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________________ प्रस्तावना लौटो लौटो राजकुमार । देखो जूती खूब निहार ।। दो अपनी पत्नी प्यारी ! यह रानी नहीं ताहारी ॥ यह सुनकर राजकुमार लोट पड़ा, और उसे ल सके धर उतार दिया, अब माताने अपनी दूसरी पुत्रीके पैरमें उस जूतोको पहनानेका प्रयत्न किया, उसकी एड़ी इतनी बड़ी थी कि वह जूती में नहीं बैठ सकी। तथापि रानी बनाने के लोभसे माने उसे जबर्दस्ती जूती में ढूंस दिया, जिससे एड़ी लहू-लुहान हो गयी । राजकुमार उसे अपने घोड़ेपर बैठाकर ले चला। किन्तु उस हैजल वृक्षसे पुनः वहीं गानेकी ध्वनि सुनायी यो । अतएव राजकुमार फिर लोट पड़ा । लाचार होकर अबकी बार अश्पुटेलके पैरमें जुती पहनायी गयो। यह खटसे ठोक बैठ गयी। उसे लेकर जब राजकुमार हैजल वृक्षके समीपसे निकला तो उसे सुनायी पड़ा अब घर जाभी राजकुमार । खूब को रानीसे प्यार ॥ इतना गाकर वह कपोत पक्षी उहकर उस सुन्दरी के कन्धे पर आ बैठा । वे सब जाकर राजमहलमें प्रविष्ट हुए। इन फेंच और जर्मन दोनों कथाओंमें परस्पर बहुत-सी बातोंमें भेद होने पर भी उनमें निम्नलिखित तत्व समान रूपसे विद्यमान है - एक धनी गृहस्थ, उसकी पत्नी और एक पुत्री । पत्नीके देहान्त हो जाने पर धनीका पुनर्विवाह व नयी पत्नीकी अपनी दो पुत्रिया । इस पलोका अपनी दो पुत्रियोंसे प्यार, और उस सौतेली लड़कीसे दुग्यवहार । राजमहल में उत्सव । सौतेली लड़कोकी अवहेलना, किन्तु एक अदृश्य शक्ति (उसकी मृत माताको आत्मा )-द्वारा उसकी सहायता । दर्शन-मात्रसे राजकुमारका उसकी ओर आकर्षण, और उसको खोजबीन । सौतेली मांफा अपनी पुत्रियोंको रानी बनानेका निष्फल प्रयास । अन्ततः सौतेली लड़को का भाग्योदम और राजमहलकी रानी के रूपमें प्रबंया । ये समस्त तत्त्व प्रस्तुत सुगन्धदशमो कथाके द्वितीय भागमें विद्यमान हैं, और जो भेदकी बातें हैं, वे भारतीय और यूरोपीय सम्यता व संस्कृति के बीच भेदसे सम्बन्ध रखती है। यूरोपीय कथाओंमें धनिकने अपनी पूर्व पत्नीको मृत्यु होने पर एक ऐसी महिलासे विवाह किया, जिसकी पहले से ही दो पुत्रियों भी। यह बात भारतीय स्वस्य परम्पराके अनुकूल नहीं 1 अतएव यहाँ दूसरा विवाह हो जाने के पश्चात् एक पुत्रो उत्पन्न होनेकी बात कही गयी है । उसो प्रकार राजोत्सवका आयोजन, उसमें उन कन्याओंका जाना रामकुमारके साथ नृत्ल करना, तथा जूती के द्वारा राजकुमारको सच्ची प्रेयसीका पता लगाया जाना, यह सब भी यूरोपीय परम्पराके अनुकूल है, भारतीयताके अनुकूल नहीं। दूसरी बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि यूरोपीय दोनों कथाओंमें उस सोसेली कन्याके दुर्भाग्यको पलटनेके लिए बहुत कुछ देवो चमत्कारका आश्रय लिया गया है। किन्तु उक्त भारतीय कथानकमें कहीं भी किसी अप्राकृतिक तत्त्वकी योजना दिखाई नहीं देतो। सर्वत्र ऐसो स्वाभाविकता है जो कभी भी कहीं घटित हो सकती है। यहाँ जुती-वारा पत्नीकी पहचान नहीं, किन्तु पत्नी-द्वारा पतिके चरण स्पर्शसे उसकी पहचान करायी गयी है। वह भारतोय संस्कृतिका अपना असाधारण लक्षण है, जो यूरोपीय रीति-रिवाजके अनुकूल नहीं । उन्त सांस्कृतिक तत्त्वोंको पृथक् करके देखने पर हमें यह प्रतीत हुए बिना नहीं रहता कि सम्भवतः यूरोप और भारतके बीच इस कथानकका आदान-प्रदान हुआ है । मैक्समूलर व हटेंक आदि अनेक विद्वानोंने यह सिद्ध कर दिखाया है कि भारतीय कथाओंका अटूट प्रवाह अति प्राचीनकालसे पश्चिमकी ओर प्रवाहित होता रहा है, जिसके फलस्वरूप वेदकालीन, जातकसम्बन्धी तथा पंचतन्त्र, हितोपदेश व कथासरित्सागर आदि भारतीय आख्यान साहित्यमें निबद्ध अनेक लोक-कथाएं पाश्चात्य देशोंमें जाकर, वहाँके वातावरणके अनुकूल हेर-फेरसहित प्रचलित हुई पायी जाती है। उक्त यूरोपीय कथाके सबसे प्राचीन लेखक पास परोल्टका जीवन काल सन् १६२८ से १७०३ तक माना गया है । उनसे पूर्व इस कथानकके यूरोप में प्रचलित होनेका कोई प्रमाण हमारे सम्मुख नहीं है। इसको तुलनामें भारतकी सुमन्यदशमी कथाको परम्परा
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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