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प्रस्तावना
को संयमित रखता हुआ मैं सदैव प्रसन्न-मुख रहूँ। म में किसी से मार्ग पू . न किसी के साथ चलें, न किसी देशको अथवा किसों दिशाम जानेको कोई विशेष हस्शा रखू । कोई अपेक्षा न रखता हुआ, पीछेको ओर न देखकर सायबानो रखता हुआ, उस स्थापर जीवोंको बचाता हा संयम भाबसे सीधा गमन करूं। वस्तु. स्वभाव आगे चलता है, अधादि पीड़ाओंका प्रभाव पन्नता ही है. तथा सुख-दुःख आदि दुन्द्र अपना विरोध मोडते नहीं 1 अत: मैं उनकी चिन्ता न पालें। अाप या स्वादहीन जो भी भोजन मिल जाये उसी में सन्तोष करू । न मिले तो भी क्षुब्ध न हो। जब रसोईघरका धुआं शान्त हो जाये, मूसल रख दिया जाय, चूल्हे में माग भी न रहे, लोग भोजन कर चुके, पात्रोंका संचार बन्द हो जाये व सामान्य भिक्षुक चले जाये, तब मैं दिनमें केवल एक बार दो, तीन मा पाँच घरोंसे भिक्षा मागू। स्नेह-बन्धनको छोड़कर मैं इस पृथ्वीपर विचरण कसे । लाश हो या हानि हो मैं समदर्शी रहूँ, और महातपसे विचलित न होऊँ। मेरा आचरण न तो जीने के लिए आतुरता लिये हो, और न मरणकी इच्छासहित । जीवनका में अभिनन्दन न कहे, और म मरणसे द्वेष । कोई वसूलेसे मेरा हाथ काटे और कोई मेरे शारीरपर चादनका लेप करे, तो भी न मैं एकका अकल्याण सोंचूं और न दूसरेका कल्याण । जीवन में सांसारिक अभ्युदयकी क्रियाएँ करना पाक्य है, उन सत्रका में परित्याग करूं, और पलक मारने आदि शारीरिक क्रियाओंमें सावधान रहूँ । इन्द्रियोंफी क्रियाओंमें न में आसक्ति रखू, और न प्रवृत्ति । अपने आत्मकल्याणका संकल्प कभी न छोडूं, और आत्माको मलिन करनेवाले कामोंसे अपनेको बचाता रहूँ। में सब प्रकारके संगोंसे मुक्त रहूँ व सघ बन्धनोंसे परे रहे, किसीके वशमैं न रहूँ । मायुके समान स्वतन्त्र वृत्ति होके । इस प्रकार बीतराग भावसे माघरण करता हुमा में शाश्वत सुख-सन्तोषको प्राप्त करूं । अभीतक तो मैंने अज्ञानके कारण तृष्णाके वशीभूत होकर महापाप फिमा ।" मुनियोंके आचारका जो विधान जैन-शास्त्रों में पाया जाता है उससे उक्त बातोंका भली मोति सामर्थन होता है।
ऋषियों और मुनियोंको साधनाओं, प्रवृत्तियों एवं गुणधर्मों में उक्त भेद उन परम्पराओं-सम्बन्धी शाहयानोंमें स्वभावतः प्रतिविम्बित हुआ है। जहां एक ही या एक ही प्रकारको लोक-कथाका उपयोग धार्मिक उपदेशा के लिए किया गया है, यहां अपनी-अपनी परम्पराओं के अनुकूल उसमें हेर-फेर भी हुमा है । महाभारतमें सत्यवतोके शरीरमें दुर्गन्ध आनेका कारण था उसको अप्तरा माताका ब्रह्मशाप और दुर्गन्धसे मुक्ति एवं सुगन्धको उत्पत्तिका कारण था ऋषिका वरदान । इस वरदानको प्राईज किसी धार्मिक साधनाके फलस्वरूप नहीं हुई, किन्तु इषिकी कामवासना-तृप्ति-द्वारा उनका प्रसाद । किन्तु जैन-परम्परामें ये बातें नहीं बन सकतीं । यहाँ मुनि दुःख-सुख में समान रूपसे समताभाव रखते हैं, और उनमें राग-द्वेषका भी अभाव होता है । अनः न तो थे शाप देते हैं, और न वरदान । जैन कर्म-सिद्धान्त अनुसार माताके शापसे पुत्रीका शरीर दुर्गन्धित हो, यह बात भी नहीं बनती। फल प्रत्येक जीवको स्वकृत कर्मके अनुसार ही प्राप्त होता है । हो, मुनिजन अपने ज्ञान द्वारा यह अवश्य विश्लेषण कर बतलानेवा प्रयत्न करते हैं कि कौन-से पापकर्मका फल दुःखमय हुआ और कौन-से पुष्पकमद्वारा उसका निवारण किया जा सकता है । इन सिद्धान्तोंके अनुसार शरीर अप्रियताकी उत्पत्तिका जो आरपान प्राचीन जैन (आगम णायाधम्मकहा १५ ) में पाया जाता है वह इस प्रकार है
चम्पा नगरीम सोम, सोमदत व सोमभूति नामक धनी गृहस्थ रहते थे। उन्होंने एक बार विचार किया कि जब हमारे पास प्रचुर धन है तो क्यों न उसका भोग और दानमें सदुपयोग किया जाये । अतएव उन्होंने परस्पर आमन्त्रणों द्वारा भोज और आमोद-प्रमोदका निर्णय किया। जब सोमकी बारी आयो सब उसकी पत्नी नामश्रीने खान-पानकी खूब तैयारी की। किन्तु जब उसने परीक्षाके लिए खूब घृत और मसालों सहित तैयार को गयी लोकीके शाकके एक बिन्दुको पखा तो उसे अत्यन्त कड़वा और विषला पाया । तब उसने उसे अलग रखकर अप शाक तैयार किये व अभ्यागतोंको खूब खिलाया-पिलाया । आमोद-प्रमोदके पश्चात् सब अपने-अपने घर गये। सब बहो धर्मवचि नामके मुनि आहार की भिक्षाके लिए उपस्थित हुए।