेथिचा लोक भोगी सुखासी । बहू धर्मकार्थी असे लोभ त्यासी ॥ ५४ ॥ लहंसा कनक नाम नृपती चलवंत | कनकमाल वधू जयवंत ॥ जैनधर्मं रुचि फार जयाला । धर्महेत धरिता दिन गेल| ||१५|| उपजाति 1 तेथे बसे तो जिनदास वाणी | जिनादिदत्ता वधु त्यासि मानी || तिच्या कुशी पूर्बिल ब्राम्हणी ते । जाली कुमारी बहु पावनी ते ॥ ५६ ॥ लुगंध देहावरि तीस दीसे । लोकासि आश्चर्य विशेष मासे || लोकी सुगंधा म्हुनि नाम केले । सर्वासि ते वर्तं कलोनि गेले ||१७|| तो मायबापा बहु लोभ दाटे । आनंद संपूर्ण मनात वाटे || काही पापास्तव माय मेली । पूर्वील दुःखावलि व्यक्त जाली ॥५८॥ हा हा करी तो मग बाप जीवा | म्हणे कसा पूर्विल पाप ठेवा || I विवाह दूजा करि लोक बोले । संतोष मानी स्थिर चित्त केले ॥ ५९ ॥ ते कसा रूपिनि नाम नारी । क्रोधानना केवल पापधारी ॥ सकाल उठोनिय स्वाय दाना । ऐसी महा पापिनि पूर्ण जाणा || ६० || तिच्या कुसी एकचि होय कन्या । ते नाम श्यामा निज रूप धन्या ॥ माता करी स्नेह विशेष तीचा । सुगंधकन्येवरि द्वेष साचा ॥ ६१ ॥ शालिनी श्यामा माझी काय बाहीर गेली । खाऊ जेऊ तीजला शीघ्र घाली ॥ श्यामा बाला आनुनी तेल रोला । बाली जेऊ तीजला तूपगोला ॥ ६२ ॥ I भुजंग ० | सुगंधा बहू रोड जाली सरीरी नसे अन्न पाणी करे दुःख भारी || पित्याने असा पाहिला भाव पाही । म्हणे वेगले राहिजे सर्वथा ही || ६३ ॥ जुदा राहित्य वाणिया तो शहाणा तरी द्वेष तीचा कदापि चुकेना ॥ सुगंधा करी अन्न पाकासि भावे । पिता देखुनी अंतरी तो सुखावे ॥ ६४ ॥ असे देखुनी अंतरी लोभ आणी । म्हणे बाल माझी कसी हो शहाणी ॥ दिसे पूतली रेखिली सोनियाची । गुरू देव बंदी करी भक्ति त्याची ||६५ ॥ दुकान आनी नवीसी व्हाली । सुगंधा बलाऊनि ओटीत घाली ॥ तदा रूपिणी कस्मली काय बोले । म्हणे गे पित्यालागिही वश्य केले ॥६६॥ तदा एक दीसी पहा त्या नृपाने । बोलाऊन सांगीतले काय त्याने || तुवा जाइजे शीघ्र दीपांतराला | खरीदी करा रत्न आणी घराला ||६७॥ १. ग म्हणुनि, २ ग व्याप्त, ३. ग वोटीसि । [ ७१ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगन्धवशमीकथा [६८नृपालागि बंदूनि आला घरासी । वदे गुह्य गोष्टी पहा रूपिणीसी ।। म्हणे गे प्रिये कन्यकादोनि जोडी । तुझी आणि माझी असी गोष्टि सोडी ॥६॥ वरू पाहने सोडणे आलसाला । दहा वर्ष गेली अती काल झाला ॥ मला जाहने दीपदीपांतरासी । कलेना किती लागती वर्षरासी ॥६९|| असे बोलुनी वंदुनी त्याचि भूपा । पहा चालिला तो कसा रत्नदीपा || नमोकार मंत्रावरी भाव भारी । म्हणे मंत्र हा सर्व पापा निवारी ||७०॥ स्वागता चांगदत्त बरवा शुभ बाणी । त्यासि चंपकवती वधु मानी ।। तीस एक गुणपाल कुमार । श्यामसुंदर जिसे जितमार ॥७१॥ तो कलंकनगराहुनि आला । देखता मग सुगंधिनि बाला || रोझला म्हनत देवि कुमारी | रूपिणी तब मनात विचारी ||७२।। दाखवी चतुर ते मग श्यामा ! चांगदत्त म्हणतो नये कामा ।। कोप फार चढला मग तीला । म्हणत यास कसा भ्रम जाला ||७३।। मानली मग सुगंध कुमारी । हेचि सुंदर गुणाधिक नारी ॥ लग्न निश्चय बरा मग केला | चांगदत्त नगरापति गेला ||७४।। सोयरी मिलचिली मग झाला । लोष फार नही मिन्नीला !! दो घरी त्वरित मंडप घाली । रूपिणी तब मनात विराली ||७५।। भुजंग कसी रूपिणी तीसि वेवोनि हाती | निघाली कसी पापिणी मध्यरात्री ।। स्मशानासि नेऊनिया तीसि ठेवी । चहू दिग्विभागी दिवे चारि लावी ॥७६।। तसी चौ दिसी ते धरी हो निशाने । असे नोवर। या स्थली तूसि जाने । म्हनोमी असी ते घरालागि आली । कपालासि ठोकी करी लोकचाली ||७७|| उपद्र० रडे पडे विह्वल वाक्य बोले । पाहावया लोक समस्त आले || सेजारिनी त्या मिलल्या समस्ता । त्या बोलती आपरिती प्रशस्ता ॥७८|| कोन्ही म्हने घेउनि भूत गेला । झोटिंग कोन्ही म्हनताति बोला ।। कोन्ही कुलीचा कुलदेव बोले । कोन्ही म्हने हे विपरीत जाले ॥७९॥ मालिनी अगइ अगइ बाई काय गे म्यां करावे | अहह कटकटा गे कोन रानी फिरावे ।। अहह कसि सुगंधा कोन रानी पहावी । बहुत अवगुणाची काय कैसी घराबी ।।८।। उपद्र० आला इव्हाई मग काय बोले । म्हणे अहा काय विपर्य झाले । बाला सुगंधा बहु रूपशाली । तिच्या रुपाची पहाता नव्हाली ||८|| १. ग सूकुमार। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] [७३ .मराठी भुजंग० वदे रूपिणी ते विव्हायासिबोली । सुगंधा पहा देश सोडोनि गेली ॥ असे हे कुमारी मला एक जोडी । कुमारासि देतो तुज्या प्रीति जोडी ॥२॥ बरे बोल बोलोनिया बोल तेन्हे । तसे लाविले लान सन्मान दाने । विव्हाई सुखेशीमगावासि गेला गुढे माहामाया हो रसा!!-३|| सुगंधा कसी राहियेली स्मशानी । दिसे देवकन्या तसी रूपवानी ॥ पहा त्याच हो गाविचा भूप मोला । अकस्मात माडीवरी काय आला ॥८४॥ दिशा पाहता हो कसी दृष्ट गेली । स्मशानी सुगंधा बरी देखियेली ॥ निघाला तवे शम्न घेवोनि हाती । पुढे ठाकला बोलला प्रीति भाती ॥८५।। अगे काय तू व्यंतरीकी पिशाची । खगाधीपकन्या बदे गोष्टि साची । बदे कोन तू सांग वृत्तात तूझा । तुला देखता मोहला प्रान माझा ।। ८६|| रथोद्धता मज पिता जिनदत्त कृपाला । जिनमती जननी गुणमाला || जन्मताचि जननी मृत जाली । म्हनुनि माय दुजी मग आली ॥ ८७॥ कलहंसा कनक नाम नृपती जनकाला । करि म्हणे दिपदिपांतर त्याला || मानुनी नृपतिशासन भाली । स्वगृहासि मग ये गुणशाली ।।८८] स्वागता रूपिणी मज सपनि सुमाता । चाप सर्व सिकधी तिस जाता ।। कन्यका उपचरा सुवरासी । देइजे घट मुहूर्त मुमासी ।।८९॥ आज लान दिवसी घर आला | रूपिणी करि कुवृत्ति कुचाला ॥ आनुनी बसचिले मज येथे । या स्थलीच परि तू सुबराते ।।९०॥ कठिन बोलुनिया मज गेली । सर्व गोष्टि तुज म्या श्रुत केली ।। नृपति घालि म्हणे मज माला । या स्थलासि वर मी तुज आला !९१॥ भुजंग विधीनेच हो लाविले लान् जेथे । करी अन्यथा त्यासि पै कोण तेथे ।। सुगंधा मनी हर्पली तोफ दाटे । गला माल घाली महा हर्ष वाटे ॥१२॥ सुगंधा म्हणे नोवरा तूचि माजा । खरे सांग तू कोनता ठाव तूझा ॥ नृपाले तदा कौतुके गोष्टि केली । म्हणे राहतो याच गावात गौली ॥९३।। गुरे पालितो वीक्रितो ताकपाणी | इला दोर घेवोनि मी भार आणी ।। असे बोलुनी भूपती तो निघाला । धरी पल्लवी तो सुगंधा तयाला ॥९४।। १. ग बरी, २. क ग मज दुजी, ३.. क नपथरा । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४] सुगन्धदशमीकथा [x पुन्हा भेटि होईल केन्हा वदावे । मला टाकुनी एकले काय जावे | कसी आपुली वस्तुटाकोनि जाने । बरे हे नव्हे सर्वथा दीनवाणे ।।९।। वदे भूप येईन तुझ्या ठिकाणी । निशा मध्यभागी खरा बोल मानी ।। खरे गे खरे सत्य हे भाष घेई । प्रिये ऊठ तू शीघ्र गृहासि जाई ॥९६।। नृपाले घरालागि' गंतव्य केले । कलेनाचि कोन्हासि ते गुप्त जाले ।। सुगंधा कुमारी त्वरे ये घरासी । चदे रूपिणी पातली पापरासी ।।९७॥ सुगंधा वदे सर्वही गोष्टि केली । बरे ऐकिले रूपिणी हासियेली । म्हणे गे कसी गौलिया माल घाली । कसी भाग्यमंदा करी आपचाली ||९८॥ निशा मध्य भागी तिच्या मंदिरासी। पहा भूप ये नित्य तो आदरेसी ।। अलंकार दील्या बहू द्रव्य रासी । सुगंधा वदे गोष्टि ते माउलीसी ॥१९॥ असे वर्तले पितृ गावासि आला । अलंकार देखोमिया व्यग्र जाला ।। दिसे सर्व वस्तू नृपाची निशानी । म्हणे कोन तो चोर चोरोनि आणी ||१००॥ मनामाजि भ्याला नृपालागि सांगे । म्हणे चोरटा तुझिया गावि जागे ।। कसा माल घालोनिया कन्यकेसी। प्रती वासरे येत माझ्या घरासी ॥१०॥ अलंकार राजा तुझा सर्व घई । वदोनि असा लागला शीघ्र पाई ।। कलेनाचि तो कोन ठाई निवासी । कसा तो करू लाधला कन्यकेसी ।।१०२॥ वदे भूप तो चोर दावूनि देई । बहू वित्त गेले न लागे सुलाई ॥ कसा कोन येतो तुझ्या मंदिरासी । सुगंधा कसी रातली काय त्यासी ।।१०३॥ अलंकार माझ्या घरातील गेला । कसा चोर आला कसा काय नेला ॥ दिसे ना तु आणीक तो आणि दावी । न आणीस तेव्हा तुला सीख लावी ॥१०४|| अहो साहजी सांगतो बोल माना | समस्ता जना भोजनालागि आना ॥ वरी भोजने सारिल्या आदरेसी । बहू आदरे बैसवावे जनासी ॥१०॥ उपेंद्र अंतःपटा बांधुनि येके ठाई । चौरंग मांडा बरख्या उपायी । जो पाय धूता वरु ओलखीला । तो नोवरा होय कुमारिकेला ||१०६॥ सांगीतली रीत तसीच केली । बापे सुगंधा बहु वीनवीली ।। श्रेष्ठी घरी लोक समस्त माला । भूपालही हासत चालियेला ।।१०७॥ भुजंग. बहू पाय धूता न ये ओलखीसी । म्हणे हे नव्हे हे नव्हे पीतियासी ।। बहु साजिरे पाय माझ्या घराचे । अति कोमले काय सांगू गुणाचे ॥१०८।। अहो पद्म पायी जयाचे झलाली । दिसे चक्र अंकूश रेखा विशाली || असे ऐकुनी भूप सन्मूख आला । सुगंधा म्हणे तो वरू ओलखीला ||१०९॥ १. कम गृहालागि, २. क ग दील्हा, ३. क ग चि टाई । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] मराठी [७५ मालिनी खदखद नृप हासे तोष सर्वा जनाला । मग नृपवरु बोले मी वरू कन्यकेला ॥ म्हणत सकल नारी काय हो भाग्यलीला । स्वजन जन मिलाला तोष सर्वत्र जाला ॥११०॥ स्वरित मग सुगंधा आनिली पुण्यशाली । मलवट पट रेखा रेखियेली कपाली । लखलखित कुकाचे लाविले बोट दीसे । घवघवित विलासे काय लक्ष्मीच भासे ||१११|| शिखरिणी बिरोद्या पोल्हारे अनवट झणकार चरणी । कम्या वाक्या ही त्या चप्पल गुज-या सूर्यकिरणी ।। पदी घागूप्याचा रुणझुणित बाजे स्वर बरा । अनंगाचा कैचा त्रिभुचनि जयी घोष दुसरा ॥११२॥ शाईल. पाटाऊ बहुलाल जोरकसिचा त्यामाजि बुट्टा किती। मध्ये सारस हंस थोर रचना मोराचिये पंगती || ल्याली ते. कटिसूत्रही कटितटी बाला बहू शाहनी । हाती कंकण घातले घडलिया रत्नाचिया जोडणी ॥११३॥ कंठी दुल्हड दाटली मणि महा तैसी सरी लाखिली । घाली मोहनमाल ते गरसुली चित्रांग चापेकेली ॥ भोगी मुक्तिक पद्धती सहित ते सिंदूर रेखा भली । तैसी मूद सुराखडी लखलखी वेणी पहा लाँयली ॥११४|| कर्णी तानवडे सुरन जडली ते चंद्रसूर्यापरी । भाली चंद्रक सीस फुल्ल झलकी जाली फुलाची बरी ।। नेत्री अंजन घातले झलकती पंचांगुली मुद्रिका । ल्याली दाटित कंचुकी मग दिसे जैसी शरच्चंद्रिका ॥११५॥ बाजूबंद विशेप बाधुनि असा शृंगार पां दीधला । अंगी चंदन चचिला दशदिशा सौगंध तो व्यापला ॥ दंताची बरवी सुपंक्ति रचना डाळिंब बीजापरी । वक्त्री तांबुलं चर्चिला घवघवी आरक्त होटावरी ॥११६॥ रथोद्धता लन लावियले शुभ वेला । सर्व एफ मिलला जनमेला ।। वधुवरे मग वरे मिरचीली । जेवणावल सुखे करचीली ॥११७] एक दिवस थरी नृप कोपा । रूपिणीसि म्हनतो दृढ़ पापा । आनिली धरुनि दंड करावा । पापिणी कपट टाकि कुभाया ॥११॥ १. म साजिरो, २. ग सुख । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] सुगन्धदशमी कथा I पातली तव सुगंधकुमारी | बोलली नृपवराप्रति भारी || माझिया जननिला जरि दंडा । लोक बोलति तरी मज लंडा ॥ ११९॥ हा विचार नव्हे बुझ राया । म्हणुनि जाउनि घरी दृढ पाय | ॥ सोडिनाच मग ते क्षण राहे । होलियांत भरले जल बहे || १२० ॥ ऐक ऐक म्हणे नृप सारा । व्यर्थ भाव दिसते जन थारा ॥ राख राख विभु माहेर माझे 1 दान फार घडले जरि तूझे ॥ १२१ ॥ म्हणुनि काकुलती जब आली। भूप अंतरि दया तब जाली ॥ सोडिली मग कृपाल नृपाले । सज्जनासि सुख अंतरि जाले ॥१२२॥ पट्टराणि पद ते मग पावे । राज्यवैभव सुखात सुखावे || करविले मग जिनालय तीने । त्यात चिंब घरिले सुविधीने ॥ १२३ ॥ नित्य पूजन करी जिनदेवा । मूलमंत्र जप लुकत ठेवा || कोन्हि येक सुदिनी सुख वेला । जिनगृही मिलला जन मेला ॥ १२४॥ जिनगृही वर सुगंध कुमारी | सावचित्त वसली सुख भारी || देव एक तब त्या स्थलि आला । देवदेव जिन तो नमियेला || १२५|| देखिली तव सुगंधकुमारी | हासिला खदखदा तब भारी || धन्य धन्य अवतार सुगंधा । बोलिला मग भवांतर धंदा || १२६ || तुझिया व्रतबले फल जाले । म्हणुनि देवपद हे मज आले ॥ स्वग भवांतर जई मज बोजा | व्रत विधी धरिला शुभ काजा ॥१२७॥ या स्थली उपजलीस सुगंधा । राज्यवैभव मह । सुखकंदा || धर्महेतु बहिनी मज तूची । साच गोष्टि बुझ पूर्वे भवाची || १२८|| बहुत फार बदू तुज काथी । वीसरू मज नको सखे बाई ॥ नित्य नित्य जिनदेव पुजावा | काल हा जाग असाचि खपाचा || १२९॥ वस्त्रभूषण दिल्हे मग तीला | स्वस्थासहि सुखे सुर गेला || सर्वलोक वदती यस तीचे । दानपुण्य करि ती यश साचे || १३०|| I भुजंग० सुगंधा पुन्हा त्या व्रतालागि साधी । पुरे सर्व आयुष्य पावे समाधी || घरी अंतकाली णमोकार मंत्रा | पुढे प्राण गेले सुखे ते स्वतंत्रा ॥ १३१ ॥ वधूलिंग छेदूनि ईशान स्वर्गी | महा इन्द्र जाला पहा पुण्यमार्गी ॥ विमानी बसूनी करी तो प्रयाशा । विभू श्रीसुपाश्वसि वंदू सुजाना || १३२ || उपेंद्र ० वंदूनिया ते समबस्तीसी । गेला पुन्हा आपुलिया स्थलासी ॥ सम्यक्त संपूर्ण मनांत भावी । म्हणे कवी तेचि कथा बदावी ॥१३३॥ १. गनिज, २. ग काय [ ११६ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६] मराठी रथोद्धता दोन सागर गमी स्थिति ऐसी | जन्म पाउनि पुढे शुभवंशी ।। घेउनी मग दिगंबर दीक्षा | सिद्धदेव हृदयी शुभ शिक्षा ॥१३४|| उपद्र० पाऊनिया केवलबोधदीवा । संबोधिले भत्र्यजनासि जीवा !! त्यानंतरे साधुनि सिद्धवासा । सुखे बसे मोक्षपदी सुवासा ॥१३५॥ देवेन्द्रकीर्ति गुरु पुण्यरासी । जैनादि हो सागर शिष्य त्यासी ॥ ऐसी कथा हे परिपूर्ण सांगे । श्रोत्या सि द्या चित्त म्हणोनि मागे ।।१३६॥ ॥ इति ।। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगन्धदशमीकथा [ हिन्दी पद्य ] पं० खुशालचन्द्र कृत Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगन्धदशमीकथा [हिन्दी] चौपई-पंच परम गुरु चंदन करूं । ताकरि मम अघ-बंधन हरू । सार सुगंध - दशैं व्रत-कथा । भाषहुँ भाषा शिवपद यया ॥१॥ अरु गुरु सारद के परसादि । कहस्यूँ भेद सार पूजादि । जिन भवि इह व्रत कीन्हो सही । तिन स्वर्गादिक पदवी लही ॥२॥ सन्मति जिन गोतम मुनिराय । तिनके कमि नमि श्रेणिकराय । करत भयो इम श्रुति सुखकार । विनि कारण जगबंधु करार ॥३॥ भव्य - कमल प्रतियोधन सूर्य । मुक्ति-पंथ निरयाहन धुर्य । श्रुत - वारिधिकों पोत समान । इन्द्रादिक तुम सेवक जान ॥१|| बुद्धिमान गोतम मुनिराय । मैं विनती करहूँ मन लाय । व्रत सुगन्ध दशमी इह सार । किंन्ह कीमो किनि विधि विस्तार ॥५॥ अरु याको फल कैसो होय । मोको उपदेशो मुनि सोय । यह सुनि गोतम गणधर राय । बोले मधुर वचन सुखदाय ॥६॥ मगध देशके तुम भूपार । सुणि व्रतकी सुकथा सुखकार । इहै प्रश्न तुम उत्तम करयो । मैं भाष जो जिन उच्चरयो ॥७॥ सुणत मात्र ब्रतको विस्तार | पाप अनन्त हरै ततकार । जे कर्ता कम शिब जाय । और कहा कहिए अधिकाय ॥८॥ दोहा-जंबू द्वीप विषे इहाँ भारत क्षेत्र सुजान । तहाँ देश काशी लसै पुर वाणारसि मान ॥९॥ चौपई-पद्मनाभ जाको भूपार । कीन्हो वसु मदको परिहार । सप्त विसन तजि गुण उपजाय । ऐसे राज करै सुखदाय ॥१०॥ श्रीमतीय जाकै वर नारि । निज पति . अति ही सुखकारि । एक समय चन - क्रीड़ा हेत । वन जावै न्योभूति समेत ||११|| पुर नजीकसे ही जब गये । निज मनमाहीं आनद लये । तब ही एक मुनीश्वर सार । मासुवास करिक भवतार ॥१२॥ अशन काजि आते मुनि जोय । राणी सों भाखें नृप सोय । तुम जाबो यो भोजन सार । कीजो मुनिकी भक्ति अपार ||१३|| इम सुणि राणी मन इस घरयो । भोगा में मुनि अन्तर करयो। दुःखकारी पापी मुनि आय । मेरो सुख इन दियो गमाय ||१४|| Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] [१५ सुगन्धदशमीकथा मन ही में दूखी अति घणी 1 आज्ञा मानि चली पतितणी । जाय कियो भोजन ततकार | आगै और सुणों भूपार ॥१५॥ मुनि भूपतिके ही घर गयो । राणी अशन महानिंद दयौ । कड़ी तूंबडीको जु अहार । दियो मुनीश्वर कुँ दुःखकार ॥१६|| भोजन करि चाले मुनिराय । मारग माँ हिं गहल अति आय । परयो भूमिपर तब मुनिराज । कियो श्रावकाँ देखि इलाज ॥१॥ सैठे एक जिनालय सार । तहाँ लइ गये करि उपचार । फेरि सकल ऐसे वच चयो । राणी खोटो भोलन दयो ।।१४॥ तात मुणी महा दुःख पाय । सून्य हो गये हैं अधिकाय । धिक-धिक है ताको अति घणो । दुष्ट स्वभाव अधिक जा तणो ॥१९॥ तब ही बन सो आयो राय | सुनी बात राजा दुःख पाय । राणी सों खोटे बच कहे । वस्त्राभरण खोसि कर लये ॥२०॥ काहि दई घर बाहरि जबै । दुःखी भई अति ही सो तबै । कुष्टातुर है आरत किंयो । प्राण छोरि महियी तन लियो ॥२१॥ याकी मात भैसि मर गई । तब यह अति दुर्बलता लई । एक समय कर्दम मधि जाय । मग्न भई नामा दुःख पाय ॥२२॥ तहाँ थकी देख्यो मुनि कोय । सींग हलाये क्रोधित होय । तब ही पंक विषं गड़ि गई । प्राण छोडि खरणी उपजई ॥२३॥ भई पंगुरी पिछले पाय । तब ही एक मुनीश्वर आय । पूरब वैर सु मन में ठयो । तहाँ कलुष परिणाम जु भयो ॥२४॥ दोहा—कियो क्रोध मनमें घयूँ दई दुलाती जाय । प्राण छोरि निज पाप तें लई शूकरी काय ॥२५॥ श्वानादिकके दुःख तें भूखी प्यासी होय ।। मरि चंडालोके सुता उपजी निंदित सोय ॥२६॥ चौपई-गर्भ आयताँ विनस्यो तात । ऊपजताँ तन त्यागो मात ॥ पालै सुजन मरै फुनि सोय । अरु आवत तनमें बदवोय ॥२७॥ इक जोजन लौं आवे बास । ताहि थकी आवै नहिं स्वास ॥ पंच अभख फल खायो करै । ऐसी विधि वनमें सो फिरै ॥२८॥ तहाँ एक मुनि सिख जुत देख । राग द्वेष तजि शुद्ध विशेष ॥ सा वनमें आये गुण भरे । लघु मुनि गुरु सों परशन करे ॥२९॥ वास निंद्य आवै अधिकाय । स्वामी कारण मोहि बताय.।। मुनि भाषं सुणि मन वच काय । जो प्राणी ऋषिकौं दुखदाय ॥३०॥ सो नाना दुख पावै सही । मुनि-निन्दा सम अघ कोइ नहीं ॥ कन्या इनि पूरब भव माहिं । मुनी दुखायो थो अधिकाहिं ॥३१॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८३ ४८] हिन्दी ता करि तिरजगमें दुख पाय | भई बधिक के कन्या आय || सो इह देखि फिरत है बाल । सुणि संसय माग्यो तत्काल ॥३२॥ दोहा--फुनि गुरुसे इम शिष कहै अब किम इनि अघ जाय । मुनि बोले जिन धर्मको धारे पाप पलाय ॥३३॥ चौपई-गुरु शिष वचन सुता इन सुण्यो । उपशम भाव सुखाकर मुण्यो। पंच अभख फल त्यागे जबै । अशन मिलन लाग्यो शुभ तबै ॥३४॥ शुद्ध भाव सौ छोरे प्राण । नगर उज्जैनी श्रेणिक जाण ॥ तहाँ दरिदो द्विज इक रहे । पाप उदय करि बहु दुख लहै ॥३५॥ ता द्विज के यह पुत्री भई । पिता मात जम के वसि थई ॥ तब यह दुःखचती अति होय । पाप समान न बैरी कोय ॥३६॥ कष्ट कर करि वृद्ध जु भई । एक समै सा वनमें गई । तहाँ सुदर्शन थे मुनिराय । अस्ससेन राजा तिहिं जाय ||३७॥ धर्म सुण्यो भूपति सुखकार । इह फुनि गई तहाँ तिहि वार ।। अधिक लोक कन्या . जोय । पाप थकी ऐसो पद होय ॥३८॥ दोहा—जास समै इह कन्यका घास-पुंज सिर धारि । खड़ी मुनी-यच सुणत थी फुनि निज भार उतारि ॥३९॥ चौपई-मुनि-मुख से सुणि कन्या भाय । पूरब भव सुमरण जब थाय । यादि करी पिछली बेदना । मूछी स्वाय परी दुख धना ॥३०॥ तब राजा उपचार कराय | चेत करी फुनि पूछि बुलाय || पुत्री तूं ऐसी क्यूँ भई । सुणि कन्या तच यूँ बरणई ॥४१॥ पूरख भव विरतंत बताय । मैं जु दुखायो थो मुनिराय ॥ कड़ी तू विडी को जु अहार । दियो मुनी । अति दुखकार ॥४२|| सो अघ अवलो तणि मुझ दहै । इम सुणि नृप मुनिवर सों कहै ।। इह किनि विधि सुख पायै अवै । तब मुनिराज बखान्यू सबै ॥४३॥ जब सुगंध दशमी व्रत धरै । तब कन्या अघ-संचय हरै ।। कैसी विधि याकी मुनिराय । तब ऋषि भादव मास बताय ॥४४॥ शुक्ल पक्ष दशमी दिन सार । दश पूजा करि बसु परफार || दश स्तुति पढ़िये मन लाय | दशमुखको घट सार चनाय ॥४५|| तामैं पावक उत्तम धरै । धूप दशांग खेय अघ हरै ।। सप्त धान्य को साथ्यो सार | करि तापरि दश दीपक धार ||४६॥ ऐसे पूज करै मन लाय । सुखकारी जिनराज बताय ।। तातें इह विधि पूजा करै । सो भबि जीव भवोदधि तरै ॥४७॥ दोहा-जिनकी पूज समान फल हुवो न द्वैसी कोय । स्वर्गादिक पदको करै फुनि देहै सिव लोय ॥४८॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] सुगन्ध दशमीकथा करें। ताड़ी के जिन गुण अवतरे ॥ उद्यापन राय । सुणहु सुविधि तुम मन वच काय ॥४९॥ I चौपई दश संवत्सर लों जो करें बहुरि महशांतिक अभिषेक करेय । जिन आगे बहु पुहुप घरेय ॥ इह उपकरण धरै जिन थान | ताको भेद सुनहु चित आन ||५०|| दश चरणोंको चंदवो लाय । सो जिन-बिंब उपरि तनवाय ॥ और पताका दश ध्वज सार । बाजे घण्टा नाद अपार ॥११॥ मुकतमाल की शोभा करै । चामर युगल अनुपम धेरै || और सुणहु आगे मन लाय । प्रभुकी भक्ति किये सुख थाय ॥ ५२ ॥ धूप दहन दश आरति आन । सिंहपीठ आदिक पहिचान || इत्यादिक उपकरण मँगाय | भक्ति भाव जुत भव्य चढ़ाय ॥ ५३ ॥ दान अहार आदि च देय । ता करि भवि अधिक फल लेय ॥ आर्यको अंबर दीजिए | कुंडी श्रुतनिजरे कीजिए ॥ ५४ ॥ यथायोग्य मुनिको दे दान । इत्यादिक उद्यापन जान ! जोन इती है शक्ति लगार । थोरो ही कीजे हित धार ॥५५॥ जो न सर्वथा घरमें होय तो दूनो कीजे व्रत सोय ॥ पणि व्रत तो करिये मन लाय | जो सुर मोक्ष सुथानक दाय ॥ ५६ ॥ 1 -w दोहा - शाक - पिंड दान तैं रत्न-वृष्टि है राय । हाँ द्रव्य लागो कहा भावनि को अधिकाय || ५७|| ता ते भक्ति उपाय के स्वातम हित मन लाय | व्रत कीजे जिनवर को इम सुणि कर तब राय ||१८|| चौपाई – द्विज कन्या को भूप बुलाय | व्रत सुगंध दशमी बतलाय || राय -सहाय थकी व्रत करयो । पूरब पाप-बंध तब हरयो ॥५९॥ उद्यापन करि मन वच काय । और सुनहु आगे मन लाय ॥ एक कनकपुर जाणं सार । नाम कनकप्रभ तसु भूपार ॥ ६० ॥ नारि कनकमाला अभिराम । राज- सेठ इक जिनदत नाम । ताकै जिनदत्ता वर नार। तिहिं ताकै लीन्हू अवतार ॥ ६१ ॥ तिलकमती नामा गुणभरी । रूप सुगंध महा सुन्दरी । कछुक पाप उदय फुनि आय । प्राण तजे ताकी तब माय ॥ ६२ ॥ जननी बिन दुख पावैं बाल और सुणों श्रेणिक भूपाल | जिनदत जोवनमय थो जबै । अपनो ब्याह विचारयो तबै ॥ ६३ ॥ इक गोधनपुर नगर सुजान | वृषभदत्त वाणिज तिहि थान । ताकै एक खुता शुभ भई । बंधुमती तसु संज्ञा दई || ६४ || तासों कीन्हों सेठ विवाह । बाजा बाजे अधिक उछाह । परणि खु घर छायो सुखसार । आगे और सुणो विस्तार ||६५ || [ ४ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] दोहा-भोग शर्म करती भई कन्या इक लखि माय । नाम धरयो तब मोह से तेजोमती सुभाय ॥६६॥ छन्द-प्यारी माता कूँ लागे । नहि तिलकमती V रागै ॥ नाना विध करि दुख द्यावै । ताके मनसा न विभावै ॥६७|| तब तात सुतासु निहारी। कन्या इह दुखित विचारी ।। दासी आदिक जे नारी । तिनसों इम सेठ उचारी ॥६८॥ याकी सेवा सुखकारी । कीज्यो तुम भक्ति विचारी ।। ऐसे सुणि ते सुख पावै । तब नीकी भाँति खिलावै ॥६९॥ चौपई–एक समय कंचन प्रभ राय । दीपांतर जिनदत्त पठाय || नारीसों तब भारी जाय । हम। राजा दीपि खिवाय ॥७॥ ताते एक सो तुम बात : इ. दो बगायो दरम्मत ! अष्ट गुणा जुत जो वर होय । इनको करि दीज्यो अवलोय ७१॥ इम कहि दीपि चल्यो तत्काल । और सुणों श्रेणिक भूपाल | आवै करन सगाई कोय । तिलकमती जाचै तब सोय ॥७२॥ बंधुमती मास्दै तब आय । यामें औगुण हैं अधिकाय ।। मम पुत्री गुणवंती घणी । रूप आदि शुभ लक्षण भरी ||७३ ॥ ताते मो कन्या शुभ जान । वर नक्षत्र व्याही तुम आन ॥ इनकी माने नाही बात ! तिलकमती जाचै शुभगात ॥७॥ कही फेरि यूँही मम सही । मनमें कपटाई धरि लई ।। व्याह समै कन्या मम सार | करदेस्यूँ ब्याहित तिहिं वार ||७॥ करी सगाई आनन्द होय ! च्याह समै आये तब सोय ।। बंधुमती फेस्याँकी बार । तिलकमती बहु भाँति सिंगार ॥७६।। घड़ी दोय रजनी जब गई । तिलकमती कूँ निज संगि लई ।। तबहिं मसाण भूमि मधि जाय । पुत्री . तिहि ठाणि बिठाय ॥७७॥ तहाँ दीप जोये शुम चार | पूरे तेल उद्योत अपार || चौगिरदा दीपक चइ धरे । मध्य तिलफमति थिरता करे ||७|| तिलकमती तूं भाखी तहाँ । तो भरता आवेगो इहाँ ।। ताहि विवाहि आवजे चाल 1 इम कहि करि चाली ततकाल ।।७९|| आधी रात गये तब राय । महल थके लखि वितरक लाय । देवसुता जखिनी वा कोय । ना जाने वा किन्नर होय ||२०|| कै इह नरी यहाँ क्यू आय । ऐसी विधि चितवन करि राय ।। हस्त खड्ग ले चाल्यो तहाँ । तिलकमती तिष्ठ थी जहाँ ।।८।। दोहा-जाय पूछियो रायजी तू क्रुण है इनि थानि । तिलकमती सुणिकै तचै ऐसी भाँति घस्वानि ।।८२।। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८३. ८६] सुगन्धदशमीकथा भूपति मेरे तात . रतन सु दीपि पठाय। मोक्र् मम माता इहाँ थापि गई अब आय ॥८३।। चौपई–माखि गई इनि थानक कोय । आवेगो तो भरता सोय ।। याते तुम आये अब धीर । मैं नारी तुम नाथ गहीर ।।८।। युणि राजा तव व्याह सु करयो । समिरखो तैठे सुख धरयो ।। राजा प्रात समै अवलोय । निज मन्दिर . जावनि होय ॥८५|| तिलकमती ऐसे तब कही । अब तो तुम मेरे पति सही ॥ सर्प जेम डसि जाओ कहाँ । सुणि इम भाषे भूपति तहाँ ॥८६|| निशिकी निशि आस्यूँ तुझ पासि । तूं तो महा शर्मकी रासि || तिलकमती पूछे सिर नाय । कहा नाम तुम मोहि बताय || ८७)। राजा गोप कह्यो निज नाम । हम सुणि तिय पायो सुख धाम || यूँ कहि अपने थानक गयो । तब तेही परभात सु भयो ।।८८|| बंधुमती कहि कपट विचार । तिलकमती है अति दुखकार ।।। ब्याह समै उठिगी किनि थान | जन जन सों पूछे दुख मान ॥८९।। दोहा-देखो ऐसी पापिनी गई कहाँ दुख दाय। ढूँढत ढूँढत कन्यका लखी मसाणां जाय ॥९०|| जाय कहै दुःखदा सुता इनि थानकि किमि आय | भूत प्रेत लाग्यो कहा ऐसी विधि बतराय ॥९१।। चौपई-तिलकमती भाषै उमगाय । तैं भाप्यो सो कीन्हो माय ॥ बंधुमती कहि तुंग पुकार । देखो एह असत्य उचार ||९२।। जाण कहाँ क इह आय । व्याह समै दुःखदाय अघाय || तेजोमती विवाहित करी । साहाकी समया नहिं टरी ।।९३।। खिजि भाषी उटि चल घर अवै । ले आई अपने थल तवे ।। तिलकमती तूं पूछ मात । तें कैसो वर पायो रात ।।९४॥ मुता कहो बरियो हम गोप । रैनि परणि परभात अलोप ।। बंधुमती भावी ततकाल | री तैं पर पायो गोपाल ॥१५॥ दोहा---घर इक गेह समीप थो सो दीन्हू दुःख पाय । दिन प्रति रजनीके विषै आवै तहाँ सु राय ॥९६।। दीप निमित नहिं तेल दे तबहि अँधेरे माहिं । राजा तैठे ही रहै सुख पावे अधिकाहिं ॥९॥ चौपई-केते इक दिन ऐसे गये। बंधुमती तब यूं वच दये ।। तूं ग्वाल्या ते कहि इम जाय । दोय बुहारी तो दे लाय ॥९८॥ तिलकमती आरे करि लई । राति भये निज पति पै गई ।। करि क्रीडा सुख वचन उचार | नाथ सुयूँ अर दास तिसार ॥२९॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७] हिन्दी 1 मात । नाचीं है तुम पै हरषात || देव । अंगी कीन्हू भूप स्वमेव || १०० ॥ बाय | लर्मचार तयार बुलाय || दोय । अब हीं करयो देर मत होय || १०१ || कंचनकार लागि गये घडने अधिकार || मनमोहि । रत्न जडित मूठ्यो अति सोहि ॥ १०२ ॥ मँगाय । डाना में परि चाल्यो राय ॥ I इम सुणि तबहीं स्वर्णसक सबके घोडस भूषण और एक वेष उत्तम करि लयो । रजनी समय नारि ढिंग गयो । १०३ || रतन afsant कौर जु सार | सोमै सारीके अधिकार | 1 भूषण वेष दये नृप जाय । दोय बुहारी लखत सुहाय ॥ १०४ ॥ नारि चरण नृपके तब धोय । सिर केशनि तैं पूछिव होय || क्रीड़ा करि बहुते सुख पाय । प्रात भये नृप तौ घरि जाय || १०५ || तिलकमती अति हर्षित होय । जाय दई सु बुहारी दोय || और दिखाये भूषण वेष | माता देख्यो सार जु भेष || १०६ || मनमें दुःखित वचन इम कह्यो । तेरो भरता तस्कर भयो । राजाके भूषण अरु वेष | लाय दये तो कूँ जु अशेष ॥ १०७॥ हम सब कूँ दुःखदायी सोय । हम कहि खोसि लये दुखि होय || st दिलगीर भई अधिकाय । साँझ समै राजा जब आय ॥ १०८ ॥ राय तत्र संबोधी जोय | मन चिंता राखौ मति कोय ॥ और घणे ही देंहू लाय । इम सुणि तिलक्रमती सुख पाय || १०९ ॥ दीप थकी जिनदत्त जु आय। बंधुमती पति से बतराय || तिलकमती के अवगुण घणां । कहा कहूँ पति अथवा तणा ||१०|| ब्याह समै उठिगी किन थान । परण्यो चोर तहाँ सुख ठान | सो तस्कर भूपति कै जाय । भूषण वेष चोरि कर लाय ॥ १११ ॥ या छह दीने तब आय । खोसि रखे मो द्विगमें लाय || यह कहि वे सब भूषण सार । लाय घरे आगे भरतार ||११२ || सेठ देखि कंपित मन माहिं । तबहीं राज सुथानकि जाहिं ॥ घरे जाय राजाके पाय । सच विरतंत को सण राय ॥ ११३ ॥ को वेष भूषण तो आय । परि वह चोर आनिद्यो लाय || इहि विधि सेठ सुणी नृप बात । चाल्यो निज घरि कंपित गाल ॥ ११४ ॥ जुगल बुहारी मेरो यात ला दीज्यो तुम जब बैटो व तिन तें कही बुहारी साह सुतासू इह वच कियो | तें हमकूँ यह कुण दुख दियो || पति ॐ जाणे है अकि नाहि । को दीप बिनु जायूँ कांहि ||११५|| कचहूँ दीपक हेति सेठ कहै किस ही विधि जान । तिलकमती तत्र बहुरि बखान ||११६ || इक विधि करि मैं जानूँ तात्त । सो इह सुणो हमारी बात । सनेह | मोकू मम माता नहिं देह !! 1 -] Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ सुगन्धदशमीकथा जब पति आये मो ढिग यहाँ । तब उन पद धोवत थी तहाँ ।। ११७॥ घोवत चरण पिछानूँ सही । और उपाय इहाँ अब नहीं || सेठ कही भूपति सों जाय । कन्या तौ इस भाँति चताय ॥ ११८ ॥ | ऐसे सुणि तब बोल्यो भूप । इह तौ विधि तुम जाणि अनृप || तस्कर ठीक करके काजे । तुम घर आयेंगे हम आज ।। ११९|| सेठ तबै प्रसन्न अति भयो । जाय तयारी करतो थयो || राजा सय परिवार मिलाय । तचहीं सेठ तणें घर जाय || १२० || I प्रजा ज सकल इकट्टी भई । तिलकमती बुलवाय सु लई ॥ नेत्र मूदि पड़ घोवत जाय । यह भी नहीं नहीं पति आय || १२१|| जब नृपके चरणांबुज धोय | कहती भई यही पति होय || राजा हँसि इम कहतो भयो । इनि हमको तस्कर कर दयो ।। १२२|| तिलकमती फुनि ऐसे कही। नृप हो वा अनि होऊ सही ॥ लोक हँसन लागे जिहिं बार । भूप मने कीन्हें ततकार ||१२३|| वृथा हास्य लोका मति करो। मैं ही पति निश्चय मन घरो || लोक कहैं कैसे इह् बणी | आदि अंतर्लो भूपति भणी ||१२४|| तचड़ी लोक सकल इम कह्यो । कन्या धन्य भूप पति लो ॥ पूर इन व्रत कन्यो सार । ताको फल इह फल्यो अपार || १२५|| भोजन नन्तर करि उत्साह | सेठ कियो सब देखत ब्याह || ताकूँ पटराणी नृप करी भूपति मनमें साता घरी || १२६ ॥ एक समैं पति-युत सो नारि । गई सू जिनके गेह मँझारि ॥ वीतराग मुख देख्यो सार । पुण्य उपायो सुख दातार ॥१२७॥ सभा चिर्षे श्रुतसागर मुनी । बैठे ज्ञाननिधी बहु गुनी । तिनको प्रणमि परम सुख पाय । पूलै मुनिवर सों इम राय ॥ १२८ ॥ पूर्व भव मेरी पटनार । कहा सुव्रत कोन्ह्यो विधि धार ॥ जाकर रूपवती दह योगी पूरव सब अरु सुगंध दशमी व्रत सार । सो इनि कीन्ह्यो सुख दातार || १३०|| ताको फल इह जाणूं सही। ऐसे मुनि श्रुतसागर कहीं || मई | अधिक संपदा शुभ करि लई ||१२९ || विरतंत मुनि निंदादिक सर्व कहंत || तब ही आयो एक विमान | जिन श्रुत गुरु बंदे तजि मान ।। १३१ || सुनि कूँ नमस्कार करि सार । फेर तहाँ नृप - देवि निहार ॥ तिलकमतीके पाचोँ परयो । अरु ऐसे सुवचन उच्चरयो ॥ १३२॥ दोहा -- स्वामिनि तो परसाद मैं मैं पायो फल सार । व्रत सुगन्ध दशमी कियो पूरव विद्या धार ॥ १३३ ॥ ततके परभाव तैं देव भयो मैं जाय । तुम मेरी साधर्मिणी जुग क्रम देखनि आय || १३४ ॥ [ ११७ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ ] हिन्दी इमि कहि वस्त्राभरण तें पूज करी मन लाय अरु सुर पुन ऐसे कही तुम मेरी वर माय ॥ १३५॥ चोपाई - श्रुति कर सुर निज थानकि गयो । लोकां इह निश्चय लखि लियो || धन्य सुगंधदशमि ब्रतसार | तब सबही जन यह व्रत धरयो । तिलकमती कंचनप्रभ राय । पात्रनिको शुभदान | शील सुभाय । पालनहार | ताको फल है अनन्त अपार ॥ १३६ ॥ अपतुं कर्म महाफल हरयो || मुनिकुं नमि अपने घर जाय ||१३७|| करती जिनकी पूज अमान || अरु उपवास करें मन लाय ॥ १३८ ॥ पतिव्रत गुणकी पुनि सुगंधदशमीव्रत धार ॥ अन्त समाधि थकी तजि प्रान । जाय लयो ईशान सुधान || १३९॥ देती पालै दर्शन । सागर दोय जहाँ तिथि लई नारीलिंग निद्य छेदियो । शुभ हैं भयो सुरोत्तम सही || चय शिव पासी जिनवर्णयो ॥ १४० ॥ निरमल चरम तहाँ शिर दरें || पूव पुन्य भये तित आन ॥ १४१ कीजे हो ! भदि शर्मं विचार ॥ । इह लखि सुगंध दीं व्रतसार । जे भवि नरनारी व्रत करें। ते संसार समुद्रस तरें ॥ १४२ ॥ जहाँ देव सेवा बहु करे । और विभव अधिको जिहिं जान दोहा - श्रुतसागर ब्रह्मचारि को ले पूरव अनुसार । भाषा सार बनायके सुखित खुस्याल अपार || १४३॥ [= Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ मत्स्यगन्धा-गन्धवतीकथा ( महाभारत १,५७,४७--४६,५४-६८ तथा १,९६ से संकलित ) तत्राद्रिकेति विख्याता ब्रह्मशापाद् वराप्सराः । मीनभावमनुप्राप्ता बभूव यमुनाचरी ॥ १ ॥ श्येनपादपरिभ्रष्टं तद्वोर्यमथ बासवम् । जग्राह तरसोपेत्य साद्रिका मत्स्यरूपिणी ॥ २ ॥ मासे दशमे प्राप्ते तदा भरतसत्तम । उज्जन रुदरात्तस्याः स्त्री-पुमांसं च मानषम् !॥ ३ ॥ या कन्या दुहिता तस्या मत्स्या मत्स्य-सगन्धिनी । राजा दत्ताथ दाशाय इयं तव भवयिति । रूपसत्त्वसमायुक्ता सर्वेः समुदिता गुणैः ॥ ४ ॥ सा तु सत्यवती नाम मत्स्यघात्यभिसंश्रयात् । आसीन्मत्स्यगन्धैव कंचित्कालं शुचिस्मिता ॥ ५ ॥ शुश्रूषार्थ पितु वं तां तु वाहयती जले। तीर्थयात्रा परिक्रामन्नपश्यद्वै पराशरः ।। ६ ।। अतीवरूपसंपन्नां सिद्धानामपि काङ्क्षिताम् ! दष्ट्वैव च स तां धीमांश्चकमे चारुदर्शनाम् । विद्वांस्तां वासवीं कन्यां कार्यन्वान्मुनिपुंगवः 11 ७ ॥ साब्रवीत्पश्य भगवन्पारावारे ऋषीन् स्थितान् । आवयोदृश्यतोरेभिः कथं नु स्यात्समागमः || ८॥ एवं तयोक्तो भगवान्नोहारमसृजत्प्रभुः । येन देशः स सर्वस्तु तमोभूत इवाभवत् || EH दृष्ट्वा सृष्टं तु नोहारं ततस्तं परमषिणा । विस्मिता चाब्रवीत्कन्या ब्रीडिता च मनस्विनी ॥ १० ।। विद्धि मां भगवन्कन्यां सदा पितृवशानुगाम् | त्वत्संयोगाच्च दुष्येत कन्याभावो ममानध ॥ ११॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] [२५ सुगंधदशमी कथा कन्याने पिने चापि नशं शने दिगोगा । गन्तुं गृहं गृहे चाहं धीमन्न स्थातुमुत्सहे । एतत्संचिन्त्य भगवान् विधत्स्व यदनन्तरम् ॥ १२ ॥ एवमुक्तवती ता तु प्रीतिमानृषिसत्तमः ! उवाच मत्प्रियं कृत्वा कन्यैव त्वं भविष्यसि 11 १३ ।। वृणीष्व च वरं भीरु यं त्वमिच्छसि भामिनि । वृथा हि न प्रसादो में भूतपूर्वः शुचिस्मिते ।। १४ ॥ एनमुक्ता बरं बने गात्रसौगन्ध्यमुत्तमम् । स चास्य भगवान्प्रादान्मनसः काङ्कितं प्रभुः ॥ १५ ॥ ततो लब्धवरा प्रीता स्त्रीभावगुणभूषिता । जगाम सह संसर्गमृषिणाद्भुतकर्मणा ।।१६।। तेन गन्धवतीत्येव नामास्याः प्रथितं भुवि । तस्यास्तु योजनाद्गन्धमाजिघ्नन्ति नरा भुवि ॥१७॥ ततो योजनगन्धेति तस्या नाम परिश्रुतम् । पराशरोऽपि भगवाजगाम स्वं निवेशनम् ||१८| स (शन्तनुः) कदाचिद्वनं पातो यमुनामभितो नदीम् । महीपतिरनिदेश्यमाजिघ्रद् गन्धमुत्तमम् ॥१९॥ तस्य प्रभवमन्दिच्छविचचार समन्ततः । स ददर्श तदा कन्यां दाशानां देवरूपिणीम् । समीक्ष्य राजा दाशेयों कामयामास शंतनुः ॥२०॥ स गत्वा पितरं तस्या वरयामास तां तदा। स च तं प्रत्युवाओवं दाशराज्ञो महीपलिम् ॥२१॥ यदीमा धर्मपत्नों त्वं मत्तः प्रार्थयसे मघ । सत्यवागसि सत्येन समयं कुरु मे तत: बा२२॥ अस्यां जायेत यः पुत्रः स राजा पृथिवीपतिः । स्वदूर्ध्वमभिषेक्तव्यो नान्यः कश्चन पार्थिव ।।२३।। नाकामायत तं दातुं वरं दाशाय शंतनुः । शरीरजैन तीव्रण दह्यमानोऽपि भारत ।।२४।। स चिन्तयन्नेव तदा दाशकन्यां महीपतिः । प्रत्ययाद हास्तिनपुरं शोकोपहृतचेतनः ॥२५॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] परिशिष्ट १ ततस्तत्कारणं ज्ञात्वा कृत्स्नं चैवमशेषतः । देवव्रतो महाबुद्धिः प्रथयावनुचिन्तयन् । अभिगम्य दाशराजानं कन्यां वने पितुः स्वयम् ||२६|| एवमेतत्करिष्यामि यथा त्वमनुभापसे । योऽस्यां जनिष्यते पुत्रः स नो राजा भविष्यति ॥ २७ ॥ इत्युक्तः पुनरेवाथ तं दाशः प्रत्यभाषत । राजमध्ये प्रतिज्ञातमनुरूपं तवेब तत् ॥ २८ ॥ नान्यथा तन्महाबाहो संशयोऽय न कश्चन । तवापत्यं भवैद्यन्तु तत्र नः संशयो महान् ||२६|| तस्य तन्मतमाज्ञाय सत्यधर्मपरायणः । प्रत्यजानात्तदा राजन् प्रियचिकीर्षया ॥ ३०॥ दाशराज निबोधेदं वचनं मे नृपोत्तम । अद्यप्रभृति मे दाश ब्रह्मचर्य भविष्यति ||३१|| तस्य तद्वचनं श्रुत्वा संप्रहृष्टतनूरुहः । ददानीत्येव तं दाशो धर्मात्मा प्रत्यभाषत ॥३२॥ ततोन्तरिक्षेऽप्सरसो देवाः सर्षिगणास्तथा । अभ्यवर्षन्तकुसुमैर्भीमोज्यमिति चाब्रुवन् ॥३३॥ ततः स पितुरर्थाय तामुवाच यशस्विनीम् । अधिरोह रथं मातर्गच्छावः स्वगृहानिति ॥ ३४ ॥ एवमुक्त्वा तु भीष्मस्तां रथमारोप्य भामिनीम् । आगम्य हास्तिनपुरं शंतनोः संन्यवेदयत् || ३५ ॥ ततो विवाहे निवृत्ते स राजा शंतनुर्नृपः । तां कन्यां रूपसंपन्नां स्वगृहे संन्यवेशयत् ॥ ३६ ॥ [ ५३ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ नागभी-नुकुमालिका-द्रौपदी कथानक (नायाधम्मकहाओ-अध्ययन १६ से संकलित) तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था। नौसे गं पाए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिमीभाए सुभूमिमागे नाम उजाणे होस्था। तत्थ णं चपाए नयरीए तओ माहणा भायरो परिवर्सति । तं जहा-सोमे सोमदत्ते सोमभूई रिलवेय-जउब्वेय-सामवेयअथव्वणवेय सुपरिनिट्ठिया । तेसिं मारपणाणं सगे भारियाओ होत्था । तं जहा-नागसिरी भूयसिरी जबसिरी तेसिं गं माहणार्ग इट्ठाओ विउले माणुस्सए कामभोग मुंजमाणा विहरति । तए णं तेसिं माहणाणं अन्नया कयाइ एगयओ समुवागयाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे संमुपन्जित्था--एवं खलु देवाणुपिया अम्हं इमे विउले धणे सावएजे अलाहि असत्तमाओ कुलवंसाओ पकाम दाउं पकाम मात्तुं पकामं परिभाए । सेयं खलु अम्हें देवाणुप्पिया अन्नमन्नस्स मिहेसु कलाकल्लि विपुलं असण-राण-खाइम-साइमं उवक्खडेर्ड परिभुजेमाणाणं विह रित्तए । अन्नमन्नस्स एयमह पडिसुणेति । अन्नमन्नरस गिहेसु विपुलं असणं उवक्खडावेति परिभुजमाणा विहरति । तए णं तीसे नागसिरीए माहीए अन्नया कयाइ भोयणवारए जाए यावि होत्था । तए णं सा नागसिरी माहणी विपुलं असणं उयक्खद्धावेई एग मह सालइयं तित्तलाउयं बहुसंभारसंजुत्तं नेहाचगार्ड उवक्खडावेइ एगं बिंदुयं करयलंसि आसाएद । तं खारं कडुयं अखज विसभूयं जाणित्ता एवं वयासी-धिरत्थु णं मम नागसिरीए अधन्नाए अपुण्णाए दुभगाए जाए णं मए सालइए बहुसंभारसंभिए नेहायगाढे उचक्खडिए सुबहुव्वक्लए नेहरखए य कए । तं जई णं मर्म जाउयाओ जाणिस्संति तो णं मम खिसिरसंति । तं जावताव ममं जाउयाओ ण जागंति ताव मम सेयं एयं सालइयं तित्तलाउयं बहुसंभारनेह्कयं एगते गोवित्तए अन्नं सालइयं महुरलाउयं नेहावगाढं जयखडित्तए। एवं संपेहेइ तं सालइयं गोवेइ अन्नं सालइयं उवक्खडेइ तेसिं माहणाणं व्हायाणं सुहासणवरगयाणं तं विपुलं असणं परिवेसेइ । तए णं ते माहणा जिमियभुत्तुत्तरागया समाणा आयंता चोक्ता परमसुइभूया सकम्मसंपत्ता जाया याधि होत्था । तए णं ताओ माहणीओ पहायाओ विभूसियाओ तं विपुलं असणं आहारेंति जेणेव सयाई गिहाई तेगेव उवागच्छंति सकम्मसंपउत्ताओ जायाओ। लेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा नामं घेरा बहुपरिवारा जेणेव चंपा नयरी जेणेव सुभूमिभागे उजाणे तेणेव उवागच्छति अहापखिरूपं विहरति । परिसा निग्गया धम्मो कहिओ परिसा पडिगया । तए णं तेसि धम्मघोसाणं थेराणं अंतेवासी धम्ममई मामं अणगारे उराले तेयलेस्से मासमासेणं खममाणे विद्दरइ। तए णं से धम्मरुई अणगारे मासखमणपारगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ चीयाए पोरिसीए उम्गाहेइ धम्मघोसं थेरं आपुच्छइ चंपाए नयरीए उच्च-नीय-मज्झिमकुलाई अडमाणे जेणेव नागसिरीए माहणीप गिहे तेणेय अणुपविठ्ठ। तए णं सा नागसिरी माहणी धम्मरुई एन्जमा पासइ तसत सालइयस्स तित्त Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ [ ex कड्यस्स चहुनेावगाढस्स एणडया हट्टतुट्ठा उठाए उट्टेइ जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ तं सालइयं तितकडुयं च बहुने हावगाढं धम्मंरुइस्स अणगारस्स पडिग्गहंसि सव्वमेव निस्सिरइ । तए णं से धम्मरुई अणगारे अह्नापज्जन्त्तमिति कट्टु नागसिरीए माहणीए गिहाओ पक्खिमइ चंपा नयरी मज्झमञ्झेणं पडिनिक्खभइ जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे जेणेव धम्मघोसा थेरा तेणेच वागच्छ धम्मघोसरस अदूरसामंते अन्नपाणं पडिलेइ करयसि पडसे । तए णं धम्मघोसा थेरा तस्स सालइयस्स नेहावगाढस्स गंघेणं अभिभूया समाणा सओ साइयाओ एवं विदुथं गहाय करय ंसि आसादिति तित्तं खारं कयं अखजं अभोज्ज विसभूयं जाणित्ता धम्मरुई अणगारं एवं बयासी - जइ णं तुमं देवागुपिया एवं सालइयं आहारेसि तो णं तुमं अकाले चेव जीवियाओ व्वरोबिज्जसि तं मा णं तुमं देवाणुपिया इ आहारेसि । तं गच्छ इमं एतमणावाए अचित्ते थंडिल्ले परिवेहि अन्नं फासूयं एसणिजं असणं पचिगाता आहार आहारेहि । तपणं से धम्मरुई अणगारे धम्मघोसेणं थेरेणं एवं वृत्ते समाणे धम्मघोसरस थेरस्स अंतियाओ पडिनिक्खमइ सुभूमिभागाओ उज्जाणाओ अदूरसामंते इंडिल्लं पडिलेइ ताओ सालइयाओ एवं बिंदुगं गहाय थंडिल्लंसि निसिरइ । तए णं तस्स सालइयस्स तित्तकडु - यस बनेगा गंधेगं बहूणि पिपीलिंगासहस्त्राणि पाउन्भूया जा जहा य णं पिपीलिंगा आहारेइ साणं तहा अकाले चेव जीवियायो ववरोविज्जइ । तए णं तस्स धम्मासंइस्स अणगारम्स इमेवारू अझ थिए जइ ताव इनम्स सालइयरस एगम्मि बिंदुयम्मि पक्खितंमि अगाई पिंपीलिंगासहस्साई बत्ररोविज्जति तं जइ णं अहं एवं सालइयं थंडिल्लं सि सव्वं निसिरामि तो णं बहूणं णाणाणं बहकरणं भविस्ससि । तं सेयं खलु मम एयं सालइयं. यमेव आहरितः । मम चैव एएणं सरीरएणं निज्जाउ त्ति कट्टु एवं संपेद्देइ तं सालइयं तित्तकथं बिलमिव पन्नगभूषणं अप्पाणएणं सव्वं सरीरकोट्ठगंसि पक्खिवइ । तए णं तरस धम्मरुइयरस तं सालइयं आहारियस्स समाणस्स