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________________ सुअंधहमीकहा [२,४,१ पइ पिक्सिवि उहिय तहि सराय। गुरुभत्तिए केसहि लुहिय पाय । पुण्णु देविण पासणु घाविभाए । उपविष्ट गियडु अणुराइयाए । एत्तरे रायई देवि चत्य। पाहरण पिलेक्स बहु मयत्य । दिएगाउ कंचुलिउ मणिमयाज। सुतेउ थणहं उज्जोइयाउ । मरिण मउ सिरि मउडु सुतार हार। सोहंति विविह रयरोहि फार । अरमा वि ककरण मणि-खंचियाय। ढोइय दत्तेण वुहार णाय । इय सयलु समष्यिपि गयड जाम । पच्छा जररोग सा दिट्ठ ताम। पुणु लोयहिं जाइ वि कहिङ ताहे। विउमाबहे दुवसहावयाहे। तामाइय कोवई कंपमाण। पेक्खेपिरयु भासइ तहे समारण। हे भरिंग णिलक्खणितुहूं हयासि । कि चोरई परिणिय एत्थु दासि | शिवभूसगाई एउ होहिं अरणा ।। चोरेप्पिा के वितुम दिएण। मारावियाई मायाइयाय ! तृहुं कुलखउ करिवई जाई जाय । इम जपिवि उपवि ते विलेवि। गय घरहं चोरु नहि खंडु देवि ! घत्ता-थिय रिणयपर जाम वि जणभउ लाएवि बाहिरि कोवारउ करिवि । अच्छइ मरिण मुद्धिय संसर छुद्धिय कम्मु पुराणऊ संभरिवि ॥४॥ १५ एत्यंतरि दीवहं जाइ एवि। संपतु सेहि रिशयमंदिरे वि। अपने पतिको माया देखकर अनुराग सहित तिलकमती उठी और बड़ी भक्ति सहित अपने केशोसे पतिके चरणोंको पोंछा | फिर दौड़कर पतिके लिए आसन दिया और उनके निकट स्नेह सहित बैठ गई । तब राजाने उसे लाये हुए वस्त्र,आभरण, विलेपनादि बहुत प्रकारकी शृंगारकी सामग्री प्रदान की। उन्होंने उसे लजटित चोलियाँ दी जो अपने तेजसे स्तनोको उद्योतमान करती थी। सिरके लिए एक मणिमय मुकुट और अच्छी लड़ियों वाले हार जो नामा प्रकार के रत्नोंसे शोभायमान थे,तथा अन्य मणियोंसे जड़े कंकन आदि अपनी प्रिय पत्नीको पहनने के लिए दिये। राजा ये सब वस्त्राभूषण देकर चला गया और पश्चात् यहाँ लोगोंने तिलकमतीको वे सब धारण किये हुए देखा । देखकर उन्होंने जाकर उसकी उस दुष्ट -स्वभाव विमातासे कहा । माताने स्वयं आकर उसे देखकर और कोपसे कंपायमान होते हुए उसे कहा-"अरी भगोड़ी,कुलक्षणा,हत्यारी,दासी ! क्या तुने किसी चोरसे अपना विवाह किया है ? ये जो आभूषण तू पहने हुए है वे और किसीके नहीं, स्वयं राजाके हैं और वहाँसे चुराकर किसीने तुझे दिये हैं। तू अपने बाप आदिको मरवाने,आतापित कराने तथा हमारे कुलका नाश करानेके लिए ही उत्पन्न हुई है।" ऐसा कहकर उस चिमाताने उसके वे सब वस्त्राभूषण उतरवा कर ले लिये और उसे पुनः एक फटा पुराना चीरका टुकड़ा पहनाकर अपने निवासको चली गई । इधर तिलकमती लोगोंसे भयभीत हुई तथा बाहर कोपसे रुदन करती और मनमें मूढ़ भावसे शंकित और क्षुब्ध हुई अपने पूर्व कमोंका स्मरण करती हुई घरमें बैठ रही ।। ४ ।। यहाँ जब रत्नपुर नगर में यह सब घटना हो रही थी तभी सेठ जिनदत्त द्वीपान्तर जाकर
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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