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________________ संस्कृत [ ३५ तदैव तत्पिता जातमाभ्यां च जननी मृता। योजनेकमहापूतिगन्धा बन्धुभिरुमिता ॥ ३६॥ फलान्यादुम्बरादीनि भक्षयन्ती वने स्थिता। सूरिणा सह शिष्मेण दैवयोगाद्विलोकिता ॥ ३७ ।। पूतिगन्धोऽयमत्यन्तं कुत एति महामुने । शिष्येण ऋषिराभारिण पुनरेतेन भण्यते ।। ३८॥ कृतो यया पुण साधो पूज्य पुजाव्यतिक्रमः । पापाद् भ्रान्त्वा भवे जाता सेयं चाण्डाल घालिका ।। ३६॥ संसारसागरं शाखसागरेषा तरिष्यति । कश कथय भी नाथ निग्रन्थेनाथ कश्यते ॥४०॥ महापापावृतो जन्तुजैनधर्मेण शुद्धयति । किमत्र जानत्तोऽप्येतत्वया धीमन् प्रपृच्छ्यते || ४१॥ श्रुत्वा परस्परप्रश्नोत्तरोपन्यासमञ्जसा । सा श्रद्धयोपशम्याप्त-पञ्चजं तु फलवता ।। ४२ ।। किचिच्छुभाशया नेत्य पुरीमुजयिनीमिता । जातैककोशदुर्गन्धा दुविधनासणाङ्गजा ॥ ४३ ।। उसके पीछे कुत्ते लगे रहते थे। वह भूख-प्याससे पीड़ित रहती थी। उसकी माता पहले ही मर चुकी थी 1 इस प्रकार दुःख भोगते हुए उसका मरण हुआ ॥ ३४-३५ ।। शूकरीकी पर्यायसे निकलकर रानीका जीव साँभरी हुआ और पुनः मरकर एक चाण्डालोके दुष्ट गर्गमें आया । उत्पन्न होते मात्र ही तत्काल उसकी माताकी मृत्यु हो गई और उसका पिता भी उसी समय मर गया। उसके मुस्खसे एक योजन तक फैलनेवाली महा दुर्गन्ध निकलती थी। इस विपत्ति के कारण उसके बन्धुओंने उसका परित्याग कर दिया । अब वह ऊमर आदि फलोंका मक्षण करती हुई वनमें रहने लगी ॥ ३६-३७ ॥ दैवयोगसे एक दिन अपने शिष्य सहित एक मुनिराज वहाँसे निकले । मुनिराजने उसे देख लिया । शिष्यने उसकी दुर्गन्ध पाकर मुनिसे पूछा--हे महामुनि ! यह अत्यन्त बुरी दुर्गन्ध कहाँ से आ रही है १ तब मुनिराजने बतलाया हे साधु ! यह जो चाण्डाल बालिका दिखाई दे रही है, उसने अपने एक पूर्वजन्ममें पूज्य मुनिराजका निरादर किया है। उसी पापके फलसे संसारकी नाना नीच योनियों में परिभ्रमण करते हुए अब इसने यह चाण्डाल-बालिकाका जन्म पाया है और उसीकी यह दुर्गन्ध फैल रही है। इस बातको सुनकर शिष्यने अपने गुरुसे फिर पूछा-हे शास्त्रसमुद्रके पारगामी नाथ | मुझे यह भी बतलाइए कि अब यह चाण्डाल-बालिका किस प्रकार इस संसार रूपी सागरको तर सक्नेगी ? अपने शिष्यके इस प्रश्नको सुनकर वे निग्रंथ मुनि फिर बोले हे साधु ! महाघोर पापसे युक्त जीव भी इस जैनधर्मके द्वारा ही शुद्ध होते हैं । हे विद्वन् , तुम इस बातको जानते हुए भी मुझसे क्यों पूछते हो ? ॥ ३८-४१ ॥ इस प्रकार गुरु और शिष्यके बीच हुए प्रश्नोत्तरोंको उस दुर्गन्धा बालिकाने सुन लिया । उसने अपनी श्रद्धाके बलसे अपने द्रव्य, क्षेत्र , काल, भव और भाव सम्बन्धित उपार्जित कर्मोंका उपशम कर लिया था। इस उपशभके फलसे कुछ शुभ भावना सहित मरण करके उसने उज्जैनी
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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