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________________ १,८७] पढमो संधी संजमु तह पोसणु श्रावणीउ । तउ गउ जलउत्तहि तारणीउ ! वैउब्विय करि तह ममि खंभु । दह धम्महं गावइ पुरउ घंभु । इउ पालइ पंचुंबर-विरत्ति । रिणसिभोज्जह मज्जह किंय गिवित्ति । इस कहिउ असेतु वि मुसिवरेण । तेरा वि पायरिणउ प्रायरेण । पुणु सद्दहाणु किंज धम्मु तेगा। णियमिय-पंचुंबर-भक्खरणेग । एतहे विश्राउ परिपुरा जाउ। मुअ धम्महं उपरि घरंति भाउ । घत्ता-तहु चयह पहावई उक्सम-भावई दालिदिय-दियबरहो घरि । जाइवि उप्परिणय देह कुवरिणय उज्जेरिणहि पासरण धरि ।। ७॥ तहि कोसु एक्कु दुग्गंधु जाइ । बहु-पावहु कहिमि रा छेउ होइ । तहि मायरिं मुश्रतहु दियहु कंत। माया-विहीग बहु-दुक्ख-तत्त । जामच्छइ कन्याडु वि करति । खड-का-परण-फल विकिणति । ता अरणहि दिणि गंदण-वरणम्मि। उज्जेणि-तडिहिं तरवर-घणमि । आयउ वि सुदंसणु मुणिपरिदु । गय-वाहणु रेहड़ एवं सुरिद ।। तिइंसगुण संकरु विहाइ। चउभासापट्टणु बंभु पाइ। गय-रहिउ अउब्यु नि विराहु भाइ। बहुगुणा वरणगउं रण कहिमि जाइ । व सत्य, सेज गुणों के सहायक उपद हैं. इन गुमेला पोषण करनेवाला है, तप और त्याग जलोदधिके तारनेवाले है)। विक्रिया अर्थात् अकिंचन उनका मध्यस्तम्भ है और ब्रह्मचर्य मानो दशों धर्मांक आगे है।। इन दश धोंके अतिरिक्त पंच उदुम्बरका परित्याग करना चाहिए तथा रात्रिभोजन व मद्यपानसे भी निर्वृत्ति रखना चाहिए । इस प्रकार मुनिराजने समस्त धर्मका सारभूत उपदेश दिया जिसे उस दुर्गन्धा चाण्डाली ने भी आदर सहित सुना । इसे सुनकर उसने धर्मपर श्रद्धा की और पंच उदुम्बरका त्याग किया | शीन ही उसकी आयु भी पूर्ण हुई। तब वह धर्ममें भावना रखती हुई मृत्युको प्राप्त हुई। उस व्रतके प्रभावसे तथा भरणकालके उपशम भारसे वह उज्जैनीमें एक दरिद्री ब्राह्मणके घर जाकर कुरूप कन्या उत्पन्न हुई।॥ ७ ॥ इस मवमें अब उस कन्याकी दुर्गन्ध एक कोस तक ही जाती थी। तीन पापका अन्त शीघ्र नहीं हो पाता । जन्म होते ही उसकी माता द्विज-पत्नीका भरण हो गया । मातृ-विहीन होकर इसने बहुत दुःख पाया। वह धास, लकड़ी, पत्ते, फल आदि बेचनेका कबाड़ करके अपना पेट पालने लगी । तब एक दिन उस उज्जयिनी नगरीके समीप सघन वृक्षों वाले नन्दन वनमें सुदर्शन मुनिवरका आगमन हुआ। वे मुनीन्द्र गतवाहन अर्थात् बाहनरहित थे जिससे उसकी उपमा सुरेन्द्रसे दी जा सकती है जो गजवाइन अर्थात् हाथी पर आरूढ़ होते हैं। ये तीन दर्शनोंके (चक्षु अचक्षु और अवधि ) के धारक थे जिससे वे त्रिदर्शन अर्थात् तीन आँखों वाले शंकरके समान थे । वे चार भाषाओंके पाठी थे जिससे वे ब्रह्माके समान थे जो चार वेदोंका पाठ करते हैं। वे गदारहित होनेसे अपूर्व विष्णु के समान दिखाई देते हैं। ये इतने गुणवान् थे कि उनके समस्त गुणों का वर्णन करना अशक्य है ।
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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