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बीओ संधी
दह मीहे वउ किंजइ मणि अणुराए।
कलिमलु अपहरइ पुव्यकिय मुबह पायें । इउ कहिउ मुगिदई जाम अत्थु । तहि दिणि तहिं हुइ दहमि तत्थु । किड व ता सयलेतेउरेण | उराएं सह परिकार। किन रायरिहिं लोयहि सयलएहिं । कि ते दुर्गघई अवरएहिं । ता दिरगाउ चैदशु केण ताहे । केण वि कुसुमक्खय दण्याहे । केण वि तह अपिउ रहवां अमलु | केरा वि चरू दीक्उ धूउ-सहल्छ । तेरण विकिउ गुरु-अणुराएण! रहवणचणु सहुँ उक्वासएगा। मुरिगणाहहो भाउसु मुगिउ ताहे। अख्मियहे समप्पिय सुव्वयाहे । ता छटोवासई कंजियाई।
एक्कंत-राय-रस-वजियाई । अवराई मि बहु भेयाई जाई। गुरुकायकिलेसई कियई ताई। अवसाण-यालि जिणु संभरेवि। मुअ चउविहु सरणासा करवि । उप्परिणय सुणि सेणिय-गरिंद। जहिं षयहं पहावई अरि-मईद ।
द्वितीय संधि
सुगंध दशमी व्रतका पालन मनमें अनुराग सहित करना चाहिए। इससे कलिकालके मलका अपहरण होता है और जीव अपने पूर्वमें किये हुए पापोंसे मुक्त होता है।
जिस दिन मुनिराजने यह सुगंध दशमी व्रतके विधानका उपदेश दिया उसी दिन भाग्यसे वहाँ दशमीका दिन था । अतः इस व्रतको राजाने और उनके समस्त अन्तःपुर तथा परिवारके लोगोंने धारण किया । नगर-निवासी सभी लोगोंने भी प्रत किया । और सबके साथ उस दुर्गन्धाने भी व्रत धारण किया । उस दीन बालिकाको किसीने चन्दन दे दिया और किसीने फूल व अक्षत दे दिये । किसीने उसे निर्मल अभिषेककी सामग्री दे दी तथा किसीने नैवेद्य, दीप, धूप व फल प्रदान किये । इस समस्त सामग्रीको पाकर दुर्गन्धाने बड़ी भक्तिसे उपवास धारण किया और भगवानका अभिषेक-पूजन भी किया। मुनि महाराजने अपने अबधिज्ञानसे उसकी आयु अल्प शेष रही जान उसे सुव्रता नामक अर्जिकाको सौंप दिया । दुर्गन्धाने अर्जिकाके समीप रहते हुए पाठोपवास अर्थात् लगातार दो-दो दिनके उपवास किये तथा राग और रससे वर्जित कांजीका आहार लिया । और भी जो उपवासोंके अनेक भेद हैं तथा जो कायक्लेश रूप व्रत हैं उन्हें दुर्गन्धाने विधिपूर्वक पाला । आयुका अन्त आनेपर उसने जिन भगवानका स्मरण करते हुए खाद्य , स्वाद्य, लेह्य और पेय इन चारों प्रकारके आहारका संन्यास अर्थात् सर्वथा परित्याग करके मरण किया ।
मगवान् महावीर राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि 'हे शत्ररूपी मृगोंके लिए सिंह नरेन्द्र, उस सुगंध दशमी व्रतके प्रभावसे वह दुर्गन्धा मरकर पुनः अगले जन्ममें जहाँ उत्पन्न हुई उसकी कथा सुनिए