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प्रस्तावना
"जे त्रिभुवन में जीव अनन्त । सुख चारै दुख भयषम्त ॥" ( दौलतर।म : छहवाला)
सुखलिप्ताको इसी घेतनासे प्रेरित होकर मनुष्यने एक और कर्मशीलताका विकास किया, जिसके द्वारा उसने घर-द्वार निर्माण, अन्न-पान-संचय, बस्त्राभूषण, औषधि-उपचार आदि सम्बन्धी नाना प्रणालियोंका आविश्कार किया। दूसरी ओर उसने यह भी देखा कि उसके कार्य क्षेत्रके पर कुछ ऐसी भी प्राकृतिक शक्तियाँ है, जैसे अग्नि, वर्षा, वायु, सूर्व आदि जो कभी अनुकूल होकर उसके सुख में वृद्धि करती है। 'और कभी प्रतिकूल होकर उसकी उपर्युक्त सुस्त्र-सामग्रीको नष्ट-भ्रष्ट कर डालती है। उसने इसे अनुभवगम्य मनुष्य-स्वभावके आधार पर उन दिभ्य शक्तियोंके रोष-तोषका परिणाम समझा। यह समझदारी प्राप्त होते ही उसने उन शक्तियोंको अपनी अच-स्तुति-द्वारा प्रसन्न करने और अपने हितोंके अनुकूल बनाने का प्रयल पारम्भ कर दिया । यह स्थिति हम भारतीय प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेदकी ऋचाओंमें प्रतिविम्वित पाते हैं जहाँ यजमान स्पष्ट ही बहता है कि "मैं अग्निका आह्वान करता हूँ, अपने कल्याणके लिए; रात्रि जगत्.भरको विश्राम देतो है, इसलिए मैं उसका भी स्वागत करता हूँ; और सविताको बुलाता हूँ कि वह मेरा परित्राण करे। (ऋग्वेद, १,३५,१) इस प्रकार इन्द्रसे गायों, घोड़ों, धन तथा योद्धाओंकी रक्षा करने. को ( १, ४ आदि), वरुणसे पाससे बचाने ५ पूर्णायु प्रदान करने तथा अपना क्रोध दूर करने की ( १, २४ ); मरुत्से बल-वृद्धि, शत्रु-दमन तथा यमके मागसे बचाने की ( १, ३७.३९); तथा ब्रह्मणस्पतिसे बल, अश्व, बलवान् शत्रुके विनाश आदि (१, ४० ) की प्रार्थनाएं की गयी है, और इन्हीं गुणोंके कारण उन्हें स्तुत्य, पूज्य तथा आह्वान करने योग्य माना गया है ।
क्रमश: रोश-तोपके कारण भक्तोंका अनिष्ट व इष्ट सम्पादन करने का सामध्ये उन देवताओंके पाचित्र प्रतिनिधि ऋषियों में भी माया। यह क्रान्ति हमें विशेष रूपसे महाभारत व रामायण तथा अन्य पौराणिक साहित्यमें दृष्टिगोचर होती है। इतना ही नहीं, किन्तु ऋषियों में यह शक्ति भी मानो गयी है कि वे रुष्ट कर शाम-नारा मनुष्यको घोर तिमी पहुंचा है, और प्रसन्न होकर सापके निवारण व मनुष्यक उत्थानका भी उपाय बतला सकते हैं। कपिल मुनिन रुष्ट होकर सम्राट् सगर के साठ सहस्र पुत्रीको भस्म कर दिया और फिर प्रसन्न होकर गंगाजल-नारा उनके उद्धारका भी उपाय बतला दिया ( रामायण १. ४. आदि )। शक्काचार्य शानसे सम्राट ययाति एवावस्था में ही वृद्ध हो गये, किन्तु उन्हीके अनुग्रही उन्होंने अपने बेटे पुरुका यौवा प्राप्त कर लिया ( महाभारत १,७८)। ऋषियोंका यह सामर्थ्य इतना भी बढ़ा कि वे स्वयं देवताओं को भी शाप देकर मनुष्यादि योनियोंम गिराने लगे। नहुष इन्द्रपदको प्राप्त होकर भी अगस्त्य ऋषिके शापसे सर्प बनकर अमरपुरीसे गिर प्रष्टा ( महाभारत ), व गौतम ऋषिके शापसे इन्द्रदेव भी विफल (नपुंसक ) हो गये ( रामायण १, ४८, २८-२९)1
ऋषियोके सामर्थ्यकी इस शृंखलामें महाभारतका निम्न आरूपान (परिशिष्ट १) ध्यान देने योग्य है--
अद्रिका नाम की एक प्रसिद्ध अप्सरा थी। कारणवश वह एक ब्राह्मणके कोपका भाजन बन गयी और ब्रह्मदाप-द्वारा यमुना नदी में मछलीको योनिमें उत्पन्न हुई। ( महाभारत १, ५७, ४६) प्रसंगवश उसके उदर में दि-सम्राट् वसुका वीर्य प्रविष्ट हो गया । भके दसवें मासमें वह मछलो धोवरों-द्वारा पकड़ी गया और उसके उदरसे एक स्त्री और एक पुरुष निकाले । मछली तो शापमुक्त होकर पुन: अप्सरा हो गयी, और उसकी मानवी सन्तति-रूप उन स्त्री-पुरुषोंकी राजा वसुको समर्पित किया गया 1 वसुने पुरुषको तो मत्स्य नामसे राजा बना दिया, और कन्याको एक दासको पालन-पोषणके लिए दे दिया। बड़ों होनेपर बह कन्या अपने दास पिताकी सेवा-सहायता करने लगी। और उनकी अनुपस्थिति में नाव चलाकर पथिकोंको नदी पार भी करने लगी।
एक बार इस दास-कन्याको नाव-द्वारा पराशर ऋषिको नदो पार कराने का प्रसंग आया। कन्या अत्यन्त रूपवती थी, किन्तु उसके शरोरसे मत्स्यको दुर्गन्ध निकलती थी, जिसके कारण यह मापगन्या