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________________ सुगंधदशमी कथा नागश्रीने विचार किया कि उस कड़वो अलाबुका शाक जिसमें उतना धृत और मसाला पड़ा है, अन्यत्र फेंकने. की अपेक्षा इस मुनिको दे देना अच्छा। ऐसा विचार करके उसने उस समस्त शाफको मुनिके भिमा-पात्रमें उड़ेल दिया । उसे लेकर धर्मरुचि मुनि अपने गुरु धर्मघोष के पास आये। उन्होंने उसको गन्धका अनुभव कर एक बिन्दुका स्वाद लिया और उसे कटु व अखाद्य जानकर मुनिको टसे एकान्तमें उचित स्थानमें डाल देनेको कहा । धर्मचिने जाकर एक स्थानपर उसका कुछ भाग छोड़ा, और देखा कि जिस-जिस चींटी ने आकर उसे खाया, बही तुरन्त मर गयी। यह देख मुनिने विचार किया कि इसे कहीं भी डालनसे अगणित जीवोंका घात होगा । अतः इससे यही अच्छा है कि मैं ही इसे खा लें जिससे अन्य जीवोंके प्राण न जायें। ऐसा विचार कर उन्होंने उसका आहार कर लिया और वे शीघ्र ही मरणको प्राप्त हुए । इस प्रकार नागप्रोकी करतूतसे मुनिके मरण की बात सर्वत्र फैल गयी । बहुजन समाजने उसको निन्दा और भत्सना की, तथा उसे घरसे निकाल दिया। इस प्रकार निर्वासित और निन्दिन होकर वह घर-घर भीख मांगकर अपना निर्वाह करती हुई श्वास, कास, शूल, कुष्ट आदि सोलहू महारोगोंसे ग्रस्त हो, मरकर नरक जाकर अगले तीन जन्मोंमें पुनः पुनः मछली हुई, फिर अनेक एकेन्द्रियादि जीवोंमें सम्रो बार उत्पन्न हुई । तत्पश्चात् तियंच योनिसे उबरकर वह चम्पानगरी में सागरदस सार्थवाहकी सुमालिका नामक पुत्री हुई। वह यद्यपि रूप और यौवनसे सम्पन्न थी, तथापि उसके शरीरका स्पर्श असहनीय था, जिसके कारण उसका पति उसके पाससे भाग या । मिताने का दरिद्रसे उसका पुनवित्राले कर दिया, किन्तु वह भी उसका स्पर्श सहन न कर, निकल भागा। यह देख पिताने उसका सम्बोधन किया कि यह सब उसके पूर्वकृत कर्मोका फल है। फिर उसने उसे अपने रसोईघरके काम-काजमें अपना चित्त लगानेका उपदेश दिया। कुछ काल पश्चात् वहाँ मापिकाओंका एक संघ आया । उनके समीप सुमालिकाने प्रवज्या ले ली। चम्पामें एक ललिता नामक गोष्ठी थी। एक बार वहीं पांच गोष्ठिक पुरुष देवदत्ता गणिकासहित आमोद-प्रमोदके लिए पहुंचे। किसीने देवदत्ताको अपनी गोदमें निठलागा, किसोने छत्र लगाया, किसीने पुष्प. सज्जा की, किसीने पैरोम माहर लगाया और किसीने घमर होरा समालिकाने यह सब देखा और वह उस स्त्रीके भाग्य को सराहने लगी। उसने निदान किया कि यदि मेरो इस प्रयाका कुछ फल हो तो अगले जन्ममें मुझे भी ऐसा ही प्रेम-सरकार प्राप्त हो। तभीसे वह अपने शरीरकी सजधजको ओर विशेष ध्यान देने लगी। मरनेके पश्चात् वह ईशान स्वर्गमें देवो हुई, और फिर दुपदको राजकन्या द्रौपदो; जिसे पूर्व संस्कारवश अर्जुन आदि पाम पाण्डवोंका पतित्व प्राप्त हुमा । ( परिशिष्ट २) इस कथानकमें न तो मुनिका शाप है, और न वरदान । किन्तु मुनिके प्रति दुर्भाव और दुर्व्यवहारके पापसे उसे स्वयं कुष्ठ आदि रोग हुए, नाना नीच योनियों में भ्रमण करना पड़ा, एवं मनुष्य-जन्ममें उसे उसी कड़वी तूंची-जैसा असह्य शरीर मिला। फिर प्रज्याके पुण्यसे अगले जन्ममें उसे सुन्दर रूपकी प्राप्ति हुई और उसके मनोवांछित पाँच पति भी मिले। पह कथानक अर्धमागधी आगमका है, जिसका उपलम्य संकलन वोरनिर्वाणसे ९८० वर्ष पश्चात् वलभीमें किया गया था। अतः वह ईसवीको पाँचवों शतीसे पूर्वकी रचना सिद्ध है। हरिभद्र सूरि ( लगभग ७५० ई.) विरचित सावयगण्णति ( बावक प्रज्ञप्ति) के पद्य ९३ की टीकामें भी इस प्रकारका एक कथानक सम्पत्वके विचिकित्सा नामक अतिचारके उदाहरण रूपसे आया है, जो इस प्रकार है ___ एक सेंट था। उसकी पुत्रोके विवाहमें कुछ साधुजन आये । पिताने उसे उनकी परिवर्या करनेका आदेश दिया। किन्तु उनके शरीरकी मलिन गन्धसे उसे घृणा हुई, और वह विचार करने लगी कि यदि ये साधु प्रासुक अलसे स्नान कर लिया करें, सो क्या हानि है ? उसने अपने इस दूषिन विचारका कोई आलोचन-प्रतिक्रमण नहीं किया। अतः मरनेपर वह राजगृहकी एक गणिकाके यहाँ उत्पन्न हुई। जन्मसे ही उसके
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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