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सुगन्ध दशमी कथा
तथा षष्ठयां च सप्तम्यामष्टम्यां नवमीदिने । faererent भूयो दशम्यां जिनवेश्मनि || ६० ॥ उपवासं समादाय विधिरेष विधीयते । चतुर्विंशति तीर्थेशां स्नपनं प्रीयते ॥ ६१ ॥ पूजने स्तवनं जापं दशशः कियते बुधैः । मुखैर्दशभिरामासी घटस्तत्र निधीयते ॥ ६२ ॥ धूप दशविधस्तत्र दाने मृदुनाग्निना । कृष्णागुर्वादिरचैर्य विशेषेण विधीयते ॥ ६३ ॥ कुङ्क मागुरुकर्पूरचन्दनादिविलेपनम् ! तत्प्रकारं च विज्ञेयं तद्वदेवातादिकम् ॥ ६४ ॥ संलिखेत्सप्तभिर्धान्यैः स्वस्तिकं तत्र दीपकान् । स्थापयेदश चेत्येवं दशाब्दान् परिकल्पयेत् ॥ ६५ ॥ पूर्णेऽथ दशमे वर्षे तदुद्यापनमाचरेत् । शान्तिकं वाभिषेकं वा महान्तं विधिवत्सृजेत् ।। ६६ ।। gruti करं कुर्याजिनायें च तदङ्गने । fafe दशभिर्वतानं च वितानयेत् ॥ १७ ॥ ध्वजान् दशपताकांश मादिन्यस्तारिकास्तथा । चामराणां युगैर्धूपदहनामि दश क्रमात् ॥ ६८ ॥
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चाहिए और भगवान्को कुसुमाञ्जलि चढ़ाना चाहिए । उसी प्रकार जैन मन्दिरमें ष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी और फिर दशमीको भी भगवान के आगे कुमुमाञ्जलि चढ़ाना चाहिए। दशमीको पुनः उपवास धारण करके निम्न विभिसे व्रत पालन करना चाहिए—
उस दिन चौबीसी भगवान्का अभिषेक कराकर दश पूजाएँ करना चाहिए । दश स्तुतियाँ पढ़ना चाहिए और दश बार जाप देना चाहिए। दशमुख वाले एक घटकी स्थापना करके उसमें मन्द अग्नि जलाकर दशांगी धूपका होम करना चाहिए | इस विधि काली अगरबत्ती आदि सुगन्धी द्रव्यों का उपयोग विशेष रूपसे करना चाहिए। केशर, अगर, कर्पूर और चन्दन आदिको घिसकर शरीर में लेप करना चाहिए और अक्षतादि अष्ट द्रव्य तैयार कर पूजन करना चाहिए। जिस प्रकार यह विधान किया जाता है उसकी समस्त विधि शास्त्र से जान लेना चाहिए | सात प्रकारका धान्य लेकर उससे स्वस्तिक लिखना चाहिए और उसमें दश दीपक रखकर जलाना चाहिए | इस प्रकार यह समस्त विधि दश वर्ष तक करना चाहिए ।। ५९-६५ ।।
प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ला पंचमी से लेकर दशमी तक उक्त प्रकार व्रत पालन करते हुए जब दश वर्ष पूर्ण हो जाँय तब उस व्रतका उद्यापन करना चाहिए। उस अवसर पर शान्ति विधान या महाभिषेक या इसी प्रकारकी कोई महान् विधि प्रारम्भ करना चाहिए। जिन भगवान् की वे आगे मन्दिरके आँगनमें खूब फूलों की शोभा करना चाहिए। दश रंगों का चित्र-विचित्र चदेवा तानना चाहिए। दश ध्वजा, दश पताका, दश बज्रनेवाली तारिकाएँ ( घण्टिका ), दश जोड़ी चमर और दश धूप घट, ये सब दश दश सजाना चाहिए। इस अवसरपर आरातीय