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________________ २७ ] संस्कृत [३३ सहायं साधनोपायं देशं कोशं अलाबलम् । विपत्तेश्च प्रतीकारं पचास मन्त्रमाश्रयत् ।।१६।। सामदानं च भेदं च दण्डमुद्दण्डभरखनम् । यथायोग्यं यथाकालं वेत्युपाय-चतुष्ट यम् ॥ २० ॥ वाग्दरडयोः स पारुष्य त्यक्तवानर्थदृषणम् । पान-स्त्री-मृगया-छूतमिति व्यसनसप्तकम् ॥ २१ ॥ स एकदा तया सार्धं मधुकी डामना वनम् । यानपश्यत्पुरोद्वारे मुनि मासोपवासिनम् ।। २२॥ भोजयषिम, दैवि भगित्वा श्रीमती मिति । तद्भुक्त्यै प्रेषयामास स्वयं च गतवान् धनम् ॥ २३ ॥ भोगान्तरायकृत्पापः कुत एष समागतः । इति ध्यात्वा नृपाद् मीता तं नीत्वा सागता गृहम् ॥ २४ ॥ इक्ष्वाकुमिश्रिताहारं ददौ तस्य महामुनेः। स योग्यमिति सञ्चिन्त्य भुक्त्वा यावदन व्रजेत् ।। २५ ।। वेदना महती तावदोऽभूदा चाध्वनि । निपपात जनैनीतः कृतो जिनसवानि ॥२६॥ तत्र तैभक्तिकैरुक्तं हा हा घिग्मेदिनीपतेः। यस्य वल्लभया दूनः कदन्नेन महामुनिः ॥ २७॥ mar,....... . . vvi,Ah सुहृत् , कोश, देश, दुर्ग और बल ये राज्यके सात अंग; बतलाये हैं उन्हें भी इस राजाने प्राप्त कर लिया था । सहाय, साधनोपाय,देशकाल-विमाग,कोश एवं बलाबल (?) तथा विपत्ति-प्रतीकार, ये जो मन्त्रसिद्धि के पाँच अंग बतलाये हैं उनका वह सदैव आश्रय लिया करता था । उद्दण्ड पुरुषोंके दमनार्थ जो साम, दान, भेद और दण्ड ये चार उपाय कहे गये हैं उन्हें भी यह राजा खूब जानता था । वाक पारुष्य, दण्ड पारुण्य, अर्धदूषण, मद्यपान, वेश्यागमन, मृगया और द्यूतक्रीड़ा इन सात व्यसनोंको भी राजाने छोड़ दिया था ॥ ११-२१ ।। एक दिन राजा पद्मनाभ अपनी श्रीमती रानीको साथ लेकर वसन्त-क्रीडाकी इच्छासे वनको जा रहे थे कि उन्हें नगरके द्वारपर ही एक मासोपवासी मुनिराजके दर्शन हुए । तत्काल उन्होंने श्रीमती रानीको आदेश दिया कि हे देवि, तुम लौटकर राजभवनको जाओ और मुनिराजको विधिपूर्वक आहार कराओ। रानीको इस प्रकार आदेश देकर राजा स्वयं वनको चले गये ॥ २२-२३ ॥ वन क्रीड़ा में इस अकस्मात् उत्पन्न हुए विनसे रानीको बहुत बुरा लगा | वह मनमें विचारने लगी-मेरे भोगोंमें अन्तराय करनेवाला यह पापी कहाँसे आ गया । तथापि राजाके भयसे वह बिना कुछ कहे मुनिराजको साथ लेकर घरको लौट आई । उसने उन महामुनिको इक्ष्वाकु ( कहवीं तुम्बी ) मिश्रित आहार दिया। मुनिराजने उसे ही योग्य समझकर ग्रहण कर लिया और आहार करके वे वनकी ओर चल पड़े ।। २४-२५ ॥ किन्तु मार्गमें ही मुनिराजके शरीरमें महान् वेदना उत्पन्न हो उठी । यहाँ तक कि वे शिथिल होकर भूमिपर गिर पड़े । लोग बड़े कष्टसे उन्हें जिन-मन्दिरमें लाये । मक्तजनों में
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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