मुद्दत्तंतरेणं परिणममाणंसि सरीरगंसि वेणा पाउन्भूया उज्जला दुरहियासा । तए णं से धम्मरुई अणगारे अथामे अबले अवीरिए अपुरिसकारपरक्कमे आधार मिज्जमित्ति कट्टु आयारमंडगं एगंते ठावेइ थंडिल्ल पडिलेइ दल्भसंथागं संथारेइ दुखहइ पुरस्थाभिमुद्दे संपलियंकनिसणे करयलपरिग्गहियं एवं क्यासी - नमोत्यु णं अरहंताणं नमोत्थु णं धम्मघोसाणं घेराणं मम धम्मायरियाणं । पुन्थिं पिणं मए धम्मघोसाणं धराणं अंते सव्वे पापाइवाए सव्वे परिग्गहे जावजीवाए पचखाए । इयाणि पिणं पञ्चक्खामि त्ति कट टु आलोइय पडिक्कते समाहिपत्ते कालगए । तए णं ते धम्मघोसा थेरा पुव्यगए उबओगं गच्छति समणे निग्गंथे निग्गंधीओ य सदावेंति एवं वयासी एवं खलु अज्जो मम अंतेवासी धम्मकई नाम अणगारे कालमासे कार्ल किच्चा उड् सन्त्रसिद्धे महाविमाणे उववन्ने । तं धिरत्थु णं अज्जो नागसिरीए माहणीए अपनाए अण्णाए जाए णं तहारूवे साहू जीवियाओ ववरोबिए । तए णं ते समणा निग्गंधा चंपाए सिंघाडग पहेतु बहुजणस्स एवमाइक्खति - धिरत्थु णं देवाणुप्रिया नागसिरीए जाए णं तहरू साहू जीवियाओ वबरोविए । तणं तेसि समणाणं अतिए एयम सोच्चा निसम्म बहुजणो अन्नमनस एवमाइक्स एवं भासइ - धिरत्थु नागसिरीए माहणीए । तए णं ते माहणा चंपाए नयरीए बहुजणस्स अंतिए एयमहं सोच्चा निसम्म आसुरुत्ता मिसिमिसेमाणा जेणेव नागसिरी माहणी तेणेत्र उवागच्छति नागसिरिं माहणिं एवं क्यासो-हं भो नागसिरी अपत्थिय्पस्थिए तुरंत पंतलखणे हीणपुण्णचाउसे धिरत्यु णं तव अधन्नाए अपुण्णाए निंबोलियाए Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६] सुगन्धदशमीकथा जाए णं तहारूवे साहू ववरोविए उच्चावयाहिं अक्कोसणाहिं अक्कोसति उद्धंसेंति निभछेति निच्छोडेलि तज्जेंति तालेति सयाओ गिहाओ निच्छुभंति ।। तारण सा नागसिरी सयाओ गिहाओ निन्दा समाणी चंपाए नयरोए सिंघाडगतिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेमु बहुजणेणं हीलिजमाणी खिसिजमाणी निंदिनमाणी गरहिजमाणी तिजिजमाणी पव्व हिजमाणी धिक्कारिन्नमाणी थुक्कारिजमाणी कत्थइ ठाप्यं वा निलयं बा अलभमाणी दंडीखंडनिबसाया खंडमल्लय-खंउघडग इत्थगया ' फुड्डाछ सीसा मच्छियचडगरेणं अन्निज्जमाणमग्गा गिह गिहेणं देहवलियाण बित्ति कायेमाणा विहरइ । तए पं तीसे नागसिरीए तब्भवसि चेव सोलस रोयायंका पाउरभूया। तं जहा-सासे कासे जोणिसूले जरे दाहे कुच्छिमूले भगंदरे अरिसए अजीरए दि हिसूले मुद्भसूले अक्रारिए अच्छिवेयणा कपणवेयणा कण्डुप, कोढे य । तए णं सा नागसिरी सोलसहि रोगायंकेहिं अभिभूया समाणी अट्टदुहवसट्टा कालमासे कालं किच्चा छट्ठीण पुढवीए नेरइएसु उववन्ना। तओ अतरं उट्टित्ता मच्छेसु उबवन्ना। तत्थ णं सत्थवज्झा दावकंतीए कालमासे कालं किच्चा अहेसत्तमाप पुढवीए उपवन्ना । तओणंतरं ऊबट्टित्ता होच्च पि मच्छेसु उववज्जइ । दोच्चं पि अहे सत्तमाप पुढवीए तओहितो तच्च पि मच्छेसु दोच्चं पि छहीप पुढ बीए तओ उरगेसु तओ जाई इमाई खयरविहाणाई अदुत्तरं च णं खर-बायर पुढविकाइयत्ताए वेसु अणेगसयसहस्सखुत्तो। सा गं तओणंतर उठवट्टित्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे चंपाए नयरीए सागरदत्तस्स सत्यवाहस्स अदाए भारियाए कुच्छिसि दारिअत्ताए पन्चायाया। अम्मापियरो नामघज्ज करेंति सूमालिय त्ति । सा उम्मुक्कबालभावा रूपेण य जोहवणेण य लावणेण य उक्किट्ठा होत्था। तए णं से जिणदप्से सत्थयाहे अन्नया कयाइ सागरदत्तस्स सस्थवाहस्स अदूरसामंतेणं वीईवयइ सूमालियं वारियं पासइ दारियाए रूवे य जायविम्हए जेणेव सागरदत्तस्स गिद्दे तेणेव उवागए सागरदत्तं एवं बयासी-एवं खलु अहं देवाणुपिया तव धूयं सूमालियं मम पुत्तस्स सागरस्स भारियत्ताए घरेमि । तए णं से सागरदत्ते जिणदत्तं एवं वयासीएवं खलु देवाणुप्पिया सूमालिया दारिया एगजाया इट्ठा । तं नो खलु अहं इच्छामि खणमवि विप्पओगं । तं जइ सागरए दारए मम घरजामाउए भवइ तो णं दलयामि । तए णं जिणदत्ते अन्नया कयाइ सोहसि तिहिकरणे अग्गिहोमं करावेइ सागरं दारयं सूमालियाए दारियाए पाणि गेपहावेइ। __ तए णं सागरए सूमालियाए सद्धि तलमंसि निवज्जइ एयारूवं अंगफासं पण्डिसंवेदेइ जहानामए असिपत्ते । तए णं से सूमालियं दारियं सुहपसुत्तं जाणित्ता सयणिजाओ उट्टेइ वासघरस्स दारं विहाडे भारामुक्के विष काय जामेय दिसि पाउभूए तामेव दिसिं पड़िगए । सागरदरी दासचेडीए अंतिए एयम सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते मिसिमिसेमाणे जिणदत्तस्स गिहे उवागच्छद जिणदत्तं एवं वयासी-किनं देवाणुप्पिया एवं जुत्तं वा पत्तं का कुलाणुरूयं वा ? जिणदत्ते सागरं दारयं एवं क्यासी-दुट तु णं पुत्ता तुमे कयं सागरदत्तस्स गिहाओ इहं हवमागच्छंतेणं । तं गच्छह णे तुम पुत्ता एवमवि गए सागरदत्तस्स गिहे । तए णं से सागरए एवं वयासी-अवियाई अहं ताओ गिरिपडणं वा तरुपडणं वा मरुप्पवायं या जलप्पत्रायं वा जलणप्पवेसं षा विसभक्खणं वा सत्थोबाडणं चा विहाणसं जा गिद्धपद Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ [ १७ वा पवज्जं वा विदेसगमणं वा अब्दुत्रगच्छेजा तो खलु अहं सागरदम्स हिं गच्छेजा सागर कुरियाए सागरस्स एयमहं निसामेइ लजिए विलीए जिणदत्तस्स गिड़ाओ मिस गिहे उत्रागच्छ सुकुमालियं दारि सदावेद के निवेसेड एवं व्यासीकिं नं तव पुत्ता सागरएणं दारणं ? अहं णं तुझं तस्स दाहामि जस्स गं तुमं इट्ठा माणाम rforaft | तणं से सागरदत्ते अन्नया उलि आगासनलगंसि सुहनिसणे रायगं आलोएमाणे एवं महं दमपुरिसं पासइ इंडि-खंड - नियमणं खंड मल्लग - खंडहत्यायं मलियासहस्सेहिं अभिज्ञ्जमाणमग्गं । तप से कोत्रिय- पुरिसे सदावे । ते तं दमपुरिसं असणेण उवप्पलोभति तस्स अलंकारियकम्मं करेति विपुलं असणं भयावेति सागरदत्तम् समीचे वर्णेति । सागरदत्ते सूमालियं दारियं पहायं सव्वालंकारविभूसियं करेत्ता तं दमगपुरिर्स एवं क्यासी एस गं देवाणुपिया मम धूया इट्टा एवं गं अहं तब भारियताम दलयामि भरियाए भओ भवेज्ञासि । दमगपुरिस एयस पडिसणे सूमालिया सद्धि वासघर अणुपfers तहिमंसि निवज्जइ । सूमालियाए एयारूवं अंगफासं पढिसंवेदेव सर्याणिजाओ अच्छे जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए । तए णं सा भद्दा कल्लं पापभाए दासचेडिं सहावेइ सागरदत्तस्स एयमहं निवेदेइ | से तब संभंते उत्रागच्छ सूमालियं दारियं अंके निवेसेइ एवं बयासी अगं तुमं पुत्ता पुरापोरामाणं कम्माणं पच्चणुब्भवमाणी विहरसि । तं मागं तुमं पुत्ता ओय मणसंकप्पा शियाहि । तुमं णं पुत्ता मम महाणसंसि विपुलं असणं परिभाषमाणी विहराहि । तए णं सासूमालिया दारिया एयमहं पडिसुणे महाणसंसि त्रिपुलं असणं दलमाणी विद । तेणं काळेणं तेन समपर्ण गोवालियाओ अज्जाओ बहुस्सुयाओ अणुपत्रि । सूमालिया पहिलाभेत्ता एवं वयासी- तुभेणं अजाओ बहुनायाओ । उबल णं जेणं अहं सागरस्स दारगस्स हा कंता भवेजामि । अजाओ तहेव भणति तत्र साविया जाया तद्देव चिन्ता तद्देव सागरदत्तस्स आपुच्छइ गोवालियाणं अंतियं कवइया अज्ञा जाया । तत्व णं चंपाए ललिया नाम गोट्टी परिवसइ नरवइदिन्नश्यारा अम्मा पिइनिययनिष्पिवासा वेसविहारकयनिकेया नाणाविह अविणाया । तीसे ललियाए गोडीए अन्नया कयाइ पंच गोहिल्लापुरसा देवदत्ताय गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उच्चाणसिरि पञ्चगुभवभाणा विहरति । तत्थ णं एगे गोहिलगपुरिसे देवदत्तं गणिथं उगे धरे गेपिओ आययत्तं धरेइ एगे पुष्पूरगं रह एसे पाए रएइ एगे चामरुक्खेवं करेइ । सूमालिया अजा पास | इमेयारूवे कप्पे समुपजित्था - अहो णं इमा इथिया पुरापोराणं क्रम्माणं पञ्चशुभबाणी विहर। तं जइ इ इमस्म सुचरियम्स तत्र नियमन्वंभचेरवासम्म कल्याणे फलवित्तिविसे से अत्थि तो णं अहमवि आगमिस्सेणं भवग्गह इमेवास्वाई उरालाई सुखाई पचणुभवमाणी विहरिज्ञामिति कट्टु नियाणं करेइ । तणं सा सूमालिया अज्जा सरीरबाइसा जाया । अणोहट्टिया अनिवारिया चंदगई अभिकर्ण हत्थे धोवेइ सीसं धोवेह मुहं धोत्रेइ कुसीला संसना बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउण कालमासे काले किच्चा ईसा कप्पे देवगणयत्ताए उववन्ना । आउ पुर्ण चत्ता इव जंबुहोवे भारहे वासे पंचाळेस जणवएस कंपिल्लपुरे नयरं दुक्यस्स रनो चुलगी देवीए कुछसि दारियत्ताए पश्चायाया । अम्मापियरो इमं एयावं नामवेज्जं कति दोवईति । १३ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १] सुगन्धवशमीकथा तपणं सा दोवई देवी रायवरकमा उम्मुक्कबालभावा उक्किट्टसरीरा जाया। दुपए राया दोवईए रूबे जोवणे य लावण्णे य जाय विम्हए दोवई एवं वयासी-अज्जयाए सयंवरं विरयामि । जं गं तुम सयमेव रायं वा जुवराय षा बरेहिसि से णं तय भत्तारे भविस्सइ । तएणं से दुवए राया कोनियुरिले एवं दयाधी--- तुम पंचागुप्पिया कंपिझपुरे नयरे बहिया गंगाए महानईए अदूरसामंते एग मह सयंवरमंडवं करेह खिप्पामेव वासुदेवपामोक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं आवासे करेह । तए णं से वासुदेवपामोक्खाणं रायसहस्सायं आगमणं जाणेत्ता अग्र्घ च पज्जं च महाय सव्विदीए सक्कारेइ सम्माणेइ । ते जेणेव सया सया आवासा तेणेव उवागच्छति। तए णं तं दोवई अंतेउरियाओ सव्वालंकारविभूसियं करेंति। अंतेउराओ पडिनिक्खमइ चाउग्धंट आसरह दुरूहद । धज्जुणे कुमारे दोवईए कन्नाए. सारस्थं करेइ सयंवरामंडवे उबागच्छद । दोवई एग मह सिरिदामगंई पाडलमल्लियचंपयगंधद्धणि मुयंतं परमसुहफास दरिसिणिज गेहइ । बहूणं रायबरसहस्साणं मझमझेणं समइच्छमाणी पुत्वकय नियाणेणं चोइज्जमाणी जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ । तेणं दसवण्णेणं कुसुमदामेणं आवेदिय. परिवेढिप करेइ । एवं वयासी-एए णं मप पंच पंडवा वरिया। तर ण ताई वासुदेवपामोक्खाई बहूणि रायसहस्साणि मया सहेणं उग्धोसेमाणाई एवं वयंति-सुवरियं खलु भो दोबईप रायवरकन्नाए त्ति कटटु सयंवर-मंडवाओ पडिमिक्लमंति । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ विद्वज्जुगुप्सायां श्रावकसुताउदाहरणम् । हरिभद्र-श्रावकाननि टीका ( गा० ६३) ( लगभग सन ७५० ई० ) विद्वज्जुगुप्सायां श्रावकसुता-उदाहरणे-एगो सेहो पर्वते बल्लई । तस्स धूयाविवाहे कह थि साहुणा आगया । सा पिउणा भणिया--पुत्तिए पडिलाभेहि साहुणो। सा मंडियपसाहिया पहिलाभेइ । साहूण जल्लगंधो तीए आघातो। सा चिंतेइ-अहो अणवज्जो भट्टारगेहि धम्मो देसिओ। जइ पुण फासुपण पाणीपण आहाएज्जा, को दोसो होजा ? सा तस्स हाणस्स अणालोइय अप्पडिक्कना कालं काऊगं गाय गिहे गणियापार समुष्पन्ना। गभगया चेव अरई जणेइ । गभसाउणेहि य ण सउद । जाया समाणी उझिया ? सा गंधेण तं वनं वासेइ । सेणिओ तेण पदेसेण णिग्गच्छद सामिणो बंदिउँ। सो खंधावारो तीए गंध ण सहइ । रना पुच्छियं किं एयं । तेहिं कहियं दारियाए. गंधो। गंतूणं दिवा। भणइ एस एब पढमपुच्छ त्ति गओ। बंदित्ता पुन्छइ । तओ भगवया तीए उट्ठाण-परियावणिया कहिया । तओ राया भणइकहिं एसा पच्चणुभविश्सई सुहं या दुक्खं वा। सामी भणइ-एएण कालेण वेइयं । इयाणि सा तव चेव भजा भविस्मइ अगामहिसी । अह संबच्छराणि जाव तुभ रममाणम्ल पट्ठीए साज लीलं काहिइ तं जाणिजसु | बंदित्ता गओ। सा य अयगयगंधा आहीरेण गहिया संवडिदया जोवणत्था जाया। कोमुइचार मायाए समं आगया। अभी से णिओ य पच्छन्ना कोमुइचार पेच्छति । तीए दारियाए अंगफासेण सेणिओ अज्झोवकन्नो नाममुहिया तीए बंधइ । अभयस्स कहियं नाममुद्दा हरिया मग्गाहि । तेण मणुस्सा दारेहि बद्धेहिं ठविया । एकेक माणुस्सं पलोएऊण णीणिजइ। सा दारिया दिट्ठा। चोरि ति गहिया परिणीया य । अन्नया वस्सोकण रमंति । राएणं राणियाउ पोतेण वाहिति । इयरी पोत्तं दाउं विलम्गा। रन्ना सरियं मुक्का य पबना। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट न लक्ष्मीमती-कथानक (जिनसेन-इरिवंशपुराण ६०, २५-४० ) ( सन ७८३ ई०) . अत्रैष भरतक्षेत्रे विषये मगधाभिधे। ब्रामणी सोमदेवस्य लक्ष्मीनामे ऽप्रजन्मनः ।।१।। आसीलक्ष्मीमती नाम्ना लक्ष्मीरिब सुलक्षणा । रूपाभिमानतो मूहा पूज्यान्न प्रतिमन्यते ॥२॥ धृतप्रसाधना वक्त्रं कदाचिचित्तहारिणी । नेत्रहारिणि चन्द्राभे पश्यन्ती मणिदर्षणे ॥३॥ समाधिगुमनामानं तपसातिकशीकृतम् । साधु भिक्षागतं दृष्ट्वा निनिन्द विचिकित्सिता ॥६॥ मुनिन्द्रातिपापेन सप्ताहाभ्यन्तरे च सा । क्लिमोदुम्बरकुष्टेन प्रविश्याग्निमगान्मृतिम् ।।शा सहार्ता सा लरी भूत्वा मृत्वा लवणभारतः। शूकरी मानदोषेण जाता राजगृहे पुरे ॥६॥ पराको मारिता मृत्वा गोष्जायत, कुक्कुरी। गोष्वागतेन सा वग्धा परुषेण दवाग्निना || त्रिपदास्यस्य मण्डूक्या भण्डूकनामयासिनः। मत्स्यबन्धस्य जाता सा दुहिता पूनिगन्धिका ।।८।। मात्रा स्यक्ता स्वपापेन पितामह्या प्रवर्धिता। निष्कुटे वटवृक्षस्य जालेताच्छादयन्मुनिम् ॥६॥ बोधितावविनेत्रेण प्रभाते करुणावता। धर्म समाधिगुप्तेन प्रोक्तपूर्वभवाग्रहीत् ॥११॥ पुरं सोपारक याता तत्रार्याः समुपास्य सा । ययौ राजगृहं ताभिः कुर्वाणाचाम्लवर्धनम् ।।११।। अत्र सिद्धशिलो बन्यां वन्दित्वा च स्थिता सती । कृत्वा नीलगुहायां सा सती सल्लखना मृता ।।१२।। अच्युतेन्द्रमहादेवो नाम्ना गगनबल्लभा । बल्लभाभवदुत्कृष्टस्त्रीस्थितिस्तत्र देव्यसौ ॥१३॥ ततोऽवतीर्य भीष्मस्य श्रीमत्या त्वं सुताऽभवः। नगरे कुण्डिनाभिख्ये रुक्मिणी रुक्मिणः स्वसा |१४|| कृत्वा धात्र भवे भव्ये प्रव्रज्या विबुधात्तमः। “युत्वा तपश्च त्वान नैर्मन्व्यं माक्ष्यसे ध्रुवम् ॥