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प्राक्कथन यों तो सुगन्धदशमी कथाको मैं अपने बचपनसे सुनता आया हूँ, क्योंकि इसका पाठ पर्युषण पर्वमें भाद्रपद शुक्ल १०वींको नियमित रूपसे जैन मन्दिरोंमें किया जाता रहा है । तथापि इसकी ओरै साहित्यिक दृष्टिसे मेरो विशेष रुचि तब जागृत हुई जब सन् १९२४ में मेरे प्रिय मित्र स्वर्गीय कश्मताप्रसादजीने जसवन्तनगरके शास्त्र भण्डारका एक हस्तलिखित ग्रन्थ भेजा, जिसमें अनेक संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश कथाओं के बीच सुगन्धदशमी कथा ( अपभ्रंश) भी संगृहीत यो । मैंने उक्त ग्रन्थका कुछ परिचय सभी अलाहाबाद यूनिवर्सिटी जनरल, खण्ड १, में प्रकाशित अपने 'अपभ्रश लिटरेचर' शीर्षक लेख में दिया था। सभी मैंने इस कथाकी प्रतिलिपि करके अपने पास भी रख लो यो। किन्तु अन्य संशोधन कार्योम ब्यस्त हो जानेसे मेरी दृष्टि इस रचनापर-से सड़ गयी। सन १९५४ में उस समय संस्कृत एम० ए० के विद्यार्थी और अब डॉ० विद्यापर जोहरापुरकर, प्राध्यापक मध्य प्रदेश शिक्षा विभाग, ने मुझे इस कथाकी जिनसागरकृत मराठी रूपान्तरको यह प्रति टिकलागी जो रंगीन चित्रोंसे युक्त और नागपुर सेनगण भण्डारको है। इसके साथ ही उन्होंने पुरानी गुजरातोकी रचनाको भी प्रतिलिपि मुझं दी और इन दोनों रचनाओंका परिचय भी लिखकर दिया। इसको देखकर मुझे अपनंश रूपका ध्यान आया और साथ ही अपने बचपनमें पढ़ी अंगरेजीकी सिंड्रेला शीर्षक कथाका भी स्मरण हुआ। उसी बोच में वैशाली प्राकृत जैन रिसर्च इंस्टीटयूटको स्थापना हेतु बिहार राज्यमें चला गया । सन् १९५५ में जो ओरियण्टल कान्फरेंसका अधिवेशन अन्नमलाई विश्वविद्यालय, विदाम्बरममें हुमा, उसमें मैंने इस कथाका व उक्त चित्रित प्रतिका परिचय अपने 'पैराललिजिम अब टेल्स बिट्वीन अपभ्रंश एण्ड वेस्टर्न लिटरेचर' शोषक लेखमें दिया, जिससे विद्वानोंको इस ओर विशेष रुचि जागृत हुई, और वे इसके प्रकाशनके लिए उत्सुकता प्रकट करने लगे। तब मैंने इस ओर विशेष ध्यान दिया, एवं संस्कृत और हिन्दीकी कथाओं को भी खोजकर प्रस्तुत संस्करण तैयार किया। भारतीय ज्ञानपीठकी मूर्तिदेवी ग्रन्थमालामें इसके प्रकाशनका प्रस्ताद भी शीघ्र स्वीकृत हो गया, तथा मूल रचनाओं व अनुवादोंके मुद्रणमें बहुत समय भी नहीं लगा। किन्तु मेरी इच्छा थी कि मराठी प्रतिके समस्त चित्रोंकी छाया भी इसके साथ प्रकाशित की जाये। इम कार्यमे बड़ा बिलम्ब लगा और अनेक विघ्न-आधाएँ । चढ़ाव-उतार आये। उन सबको पार कर जिस रूपमें अब या ग्रन्थ पाठकोंके हाथ पहुंच रहा है, आशा है उससे सभीको सन्तोष होगा।
उक्त मास्त्र भण्डारों, विद्वानों एवं भारतीय ज्ञानपोठके अधिकारियोंके ही सहयोगसे यह कृति इस रूपमें प्रकट हो सकी है, अतएव में उनका हृदयसे अनुगृहीत हूँ। सिंघई प्रेस, जबलपुरके मालिक श्री अमृतलालजीने चित्रोंके ब्लाक बनवाने और उनका मुद्रण करानेमें विशेष रुचि दिखलायो अत: में उनका बड़ा उपकार मानता हूँ। विद्वदर १० बासुदेवशरण अग्रवालसे मैंने प्रार्थना की कि वे इन चित्रोंका परिचय लिखवा देनेकी कृपा करें। उनके स्वास्थ्यको देखते हुए मुझे भय था कि वे कदाचित् इस भारको स्वीकार न कर सकें, किन्तु मुझे बड़ा हर्ष और सन्तोष है कि उन्होंने इसे सत्काल स्वीकार कर लिया और शीघ्र ही डॉ० गोकुलचन्द्र जैनको चित्र-परिचय लिखवा दिया। इस कृपाके लिए मैं उनका बड़ा आभारी हूँ।
इस प्रकार इस प्रकाशनमें जो कुछ अच्छाई और भलाई है, वह उक्त सहयोगका फल है, तथा उसमें जो दोष व त्रुटियाँ रह गयो हों वे मेरे अज्ञान व असामर्थ्यका परिणाम है, जिसके लिए पाठकोंसे मेरी क्षमायाचना है।
-होरालाल जैन