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हिन्दी ता करि तिरजगमें दुख पाय | भई बधिक के कन्या आय ||
सो इह देखि फिरत है बाल । सुणि संसय माग्यो तत्काल ॥३२॥ दोहा--फुनि गुरुसे इम शिष कहै अब किम इनि अघ जाय ।
मुनि बोले जिन धर्मको धारे पाप पलाय ॥३३॥ चौपई-गुरु शिष वचन सुता इन सुण्यो । उपशम भाव सुखाकर मुण्यो।
पंच अभख फल त्यागे जबै । अशन मिलन लाग्यो शुभ तबै ॥३४॥ शुद्ध भाव सौ छोरे प्राण । नगर उज्जैनी श्रेणिक जाण ॥ तहाँ दरिदो द्विज इक रहे । पाप उदय करि बहु दुख लहै ॥३५॥ ता द्विज के यह पुत्री भई । पिता मात जम के वसि थई ॥ तब यह दुःखचती अति होय । पाप समान न बैरी कोय ॥३६॥ कष्ट कर करि वृद्ध जु भई । एक समै सा वनमें गई । तहाँ सुदर्शन थे मुनिराय । अस्ससेन राजा तिहिं जाय ||३७॥ धर्म सुण्यो भूपति सुखकार । इह फुनि गई तहाँ तिहि वार ।।
अधिक लोक कन्या . जोय । पाप थकी ऐसो पद होय ॥३८॥ दोहा—जास समै इह कन्यका घास-पुंज सिर धारि ।
खड़ी मुनी-यच सुणत थी फुनि निज भार उतारि ॥३९॥ चौपई-मुनि-मुख से सुणि कन्या भाय । पूरब भव सुमरण जब थाय ।
यादि करी पिछली बेदना । मूछी स्वाय परी दुख धना ॥३०॥ तब राजा उपचार कराय | चेत करी फुनि पूछि बुलाय || पुत्री तूं ऐसी क्यूँ भई । सुणि कन्या तच यूँ बरणई ॥४१॥ पूरख भव विरतंत बताय । मैं जु दुखायो थो मुनिराय ॥ कड़ी तू विडी को जु अहार । दियो मुनी । अति दुखकार ॥४२|| सो अघ अवलो तणि मुझ दहै । इम सुणि नृप मुनिवर सों कहै ।। इह किनि विधि सुख पायै अवै । तब मुनिराज बखान्यू सबै ॥४३॥ जब सुगंध दशमी व्रत धरै । तब कन्या अघ-संचय हरै ।। कैसी विधि याकी मुनिराय । तब ऋषि भादव मास बताय ॥४४॥ शुक्ल पक्ष दशमी दिन सार । दश पूजा करि बसु परफार || दश स्तुति पढ़िये मन लाय | दशमुखको घट सार चनाय ॥४५|| तामैं पावक उत्तम धरै । धूप दशांग खेय अघ हरै ।। सप्त धान्य को साथ्यो सार | करि तापरि दश दीपक धार ||४६॥ ऐसे पूज करै मन लाय । सुखकारी जिनराज बताय ।।
तातें इह विधि पूजा करै । सो भबि जीव भवोदधि तरै ॥४७॥ दोहा-जिनकी पूज समान फल हुवो न द्वैसी कोय ।
स्वर्गादिक पदको करै फुनि देहै सिव लोय ॥४८॥