________________
[१,६,१८
सुअंधमोकहा घसा-गमस्थहे मुड चंडालु तहे मायरि पुरए जम्मंतियहे ।
जोयण दुग्गंधु सरीरहो वि आवड फुडु तहे .तीयहे ॥६॥
असहंतहि चंडाल हि दुगंधु ।। चिंतिउ कि किन्जइ पडिणिबंधु । छुड एकई बहुअहं होइ दुक्तु: तोपरा मोचु । इम जपिवि अडविहि गइ मुक्क । वरिसट्ठ जाम ता तहिं मि थक्क । पिप्पल पिलिखिरिण उंबर फलाई। भक्खइ पालुंबार सदलाई। एत्यंतरे के मुहासरेण ।
गुरु पुच्छिउ सविणय णुअसिरेण । परमेसर पूरिय-पासरंधु ।
कहिं प्रावइ एहु अइसय-दुगंधु । मुणि पभराइ रिणय-हिय-कोषकरणि ।। चिरु रिसिहि उपरि संसार-सरणि । ते पावई एहु दुग्गंधु जाउ।
तं सुशिवि चविउ सिसु पुरण सराउ । मिच्छरिहइ किम एह एह पाउ । ता कहिङ मुरिगदें तहो उवाउ । मेल्लेवियु जिरणवर-धम्मसारू। को जीवहं अराणु जि होइ तारु । दयमूलु खंति मद्दव परदु ।
अजव सउच्च सचोवविंदु ।
उसका शरीर यहाँ भी बहुत दुर्बल था | और शीघ्र वह यहाँ भी मरणको प्राप्त हुई।
साँभरीकी योनिसे निकलकर वह रानीका जीव एक चाण्डालिनीके गर्भ में आया। गर्भमें आते ही उसके चाण्डाल पिताकी मृत्यु हो गई और उसको जन्म देनेकी पीड़ामें ही माताका मरण हो गया । इस चाण्डाल-सुताके शरीरसे एक योजन तक जानेवाली दुर्गन्ध निकलने लगी ॥ ६ ॥
इस मातृ-पितृ-विहीन चाण्डाल-कन्याफी उस घोर दुर्गन्धको उसके पड़ौसी चाण्डाल भी सहन न कर सके । तब वे सोचने लगे कि इस आपत्तिका क्या उपाय किया जाय । जब किसी एकके कारण अनेकोंको दुःख उत्पन्न हो, तो इस एकका तिरस्कार कर दिया जाय, इसीमें भलाई है। ऐसे आपसमें विचार कर उन्होंने उस दुर्गन्धा कन्याको एक अटवीमें ले जाकर छोड़ दिया । वहाँ चह आठ वर्ष तक रही। वह पीपल, पिलखिन, ऊमर आदि अभक्ष्य उदुंबर फलोंको मय पत्तोंके भक्षण कर जीवित रही।
एक दिन उसी अटवीके समीप कुछ मुनि विहार कर रहे थे । एक मुनिने अपने गुरुको प्रणाम कर विनय भावसे पूछा... हे गुरुवर, यह हमारी नाकको भरनेवाली महान् दुर्गन्ध कहाँ से आ रही है ? तब उन मुनीश्वरने उत्तर दिया--"एक स्त्रीने अपने हृदयमें मुनिराजपर क्रोध धारण किया था, उसी पापके फलसे उसके मुँहमें दुर्गन्ध उत्पन्न हुई है, जो जन्म-जन्मान्तरमें भी उसका पीछा नहीं छोड़ती ।" गुरुकी यह बात सुनकर उस शिष्यने मुनिसे फिर भक्तिपूर्वक पूछा-हे गुरु कर, अब हमें आप कृपाकर यह बतलाइये कि उस स्त्रीका यह पाप कैसे दूर होगा ? तब मुनिराज उस पापके निवारणका उपाय बतलाने लगे। वे बोले
इस संसारमें सारभूत वस्तु जैनधर्म ही है । उस जैनधर्मको छोड़कर और कौन इस जीवका तरण-तारण कर सकता है । दयामूलक उत्तम क्षमा और मार्दव ये पुरोगामी गुण हैं; आर्जव, शौच