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प्रस्तावना
पारसे दुर्गन्ध निकलती थी, जिससे वह बनमें त्याग दी गयो । एक बार राजा श्रेणिक, भगवान् महावीरकी वन्दनाको जाते समय उसी वनसे निकले । दुर्गन्ध पाकर उन्होंने उसकी खोज करायी, और स्वयं जाकर उसे देखा । फिर भगवान्मे उसके विषय में पूछ-ताछ की। उन्होंने उसके शरीर में दुर्गन्ध उत्पन्न होने का कारण जानकर उसके भावी होनहारको बात पूछो । भगवान् ने कहा कि अब उसके पापका फल वह भोग चुकी अब वह तुम्हारी ही अग्रमहिपो होगी, और आठ वर्ष तुम्हारे साथ रमण करके पश्चात् जो करेंगी सो तुम जान लेना । राजा भगवान्को वन्दना कर अपने भवनको गये। उधर उम्र कन्याकी दुर्गन्ध दूर हो गयो, और एक अहीरने ले जाकर उसका पालन-पोषण किया। युवती होनेपर वह अपनी माता के साथ कौमुदी महोत्सव देखने गयो । राजा भी अपने पुत्र अभयकुमारके साथ वेष बदलकर उत्सव देख रहा था । कन्या के अकस्मात् स्पर्शसे उसकी कामवासना जागृत हो गयो, अतः उसने अपनी नामांकित मुद्रिका उसे पहना दी, और अभयकुमारसे कह दिया कि उनको नाममुद्रा किसीने चूरा की, अतः उसकी खोज की जाये। अभयकुमारने नगरके सब द्वार बन्द करा दिये और प्रत्येक मनुष्यकी जांच-पड़ताल करायी। वह बालिका मुद्रिकासहित पकड़ी गयो, और राजा के पास लायो गयो । राजाने उससे अपना विवाह कर लिया। एक बार राजा अपनी अन्य रानियों सहित जलक्रीड़ाको गया, और वह सुन्दरी उनकी नात्रको देखती रह गयी। इस प्रकार राजाद्वारा अपनेको परित्यक्त समझकर उसने प्रज्य ग्रहण कर की।
इस प्रकारका तीसरा आख्यान जिनसेन - कृत हरिवंशपुराण ( शक सं० ७०७-७८५ ई० ) में पाया जाता है--भरतक्षेत्र, मगघविषयके लक्ष्मी ग्राम में लक्ष्मीमती नामकी सुन्दर कन्या थो। एक बार वह दर्पण में अपना रूप देख रही थी कि उसी समय भिक्षा के लिए समाधिगुप्त मुनिको आया देख उसे घृणा हो घठी, और वह मुनिको निन्दा करने लगी । इस महापाप के कारण सातवें दिन हो उसके शरीर में कुष्ठ व्याभि उत्पन्न हो गयो । कन्याने अग्नि प्रवेश द्वारा मरण किया। तत्पश्चात् उसने क्रमश: खरो, शूकरी और कुक्कुरीका जन्म ग्रहण किया। फिर वह मण्डूक्रग्राम निवासी मत्स्यजीवीकी पुत्री हुई। उसका शरीर दुर्गन्धमय होने से माताने तो उसका परित्याग कर दिया, किन्तु मातामहीने पाल-पोषकर उसे बड़ा किया। मुनिका संयोग होनेपर उसे धर्मोपदेश मिला। वह आयिकाओंके साथ राजगृह गयो और सिद्धोशिलाको वन्दना करके, नीलगुफामे समाधिस्थ हो, मरकर अच्युत स्वर्ग में महादेवी हुई। बहाँसे उतरकर वह राजा itsart eat feat हुई। यही कथानक महासेन कृत प्रद्युम्नचरित ( सर्ग ८ १४०-१६० ) तथा हरिषेण कृत कथाकोदा ( १०८ ) में भी पाया जाता है।
इस कथानक में मुनिके निरादर से कुष्ठरोगको उत्पत्ति, नीच योनियों में जन्म तथा शरीर में दुर्गन्धका होना एवं धर्माचरण से उस गापका निवारण होकर स्वर्ग एवं उच्चकुक्रमें जन्मका फल बतलाया है ।
हरिषेणकृत बृहत्कथाकोश (५७), ( २३१ ई० ) तथा श्रीचन्द्रकृत अपभ्रंश कथाकोश ( संधि १९ २०, लगभग १०६० ई० ) में एक और कथा है अयोक रोहिणीकी, जिसके अनुसार हस्तिनापुर के समीप नीलगिरि पर्वतकी शिलापर मुनिराज यशोधर आतापन योग करते थे । उनके प्रभावसे वहकि मृगमारी नामक व्याघको कोई शिकार नहीं मिल पाता था। इससे क्रुद्ध होकर उसने जब मुनिराज भिक्षाको गये थे, तब उस शिलाको अग्नि जलाकर खूब तप्त कर दिया। मुनिराजने आकर उसी शिलापर शान्त भावसे समाधिमरण किया । इस पाप के फल से उस व्याधको कुष्ठ रोग हो गया, और वह असह्य वेदनासे सातवें दिन मरकर नरक गया । हाँसे निकलकर नाना तीच योनियों में भ्रमण करता हुआ वह जोब पुनः मनुष्य योनिमें आया, और गोपाल के रूप में उसी नीलगिरिके दावानलमें जलकर भस्म हुआ 1
उसी हस्तिनापुर में सेठ धनमित्र पूतिगन्धा नामक एक कन्या कारण कोई उससे विवाह नहीं करता था। संयोगवश उसी नगरके सेठ था एक बार वह चोरीके अपराध में पकड़ा गया। धनमिने उसे इस शर्तपर राजासे प्रार्थना कर छुड़वा
उत्पन्न हुई, जिसकी उम्र दुर्गन्ध के सुमित्रा पुत्र श्रीषेण बड़ा दुराचारी