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________________ सुगंधदशमी कथा (त्रिभुवनगिरि ) में रचित कहा है। सौभाग्यसे ये दोनों स्थान पहचान लिये गये हैं। महावन तो मथुराके निकट यमुना नदी के उस पार बसा हुभा है, और वह उत्तर प्रदेशके नकरों में अब भी देखा जा सकता है। कविने इस नगरको स्वर्ग कहा है, जिससे उसको उन दिनोंकी महत्ता प्रकट होती है। तिहयणगिरि आजकलका तिहनगढ़ ( धनगड़ या अनगिर ) है, जो मयुरा या महावन से दक्षिण-पश्चिमकी ओर लगभग साठ मील दूर राजस्थानके पुराने करीलो राज्य व भरतपुर राज्यमें पड़ता है। इस प्रकार इन पन्थकारोंका निवास व विहार का प्रदेश मथुरा जिला और भरतपुर राज्यका भूमिभाग कहा जा सकता है । ६. उक्त समस्त रचनाओं में उनके रचनाकालका निर्देश नहीं पाया जाता । सौभाग्पसे विनयचन्द्र मुनिने अपनी 'चूनडी' नामक रचनामें एक ऐसा संकेत दिया है, जिससे इनके रचनाकालका अनुमान लगाया जा सकता है। उन्होंने कहा है कि 'चूनही' की रचना उन्होंने तिल्हयणगिरिमें अजयनरेन्द्र के राजविहारमें रहते हुए की थी । ऊपर हम देख हो चुके हैं कि यह तिहुयणमिरि आजकलका तिहनगढ़ है । इसके पूर्व इतिहासका पता लगानेपर हमारो दृष्टि वहाँके मकालीन यदुवंशी राजारापर जाती है । भाटोंके ज्ञातों व उत्कीर्ण लेखोंपर-से पता चलता है कि भरतपुर राज्य व मथुरा जिलाके भूमि-प्रदेशपर एक समय यदुवंशी राजाओंका राज्य था, जिसको राजधानो श्रोपथ ( आधुनिक बयाना, राजस्थान ) थी । यही पारहवीं शतोके पूर्वाध में जैतपाल नामक राजा हुए। उनके उत्तराधिकारी विजयपाल थे, जिनका उल्लेख विजय नामसे बयानाके सन् १०४४ के उत्कीर्ण लेख में भी पाया गया है। इनके उत्तराधिकारी हुए त्रिभुवनपाल (तिहनपाल ) जिन्होंने बपानासे १४ मोल दूर बिगुट (जिसढ़ का किला बनवाया । इस यशके अजयपाल नामक राजाकी एक उत्कीर्ण प्रशस्ति महावन से मिली है, जिसके अनुसार सन् ११५० ई० में उनका राज्य प्रवर्तमान था। इनके उत्तराधिकारी हरिपालका भो सन् ११७० का एक उत्कीर्ण लेख महावनसे मिला है । भरतपुर राज्य के अधपुर नामक स्थान से भी एक मूत्ति मिली है, जिसके सन् १९९२ में उत्कोण लेख में सहनपाल नरेशका उल्लेख है । इनके उत्तराधिकारी कुमारपाल ( कुंवरपाल ) थे, जिनका उल्लेख मुसलमानी तवारीख ताजुल मासिरमें भी मिलता है, और वहां कहा गया है कि इनके समय तिहनगढ़ या थनगढ़बर सन् ११९६ ई० में मुइनुद्दीन मुहम्मद गोरीने आक्रमण कर वहकि राय कुंवरपालको परास्त किया और वह दुर्ग बहाउद्दीन तुरिलको सौंप दिया । कुंवरपाल के उत्तराधिकारी अनंगपाल, पृथ्वीपाल व त्रिलोकपाल के नाम पाये जाते हैं। किन्तु सम्भवतः इतिहासातीत कालसे प्रसिद्ध शूरसेन प्रदेश व मथुराके वासुदेव और कृष्णके नामोंसे सुप्रसिद्ध यदुवंशको राज्यपरम्पर। बारहवीं शती तक आकर मुशलमानी आक्रमणकारियों के हाथों समाप्त हो गयो। यहाँ प्रस्तुतीपयोगी ध्यान देने योग्य बात यह है कि सुगन्ध दशमो कथाके कर्ता उदयचन्द्र के शिष्य विनयचन्द्र ने जिस त्रिभवनगिरि (तिहनगढ़ ) में अपनो उक्त दो रचनाएँ पूरी की थी, उसका निर्माण इस यदुवंश के राजा त्रिभुवनपाल ( तिहमाल ) ने अपने नामसे सन् १०४४ के कुछ काल पश्चात् कराया था। तथा अजय नरेन्द्र के जिस राजबिहार में रहकर उन्होंने 'चूनडी' की रचना की थी, वह निस्सन्देह उन्हीं अजयपाल नरेश-द्वारा बनवाया गया होगा, जिनका सन् १९५० का तत्वोण लक्ष महावनसे मिला है । सन् ११९६ में त्रिभुवन गरि उक्त यदुवंशी राजाओके हाथ से निकलकर मुसलमानांके हाथों में चला गया । अतएर त्रिभुवनगिरि के लिखे गये उक्त दोनों ग्रन्योंका रचना-काल लगभग सन् १६५० और ११९६ के बीच अनुमान किया जा सकता है। और चूकि 'चू नहीं' की रचना के समय उपचन्द्र मुनि हो चुके थे, किन्तु सुगन्धदशमीको रचनाके समय वे गृहस्थ थे, अत: सुगन्धदशा मोका रचनाकाल लगभग ११५७ ई० माना जा सकता है । ३. कथाका मौलिक प्राधार और विकास यह बात सुज्ञात और सर्व-सम्मत है कि जीवमात्र अपने सुख-साधनका और दुःखके निवारणका प्रयत्न करता है। कहा है..
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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