१५॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगंधदशमी कथा चित्र-परिचय जिनसागर कृत सुगंधदशमी कथा की सचित्र प्रति नागपुर के सेनगण भाण्डार की है। इसका आकार १०१x६ इंच है । कागज पुष्ट व देशी पीले से रंग का है । प्रत्येक पृष्ठ पर मराठी पद्य हैं और चित्र। ग्रंथ के कुल ४६ पृष्ठों में से केवल एक पृष्ठ १६ वां ऐसा है जिस पर चित्र नहीं है। अन्य सभी पृष्ठों पर एक या दो चित्र हैं, जिनकी कुल संख्या ६७ है । समस्त पृष्ठों का अनुमानतः चतुर्थांश लेखन और तीन चतुर्थांश चित्रों से परिपूर्ण है । ग्रंथ में उसके रचनाकाल अथवा लेखनकाल का कोई उल्लेख नहीं है। किन्तु जिनसागर की अन्य जो रचनायें उपलभ्य हैं उनमें शक संवत् १६४६ से १६६६ तक के उल्लेख पाये गये हैं। कर्ता ने अपने गुरु देवेन्द्रकीर्ति का भी उल्लेख किया है जो निश्चयतः कारंजा के मूलसंघ बालात्कार गण की भट्टारक गद्दी पर शक संवत् १६२१ से १६५१ तक विराजमान थे । चूंकि जिनसागर ने अपनी यह रचना उन्हें ही समर्पित की थी और उस समर्पण का चित्रण भी ग्रंथ के अन्त में पाया जाता है, अतः सिद्ध है कि यह रचना शक १६५१ से पूर्व ममाप्त हो चुकी थी। आश्चर्य नहीं जो प्रस्तुत हस्त-लिखित प्रति स्वयं उसके कर्ता जिनसागर के हाथ की ही हो, और चित्र भी उन्हीं के बनाये हुए हों। चित्रों को शंलो भी शक संवत् की १७हवीं शती की है । चित्रों के रंग चटकीले हैं । पुरुषों और स्त्रियों की प्राकृतियों के अंकन में सावधानी बरती गई है । यद्यपि रेखांकन स्थूल है, तथापि भावों के प्रदर्शन में चित्रकार को पर्याप्त सफलता मिली है । पुरुषों की पगड़ियां छज्जेदार और लम्बे चोगे पैरों के टहनों तक लटकते हुए हैं । ये ईसवी की १८ वीं शती के प्रारंभ की चित्र-शैली के लक्षण हैं। अन्य सभी बातों में भी चित्र उक्त काल की दक्षिण भारतीय मराठा शैली के हैं । उक्त संपूर्ण पुस्तक उसके लेख व चित्रों सहित यहाँ छाया चित्रों में भी प्रस्तुत की जा रही है । हमारी इच्छा थी कि ये सभी चित्र उसके मौलिक रंगीन रूप में ही छापे जाय । किन्तु रंगीन ब्लाकों के निर्माण ब छपाई के अत्यधिक खर्च को देखते हुए यह निश्चय किया गया कि केवल चार चित्र रंगीन रम्ने जाय जो चित्रों में रंगों के प्रयोग को सूचित करने के लिये पर्याप्त होंगे। इसी कारण प्रस्तुत चित्र-परिचय में रंगों की सूचना पर विशेष ध्यान दिया गया है। चित्रों को अन्य विशेषताएँ उनके साक्षात् दर्शन से अवगत हो ही जावेगी। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ] [ सुगंधवश्मी कथा पृ० १ चित्र-१ श्री जिनेन्द्र देव लाल पृष्ठभूमि के ऊपर श्वेत और पीले रंग के चित्र, बीच में पद्मासन में तीर्थकर, और उनके ऊपर तीन छत्र, जिनसे काले फुदने लटकत दिखाये गये है। जिन भगवान् के दाहिनी और बांयी ओर दो पाचचर सेवक हैं, जो लम्बे पीले रंग के अंगरखे पहने है । उनके सिर पर पगड़ी और कमर में काला पटका बंधा है । एक के अंगरखे पर काली बुंदकियां और दूसरे पर काली धारियां हैं। मूल के अनुसार वे चामरग्राही मुद्रा में हैं। प्राकार ५३४५ इंच । पृ० २ चित्र २ शारदा देवी नीली पृष्ठभूमि पर लाल रंग की साड़ी पहने हंस वाहन पर चतुर्भुजी भगवती शारदा का चित्र है । वे दो हाथों में वीणा लिये हैं, तीसरा हाथ वीणा के तारों पर है, और चौथा ऊपर को उठा है। उनके पीछे चामर ग्राहिणी मुद्रा में अनुचरी है, जिसके बायें हाथ में प्रारती है । सामने लाल रंग का चोगा पहने एक पुरुष उनकी आराधना कर रहा है । आकार ४४५ इंच । पृ० २ चित्र ३ गुरु द्वारा भक्तों को सुगंध दशमी कथा का उपदेश एक मंडप के नीचे धर्म गुरु ऊंचे प्रासन पर विराजमान हैं। उनके श्वेत शरीर पर हरे रंग का वस्त्र और पीछे पीले रंग का बड़ा तकिया है। वे धर्मोपदेश मुद्रा में है । सामने दो भक्त अंजलि मुद्रा में घुटने मोड़कर बैठे हुए उपदेश सुन रहे हैं । एक लाल तथा दूसरा हरा अंगरखा पहने हैं। एक का वर्ण श्वेत तथा दूसरे का काला है। मंडप के ऊपर गहरे बैंगनी रंग में आकाश का चित्रण है। धर्मगुरु का प्रासन भी इसी रंग का है । प्राकार ४४५ इंच। पृ० ३ चित्र ४ वाराणसी के राजा पद्मनाभि और उनकी पत्नी श्रीमती षट्कोण भवन में मंडप के नीचे राजारानी गद्देदार ग्रासनों पर बैठे हैं । चित्र की पृष्ठभूमि बाहर गहरे नीले और भीतर हलके हरे रंग की है । प्रासन का रंग बैंगनी है। राजा का अंगरखा हलके बैगनी रंग का तथा रानी की साड़ी लाल रंग की है । रानी की चामरग्राहिणी पीले रंग के वस्त्र पहने है । मंडप के ऊपर कलश है, जिस पर सुनहली बंद किया हैं । चित्र के निचले भाग में तीन परिचारिकायें जल भरने के लिये घट लेकर आयीं हैं । दाहिनी ओर की पृष्ठभुमि बैंगनी और बांई ओर की नीली है । दासियों के घाघरे और चोलियों व प्रोदनी में लाल, गहरे हरे और पीले रंगों का प्रयोग हुया है। प्राकार ८४५ इंच । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र-परिचय ] पृ० ४ चित्र ५ राजा-रानी का वन विहार चित्र की पृष्ठ भूमि नीले रंग की है। ऊपर के भाग में वनवृक्षों का दृश्य है। नीचे दो घोड़ों और दो पहियों से युक्त रथ है । रथ के ऊपर शिखर है । उसके प्रागे के ईषा भाग (धुरों) पर सारथी बैठा है। सामने एक अग्नेसर सेवक है । नीचे के भाग में तुरही फूकता हुमा एक पुरुष लाल धारीदार अंगरखा पहने हुये चल रहा है । चित्र में दाहिनी ओर एक सिंह पीर एक गुरु: निसाना राम : गह का बिहार के दृश्य से संगत है । चित्र में रथ का चौकोर बिन्यास उत्तम है, जिसके भीतर के उपस्थ भाग में राजा और रानी अंकित किये गये हैं 1 प्राकार ८४५ इंच। पृ. ५ चित्र ६ राजा-रानी को सुदर्शन मुनि का दर्शन पृष्ठभूमि का रंग नीला है । मासोपवासी मुनि का शरीर पुष्ट बनाया गया है । उनके पीछे एक वृक्ष है। वे दिगंबर है । उन्हें देखकर राजा ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। राजा का धारीदार अंगरखा लाल रंग का है। उस पर हरे रंग का पटका है। रानी की साड़ी गहरे बैंगनी रंग की है । उसके पीछे भी वृक्ष बना है । प्राकार ३४५ इंच । पृ० ५ चित्र ७ राजा के प्रादेश पर रानी घर को लोटी _पृष्ठ भूमि हलके हरे रंग की है । चित्र में दाहिनी ओर राजा और रानी वृक्ष के नीचे खड़े परामर्श कर रहे है । दांयी ओर राजा के प्रादेशश से सनी मुनि को प्राहार कराने के लिये घर को लौट रही है। राजा का अंगरखा हलके बैंगनी रंग का सुनहले बुंदकोंदार तथा पगड़ी लाल है । रानी की साड़ी नीली और प्रोढ़नी तथा लहंगे के सामने का पटका लाल है। नीचे की भूमि गहरे बैंगनी रंग को है । प्राकार ४४५ इंच । पृ० ६ चित्र मनि की पड़गाहना और कड़वी तंबी का प्राहारदान हल्के हरे रंग की पृष्ठभूमि में मंडप के नीचे मुनि विराजमान हैं । सामने राजपुरुष हाथ जोड़े खड़ा है। मंदिर की गुम्मट लाल रंग की है । नीचे बैंगनी रंग का वितान है । मुनि का भरीर श्वेत वर्ण का है । उनके बांये हाथ में पीछी है, और सामने कमंडल रखा है । पीछे गोल (गेंहुवा) तकिया है । राजा का अंगरखा गहरे हरे रंग का है । चित्र के निचले भाग में रानी एक ओर कड़वो तूंबी लिये हुये है, और उसके सामने काटने के लिये औजार रखा है, और दूसरी पोर रानी मुनि को उसका पाहार करा रही है । चित्र की पृष्ठ भूमि लाल रंग की है, और कार बेंगनी रंग का वितान है। प्राकार ८४५ इंच । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सुगंधवशमी कपा पृ० ७ चित्रह मुनि को पीड़ा और वमन पृष्ठ भूमि पीले रंग की है । मुनि खड़ी हुई मुद्रा में हैं, और पीछे एक लघु मुनि पीछी लिये खड़े हैं, समाचार सुनकर बहुत से भक्त पाये हैं, जिनमें चार दिखाये गये हैं। उनमें दो के अंगरखे हरे, एक का हलका बैंगनी तथा एक का लाल है। ऊपर दांयी ओर जिनेन्द्र की बेदिका है, और नीचे बांयी ओर मंदिर में जाने का प्रवेश द्वार है । प्राकार ५३४५ इंच । पृ० ८ चित्र १० राजा का हाथ जोड़कर मनि से क्षमा-याचना नीले रंग की पृष्ठ भूमि में उद्यान का दृश्य । एक अोर मुनि, बीच में राजा और उन के पीछे बाघ का अंकन है । मनि का अंग गहरा बैंगनी, राजा के अंगरखे का लाल और बाघ का पीला है । प्राकार ५४ ३१ इंच । पृ० ८, चित्र ११ राजा का क्रोध और रानी का सौभाग्य-हरण हलके हरे रंग की पृष्ठभूमि पर गहरे बंगनी रंग से महल काप्रदर्शन । रानी बैठी हुई और राजा खड़े हैं । राजा कशा रानी का सौभाग्य लेकर उसे निष्कासित कर रहे हैं । रानी की साड़ी नीली और राजा का अंगरखा पीले रंग का तथा पटका नीला है । राजा के पीछे मंत्री और उसके पीछे एक चमर ढोरने वाली अनुचर है । उसके शरीर का रंग नीला व जांघिया लाल धारीदार है । प्राकार ५४३ इंच । पृ० ६ चित्र १२ रानी मरकर भैंस हुई चित्र की पृष्ठ भूमि हलके हरे रंग की है । मंडप की पृष्ठभूमि में गहरा बैंगनी रंग है । पापिनी रानी मन में सोच रही है । उसके पीछे मंडप से बाहर एक भैस दिखाई गई है । भैस का रंग गहरा काला है । आकार ५४४ इंच ।। पृ० ६ चित्र १३ भैस कीचड़ में फंसी चित्र की पृष्ठभूमि नीले रंग की है । उसके ऊपर कीचड़ का तालाब महरे बैंगनी रंग का, और उसमें फंसी हुई भंस काले रंग की है । आकार ५४२ इंच । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र-परिचय ] पृ० १० चित्र १४ रानी ने मरकर घड़ियाल का जन्म लिया नीले रंग की पृष्ठ भूमि में सरोवर और उसके पीछे बैंगनी रंग की पृष्ठ भूमि में उद्यान दिखाया गया है। सरोवर में मछली, कछुआ और घड़ियाल दिखाये गये हैं। प्राकार ५३४२३ इंच । पृष्ठ १० चित्र १५ रानी ने मरकर सांभर की पापयोनि में जन्म पाया नीले रंग की पृष्ठ भूमि पर उद्यान का चित्रण, जिसमें पांच वृक्ष हैं । बीच के वृक्ष का रंग हलका हरा और शेष का गहरा हरा और पीला है। सांभर का रंग भी पीला है । प्राकार ५३४३ इंच । पृ० ११ चित्र १६ रानी ने दुर्गन्धा चाण्डाल कन्या का जन्म पाया हरपीजीले रंग की पृष्ठभूमि पर दो साल के इश हैं । बीच में एक भीमकाय चांडाल कन्या है, जो हाथ में कुल्हाड़ी लिये एक व्याघ्र पर प्रहार कर रही है। उसका शरीर गहरे बैंगनी रंग का है। वह लाल रंग की चोली और पीले रंग का जांघिया पहने है । व्याघ्र का रंग पीला और धारियां लाल और बंदके काले हैं। प्राकार ६४४१ इंच । पृ० ११ चित्र १७ बुर्गन्धा के विषय में गुरु से शिष्य का प्रश्न नीले रंग की पृष्ठभूमि पर दो वृक्षों वाले उद्यान का चित्रण है । दांयी ओर श्रुतसागर मुनि बैठे हैं । सामने उनका शिष्य खड़ा है, और पापिनी चांडाल कन्या के विषय में पूछ रहा है । गुरु और शिष्य दोनों का शरीर बैंगनी रंग का है। गुरु का प्रासन लाल रंग का है । प्राकार ६४४ इंच । पृ० १२ चित्र १८ चाण्डाल कन्या का मुनि-दर्शन और धार्मिक भाव नीले रंग की पृष्ठभूमि में एक उद्यान है । वृक्ष के नीचे मुनि और उनके शिष्य खड़े हैं। एक ओर चांडाल कन्या हाथ जोड़कर मुनि की वंदना कर रही है। गुरु-शिष्य का शरीर श्वेत रंग का और चांडाल कन्या का बैंगनी रंग का है । चांडाल कन्या के पीछे जंगल से लाई हुई लकड़ियों का गट्ठर है। मुनि ने चांडाल कन्या के पूर्व जन्म का वृत्तान्त कहा और उसने व्रत धारण किये । प्राकार ७४६ इंच। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सु .मी कथा पृ० १३ चित्र १६ उज्जयिनी में सुदर्शन मनि का उपदेश नीले रंग की पृष्ठभूमि पर उद्यान में एक और लाल वस्त्रों से आच्छादित गुरु बैठे हैं । उनके सम्मुख चार भक्त हाथ उठाये व जोड़े उनकी वन्दना कर रहे हैं। भक्तों में दो के अंगरखे लाल, एक का हरा तथा एक का अधोवस्त्र हरे रंग का है। चारों की पगड़ियों के रंग व रचना भिन्न है । प्राकार ६४५ इंच । पृ० १४ चित्र २० रानी का मुनिदर्शन, पूर्व-भव स्मरण और मूर्छन तथा राजा का मुनि से प्रश्न __ नीले और बैंगनी रंग की पृष्ठभूमि पर उद्यान में एक प्रोर सुदर्शन मुनि बैठे हैं । उनके दर्शन से रानी को अपने पूर्व भवों का स्मरण हुअा और वह मूछित होकर भूमि पर गिर गयो । मुनि के सामने राजा अपने दो अनुचरों के साथ उसके भवान्तरों के विषय में पूछ रहे हैं । मुनि का रंग श्वेत और राजा के अंगरखे व पगड़ी का रंग लाल है। उसके अनुचर हलके बैंगनी और नीले रंग के वस्त्र पहने हैं। तीनों की पगड़ियां लाल हैं। नीचे दांयी ओर के कोने में मोर-मोरनी के चित्र हैं । राजा के पूछने पर मुनि ने दिव्य वाणी से रानी के पूर्व जन्मों की ऋमिक कहानी बतायी, जिसे सुनकर राजा को प्राश्चर्य हुआ, और राजा ने उस पाप से मुक्ति का उपाय पूछा । प्राकार ६१४५३ इंच। पृ० १५ चित्र २१ विद्याधर का आगमन नीले रंग की पृष्ठभूमि पर विमान-स्थित विद्याधर । उसके सामने प्राकाश में चन्द्रकला लिखी हुई है । नीने कई वृक्षों से भरा उद्यान है। उस में बैठे हुये मुनि, राजा मंत्री और रानी को सुगंधदशमी का उपदेश दे रहे हैं। राजा का वेश हरे रंग का, मंत्री का लाल रंग का और रानी का पीले रंग का है, जिस पर काली रेखाओं से चौखाना बनाया गया है । प्राकार १४६ इंच । पृ० १७ चित्र २२ ___ राजा-रानी को सेठ जिनदास और सेठानी का अभिवादन राजा-रानी ऊंचे प्रासन पर बैठे हैं, और सामने से जिनदास और उनकी पत्नी अभिवादन कर रहे हैं । आसन से नीचे धरातल में एक पलाना घोड़ा बना है। चित्र में राजा का महल और मंडप दिखाये गये हैं। पृष्ठ भूमि का रंग गहरा बैंगनी व निचले भाग का पीला है । राजा का अंगरखा हलके बैंगनी रंग का, रानी का घाघरा हरा काली धारियों वाला और चोली पीली लाल धारियों वाली है। सेठ का अंगरखा लाल, पीले बंदकों सहित व सेठानी का घाघरा लाल व हरी चोली तथा प्रोढ़नी बैंगनी रंग की है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र-परिचय ] [ ७ राजा के तकिये का रंग हरा और रानी के तकिये का हलका बैंगनी है। पीली पृष्ठभूमि पर घोड़े का रंग नीला है व पलारण बैंगनी धारियों से बनाया गया है, जिसकी गोट में पीले रंग के बुंदके हैं । प्राकार ५६ इंच | पृ० १८ चित्र २३ सेठ जिनवास और उनकी द्वितीय पत्नी रूपिणी नीले रंग की पृष्ठ भूमि पर एक ओर सेठ जिनदास बैठे हैं । उनका अंगरखा हरे रंग का धारीदार और फेंटा लाल रंग का