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सुगन्धदशमीका तत्रापि पितरौ तस्या मृतिमापतुरेनसा । वृद्धिगता समं कष्टः पीड़िता साशनायया ।। ४१॥ अत्रान्तरे पुरोद्याने महामुनि-समागमम् । यशासेनमहाराजं वनपालो न्यवेदयत् ।। १५ ।। तं सुदर्शननामानं महामुनिशतावृतम् । नमस्कर्तुं महीभा निर्गतो दुर्गनिश्छिदम् ॥ ४६॥ निजंगामानु तं देवी महादेवीति विश्रुता ।। वसन्ततिलकाधालिवृत्तान्तपुरसंगता ।।१७।। गजानिजादथोत्तीर्य वयाप्तजनवेष्टितः। त्रिः परीत्य नमस्कृत्य तं नृपः पुरतः स्थितः ॥४८॥ साऽपि मेलापकं दृष्ट्वा तृणाधुत्तार्य मूर्खतः। भवान्तरादि जल्पन्तं तं नतातिविदूरतः ।। १६ ।। श्रावं श्रावं शुभध्याना धर्माधर्मफलश्रुतिम् । जाता जातिस्मरा भूमौ पपात किल मूच्छिता ।। ५०।। राज्ञा शीतोपचारेण सचेताः किल कारिता। पृष्टा च किमिदं पुनि यत्त्वमप्यत्र मूविता ।। ५१ ।।
नगरीके एक गरीब ब्राह्मणके घरमें बालिकाका जन्म ग्रहण किया। उसके शेष कौके पापसे अभी भी उसकी दुर्गन्ध एक कोस तक जाती थी। जन्म होते ही उसके माता-पिताका मरण हो गया और वह भूख-प्यासके घोर कष्टोंसे पीड़ित होने लगी || ४२-४४ ।।
इसी समय एक दिन उस नगरीके महाराज यश:सेनको वनपालने आकर खबर दी कि नगरके उद्यानमें महामुनि संघका आगमन हुआ है । सौ महा मुनियों के संघ सहित विराजमान दुर्गतिका नाश करनेवाले सुदर्शन नामक उन मुनिराजको नमस्कार करनेके निमित्त राजा अपने महलसे निकले । उनके पीछे उनकी महादेवी पदकी धारक देवी बसन्ततिलका आदि प्रमुख सखियोंके साथ समस्त अन्तःपुर सहित चल पड़ीं ॥ ४५-४७॥
जब वे उद्यानके समीप पहुँचे तब राजा अपने हाथीपरसे नीचे उतर पड़े और अपने कुछ चुने हुए मात्र साथियोंको लेकर मुनिराजके समीप पहुँचे । राजाने मुनिराजकी तीन बार प्रदक्षिणा की और वे नमस्कार करके उनके सन्मुख बैठ गये ।। ४८ ||
उस समय वह दुगंधा बालिका घास लकड़ीका गट्ठा लिये हुए यहाँ से जा रही थी। उद्यानमें लोगोंका मेला देखकर उसने अपना वह घास आदिका गट्ठा सिरसे उतारकर भूमिपर रख दिया और भवान्तरादि रूप उपदेश देते हुए उन मुनिराजको बहुत दूरसे ही प्रणाम किया ।। ४६ ॥
उसने मुनिराजके मुखसे धर्म और अधर्म के अच्छे और बुरे फलोंका उपदेश सुना। उस उपदेशको लगातार शुभ ध्यान पूर्वक सुनते-सुनते उसे जाति-स्मरण हो गया, जिससे उसने जान लिया कि किस पापके फलसे उसे रानीकी पर्यायसे च्युत होकर दुगंधा होनेके दुःख भोगने पड़े हैं । यह जानकर वह मूच्छित हो गई और भूमिपर गिर पड़ी। राजाने शीतोपचार कराकर उसे सचेत किया और उससे पूछा – हे पुत्रि,क्या कारण है जो तू यहाँ मूच्छित हो गई ? ||५०-५१॥