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________________ १- 7 सुअंघदहमीकहा [२,१,१३रयण उरि रायरि वर-करणय-काउ।। करणयप्पड रणामई अस्थि राउ । तहो कणयमाल सामेण कंत । अइमणहर पड़-गुरु-विण्यवंत । अह नहिं पुरि वरिण जिरायत्तु णाम । जिरायत्त भज्ज रइ-सोक्ख-धाम । तहो सेहि-अपुत्हो पुत्ति जाय। उपराणी जाएवि तहि मि साय । णामेण तिलयमइ णिसुणि राय । बहुलक्षण-संछिय करणयकाय । असहव सुकलालय विहाइ। तणुअंगें चंदहो रेह पाइ। मइलिजइ ता तहे कुंकुमेण । रहाविजइ पुणु चंदण-रसेण । सई एइ सुगंधु सरीरि ताहे कपरिण तारि मायगायाहे। बहुभावहिं लालिनंतियाहे । मुझ मायरि अराह दियहि ताहे। पत्ता ता ताएं परिणिय अराण तहिं धीय नाहे उप्परगी। गामेण राय सा तेयमई लक्खरण-गुण-संपरणी ॥१॥ सा लालाइ सज्जद गियय बाल | वहील इयर वि गिरु सुषाल । आहरणई पत्थई णियहे दे। उहालिवि इयरहि पासि ले। आहार पाण णियसुअहि देड । इयर वि मरगति य उ लहेइ । रत्नपुर नगरीमें उत्तम कनकके समान सुन्दर शरीर कनकप्रभ नामके राजा राज्य करते थे । उनकी प्रिय भार्याका नाम कनकमाला था जो बड़ी मनोहर और अपने पति तथा गुरुजनोंके प्रति बड़ी विनयवती थी । उसी रत्नपुर नगरमें सेठ जिनदत्त रहते थे जिनको पूर्ण सुख देनेवाली भार्याका माम जिनदत्ता था। जिनदत्त सेठके कोई पुत्र नहीं था। उनके एक मात्र कन्या उत्पन्न हुई थी जिसका नाम था तिलकमती । हे राजन् , सुनिए - वह तिलकमती नामक कन्या सभी सुलक्षणोंसे सम्पन्न थी और शरीर तो इतना सुन्दर था जैसे मानो सुवर्णका ही बना हो। वह सुभग कन्या समस्त कलाआंकी भी निधान थी जैसे मानो कोमल शरीर धारण करके चन्द्र-कला ही उत्पन्न हुई हो । जिनदत्त सेठ उस कन्याको इतने लाड़-प्यारसे रखते थे कि केशरसे तो उसके शरीरका मालिश किया जाता था और चन्दनके रससे उसे स्नान कराया जाता था। उसके शरीरमें स्वभाक्से ऐसी सुगन्ध आती थी जैसी कपूर और कस्तुरी में भी नहीं पाई जाती। ऐसी उस सुन्दर लावण्यवती कन्याका जब नाना प्रकारके लाड़-प्यारसे लालन-पालन किया जा रहा था तब एक दिन अकस्मात् उसकी माता जिनदत्ता का स्वर्गवास हो गया । अपनी प्यारी भार्याकी मृत्यु के पश्चात् उसके पिता सेठ जिनदत्तने दूसरा विवाह किया । इस दूसरी सेठानीके गर्भसे भी एक कन्या उत्पन्न हुई। हे राजा श्रेणिक, इस लक्षणों और गुणों से सम्पन्न कन्याका नाम तेजमती रखा गया ॥१॥ सेठानी अपनी औरस पुत्रीको तो खूब लाड़ करती और सजाती थी, किन्तु उस दुसरी सौतेली कन्या तिलकमतीका उसके भले स्वभावकी होनेपर मी तिरस्कार करती थी । सेठानी अपनी पुत्रीको अच्छे आभरण और वस्त्र देती थी, किन्तु सौतेली पुत्री के पास जो कुछ होता उसे भी छीन लेती थी। अपनी सुताको वह अच्छा भोजन खिलाती-पिलाती थी, किन्तु बेचारी सौतेली कन्या माँगनेपर भी भरपेट खानेको नहीं पाती थी । अपनी पुत्रीको सेटानी सदैव अपने पास
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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