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________________ ५२] [२, ११ सुगन्धवशमीकथा दिगंबर गुरु परम पात्र जो दीजै दान । मनवांछित फल पामियइ वलि उपजै ज्ञान ||११॥ ते रानि मिश्यातनि मान्यो नहि बात। भयथकि पाछि वली मुख कियौ निज काली ॥१२॥ मुनि पडगाझा निरमला आवी निज गेह | मुझ रमती विधन कियौ ते बळं मुझ देह ॥१३॥ इम मन माहि चितवि कोप कियौ तिनि थोर । सद्गुरु काजै विरुध दान दियौ तिने घोर ॥१४॥ पाणि पात्र जन्ही पडियौ दान तव्ही लियौ मुनिस्वामि । राग द्वेष थका वेगला समता गुणमाल ॥१५।। कटुक आहार तो अति अपार ते चटो मुनि काजे । बिह्वल शरीर हवौ गुरु तणो शरीर तब धूज ॥१६॥ तिहा थका सद गुरु आविया जिन भुवने उत्तंग । श्रावक श्राविका रूचडी आवि तिहा चंग ॥१७॥ हाहाकार तव उपनो भविमण दुख धरै ।। सार करि अति रूबडी भगति बहु करे ॥१८॥ ओषध" दान दिये निरमलौ वैयावृत्य करे चंग । दूहा—बिनय सहित गुरु राखिया आपणे मनि रंग ॥१९|| दुष्ट आहार तिहा जिरव्यौ मुनिवर हुआ निरोग । स्थाभी वनमाही गया ध्यान धरो आरोग ॥२०॥ ए कथा हवे इहा रही अवर सुणो सुजान | ब्रह्म जिनदास इणि परि धणे जिम जाण्यौ गुण ज्ञान ॥२१॥ [३] भास बिनतिनी विरुध आहार देइ थोर रानि आवि उतावलिए । राजा कन्हे बनमाहि पाप जोडि करी कसमलिए ॥१॥ तब राजाने मोह तेहना उपरि ठलि गयौए । ततक्षणि लागु पाय राजा कोप धरि रह्यौए ॥२॥ सौभाग गयो तेह थोर दोभाग आवियो अतिघणोए । अपजस उपनौ अतिथोर जस गयौ बहु तेह तणोए ॥३॥ दुरगंध हवौ शरीर कोदिनि होइते पापिनिए । पछताप करै ते जान मे बुरो कियो मिथ्यातणिए ॥४॥ १. स रानी धनी, २. स तेह गमे नहि बोल, ३. स मूलमती, ४. बस तिणे बले, ५. स इणि परि, ६. स संत, ७, अ'शरीर हवी गुरु तणों छूट गया है, ८. स निपणी, ६. प्रभविय, १०. अनार, ११. स ओखद, १२. स हवे अवर कथा, १३. स गली ।
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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