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________________ ३२] सुगन्धदशमीकथा प्रशस्तवस्तुसङ्कीरणे द्वीपे जम्बूद्वमाश्तेि । जिनजन्मादिभिः क्षेत्रे पवित्र भारताभिधे ।। || निवेशे सम्पदा देशे काश्यां त्रिभुवनश्रुते । बरे वाराणसीनाम्नि पत्तने तु चिरन्तने ।। १०॥ बभूव भूपतिनाम पद्मनाभोऽमितप्रभः। श्रीमतीललनानेत्रनीलवार्जन्मचन्द्रमाः ॥११॥ आन्वीक्षिकी यी वार्ता दण्डनीतिसमाझ्याः। चतस्रो वेत्ति यो विद्याः सम्यगाससमन्वयाः ॥१२॥ सन्धि च विग्रह यानमासनं संश्रयं तथा। द्वैधीभावं गुणानेष पैत्ति षट्पाट स्फुटम् ।।१३।। त्रिवर्गच क्षयस्थानवृषिसंज्ञमनुत्तरम् । वारमनोदैवसिदीनां स जानीते समाश्रयम् ।।१४।। चयं चोपचयं मिश्रमितीदृगुदयत्रयम् । विभति मिनितागनिः शिवशानिनिहतान् ।।१३।। काम-क्रोध-महा मान-लोम-हर्षमदाहयान् । स जिगायारिषड्वर्गानन्तरङ्गसमुद्भवान् ॥१६॥ प्रभुजा मन्त्रजोत्साहसम्भवाः शक्तयः प्रभोः। तस्य स्फुरन्ति तिस्रोऽपि श्रावकान्वयजन्मनः ॥१७॥ स्वाम्यमात्य-सुहृत्कोश-देश-दुर्गबलाश्रितम् । राज्यमित्येव सप्ताङ्गमासवान् जिनभाषितम् ॥१८॥ समस्त उत्तम वस्तुओंसे परिपूर्ण जम्बू वृक्षसे अंकित इस जम्बू द्वीपमें भारत नामक क्षेत्र है जो कि तीर्थङ्करोंके जन्म आदि कल्याणकोंसे पवित्र हुआ है। इस भारत क्षेत्रमें काशी नामका प्रदेश है जो सम्पत्तिका निधान और त्रिभुवनमें विख्यात है। इस काशी नामके उत्तम देशमें वाराणसी नामकी प्राचीन नगरी है। इस नगरीमें एक समय अपार प्रतिभावान् पद्मनाभ नामका राजा हुआ जो अपनी श्रीमती नामको रानीके नेत्ररूपी नील कमलोंको चन्द्र के समान प्रसन्न करनेवाला था || ६-११॥ यह गजा आन्वीक्षिकी (विज्ञान), त्रयी (वेद), वार्ता ( अर्थशास्त्र ) और दण्डनीति ( राजनीति ) इन चारों विद्याओको मले प्रकार समन्वय रूपसे जानता था। वह सन्धि ( मेल करना ), विग्रह ( लड़ाई करना), यान ( आक्रमण करना), आसन (घेरा डाल बैठना), संश्रय ( अन्य राजाका आश्रय लेना ) तथा द्वैधीभाव ( फूट डालना ) इन राजनीतिके छह गुणोंको भी स्पष्ट रीतिसे जानता था । वह त्रिवर्ग अर्थात धर्म, अर्थ और कामरूप पुरुषार्थोंके स्वरूपको तथा क्षय, स्थान और वृद्धि नामक व्यवस्थाओंको असाधारण रीतिसे जानता था। वह यह भी जानता था कि वचन, मन और दैव रूप सिद्धियोंमें कैसे सामञ्जस्य बैठाया जाय । चय, उपचय और मिश्र अर्थात् चयापचय इन तीनों अभ्युदयोंको वह अपने शत्रुओपर विजय और लोक कल्याण द्वारा निरन्तर साधा करता था। उसने काम, क्रोध, मान, लोभ, हर्ष और मद नामक छह अन्तरंग शत्रुओंको जीत लिया था । श्रावक कुलमें उत्पन्न उस राजाके प्रभुशक्ति, मन्त्रशक्ति और उत्साहशक्ति ये तीनों राजशक्तियों स्कुरायमान थीं | जिन भगवान्ने जो स्वामी, अमात्य,
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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