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________________ ३४] सुगन्धदशमीकथा [२८ आगतोऽय वनाद राजा जनकोलाहल-श्रुतेः। विवेद दुरनुष्ठान महिष्याः स्वस्य दुर्मः ॥ २८॥ उहाल्य भूषणान्याशु चोक्प्रेण ताडित।। अवथ्याऽसि दुराचारे तेनागाराद्विवारिता ॥ २६ ॥ पूजितान्तःपुरेणापि मानमरुन दुःखिता। सद्योऽपि कुष्ठिनी जाता पाध्यानेन सा मृता ।।३।। महिषी महिषी जाता पापेन मृतमातृका । पल्वले कर्दमे मग्ना नग्नाटं पश्यति स्म सा ।। ३१ ॥ तमेव वैरभावेन क्रुखा शृङ्गे विधुन्वती। मारितुं प्रसभं मग्मा मृताभूदथ गई भी ।। ३२।। पाश्चात्यपादघातेन स मुनिः पुनराहतः। बजन चर्यामनार्याणां दुर्लभोऽपि च सध्वनि ॥ ३३ ॥ भूयोऽपि पापिनी मृत्वा बभूव पुरशूकरी। भक्षयन्ती विर्श विश्वकद्भुमिश्वाप्युपद्रुता ।। ३४ ॥ क्षत्पिपासादिता मातृवर्जिता च पुनर्मुता। संबरीभूय चाण्डाल्या दुष्टग पुनः स्थिता ।। ३५ ॥ हाहाकार मच गया। वे कहने लगे धिक्कार है इस पृथिवीपतिको जिसकी वल्लभा रानीने ऐसे महामुनिको कुत्सित अन्नका भोजन कराकर इस प्रकार पीड़ित किया ।। २६-२७ ।। ___ इसी बीच लोगोका कोलाहल सुनकर राजा वनसे लौट आये और उन्होंने अपनी दुर्बुद्धि रानीके कुकृत्यकी कथा सुनी । राजाको रानीपर बड़ा क्रोध उत्पन्न हुआ। उन्होंने तत्काल रानीके सब आभूषण उतरवा लिये, वज्र समान कठोर शब्दोंसे उसकी ताड़ना की और उसे यह कहकर घरसे निकाल दिया कि हे दुराचारिणी, स्त्री होनेके कारण तू अवध्य है, नहीं तो मैं तुझे इस घोर अपराधके लिए प्राणदण्ड देता || २८-२९ ।। जो रानी समस्त अन्तःपुरमें पूजी जाती थी उसे स्वभावतः अपने इस मान-भंगसे बड़ा दुःख हुआ। वह शीघ्र ही कुष्ठ रोगसे पीड़ित हो उठी और बड़े आर्तध्यानसे उसका मरण हुआ ॥ ३० ॥ जो राजमहिषी थी बह अपने पापके कारण अगले भवमें महिपी अर्थात् भैंस हुई। उत्पन्न होते ही उसकी माताका मरण हो गया । एक दिन वह ज्योंही अपनी प्यास बुझानेके लिए तालाबमें प्रविष्ट हुई त्योंही कीचड़में फंस गई। उसी दशामें उसे एक नग्न मुनिके दर्शन हुए। किन्तु पूर्व बैर-भावके कारण उसे उनपर क्रोध आया और वह उन्हें मारनेकी इच्छासे अपने सींगोंको हिलाने लगी। इसका परिणाम यह हुआ कि वह और भी गहरी कीचड़ में मम्न होकर मर गई ॥ ३१-३२ ॥ अपने दुर्भावके फलसे वह रानीका जीव इस बार मरकर गर्दभी हुआ। एक बार अनार्याको दुर्लभ मुनिराज चर्याको जा रहे थे। उन्हें देखकर उस दुष्ट गर्दभीने रेंकते हुए अपनी पिछली लातोंसे उन्हें चोट पहुँचाई ॥ ३२-३३ ॥ वह पापिनी गर्दभी मरकर अबकी बार ग्राम-शूकरी हुई और विष्टा खाती फिरने लगी।
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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