है । उनके पीछे उनकी दूसरी पत्नी का चित्र है, जो घर के भीतर बैठी है। सेठानी का घाघरा लाल और चोली हरी व प्रोढ़नी बैंगनी रंग की है। बाहर उद्यान में एक हरा वृक्ष है, जिसके कुछ पत्ते पीले पड़ गये हैं व पृष्ठ भूमि का रंग गहरा बैंगनी है। प्राकार ७ X ५३ इंच । पृ० १६ चित्र २४ सेठ जिनवास का मित्रों से परामर्श हलके हरे और पीले रंग की पृष्ठ भूमि में बैठे हुए सेठ जिनदास अपने दो मित्रों से परामर्श कर रहे हैं । सेठ जी का अंगरखा गहरे बंगनी रंग का है। सामने दो पुरुषों में से एक का नीले रंग का व दूसरे का बैगनी रंग का है। तीनों व्यक्ति कमर पटका बाँधे हैं। आकार ५ X ३ इंच । पृ० १९ चित्र २५ कन्या जन्म हलके हरे और पीले रंग की पृष्ठ भूमि में सेठ की पत्नी के कन्या जन्म का दृश्य है । सेठानी दाहिनी ओर चौकी पर बैठी है । गोद में कन्या है । सामने पूर्ण घट लिये परिचारिका खड़ी है । वह बैंगनी रंग का सर्वांग चोगा पहने है। प्रोढ़नी का रंग लाल है, जिस पर काले बुंदके हैं। सेठानी का घाघरा हरे रंग का और चोली बैंगनी रंग की, तथा ओढ़नी लाल रंग की है । कन्या का मुख श्याम वर्ण है, और उसका शेष शरीर लाल वस्त्र से आच्छादित है । ग्राकार ५X४ इंच | पृ० २० चित्र २६ रूपिणी का अपनी कन्या से पक्षपात पृष्ठभूमि का रंग गहरा बैंगनी है । दाहिनी ओर जिनदास गेडुवा तकिया लगाये बैठा है। उसका जामा और पगड़ी दोनों नीले रंग के और दुपट्टा बेंगनी रंग का है। उनकी पत्नी कन्या से द्वेष करती है, और अपनी पुत्री को चात्र से सब कुछ लेती देती है । सेठ यह सब देखकर वेद खिम्न है। इस द्वितीय पुत्री का वर्ण काला और वस्त्र हरा है । रूपिणी हलका बैंगनी और पीला घाघरा और लाल चोली पहने है । उसका वर्ण श्वेत है । प्राकार ५X३३ इंच 1 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सुगंधवशमी कथा पृ० २० चित्र २७ सेठ जिनदास सुगंधा साहित अलग रहने लगा हरी पृष्ठ भूमि में एक और जिनदास सेठ, दूसरी ओर सुगंधा बैठी है । उसकी पृष्ठ भूमि बैंगनी है । सुगंधा अलग अन्न-पान बनाने लगी, जिससे उनके पिता को सुख हुना। माकार ५४३ इंच। पृ० २१ चित्र २८ रूपिणी का कोप चित्र के प्राधे भाग की पृष्ठ भूमि नीली और आधे भाग की बैंगनी है । बीच में जिनदास सेठ पीला वस्त्र पहने खेद-खिन्न खड़े हैं। उनके पीछे उनकी दूसरी पुत्री लाल चोली और पोला घाघरा पहने खड़ी है । दांयी ओर रूपिणी क्रोध की मुद्रा में खड़ी हुई वस्त्र की झोली में कुछ लिये है। उसका घाघरा लाल और प्रोदनी बैंगनी रंग की है । प्राकार ५४३ इंच । पृ० २१ चित्र २६ राजा की सेठ जिनवास को द्वोपान्तर जाने की प्राज्ञा हलकी बैंगनी पृष्ठ भूमि पर एक पोर राजा बैठे हैं । उनका तकिया लाल और वेश नीला है । उनके सामने हाथ जोड़े सेठ बैठा है, जिसे वे द्वीपांतर जाने का आदेश दे रहे हैं । सेठ की पगड़ी और अंगरखा धारीदार पीले रंग के हैं । आकार ५४३१ इंच । पृ० २२ चित्र ३० सेठ जिनदास द्वारा रूपिणी को अपने विदेश-गमन की सूचना नीले रंग की पृष्ठ भूमि पर रूपिणी लाल रंग के गेडुए तकिया का सहारा लेकर बैठी है । उसको चोली लाल रंग की, लंहगा धारीदार हरे रंग का और सितारेदार ओढ़नी बैंगनी रंग की है । सेठ का तकिया और पगड़ी लाल हैं, और अंगरखा पीले रंग का है, जिस पर लाल बूटी की छपाई है। प्राकार ५४३१ इंच । पृ० २२ चित्र ३१ सेठ जिनदास का प्रस्थान नीले रंग की पृष्ठ भूमि पर जिनदास और उसकी पत्नी । सेठ पीला अंगरखा पहने द्वीपांतर को जा रहे हैं । पीछे अंजलि मुद्रा में खड़ी उनकी पत्नी उन्हें विदा दे रही है । स्त्री की ओढ़नी बैंगनी रंग की तथा घाघरा गहरे हरे रंग का है । चोली और सामने का लटकता फड़का लाल रंग का है । आकार ५४ ३३ इंच । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र-परिचय ] पृ० २३ चित्र ३२, यर का कन्या-दर्शन गुणपाल नामक कुमार विवाह की दृष्टि से कन्या को देखने के लिये पाया । रूपिणी ने श्यामा को आगे तया सुगंधा को पीछे करके गुणपाल को दिखलाया। चित्र में नीले रंग की पृष्ठ भूमि पर महल का अंकन है । उस में नीली पृष्ठभूमि में रूपिणी खड़ी है । उसके सामने गुणपाल की ओर मुंह करके सुगंधा तथा झ्यामा बैठी हैं । दांयी ओर नीली पृष्ठ भूमि में गुणपाल बैठा है । गुणपाल की पगड़ी और धारीदार अंगरखा लाल रंग का है, तथा हरे रंग का पट का कमर में बाँचे हैं । इसके आसन का रंग भी गहरा हरा है । रूपिणी का संहगा लाल रंग का है, जिस पर हरे रंग का फड़का है। कन्याओं में सुगंधा के वस्त्र लाल तथा श्यामा के गहरे हरे हैं । प्राकार ६ x ६ इंच । पृ० २४ चित्र ३३ विवाह मंडप, रूपिणी द्वारा सुगंधा का अपनयन नीले रंग की पृष्ठभूमि में विवाह मंडप है । दाहिनी ओर रूपिणी सुगंधा का हाथ पकड़कर उसे घर से बाहर ले जा रही है। रूपिणी गहरे बैंगनी रंग की बुंदकीदार प्रोढ़नी, धारीदार, पीली चोली तथा हरे रंग का घाघरा पहने है, और उसके ऊपर हलके बैंगनी रंग का फड़का है । सुगंधा पीले रंग का घाघरा और लाल चोली पहने है । चित्र के निचले भाग में गहरे रंग के दो गेडुवे तकिये ,रखे हैं। उन्हीं के पास में पीले रंग का एक चंगेरी सा कुंड रखा है । प्राकार ८४६ इंच । पृ० २५ चित्र ३४ रूपिणी ने सुगंधा को श्मशान में जा बैठाया नीले रंग की पृष्ठभूमि में वैवाहिक आयोजन का दृश्य । चारों दिशाओं में चार दोपाधारों पर दीप प्रचलित हैं, तथा चारों दिशाओं में चार ध्वजायें लगायी गयी हैं। बीच में सजी हुई सुगंधा बैठी है । उसकी धारीदार गहरे रंग की चोली और लंहगे पर बुंदकियां हैं । वह बैंगनी रंग की प्रोढ़नी प्रोड़े है। सामने उसकी माता रूपिणी खड़ी है । कपट-हृदय रूपिणी ने सुगंधा को इस रात्रि में श्मशान में रखा । आकार ६४.५६ इंच । पृष्ठ २५ चित्र ३५ रूपिणी का कपट शोक - बैंगनी रंग की पृष्ठभूमि में । रूपिणी अन्य दो महिलाओं के सम्मुख झूठमूठ रो रही है कि सुगंघा विवाह के समय पता नहीं कहां चली गयी । रूपिणी सिर पर हाथ लगाये खेद प्रदर्शित कर रही है, तथा सामने बैठी दो स्त्रियां उसे समझा रहीं हैं। तीनों सुसज्जित स्त्रियां धारीदार लाल वस्त्र पहने हैं, और गहरे बैंगनी रंग की प्रोढ़नी ओढ़े हैं। आकार ६४२३ इंच। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ] पृष्ठ २६ चित्र ३६ महाजन की सहानुभूति सुगंधा का समाचार सुनकर संबंधी खिन्न हुए । चित्र की पृष्ठभूमि नीले रंग की है। एक ओर पीली पृष्ठभूमि में लाल रंग की धारीदार चोली और घाघरा पहने हरे रंग के तकिये के सहारे रूपिणी बैठी है। सामने गहरे हरे रंग की पगड़ी और बुंदकीदार चोगा पहने एक पुरुष खड़ा हुआ खेद व्यक्त कर रहा है। प्राकार ७ X ३ इंच । पृ० २७ चित्र ३७ [ सुगंधदशमी कथा राजा-रानी नीले रंग की पृष्ठभूमि में ऊपर आधे चित्र में राजा-रानी बैठे हैं । निचले आधे में महल के दो द्वार दिखाये गये हैं । राजा गहरे रंग का लम्बा चोगा पहने है, तथा सिर पर लाल पगड़ी है । पीछे हरा गेहुआ तकिया रखा है । रानी लाल रंग के धारीदार वस्त्र पहने है, तथा बुंदकीदार बैंगनी प्रोढ़नी घोड़े है । वाजाने प्रपने महत र के मकान में सुगंधा को देखा और वह चकित रह गया । प्राकार ७ X ३ इंच | पृ० २८ चित्र ३८ श्मशान में राजा की सुगंधा से भेंट नीले रंग की पृष्ठभूमि में सुगंधा बैठी है, तथा सामने एक हाथ में शस्त्र लिये राजा प्रश्न - मुद्रा में खड़ा है । ऊपर आकाश में चंद्रमा खिला है। राजा का धारीदार चोगा और पगड़ी बैंगनी रंग के है, तथा गले में छापेदार दुपट्टा और कमर में गहरे हरे रंग का पटका बांधे है । सुगंधा लाल रंग की धारीदार चोली और प्रधोवस्त्र पहने है, तथा बैंगनी रंग की घोनी घोड़े है । आकार ७३ X ५३ इंच । पृ० २६ चित्र ३६ सुगंधा का स्वयंवररण राजा ने सुगंधा से उसके पिता के द्वीपान्तर जाने तथा विमाता रूपिणी द्वारा बर की प्रतीक्षा में श्मशान में प्राने का समाचार सुनकर स्वयंवरण करना स्वीकार कर लिया । गहरे बैंगनी रंग की पृष्ठभूमि में ऊंचे पीले धारीदार मूढ़े पर सुगंधा बैठी है, और सामने स्वीकृति रूप हस्त-स्पर्श करता हुआ राजा खड़ा है । राजा हल्के बैंगनी रंग का चोगा पहने है, तथा दाहिने हाथ में शस्त्र लिये है । सुगंधा के वस्त्र लाल रंग के और लोहनी गहरे बैंगनी रंग की है, जिस पर सफेद बुंदकियां हैं। आकार ६४५३ इंच | Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र-परिचय 1 पृ० ३० चित्र ४० [ " राजा और सुगंधा पति-पत्नी के रूप में राजा ने सुगंधा के साथ विवाह कर लिया । नीली पृष्ठभूमि में राजा और सुगंधा हैं । राजा ने सुगंधा को गोद में बिठाकर गले में हाथ डाल रखा है। राजा लाल रंग का धारीदार चोगा पहने है । सुगंधा के वस्त्र पीले रंग के है, और वह एक बहुत झीनी ओढ़नी है। दोनों ओर दो ध्वजायें हैं । श्राकार ५३ x ४३ इंच | पृ० ३० चित्र ४१ राजा का सुगंधा को श्रात्म- परिचय सुगंधा के यह पूछने पर कि वह कौन है, राजा ने अपने को ग्वाला (महिषीपाल ) बताया । नीली पृष्ठभूमि में दो गेडुए तकियों के सहारे राजा और सुगंधा श्रामने-सामने बैठे हैं। दोनों के धारीदार वस्त्र लाल रंग के हैं, तथा राजा गहरे हरे रंग का पटका कमर में बांधे है । सुगंधा गहरे बेंगनी रंग की बुंदकीदार मोदमी ओढ़े है । श्राकार ५३ X ३ इंच | पृ० ३९ चित्र ४२ सुगंधा का राजा को रोकना व राजा का श्राश्वासन नीले रंग की पृष्ठभूमि में सुगंधा तथा राजा बैठे हैं । राजा गहरे बैंगनी रंग का चोगा पहने है, जिस पर पीले रंग का छापा है। सुगंधा के वस्त्र गहरे हरे रंग के हैं, तथा बैंगनी रंग की छापेदार झीनी ओढ़नी है । घाघरे के ऊपर लाल रंग का फड़का है। प्राकार ५ X ३३ इंच पृ० ३१ चित्र ४३ राजा की बिदाई नीली पृष्ठभूमि में सुगंधा और राजा खड़े हैं । उसका दाहिना हाथ सुगंधा के दाहिने हाथ पर है। राजा सुगंधा को पुनः भाने का आश्वासन देता है । राजा का धारीदार अंगरखा लाल रंग का है, तथा कमर के पटके और शिरो बन्धन का रंग गहरा हरा है । सुगंधा का घाघरा लाल, सामने का फड़का गहरा हरा तथा बुंदकीदार प्रोढ़नी बैंगनी रंग की है । श्राकार ५ X ३३ इंच 1 पृ० ३२ चित्र ४४ राजा द्वारा सुगंधा का अलंकरण । नीली पृष्ठभूमि में राजा सुगंधा को आभूषण पहना रहा है । राजा का अंगरखा गहरे हरे रंग का है । उसके पीछे एक गेहुआ तकिया रखा है। सुगंधा पीले रंग के वस्त्र पहने हैं, जिनपर लाल धारियां हैं। प्राकार ५५ X ३३ इंच | Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] पृ० ३२ चित्र ४५ देखकर सेठ और सेठानी की सुगंधा के अलंकारों के विषय में चिता । सेठ बिदेश यात्रा से लौटकर गुगंधा के पास हुआ । नीली पृष्ठभूमि में सुगंधा हाथ जोड़े खड़ी है। सामने बैंगनी रंग की पृष्ठभूमि में सेठ जिनदास और रूपिणी डुए तकिए के सहारे बैठे हैं। जिनदास का अधोवस्त्र लाल रंग का धारीदार तथा रूपिणी के वस्त्र गहरे हरे रंग के हैं । सुगंधा लाल रंग की चोली और लहंगा पहने है व पीले रंग का फटका है । वह बैंगनी रंग की बुंदकीदार मोहनी बोदे है। आकार ५३ २४ इच । पृ० ३३ चित्र ४६ [ सुगंधवशमी कथा अलंकारों पर राजा की मुद्रा देख उनकी चिता बढ़ी । हरे रंग की पृष्ठभूमि में सेठ जिनदास तथा रूपिणी बड़े-बड़े गेडुए तकियों के सहारे बैठे हैं, और दांयी ओर सुगंधा खड़ी है। सेठ जिनदास रूपिणी से कह रहा है कि इन आभूषणों पर राजा की मुद्रा है, पता नहीं किस चोर ने सुगंधा को लाकर दिये हैं । सेठ का धारीदार अंगरखा और पगड़ी तथा सुगंधा के वस्त्र लाल रंग के हैं। रूपिणी के वस्त्र बैंगनी रंग के हैं । आकार ५४३ इंच । पृ० ३३ चित्र ४७ सेठ जिनदास ने जाकर राजा को यह वृत्तान्त सुनाया । हरे रंग की पृष्ठभूमि पर एक ओर राजप्रासाद में गेडए तकिए के सहारे राजा बैठा है तथा सामने हाथ जोड़े सेठ जिनदास खड़ा है। दोनों के अंगरखे धारीदार तथा बैंगनी रंग के हैं। सेठ की पगड़ी लाल रंग की है। आकार ५४३ इंच | पृ० ३४ चित्र ४८ राजा द्वारा भोज के आयोजन का सुझाव और सेठ की प्रसन्नता नीली पृष्ठभूमि में अंजलिमुद्रा में सेठ जिनदास खड़ा है, तथा सामने भवन में बंगनी पृष्ठभूमि में गेहुए तकिये के सहारे श्रादेश मुद्रा में राजा बैठा है । राजा का अंगरखा धारीदार तथा लाल रंग का है, तथा सेठ का बैंगनी रंग का । आकार ६x४ इंच | पृ० ३४ चित्र ४६ भोज का आयोजन हरे रंग की पृष्ठभूमि में भोज के लिये अतिथि प्राये हैं। बांयी ओर सेठ जिनदास हाथ जोड़े खड़ा है, और सामने चार पुरुष बैठे हैं। इनमें दो के वस्त्र लाल और पगड़ी नीले रंग की है, तथा दो के वस्त्र पीले रंग के हैं । