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________________ सुअंधवमीकहा [१,१२,१ १२ दह परिसई पूरिहिं उज्जुमणऊ। किज्जइ जिणवर-देवहं राहवराउ । पुणु मणहरू फुल्लहरउ किज्ज । अंगारण चंदोबउ ताहिजइ । दह-धएहिं उभिज्जद जिणहरु । नारइय हु लंबिजई मणहरू। दिज्जइ घेट चमर जुअलुल्लउ.। धूवडहणु भाररिउ मल्लल । दह पोत्थय वत्थई घलिज्जई। दह पुरण पोसह-दापई दिज्जई। दह साडय दिज्जई वयधारिहि । दह अच्छापय तह बंभारिहि । पुशु दह मुरिहिं रसहि छहि जुराउ | दिज्जइ श्राहारो वि पविचाउ । दह कंचुल्ल खीर-घय-जुराई। दिज्जई सावय-परिसु पवित्लाई । रिसर । कहिल असेसु चि मई तुह सिरिहर । अहवा एति जई विरण पुज्जई तो णियसलिए थोक्न दिज्जइ । थोवई होणु पुराण उप्पज्जइ । एज या चित्ति कयाधि धरिज्जइ । अहियह तउ गिय-सत्तिए दिरगाउ। थोवई अहिज पुराणु पडिवर एका सगहु पिंडु कहाणिय जारिसु। होइ अपांतु पुणु इह तारिसु । पत्ता-इय विहिय-विहागाई सहु उज्जमाउ जो करेड़ तिय पुरिसु लहु । सो कम्मई खंडिवि भवदुहु छडिवि पुणु पावई सिउपयहु सुहु। इय सुधदहमीकहाए पढमो संधी परिच्छो समतो ॥१॥ स १५ जब सुगन्धदशमी व्रतका विधिपूर्वक पालन करते हुए दश वर्ष पूर्ण हो जायँ तब उस व्रतका उद्यापन करना चाहिए । मन्दिरजीमें जिन-भगवान्का अभिषेक पूजन करना चाहिए । समस्त जिन-मन्दिरको पहले मनोहर पुष्पोंसे खूब सजाना चाहिए, आँगनमें चंदोवा तानना चाहिए, दश बजाएँ फहराना चाहिए और मनोहर ताराएँ भी लटकाना चाहिए । मन्दिरजीको घंटा और चामरोंकी एक जोड़ी तथा अच्छी धूपधानी और आरती चढ़ाना चाहिए । दश पुस्तकें और दश बस्त्र भी चढ़ाना चाहिए तथा दश व्यक्तियोंको औषधिदान देना चाहिए। जो व्रतधारी ब्रह्मचारी आदि श्रावक हो उन्हें दश धोतियाँ और दश आच्छानक (छल्लों) का दान देना चाहिए । फिर दश मुनियोंको षडरस युक्त पवित्र आहार देना चाहिए। दश कटोरियाँ पचित्र खीर और घृतसे भरकर दश श्रावकोंके घरों में देना चाहिए। हे श्रीमान् नरेश, यह सुगन्धदशमी ब्रतका उद्यापन विधान है जो मैंने तुम्हें समस्त बतला दिया । यदि इतना विधान करना ५ दान देना अपनी शक्तिके बाहर हो तो अपनी शक्ति के अनुसार थोड़ा ही दान करना चाहिए । थोड़ा देनेसे हीन पुण्य उत्पन्न होता है, ऐसा विचार चित्तमें कदापि न लाना चाहिए । बहुत दानकी अपेक्षा जो भी अपनी शक्तिके अनुसार दिया जाता है उससे अधिक ही पुण्य उत्पन्न होता है। माना स्वगाँकी प्राप्तिकी जो नाना कहानियों कही जाती हैं उनके ही समान इस सुगंधदशमी व्रतके पालनसे भी अनन्त पुण्यकी प्राप्ति होती है । ऊपर बतलाये हुए विधि विधानके अनुसार जो कोई स्त्री या पुरुष सुगंधदशमी व्रतका पालन करता और उद्यापन कराता है वह अपने कर्मोंका खण्डन करके व संसारके दुःखोंको छोड़कर उत्तम स्वर्गादि पदोंके सुखका अनुभव करता है ।। १२ ॥ इति सुगंधदशमी कथा प्रथम सन्धि ।
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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