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________________ सुअंघदहमीकहा पढमो संधी जिण चवीस वेपिणु हिंयई थरेप्पिणु देवत्तहं चउबीसह । पुणु फ्लु माहासमि धम्मु पयासमि पर सुअंघदसमिहि जह।। पुच्छिउ सेरिगएरा तिर्थकरु। कहहि सुधदसमि-फलु मणहरु । भाइ जिविंदु रिगसुणि अहो सेणिय | भव्यरयण गुणरया निसेणिय । इह जंबुदी सुरगिरि - समयणे। लवणारणव-परिवेढिय-स्वयसे । तहिं भरहु वि नामें परिसु सति । जहिं सुरवर गार खेयर रमति । तहि कासी गामई विसउ अस्थि । जहिं सहि चल जूह भमंत हस्थिी जहि सरवर कमलालय हसति । रहिं सरिणह रह - चक्कई धरति । जहि सरिउ पवर पारिणय सहति । सूलिणि-करपालहि अणुहरंति । हिन्दी अनुवाद चौबीसी जिन भगवान्को नमस्कार करके तथा चौबीस देवताओंको हृदयमें धारण करके मैं श्रेष्ठ सुगन्धदशमी व्रतका जो फल होता है उसका व्याख्यान करते हुए धर्मका स्वरूप प्रकाशित करता हूँ | राजा श्रेणिकने चौबीसवें तीर्थकर भगवान् महावीरसे पूछा 'हे भगवन् ! सुगन्धदशमी व्रतके पालनका जो फल होता है उसका कथन करनेकी कृपा कीजिए।' श्रेणिक नरेशका यह प्रश्न सुन कर भगवान् महावीर जिनेन्द्र चोले-हे श्रेणिक ! तुम भव्य जीवों में श्रेष्ठ और गुणरूपी रत्नोंके निधान हो । अतः तुम्हें मैं सुगन्ध दशमी व्रतके फलकी कथा सुनाता हूँ। तुम ध्यान लगाकर सुनो | सुरगिरिके समान, लवण-समुद्रसे वेष्टित तथा रमणीक इस जम्बूद्वीपमें भरत नामक देश है, जहाँ उत्तम देव, मनुष्य व खेचर समी रमण करते हैं । इस भरत क्षेत्रमें काशी नामक प्रदेश है जहाँ हाथियों के झुण्ड विचरण करते हैं, और जहाँ सरोवर कमल-पुष्पोंसे शोभायमान हो रहे हैं । वे चकवों को धारण करते हुए ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे रथी अपने रथों के चक्कों को धारण किये हो । इस प्रदेशकी सरिताओमें प्रचुर पानी बहता रहता है और इस प्रकार वे उन शूल व
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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