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________________ [१,१,१० सुअंघवहमीकहा अहिं सरसई सुअ-चुचिय घणाई।। मुहकमल पुरंघिहि जिह वरणाई । जहिं सधणइं पयपूरई सहति ।। गामई जलहरहं वि अणुहति । जहिं कंसदला-लंगलकराई। पामरई व हरि-बल-सारणहाई। जहिं तिलयसालिवर-संजुभाई। छत्ताई व कामिणि ऐ दियाई। जहिं मुहमइलघु थहिम थरणाहं। करपीडणु ताहं जि गज जरगाह। चचलता जहि तिय-लोयणाहं । मउ कलहु वि कुंजर-साहणाहं । घत्तान्तहो देसहो मज्झे पसिद्धिया पुरि बाणारसि थिय पवर । परिहा-पायारहिं परियरिय घयमालालकरियपर ॥१॥ १५ बहुवरण रेहइ एं भड-संगरु । वर-धवलहर-जुत्त कइलासु च। रेहइ सरु जिह सउणावासिय । जोह कुडुचु व दाविय-वरसरु । चोर-कुडुंड व थिय वइवेसुव । कारण जिह वर-कइहिं शिवासिय । कृपाणधारी वीराङ्गनाओका अनुसरण करती हैं जिनके शस्त्रोंकी धारें खूब पानीदार अर्थात् पैनी हैं । वहाँ के सघन वन-उपवन सरस फलोंसे व्याप्त हैं जिनका शुक चुम्बन करते हैं; जिस प्रकार कि वहाँ की पुरनारियोंके मुखकमल लावण्ययुक्त हैं जिनसे वे अपने पुत्रोंके मुखौंका खूब चुम्बन करती हैं । उस प्रदेशके ग्राम धन-धान्य तथा जलसे परिपूर्ण होते हुए शोभायमान हैं और इस प्रकार वे वहाँ के इन्द्रधनुष और पयसे पूर्ण जलधरों अर्थात् मेधोंकी समानता करते हैं। वहाँ के ग्रामीण किसान जब अपने काँसके खेतोंको जोतनेके लिए. हलोंको हाथमें लेकर चलते हैं तब वे विष्णु और हलधर ( बलभद्र) के समान दिखाई देते हैं। वहाँ के खेतोंमें तिलक नामक वृक्षों तथा उत्तम शालिधानको प्रचुरता होनेसे वे वहाँकी उन कामिनी स्त्रियोंकी तुलना करते हैं जो भालमें तिलक दिये हुए हैं और अपने घरों अर्थात् पतियोंके सहित सुखसे रहती हैं । वहाँ मुखकी मलिनता, कठोरता एवं करपीडन तो केवल स्त्रियों के स्तनोंमें देखे जाते हैं न कि जनतामें । उसी प्रकार वहाँ चपलता केवल स्त्रियोंके लोचनों में पाई जाती है और मद व कलह केवल सेनाके हाथियोंमें, न कि लोक-समूहमें । इस प्रकारके उस सुन्दर, समृद्ध और सदाचरणशील (काशी देशमें सुप्रसिद्ध और विशाल वाराणसी नगरी है जो परिखा और प्राकार अर्थात् पुरीकी रक्षाके निमित्त बनाई हुई खाई और कोटसे सुसज्जित है । वहाँ के घर ध्वजा मालाओंसे अलंकृत रहते हैं ॥१॥ वह नगरी अपने अनेक वनोपवनोंसे ऐसी शोभायमान है जैसे योद्धाओंका युद्ध व्रण अर्थात् शस्त्राघातोंसे परिपूर्ण होता है। वहाँ जो उत्तम सरोवर दिखाई देते हैं उससे वह नगर शरोंसे सुसन्त्रित योद्धाओंके समूहके समान प्रतीत होता है। वहाँ के धवलगृहोंके द्वारा नगर कैलाश पर्वत-सा दिखाई देता है । वहाँ व्रतियोंके वेश्म अर्थात् धार्मिक लोगोंके घर स्थित हैं, अतः वह चोरोंके कुटुम्बके सदृश हैं जो विना घर-द्वारके रहते हैं । शकुन अर्थात् पक्षियोंसे परिपूर्ण वहाँका सरोबर ऐसा सुन्दर दिखाई देता है मानो वह शकुनों अर्थात् शुभ सूचनाओंका घर ही हो । यहाँ उत्तम कवियोंका निवास देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो वह कपियों अर्थात् बन्दरोंसे बसा हुआ कोई वन ही हो ।
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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