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________________ सुगंधदशमी कथा सडको क्षमा प्रदान करायी एवं अपनी भगिनीको अपने पास ही रखा । एक दिन आरामशोभाने अपने पतिसे कहा--नाथ में पहले दुःखी थी, पीछे इतनी सुखी हुई, यह किसी पूर्वकृत कर्मका परिणाम होना चाहिए। यह बात आननके लिए राजा-रानी उसी समय विहार करते हुए उद्यानमें आये मुनिराज सूरिके समीप गये, और उनसे अपनी शंकाके निवारणकी प्रार्थना की। मुनिने आरामशोभाफे पूर्वजन्मको कथा सुनायी, और बतलाया कि उसने पूर्वजन्ममें मिथ्यात्वी पिताके गृहमें रहते हुए जो पाप उपार्जन किया था, उसके फलस्वरूप उसे इस जन्ममें उतना दुःख भोगना पड़ा। पीछे मणिभद्र सेठके घरमें रहते हुए उसने ओ देक-गुरु-वैयावृत्य किया था, फसके जलसे उसे वे असाधारण सुखभोग प्राप्त हुए। उसने जो जिनमन्दिरका सूखा उद्यान अपने परिश्रममे हरा-भस कर दिया था उसके फलसे उसे यह दिव्य उद्यान प्राप्त हुआ, इत्यादि । यह सुनकर आरामशोभाको अपना जातिस्मरण हो आया और राजा-रानी दोनों ही अपने पुत्रका राज्याभिषेक कर, प्रवजिप्त हो गये। इस कथानकमें प्रस्तुत सुगन्धदशमो कथाके उत्तर भागका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। आराम. शोभाके बालपन में ही उसको माताको मृत्यु, पिताका दूसरा विवाह, और उससे भी एक कन्याकी उत्पत्ति, विमाताका विद्वेष, बड़ी पुत्रीका भाग्योदय व राजरानी पदको प्राप्ति, विमाता-द्वारा उसके स्थानपर अपनी औरस पुत्री को स्थापित करनेका छल-कपट, आदि तत्त्व वे हो हैं, जो सुगन्धदशमी-कथामें है। किन्तु उनके विवरण और विस्तारमें बहत-सा भेद है, जो इस कथानकका अपना वैशिष्टय है। विशेष ध्यान देने योग्य वहां विमाताका यह प्रयास है, जिसके द्वारा आरामसोभाका विवाह हो जानेपर भी उसने उसके स्थान पर अपनी पुत्रीको रानी बनानेका कपटजाल रचा। दूसरी बात ध्यान देने योग्य है नागदेव-द्वारा आरामशोभाके भाग्योदयमें योगदान, तथा राजभवन में आकर सूर्योदयसे पूर्व लौटने, द अन्यथा उसके नागदेवफे सहयोगसे वेचित हो जाने को । ये प्रसंग पूर्वोक्त सिंड्रेला और अश्पुटैलके च और जर्मन कथानकोंसे तुलनीय है, जह उस सोतेली पुत्री की देवीने सहायता की, माघो रातसे पूर्व राजोत्सबसे लौट आनेका प्रतिबन्ध लगाया व दिमाताने अपनी एक या दुसरी पुत्रीको जबर्दस्ती रानी बनानेका प्रयास किया। आश्चर्य नहीं, सुगन्धदशमोके जिस कथानकका विदेश में प्रसार हुआ, उसमें इस कथाके उक्त तत्त्वोंका भो प्रदेश ब मिश्रण रहा हो । ७. सुगन्धवशमी-कथा : संस्कृत संस्कृतमें वर्णित सुगन्धदशमी-कथा १६१ श्लोकोंमें पूर्ण हुई है, जिनमें अन्तके एक पचको छोड़कर शेष सब अनुष्टुप छन्दमें है। अन्तिम पद्यका छन्द मालिनी है। इसकी होली साधारण कथा-प्रधान है। इसके क ने अपने मुरुक नामका निर्देश रचनाके आदिमें और अन्त में भी किया है। इससे सिद्ध है कि उसके रचयिता विद्यामन्दि यतिके शिष्य श्रुतसागर है। उन्होंने स्वयं अपने व अपनो रचनाके विषयमें इतना और कहा है कि वे वर्णी अर्थात् ब्रह्मचारी ( देशवती साधु ) थे, मुनि नहीं, तथा उन्होंने यह रचना अपने गुरु विद्यानन्दिक अनुरोधसे व उन्हीं के उपदेशसे की थी। श्रुतसागरकी और भी अनेक रचनाएं है टीकात्मक और स्वतन्त्र । इनमें यहा विशेष उल्लेखनीय है उनकी अनेक प्रत कथाएं, जैसे ज्येष्ठ-जिनवर कथा, पोडशकारण कथा, मुक्तावली कथा, मेरुपंकिल कथा, लक्षण-पंक्ति कथा, मेवमालावत कथा, सप्तपरम स्थान कथा, रविवार कथा, चन्दनषष्ठी कथा, आकाशपंचमी कथा, पुष्पाञ्जलो कथा, निष्टुःख सप्तमी कथा, श्रावणद्वादशी कथा व रस्नत्रय कथा। इनमें से कुछ रचनाओं में श्रुतसागरने अपने गुरुके आम्नायादि विषयपर कुछ अधिक प्रकाश डाला है । जैसे षोडशकारण कथामें उन्होंने कहा है श्री मूलसंधे विबुधप्रपूज्य श्रीकुन्दकुन्दान्वय उत्तमऽस्मिन् । विवादिनन्दी भगवान्बभूव स्ववृत्तसारश्रुतसारमाप्तः ।। तत्पादकः श्रुतसागरालो देशवती संयमिनां वरेण्यः। कल्याणक तमुहुराग्रहेण कथामिमां चार चकार सिद्ध्यै ॥
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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