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र-परिचय [ " पृ० ३५ चित्र ५० भोज में राजा भी शामिल हुआ नीले रंग की पृष्ठभूमि में चित्र के ऊपरी अर्धभाग में बांयी ओर भवन में सुगंधा गेडुबे तकिये के सहारे बैठी है, तथा दाहिनी ओर राजा हाथ में जल भरा घट लिये खड़ा है। सुगंधा ने कहा कि वह केवल पैर धोने पर अपने वर को पहचान सकती है । श्राकार पृ० ३५ चित्र ५१ सेठ जिनदास द्वारा अभ्यागतों का स्वागत ___ पृष्ठभूमि बैंगनी रंग की है। एक ओर जिनदास हाथ जोड़े खड़ा है। सामने तीन व्यक्ति प्राश्चर्य मुद्रा में बैठे हैं । जिनदास हलके बैंगनी रंग का अंगरखा पहने है । एक पुरुष का चोगा लाल रंग का है जिस पर धारी और बुंदकियां हैं, एक का बैंगनी रंग का । तथा एक की धोती लाल है। सबकी पगड़ियाँ लाल रंग की हैं । प्राकार ५३४३३ इंच।। पृ० ३६ चित्र ५२ चरणस्पर्श से पति की पहचान संबंधी योजना से सभी को आश्चर्य बैंगनी रंग की पृष्ठ भूमि पर दो पुरुष तथा दो स्त्रियां आमने-सामने आश्चर्य मुद्रा में खड़ी हैं । एक पुरुष गहरे, तथा दूसरा हलके हरे रंग का अंगरखा पहने हैं। दोनों की पगड़ियाँ लाल रंग की हैं । एक स्त्री गहरे हरे रंग की चोली और लाल रंग का लहंगा पहने है, जिस पर सामने हरा पटका है। दूसरी लाल रंग की चाली और गहरे हरे रंग का घाघरा पहने है, जिस पर लाल पटका है । आकार ५१४३१ इंच। पृ० ३६ चित्र ५३ पैर धोने पर पति को पहिचान पृष्ठभूमि नीली रंग की है । बांयी ओर गेडुए तकिये के सहारे सुगंधा बैठी है । इसकी चोली और घाघरा धारीदार लाल रंग का है, तथा बैंगनी रंग की छापेदार झीनी मोढ़नी है । सामने चौकी पर राजा खड़ा है। उसके पैर धोने के लिये जल भरा टोंटीदार कलश रखा है। राजा की पगड़ी और धारीदार अंगरखा लाल रंग का है, जिस पर सफेद बुंदकियां हैं । राजा के पीछे एक चामरग्राहगी परिचारिका खड़ी है। इसको चोली और घाघरा पीले रंग के हैं, तथा ओढ़नी और पटका हलके हरे रंग के हैं । प्राकार ५३४५ इंच । पृ० ३७ चित्र ५४ __ राजा द्वारा सुगंधा के पारिण ग्रहण की स्वीकृति सेठ के महल में पीली पृष्ठभूमि में राजा गेडए तकिये के सहारे बैठा है । अधोवस्त्र हरा धारीदार है, और पटका बैंगनी रंग का है । सामने सुगंधा खड़ी है । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सुगंधदशमी कमा १४ ] उसका घाघरा हरा, धारीदार, चोली और पटका लाल व प्रोढ़नी झीनी लाल धारियों की है । अन्तःपुर में उसकी विमाता रूपिणी बैठी है, जो इस वृत्तान्त से प्रसन्न नहीं है । उसके वस्त्र लाल व प्रोढ़नी बैगनी रंग की है, व पृष्ठभूमि हलके बैंगनी रंग की है। प्राकार ६३ ४ ५ इंच पृ० ३७ चित्र ५५ सुगंधा के सौभाग्य की स्त्री-समाज में प्रशंसा नीली पृष्ठभूमि में चार स्त्रियां परस्पर वार्तालाप कर रही हैं। एक का अधोवस्त्र हरा धारीदार और चोली बैंगनी रंग की है। दूसरी और चौथी का अधोवस्त्र गहरे बैंगनी रंग का है, और चोली हलकी बैंगनी । तीसरी का अधोवस्त्र लाल, चोली हरी व प्रोनी बैंगनी बुंदकीदार है । प्राकार ६x२३ इंच । I पृ० ३८ चित्र ५६ सुगंधा का श्रृंगार सुगंधा वस्त्राभूषणों से अलंकृत की जा रही है । पृष्ठभूमि गहरे बैंगनी रंग की है। बैठी हुई सुगंधा तथा उसके पीछे खड़ी परिचारिका के वस्त्र लाल धारीदार और श्रोढ़नी बैंगनी रंग की बुंदकियोंदार है, उनके माथे पर कुंकुम की रेखा है । श्राकार ५ X ३ इंच | पृ० ३८ चित्र ५७ सुगंधा का भव पीली पृष्ठभूमि में सुगंधा कमलाकार आसन पर एक बड़े हरे गेडुए तकिये के सहारे बैठी है । बाजू में एक और लाल तकिया लगा है। उसके वस्त्र हरे रंग के धारीदार और प्रोढ़नी बैंगनी रंग की बुंदकियोंदार है, जिसके ऊपर पुनः भीनी प्रोढ़नी है । उसका दाहिना हाथ प्रदेश मुद्रा में है। सामने परिचारक अभिवादन मुद्रा में खड़ा है। वस्त्र लाल धारीदार और पटका गहरा हरा है । पीछे परिचारिका भ्रमर ढोल रही है। वह लाल अन्तर्वासक के ऊपर गहरे हरे रंग का चोगा पहने हैं । आकार ५३x४ इंच | पृ० ३६ चित्र ५८ सुगंधा का राजा के साथ विवाह नीले रंग की पृष्ठ भूमि पर बीच में ग्रामने-सामने मुख किए विवाह वेश में व पाणिग्रहण मुद्रा में सुगंधा और राजा खड़े हैं। सुगंधा के पीछे दो तथा राजा के पीछे तीन स्त्रियां विवाह आयोजन में शामिल होने के लिये प्रायों खड़ी हैं। सुगंधा और राजा के वस्त्र लाल रंग के हैं। सुगंधा हरे रंग की झीनी घोढ़नी ओहे है । चित्र में नीचे एक स्त्री और एक पुरुष नगाड़े बजा रहे हैं । प्राकार ५४५ इंच । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र-परिचय ] पृ ४० चित्र ५६ विमाता के अपराधों के लिये सुगंधा द्वारा राजा से क्षमा-याचना [ १५ नीले रंग की पृष्ठ भूमि पर दो प्रासादों का अंकन है । दाहिनी ओर के प्रासाद की पीली पृष्ठ भूमि में सुगंधा राजा से फिली के व्यवहार के लिये क्षमा मांग रही है । राजा नीले रंग के बड़े गेड़ए तकिए के सहारे बैठा है, और उसके सामने सुगंधा खड़ी है । पंगरखा लाल रंग का धारीदार है । यह कमर में हरे रंग का पटका बांधे है। सुगंधा पीले रंग की बोली तथा लाल रंग का घाघरा पहने है, जिस पर पीला पटका है । उसकी श्रोढ़नी बैंगनी रंग की है। चित्र में दांयी ओर प्रासाद की बैंगनी पृष्ठ भूमि में रूपिणी मुंह फेरे खड़ी है । उसकी श्रोदनी बैंगनी छापेदार तथा अन्य वस्त्र लाल रंग के हैं । आकार ७४५३ इंच । पृ० ४१ चित्र ६० सुगंधा राजा की पटरानी हुई नीले और बैंगनी रंग की पृष्ठ भूमि पर राजभवन मे काष्ठासन पर राजा और पटरानी सुगंधा बैठी है। पीछे एक परिचारिका खड़ी है। राजा का अंगरखा धारीधार लाल रंग का है । सुगंधा की चोली गहरे हरे रंग की तथा घाघरा पीले रंग का है, जिस पर पेदार पीला पटका है। श्रोढ़नी का रंग बेंगती है । आकर - X ५ इंच | पृ० ४२ चित्र ६१ गंधा की जिन भक्ति पटरानी सुगंधा जिल-मंदिर में प्रतिदिन धर्म-साधन के लिये जाने लगी । नीले रंग की पृष्ठ भूमि पर जिन मंदिर में तीर्थंकर देव विराजमान हैं, तथा उनके बांयी ओर अंजलि मुद्रा में सुगंधा खड़ी है। दाहिनी ओर तीन दिगंबर मुनि खड़े हैं। मंदिर के शिखर पर कलश है। प्राकार ६४४ इंच । पृ० ४२ चित्र ६२ सुगंधा का शास्त्रानुराग बैंगनी पृष्ठभूमि पर मुनिराज धर्मोपदेश कर रहे हैं, तथा हाथ में शास्त्र लिये अंजलिमुद्रा में सुगंधा खड़ी है। उसके पीछे तीन और स्त्रियां अंजलिमुद्रा में खड़ी हैं। मुनिराज का शरीर हलके पीत वर्ण का है। सुगंधा की चोली और घाघरा लाल रंग का तथा पटका गहरे हरे रंग का है। वह हलके बैंगनी रंग की बुंदकी दार ओढ़नी मोड़े है । सुगंधा के पीछे खड़ी स्त्रियों में एक की चोली लाल रंग की तथा घाघरा नीले रंग का है, जिसपर पीला पटका लटक रहा है। दूसरी स्त्री को चोली और घाघरा हरे रंग का तथा पटका लाल रंग का है । तीसरी स्त्री की चोली गहरे हरे रंग की तथा घाघरा पीले रंग का है, जिस पर लाल पटका लटक रहा है। आकार ६४४ इंच । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सुगंधवामी कथा पृ० ४३ चित्र ६३ देवागमन नीली पृष्ठभूमि पर जिनमंदिर में तीर्थकर देव विराजमान हैं । मंदिर के बैंगनी शिखर पर पीला कलश तथा ध्वजायें हैं । जार प्राकाश में एक विमान-स्थित देव है । विमान में लाल ध्वजायें तथा घंटियां लगी हैं। उस में बैठे देव के वस्त्र धारीदार हैं, और मुकुट लाल पीला है । सुगंधा और देव ने तीर्थंकर की वंदना की । प्राकार ८१ X ५ इंच । पृ० ४४ चित्र ६४ . सुगंधा और देव का सुगंधदशमो व्रत के फल के विषय में यार्तालाप देव ने सुगंधा को भवान्तरों की बात बतायी कि सुगंध दशमी व्रत के प्रभाव से वह देव हुआ है, और उसी त के प्रभाव से वह सुगंधा हुई है। लाल रंग की पृष्ठभूमि पर पीले फर्श पर गद्देदार तकियों के सहारे सुगंधा और देव बैठे हैं । सुगंधा को देव कह रहा है कि वह निरन्तर जिनदेव की आराधना-पूजा करे करावे । देव के वस्त्र लाल रंग के तथा सुगंधा के हरे रंग के हैं । चित्र के निचले अर्धभाग में बैंगनी. पृष्ठभूमि पर लाल फर्श पर सुगंधा बैठी है, और सामने वह देव एक हरे रंग का दिव्य वस्त्र प्रदान कर रहा है । प्राकार ६४६ इंच। पृ० ४५ चित्र ६५ देव का प्रयाण सुगंधा को दिव्य वस्त्र और ग्राभूषण देकर देव चला गया । नीले रंग की पृष्टभूमि में ऊपर आकाश में विमान में बैठा देव जा रहा है । देव के वस्त्र लाल छापेदार, पटका हरा तथा मुकूट हरे रंग का है । प्राकार ८४४ इंच । पृ० ४५ चित्र ६६ सुगंधा की ख्याति व लोक प्रियता और सम्मान सुगंधा का अभिवादन करती हुई तीन स्त्रियां खड़ी हैं । सुगंधा लाल रंग की धारीदार चोली तथा हलके रंग का घाघरा पहने है, जिस पर लाल रंग का पटका है। वह बैंगनी रंग की झीनी मोड़नी प्रोढ़े है । अन्य स्त्रियों के वस्त्र क्रमशः बैंगनी और लाल, बैंगनी और हलके हरे तथा लाल और गहरे हरे रंग के हैं। प्राकार ९४५३ इंच । पृ० ४६ चित्र ६७ ग्रंथ-समर्पण लाल रंग की पृष्ठभूमि पर आसन पर ग्रंथ-रचयिता थो जिनसागर के गुरु भट्टारक देवेन्द्र कीति विराजमान हैं। उनके दाहिने हाथ में समर्पित ग्रंथ है । सामने हाथ में पीछी लिये जिनसागर खड़े हैं । गुरु के शरीर का रंग गहरा बैंगनी तथा जिनसागर का हलका पीला है । जिनसागर का अधोवस्त्र हरे रंग का धारीदार है। प्राकार ५३४४ इच । .. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ श्री सुगंधदशमिकथा त्रिख्यते ॥ श्रीममंगल देवमूर्तिनिनदा सिंहासन बैसला छ विद्याकाशसिंह सेवा करुयातला पाहा दहिमाचरेगावनेवाळीला सूर्याचेन सननको शिलपले दिसू देखिला Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसागरकृत मासिक निशारदेना। मतिमानसा यानीर सलाम स्वी सकार जेएकसी साकरशे आधीच्या नेमका गोचारणा विचितांगरोगननादिन चार्य श्री सहिास [ २--- Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगंध दशमी कथा जमानाकोपनियाद त्यामानिदनारथक्षेत्रा माशिवदिशाविशिथे वारामसिनपात्रने नवमरमालियानानि स्पार्थिणीवनावना सत्या श्रीमनिनामऊनावी अण्याविनाकेवलयाय 88888888 . CCECTal .. 17 21 020 MR." . 538 Popati . s:"Prese . .: CA28:35:53828-343500 BOLLERREE SMSH maduISGAR Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसागरकृत मानलकानंद बालावसंतमूललितसमागण्या वाचलचंपकमालनाचे उष्पफलेल्या तिपारपबराईबायाशातलनाजनी सौम्य शायर मारननिरयावरीहीकसा राजान. पारर्विसामाजसासुघोबालतिसादवानी भागी . na Barber SHARE E MAGE . स 5. HEN CA 6 ... Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगंध दशमी कथा | मावारिनिरमानी सूर्यासवजामुतिमनमा रानासयासन्निधान्यनेसी माणिजवायनमूना मासामवासीहटनन्याला श्रीमानधारीसुय चीनदेहीसमयानानासया रामानराम निवाहनाला सविमुनाला पणियानकला थे । .. 6358 BAR 39 ad t PH PPER 4. sawant AMERA i का NAAMSAD BE Faridark5 ddit .ck. राणासमागसवनामिनायि मूनीश्वराभाजन एन । १९५७ 2883 नि RRENEMIX HERPRETS 8 MARAT 16: 5 m ::. ERTSAP BHARAT Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसागरकृत मी धनिरांद मिय्याननीयायविचारिना १० मांझलगनाच र कानमा सिमी काय नावदना मिसी श्रानंदमा काधडी येक गेला पायाभुनीका दुनियाजियाला ११ विनसिदनासमान: मुनीमकाथानी कडध्यागंधुनिया ककला नावचित्रिमुनिजेवविला १३ [ १० Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ ] सुगंध दशमी कथा गिलामुनिनिशादरासी नैनालाई ध्यान धरीस किसी स्याहारविनोकरीलाक समस्त शाश्व र्गदर्शর श्राकाश्रावकः खनारी देविप्रस्याथरि कार ऐसीकसीयापिनको आहे सनीसांच्या हरदीयनाद २४ केन तदा बधाईयाही गेला सारोकोही मालमुनीनां सुख मायाको १२ है तो कथा यावळी रादी उपाय/सांगण कायनाली बोलावलोदी Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ जिनसागरकृत सामिकेला सोनाला १६ मा घरी कायदा नाही या कोपामिकाथ यादी जसोचनाकिं कसंगतियायघ माकिं १३ त्यानंतरे पतियेकदीसी लाया दासगुरु वंदनेसी निडनिश्राश्राजुलियासवासी निश्चितयेधरामि १६ शृंगारहारादिक राजातिला पाऊ होगेन समाना कर्क [ १६– १० ११ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ ] सुगंध दशमी कथा धनायामय व्यावजाला देवरीको गुनियाला प्रवासमा होसके विका न्टि जलालाबाल तिलोकवासी २० अन्यदः रा कः खमालामनामी दोहाबादुःखजना वामी के साबुनपानी कैसी गोष्टी सांग गोजनासी २२ राती ध्यान से सजा लीपापिणिः खरयनि मायांगलीमन्मनोका बारायाणमनाचियादी २२ नालीवेली enerate का खनिवसरेगी पाला पायां तितकीरिघाली तेथे कैसी कई सीमा 23 १२ १३ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० जिनसागरकृत सुमरी कायनाली मामांना पाया। चिनियां सांघी पापानि तथेखिनेोगानि दनि २४ पक्या छेदः एक मेनन्नरानिंगला बोरालगरीमगज मना गीदारी कातिला माचिपाती २५ मानमरादी में सर्वत्र निकली कलीबात रखें परेकः स्वधरीमनात बराच खावराद कमले [ २४--- १४ १५ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ ] सुगंध दशमी कथा Sentistiane ............ :.ipmarathmessoomayaprominews ... A. BRAN MG.T म ba .ागर जी RE: नियवनाशक मुनिइयाला नामेशतातिनार त्याला अमेगुणाशिवरशिपत्याचा नवोलि लामकुमसिसवाचा संदेहाबरकरावया मात्रामा मायबरवेंशमशिअहोनहायागुरुरात्तरे " वादे कोनांजशिनिपायचा बेशुरूआईकना, सकार इच्यामवारिकथनाकधारे श्रीमती SHARE Viratna Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जिनसागरकृत राजकोमा निनावी खादान केलें न्यारे पाय फळा मिश्राले ३० काव्यिक केसी निसर्व नायबाली नव्हखावे गुरुर्षीय ला३ नागेवालाजालामः नानी गुरुला 10 १८ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] सुगंध दशमी कथा विनियामवशुगामियाना बाराबते पायासीसि पाठ ३२ नया नियनिरामया कपासीग कसाथ शृंगारीलामालय देशमा तेरी ता २३ विघारी होत attrai naari काही गायली खानमवृद्धिनाश्री ३ प्राणी कामविशेषला माविना केविस्वासथारा एसीलन मालकाला ३५ सुदर्शनः कार्म विकारवाही सम्पत्ती राजायाहा विलासेन याचालायलासुजान १६ राखी नियामकइया व्यागविधा लोकनाय बालागुरुकिलाम सपनाबार निनादी 29 मार्गतमकुलिकाला बन nagar संगे सुधर्मा शुरु मादागावा यावेग लोकरुणाबाई ba १३ १९. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसागरकृत मानासिनिइयगंधा वालीअकस्मानका क्षा संवदेवायलमुनीसा तबायधिवच्या - सवानि र मूर्खायावनियमिकलारा पारलाकविम्मिननालोकांदाबामामातलाम एमासामुधिनव्या घरमुनिका PISORDING Kar K e : .-.:.. 58 : १०: -IN FREE KTAREER IES RAN श्री अ631 RA KAR . 54. PARAN दीवारणीनधानविक्रमलाकाहानी रोकानिया विस्मातन्त्रपजालामाविरमागळयाययाला घR H ERBAR . Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ 1 सुगंध दशमी कथा ६: करातिकबसानासानामहामाइलयापरासी इन्समधादामाकराधि आलियापासीमाहावना वा नमुनासोगन सन्याला नावानतिरवग कमाला सादीनाममाररासातासलावंधु नियामुनामी ३ मामामना पदामिमानिनयुक मागदर्शक :- आची महाराज क २.SPHERE K: . Parden . HAMA ६ BAR EEM Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जिनसागरकृत श्रीदामी राणी गर्दै trafar ४४ त्यामागील शास 'देवा स्वानराकरमनी एता कानात्मक माहिनि सूविधनीनद्यनाथापरावी टूटतानि वावी दशविध मानावा कनावदा वान्यमुनिसन्दामा संवयाः नवजयमोहनरूपधराशिमार्गक राजवड खरा जयनयकलाधरारविकारिसको दिमरा जयजयद्दाविष्टर उषामा बिराज अजयकामकुतूहल वारंगा पापविवार विनिःनिकचाकरीनाक्रमत्यादिशानि मला त्यांनी सांबारबिना इस वादी मरीचा चंद [ ४४ यं रामदादाब पकरानासी उद्यापनानाकरविधिम teaseraादी नाकपा उपासच्याधीमुकता बानी कायद्यायानादी करान वादी ५० मन्त्रीाविधिकुनिया प्रावक नियाताका तथ्यान धमकाना कर नायमेन नीला माधवनिद angitureranatara २ प्रेमिकरीनीबरवांना सीतानियापानजामुनामी आयुष्पा का कला नाचासनाला २३ तंवानी छंदः सायरानमुनारताने शरी Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ ] सुगंध दशमी कथा त्यात मदत वाली कनोगी सुखामी ऊधमे कार्यान्यासोय छेदः कनकनामपनीय सर्वन कनगाववधू जयवंत जनधमे चीफ धर्म नागिला वयसेवा बतात मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविद्धि १७ २२ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसागरकृत । ५६ ननरासवाणी निनादिदमाव पासिमाशी नीच्याक साहविलनामानि नालाकमारीवरूपायनोस . मगधरहांवरीनिसलाकासिंआश्रयविशषनामें नाकासुगंधमानिनावकले मर्मामनिव-कलानिंग नामायबापालामालानंदमहर्गमनान वाट काहीकया पास्तवमामला बोलवावली . व्यामजाली या दोहोकरीनामावायनाचा झोंकसा: विजयाबा विमाकरीला बाल ... ............... . . . .. 100%.' ... er MARATH:: earin w.249. R. RON.. . 0.. LAT.. Aapan . . . .. स HARITAL .. * . rma . . .... R. -Advan..:.x..." Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ ] सुगंध दशमी कथा संतापमानिधिचिसकलें नकसारलातिना मनारी साधाननाचलयापारी सकाममानित वायदाना अतिमाहापानिRMAZATER odaceadsosisuaraneHIKAsm.tarvaenercordination ::.48dNews .:.: .: Sap Doord RSE EVERIAH 105-38 walofood... सीच्याकमारकचाहायकन्या ननामशामामिन मन्या मानाकरीनहाविनाशतिचा सुगंधक परीष . साचार २५ Rimticiasistani NOV ܕܪ . Noki Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० 5 जिनसागरकृत दमामाझी कार्यवाहिरंगेली खान्रजवतीन घाली माता वाघालिते तीज ६२ अंगप्रयाताः॥सुगंधा बोली अन्याको खनारी त्याने माहीला नाव पाही हा वेगळे दिन सर्वथादी आचार्य श्री सुविधि जुदाशाहना तापादाना त६पतिवा कदापिचकना सुगंधाकरीका तथा कामिनावपि सुखव [ ६२— २६ २७ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ ] सुगंध दशमी कथा असादरनिगलासयाणि गावानमानिक सिंहास्याहानिरिसमसलारखिंचासानियातिगत देवदि करनपाधिय दूकानूनिवाणिनवी मिनदालिसुगंधायला निवासीमिधाला प्रदान यणिकस्मनिकायवॉल हाणापित्यालागिदीवा ..] २८ . ::. मार्गदर्शक RTERSX RE .. . . मन ..... दाकदासिपाहत्यारयान बनामसोगानलं . काययान तुवामानशीघ्रतीयोराला रबरीतकरी राघराला . wi .. . S:.. कमर. .: Spartan .. AR Vx4. BAR 12728 RECE . ..: 8283TANThey Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जिनसागरकृत लागी रू. पिलिसि माझी नालारासि घरेगुलंगोटियाहा प्रियेकन्यका दोनिनीज मुझी आ हुई रूपाने सोया कसाला वादाचये गेली अतिकाळजाला मूलाजार दीपीयनसी कलेना किनिलागनिष बेरासी दर्या ऐसे बालबिंनित्यादिमा पाठाचानिलाबोक सारमदीया सभोकारमंत्रावरीनवनारी होर्मन सर्वपायानिवारी ७० [ ६८ ३० ३१ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ | सुगंध दशमी कथा नागपरवालवाणि त्याचिंपक सिं सुमारा फलकमाराम मार-७१ लाकसंकन गराइ नियाला देखतामनतुर्गध विषाला कानमा स्थानिमवमनान निवारी १२ वाखबीच रामाचादानान 200612 highratanीला सासिक सामजाला ७३मारी विसुंदर गुणाधिकारी सो विमला चांगरनगरा प्रतिसा रामविलीमखाना तो थकारवरही मिरावाला दोष २३ ३२ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसान रकृत [ ७५-- तिमेस्मशालमपिणातवमनानबीसली ३ X " F ॐ : .:58 : sonni amanand.. toremainanima R m S ARMine : PAWAIMADAAN. सीमानासानिकांनी निघालाकसीपापिला मध्यरात्री मानासिननियानीसिवनी दिग्दी नागादीव्याक्लिासिसाचारिशमहानिनि Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ ] सुगंध दशमी कथा anलागिमाली 64TA A RATORS wwe: SOMRCH SA Foki SEARINEERS . .. . .' . कालासिताकाकरीलाकचाली. उपवचा छसमान विकलवारबेल पादाक्यालोकसन । ३५ P8A BE Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जिनसागरकृत सारा सामिल्या समस्ता न्याबालतिन्यायरी यस्ता १६ कोकिला कोटिं कान्तिबाला कोलिंकुक्षी चाक बोल कान्हा हे वीरताले अर्थ माळीन अईबाई काय म्यां करावें अ कारवि अकसी सुगंध कानगावी बहुतवगुणाचिकाकती धरावी उमेदवच आलाधिदाईमग कोयेवो ये महाकायविपर्यमाले बालासुगंधा [ 195 - ३६ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] सुगंध दशमी कथा वरूपशाली तीन्यारूयाविपादातांमदाली दर सुजंगप्रयातांचंदः वरूथतिविकायासिबोली सुगंधाया देश मोगेनिगेली रसेदेकमारी मला एकजोडी कमासियांना ६५ बरे. मोलोनियां वामनेन्द्र सालिग्नसन्मानदा न विकाई सुखशिघ्रमावासिगेली याईकाक थारसा कसा राहीली स्मशानी दी सेवकन्यानसी रूपस्वाति पाहांत्या बोगादिचार पोला कमानमाजीवरीकामाना 0 २७ ३७ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जिनसागर कृति [ ८५ माइलाहाबरीशीगली स्मशानासुगंधावर वियला निघालाशयुधेमोनिशाना ताक याबोललाश्रितिमाथि प्रकार विन्ती पिशाचि खगाधिपकन्याबदेगाधिसाची चदकर. नतुसांगहनांनो तुमदिखतामहिलामायामा SSPIRIT 2800 A MER . ..FREE CIR : HEEEEE Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१ ] सुगंध दशमी कथा मनवितोनीनदशरूपान्हा जिनमतीजननीगुरामा। सा मन्मनाचिननामसनाला सानिमायमज जियाला ८१ कमकनामनयतीननकाला कर परिषदीयावरस्याना मानुनिनयमिझामननानाव यहासमगयेगुगामाantramमनसुपत्रिसुमाता : बायससिव वीनिसजावं कन्यकारवरासुवासि.. इजेपासुमासी हर्या आनिलग्नदीवसाय याला रुपिणिकरीकरनचाला श्रानुनिबमवी. लिमन येथे यारखाचवरीसुबराते से कवि चालनियामनगली सर्वगोवनम्याटसकेलीन विधालियोमनमाला यावहासिबरमीत्रमा . RFAS Scamera MADAANAAR- - 29 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जिनसागरकृत [ ९२ ng विधानपदोलाविललनने करिअन्यथात्यासिपेवानते में सुधामनोहर्षलाता .. पवार गगमानघालामाहारबारे बोर ..: : . : .. .05:45 SAX 55. FEVER :BAR SHARE मगंधादानावराचिमा सो परसोगनुकोणता वामापाने तदाकाबकेंगकला होणारार्ह तापाचगावातगाली Vallia ELKo Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ ] सुगंध दशमी कथा ३१ गीयालिलावीकि तोताकयाणी मलादारधधनमानों शशि में बोलुनिस्पनिमोनियाला घरीपत्रवि सुगंधानयाला RRIA 1622 memeसम्म : 25:: Neerime .... श्री सुविधिसागर . . हामहिमोइलकेव्होवदावं मलायकलीटानी कायनाने कसीवाचल्लायतबाऊनिजाने बरेहेन सवादीमयान वदस्ययईनडयांगकानी नि शामध्यनागारवरबिालमानी खरगेस्वरमयदलास घई जायजनशीघ्रगृहामीमाईmarwa RECOR VE2 MPSC Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 जिनसागरकृत [ ९७ - स्थागृहालागिगनब्यकल कलेनापिकीन्यमिता मनाला सुगंधाधरयरामाचदरूपाणिग्राम : पापरासी सो सुगंधाबदेसमा कला परेका कयामाहालयलीलामकतामायामाला कमीनापर्मदाकरीपापबासी र निशामानागा निध्यामबीरासायाहानिस्मतारवारमा अलका रिहाबजामी मगंधायदेगसमानविन SH 2165 PLEAR NCER KwadishBER kuwammad MARTmaamanaimitteerone सवलेपारगावामित्रालाकारदरबानियावं ::::.:-:-:":. . 15 IHARESS . .B ... . .. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] सुगंध दशमी कथा MMS मासिसबलचमाविनीता ...EXX है पनामानिन्यालायालागासी सलामो मारमा गाविभाग कसामान्यालयांकन्य मसालागलाया करमाचिनी कोणता नपान RBSE . ". RA BEE Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसागरकृत [ १०३ . নিমণিমালালাকিস্তানকে मंदिरामागधाकमीशनलकायमामिकामा घरानालगना कमा माल्याला कसाकम्पन नामाणिकरमागावी मानीसमकामा हासासनिमोगमामानमानासमसालनालामा नालामणमालालानिमारियादरसावका बसवाचनमामि 15. ....:58 RAMA MON AR H AT . LATION : X:5839 AmirmimilariommonasianRamews KOSH 684202 S ":2I Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ I सुगंध दशमी कथा मनःपटा बाधुनिकचाईः बोरंगमाहाब स्याउपा जिपायावरुयोज्ञक मारिक लाई सागीतली रीति नमी व केली. बापेसुगंधाचक चीनवीला शीरी लोक ममस्ताला पाचही हास तथानीयला ३५ 心 ५१ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसागरकृत [ १०: मायनोनययावा लाहकहकमाति यासी बस्सा निश्यायमासाबरा, अतीकोमलकायसी शाच महापापाथिनया बनलाली दोसवक बारम्बाधिताना एसयकुनिस्पसन्मुरबाला सुधागातीवरमोन्नखिला से moreware ५२ R-22050SACResopana 5533. . maa R PawanSitems .30:5322 388 " Recuria १ - PORTH 42010 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ ] सुगंध दशमी कथा परवदन्टयहासमायसवानमाला मगनुपरवान अमावस्यकला मानसकना काहानाम्पन्न नाममममममीलगानामा सरितम . . ":" यवधीत विलासकायलक्ष्मीचासे २१ atta SARKA R I Nat . ar... hase MPOR-SIROERes SAHABAR mineraniummami । APF COM R. actssedkarenger 2017BRANI T S kodawwAMAIL. Kasturits २२ T064 Iravati exhd ..: - - २२..- SR J MAMALAM Phone Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसागरकृत [ ११२-- Panerविरोपिाहारअनचार वरणी कत्याचा काहीत्याचवलयनमामयेकी येणायदीघा . याचासाकुरामवानस्वरबरा अमेगाकै चात्री . अनुवादिखाषासावित्रीत ५६ MAP . Precasir FERESTHAARA । amro Kalke& 22 पाऊलाल नौरकसल्यामनिहाकालिम सालासधाररचनामावियपंगमा ल्यानिकदमा नहानीया सानिरिकातिककरायातले मायाराधियनोहली Swaminine don ANS.. SS.. SERIE Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ ] सुगंध दशमी कथा RS नमनखाननीयारालाबना बकालनालयामा अनिलयोपरा लाजाचा कालीसम्ममा ही मापियात्रा जनधाराकतिमंचार बीमाका ज्यालादादिनकपुरमगाम मसासराय कार५ बानवधविशेषाधुनिकासा गारयोराध गावंदनधिमारशदिशामाराधसे व्यापला नाति । बावीसुधाकरचनावालियबीजापरीवकातालचाल नवी मारकहातावरी १६ र योवनोद लव लावायनमुखयेला सर्वशकमिलाननमेगा बधु ए घरमावर मिरविका बनावल स्वीकारवाला font THAPA RE 22 . " . . MARingRA SASARRER 35.28.38 RECS kain Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० जिनसागरकृत दीपोया पीसितोदृटपाया आणिली एकटिं करावा यापाकाकीक जावा १८ पतली सब सुगंधकमारी बोललीनपर शतिनारी माकियाजननी लाजरीरंडा लोकबोली तरी मला पूर्ण हावी बार नव्हे कराया निजाव यायां सबिना मगरा डोळयान सरल बारे २० HARDON [ ११५ ५९ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] सुगंध दशमी कथा शकरकरणे नृपसारा व्यर्थनावदासनेननवार स्वरावविन्नमारमा शरणफारजघडीले नराम टाणुनिकालनाक्यानी स्पअंतरीक्षयानवनाला सोशलीमगतपालनपा सकनासिसुरूरीना ।। लिगुराषिपदमग्रमातो... aa00 XX2050696928Ke gana 5x853:26288 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जिनसागरकृत [ १२३ मानविवधरानमुबिधान नित्यानकरीन या ममत्रमयरमतवया कोनित्यक सुरीनामा राजिनामा मनिनाव.. मारी सचिवसमासुरवनारी :: ." . ॐ.:39 .. :: - PATH ४ EX&.. R .. .." KA YPE Male N:3::00: SPEC. R RE N ik.................. ." Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ ] 1: सुगंध दशमी कथा श्री सुविधितर देवकन्यास्वतिमाला देवदेव लिननोनमियेलाः ४३ ६३ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसागरकुत DEHRAMमा हतियार ranite या वृक्षावकरमाले ललामिरवमय मनमान खानचीनतमनवाजा खमविविध निजकम्जा २७ यातनापनलीमसुगंधा राज्य नयमाहासुरव का धमेहेबबहानामाची साथ गाशबुसानवाचा बलतकायवइनकाई ईसामननकासदेखाई नियनित्यनिमदेवराजावा दानामा P ६४ RI XXX 2381 OEMS 27.Sh N HITTA ८. E - mpsow.c:::: -.. : Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० । सुगंध दशमी कथा वरूषणदीले मनाला स्वासहीसुखसरगनास। बेलोकवस्तीयातीय दारापकरीतीयशसांक : :: how FREE AndAD S Phot 13 A mTX TAPA Limited . ४ . 14 RAPE S Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसागरकृत सुगंध दशमी कथा [ १३१ १३६ नामसरोधादात्याबनालामा गोलपत्नवतंत्रामनिवेदो। समानामाहाजामायाहारुपमायामा নানাজানামুখঞ্জলিনা सानियानलमयरतामा आ सावधगिटालावा मम्पल संघलोमनान। माया सामानामावदादाताखदा । मितिमीमभयाननिमय मागवल्दाकामियादवहरयामि नवाद/पावोनियाके वलचोपदी - लव्यसनासलीवाल्यानंतरसाधुनितिक मानसमायरामवासावेदकायम गालामादिशामागरसिम्य त्याशिरसीकवाद सानागावत्यासियाविआगामिभागा३६ मामाक थासमा: M R ESXPH 5: 0 . . Sistarai Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगंधदशमी कथा PARLIARRA विवसागर विधिसागर ( L ALLA. MULATE R amaA ( चित्र २२ ) राजा-रानी को मेट-सेठानी का अभिवादन Mirr> ... . Part . (चित्र ४६ ) मेट-सेठानी का वार्तान्नाप Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगघदशमी कथा ( चित्र 56 ) सुगंधा का श्रृंगार 64 ( चित्र 67 ) ग्रंथ-समर्पण