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________________ सुगंधदशमी कथा करनी पड्नी, उनके जूतोंगर पालिश भी करनी पड़ी, तया उनको पोशाककी साज-सम्हाल भी करनी पड़ी। अश्पुटलने अपनी मासे अपने जाने की भी इच्छा प्रकट की। सौतेली माने उसे टालने के लिए कहा, "अच्छा मैं इन कुंडे भर मटर के दानोंको उस रास्तके ढेर में मिला देती हूँ, यदि तुम उन्हें दो घण्टोंके भीतर चुनकर अलग कर लोगो, तो मैं तुम्हें भी स्वयंवर में जाने दूंगी।" अपुटैलने यह शर्त स्वीकार कर ली, और अपने साथी कबूसरों व अन्य पक्षियोंकी सहायतासे उस कामको एक घण्टे में ही निपटा दिया। किन्तु माने फिर कहा, "नहीं, नहीं, तुम्हारी पोशाक बहुत मलिन है, अतः मैं तुम्हें राजोत्सबमें न जाने दूंगी।" अश्पुटेलके पुनः आग्रह करनेपर उसने कहा, "अच्छा, मैं अब दो कुण्डे मटरके दानोंको रासके ढेरमें मिलाती हूँ, यदि तुम एक घण्टेमें इन्हें चुन लोगी, तो मैं तुम्हें भी जाने दूंगी।" अश्पुटलने कबूतरोंकी सहायतासे यह कार्य भी पूरा कर लिया । किन्तु सौतेली माँका हृदय फिर भी न पसीजा । अन्तमें उसने यह कह कार उसे बिलकुल मना कर दिया कि तुम्हारा वहां जाना बिलकुल निरर्थक है । तुम्हारे पास न तो अच्छी पोशाक है, और न तुम्हें नाचना ही आता है । अतएव तुम्हारे वहां जानसे हम सबको लज्जित होना पड़ेगा। सब राजोत्सव में चले गये, और बेचारो अश्पुटैल अपनी माताकी श्मशान भूमि पर जाकर उस हैजलके वृक्षके नीचे फूट-फूटकर रोने लगी। और गाने लगो - हिलो हिलो तुम हैजष्ट वृक्ष । 'चाँदी सोना बरपे स्वच्छ ॥ इस पर उसके मित्र पक्षाने वृक्षसे उड़कर उसे चोदी-सोनेको पोशाक और रेशमको जूतिया ला दी । उन्हें पहिनकर अश्पुटैल भी स्वयंवर उत्सवमें जा पहुँची। उसकी बहिनों ने उसे देखा, किन्तु वे पहिचान न सकी। उन्होंने समझा वह कोई राजकुमारी होगी। उत्सबमें राजकुमारने अश्पुटल को ही अपने साथ नृत्य करने के लिए चुना, और अन्त तक उसका हाथ न छोड़ा । बहुत रात गये जब वह घर जाने लगी तब राजकुमारने स्वयं उसके साथ जाकर घर पहुँचा देने की इच्छा प्रकट की । किन्तु इस बात से अश्पृटंल बहुत घबराया, और राजकुमारको आँख बचाकर वहाँसे निकल भागी। दूसरे दिनके उत्सवमं भी अशुटैल उसी भांति सुसज्जित होकर पहुंची। आज राजकुमारने निश्चय कर लिया कि वह उसका साय कभी न छोड़ेगा। उत्सवसे विदा होते समय वह उसके साथ हो गया। किन्तु घरके पास पहुंचने पर वह राजकुमारकी आँखे बचाकर छगोचेमें छिप गयी, और चुपके चुपके अपने स्थान पर जा पहुँची। परन्तु राजकूमारने निश्चय कर लिया था, अतएव वह वहीं डटा रहा। अश्पटलके पिताके लौट आने पर राजमारने उससे कहा कि उसकी प्रिया उसी बगीचे में कहीं छिप गयी है। दोनोंने मिलकर बहुत हूंढा, किन्तु उसका पता न चला। तीसरे दिन और भी अधिक सुसज्जित होकर अपुटल उत्सबमें पहुँची। सबको दृष्टि उसीके अनुपम सौन्दर्य और अपार वैभव की ओर थी। राजकुमारने आज पसभर के लिए भी उसका साथ न छोड़ा । जाते समय पुनः उसका पीछा किया। तथापि अपने घरके समीप पहुँचकर अश्पुटैल अदृश्य हो गयो । किन्तु घबराहट में उसके पैरकी एक जूती पैर से निकलकर गिर पड़ी। इस सुवर्णजटित जूतीको राजकुमारने अपने पास रख लिया, और अपने पिताके पास जाकर कहा कि जिसके परमें यह जूती. ठोक बैठ जायेगी, उसीसे मैं अपना विवाह करूंगा । जिस घर में उसकी सुन्दरी प्रिया अदृश्य हुई थी, वह घर तो उसे विदित पा हो । अतः वह जूती उसी घरमें लायी गयो। पहले बड़ी सड़कोने अपना भाग्य आजमाया किन्तु उसके पैरका अंगूठा इतना बड़ा था कि वह जूतीमें किसी प्रकार समाता ही नहीं था। तत्र उसको माने उस अंगूठेको कटवा दिया, और जूती पहनाकर उसे राजकुमारके सम्मुख उपस्थित किया। राजकुमार घोडेपर बैठाकर उसे अपने साथ ले जाने लगा। जब वे उस हेजल वृक्षके समीपसे निकले, तब उसपर बैठा परेवा पक्षी गाने लगा
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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