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सुगन्धदशमीकथा पादाम्भोजान्यहं नत्वा श्रीपदं परमेष्ठिनाम् । शृण्वन्तु साधको वक्ष्ये सुगन्धदशमी-कथाम् ॥१॥ गुरूणामुपरोधेन श्रीविद्यानन्दिनामिदम् । सरस्वत्याः प्रसादेन रच्यते श्रुतसागरैः ॥२॥ अथ प्रणम्य भूपाल श्रेणिकः सन्मतिं प्रभुम् । गोतम पृच्छति स्मेदं भक्त्यावनत-मस्तकः ।।३।। अकारण-जगबन्धो भव्यान्जवनभास्कर । श्रताम्बुधि-महापोत विमुक्तिपदनायक ॥४॥ अहो पाखण्डलैश्वर्यवर्य श्रीगोतम प्रभो । प्रज्ञापारमितानेनः केन व्रतमिदं कृतम् ॥ ५ ॥ कथं ना कियत के वा फलमस्य महामते। भगवन् श्रोतुमिच्छामि कृपाजलनिधे पद ॥६॥ शृणु भो मगधाधीश सुगन्धदशमी-व्रतम् | साधु पृष्टं त्वया घीमन् कथयामि यथायथम् ॥ ७॥ इदं श्रवणामात्रेण 'अनन्तभवपातकम् । छिनत्ति च कृतं भक्त्या भुक्ति-मुतिफलप्रदम् ॥ ८॥
हिन्दी अनुवाद पंच परमेष्ठीके चरण-कमल रूप लक्ष्मीके निवासको नमस्कार करके मैं सुगन्धदशमी कथाको कहता हूँ। साधुजन इसे सुनें । यह कथा श्री विद्यानन्दि गुरुके आदेशसे तथा सरस्वतीके प्रसादसे श्रुतसागर नामक आचार्य द्वारा रची जाती है || १-२ ।।
अथ सन्मति प्रभु अर्थात् भगवान् महावीर स्वामीको प्रणाम करके राजा श्रेणिकने भक्तिपूर्वक नतमस्तक होकर गोतम गणधरसे पूछा-हे अकारण जगद्वन्धु, भव्यजन रूपी कमलोंके वनको सूर्यके समान प्रफुल्लित करनेवाले, शास्त्र रूपी समुद्रको पार करनेके लिए महापोत, मोक्षपदको ले जानेवाले नायक, इन्द्र के समान उत्तम ऐश्वर्यके धारक, प्रज्ञाके पारगामी विद्वान् , पापहीन, श्री गोतम प्रभु ! मेरी यह सुनने की इच्छा है कि इस सुगन्धदशमी व्रतको किसने पालन किया, यह व्रत कैसे किया जाता है और इस व्रतका फल क्या है ? हे महामति कृपासागर, यह सब मुझे बतलाइए ॥ ३-६ ॥
राजा श्रेणिकके इस प्रश्नको सुनकर गोतम स्वामी बोले-हे विद्वान् मगधनरेश, तुमने बहुत अच्छा प्रश्न किया । अतः मैं तुम्हें सुगन्धदशमी व्रतका समस्त विवरण सुनाता हूँ । तुम ध्यान पूर्वक सुनो ॥ ७॥
इस सुगन्धदशमी कथाके सुनने मात्रसे ही अनन्त भवोंके पाप कट जाते हैं और इस व्रतके भक्तिपूर्वक पालन करनेसे संसारके भोग तथा अनुक्रमसे मोक्ष फलकी प्राप्ति होती है ॥८॥