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सुगंधदशमी कथा अति प्रायोन है । इसका मराठी अनुवाद जिनसागर-द्वारा सन् १७२४ के लगभग, संस्कृत अनुवाद श्रुतसागरद्वारा व गुजरातो अनुवाद जिनदास-द्वारा सन् १४५० के लगभग, एवं अपभ्रंशको मूल रचना सन् ११५० ६० के लगभग हुई पायी जाती है। अत: कोई आश्चर्य नहीं जो भारतीय अन्य कथाओंके सदृश इस कथाका भी देशान्तर-गमन हुआ हो, जिसका प्रसार-क्रम गवेषणीय है। ६. कथाका उत्तरकालीन प्रभाव
सुगन्धदशमी कथाका प्रभाव उससे उत्तरकालीन कथा-साहित्यपर पर्याप्त मात्रामें पड़ा दृष्टिगोचर होता है। उदाहरणार्थ-हरिभद्रकृत लम्मत्तसत्तसि (सम्यक्त्वसप्तति ) नामक ७० गाथात्मक एक रचना है, जिसपर गुणशेखर सुरिके शिष्य संघतिलक सूरिने वि० सं० १४२२ ( सन् १३६५ ) में एक मुविस्तृत टीका लिखी है। इस टीकामें उदाहरण रूपसे बोस कथाओंका समावेश पाया जाता है, जिसमें देव-गुरु यावृत्यके उदाहरणमें 'आरामसोहा' नामक प्राकृत गद्यात्मक कथा ( सूरियपुर, वि० सं० १९९७ ) यहाँ ध्यान देने योग्य है -
चम्पा नगरीमें कुलघर नामक सेठ और उसकी कुलानन्दा पत्नी रहते थे। उनके कमलश्री आदि सात पुत्रियोंके पश्चात् आठवों कन्या उत्पन्न हुई। उस समय सेठको सम्पत्ति नष्ट हो जानेसे वे दुखी रहते थे। इसीसे इस कन्याका नाम निभंगा पड़ गया । यवती हो जाने पर भी उसके विवाह का सेठ कोई प्रबन्ध नहीं कर पाता था जिससे वह चिन्तित रहने लगा। अकस्मात् एक दिन कोई नवागन्तुक उनके द्वारपर कुछ पूछताछ के लिए आ उपस्थित हुआ। सेठन उसे लोभ देकर अपनी पुत्रीसे विवाह करनेके लिए राजी कर लिया। वह चोल देशसे आया था, अतः वहीं जानेके लिए सेटने उसे अपनी पुत्रीसहित केवल मार्गके लिए मुछ सम्बल देकर विदा किया। उज्जैन में आकर उसने विचार किया कि उनके पास मार्गमें दोनोंके खानेपीने योग्य सामग्री नहीं है। अत: वह अपनी वधूको वहीं स्पेती छोड वर से चल दिया। जागने पर निर्भगा विलाप करने लगी। उसो समय मणिभद्र सेठने वहाँ पहुँच कर उसे आश्वासन दिया और अपने घर ले आया । यहाँ वह घरका काम-काज तथा मन्दिर में धर्म कार्य घड़ी श्रद्धापूर्वक करने लगी। मन्दिरका मूस्खा उद्यान भी उसने अपने परिश्रमसे हरा-भरा कर लिया। अन्तत: परकर वह स्वर्गमें गयो ।
स्वर्ग में अपनी आयु पूर्ण कर निर्भगा भारतवर्ष में कुसट्ट देशवतीं 'बलासभ' नामक ग्राममें अग्नि शर्मा ब्राह्मणकी पत्नी अग्निशिखाके गर्भसे विद्युत्नभा नामक कन्या उत्पन्न हुई । आठ वर्षकी आयुमें उसकी माताका देहान्त हो गया, और उस छोटी सी बालिकाके ऊपर ही घरका सब काम-काज आ पड़ा। उसका बोझ हलका करने के निमित्त पिताने दूसरा विवाह किया, जिससे एक और कन्याका जन्म हुआ। यह विमाता विद्युप्रभासे अच्छा व्यवहार नहीं करती थी। अतः उसका भार हलका नहीं हुआ, बस्कि दुगुना हो गया, जिससे कन्या अपने दुर्भाग्यको दोषी ठहराने लगी । एक दिन वह सदैवकी भांति अपनी मौओंको चराने ले गयी थी। मध्याह्न हो गया, और वह ऐसे स्थानपर पहुँच गयी जहाँ वृक्षको छामा भी उपलब्ध नहीं थी। वह थक कर धूपमें ही लेट गयी । उसो समय एक काला नाग नहाँ मा पहुँचा, जिसने मानवो भाषामें उसे जगाया, और अपना पीछा करने वाले गारुडिकसे रक्षाके लिए अपनी गोद में आश्रय देनेकी प्रार्थना की। कन्याने वली किया । गाडिकोंके चले जाने के पश्चात् उस नागने अपना दिव्य रूप प्रकट किया, और कन्यासे वरदान मांगनेको कहा । उसने केवल गौओंको चराने की सुविधाके लिए अपने ऊपर छाया प्राप्त करनेकी इच्छा प्रकट की। नागदेवने उसके ऊपर एक सुन्दर उद्यानका निर्माण किया जो उसके साथ-साथ उसकी इच्छानुसार गमन करे। इसके अतिरिक्त उसने यह मो वरदान दिया कि जब भी उसपर कोई विपत्ति पड़े, या साहाय्यके लिए उसका स्मरण करे, तभी वह आकर उसको रक्षा व इच्छापूर्ति करेगा। इन वरदानोंसे उसके दिन सुखपूर्वक बीतने लगे।
एक दिन विद्युत्प्रभा गोश्रोंको चराकर मध्या हमें उसी माया-उद्यानकी छाया विश्राम कर रही थी,