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________________ २,३,१८] बीओ संधी आजम्मु जाम परिपालियाहि । मा विसहरु जिह दंसेवि जाहि । ता परथई साणंदउ हसेवि। सा लत्तिय सुंदर विहसिएवि । हजं जाउं घरई तुह झिलई संतु । श्राएसमि दिणि दिगि सिसि तुरंतु । ताताएं गणिज को तुहं पयासि । हज म्हइसिवालु गुणरयरणरासि । गउ परि पिउएतहि मायरीए । वाहाविय मंडवि बाउरीए । पुणु जंपिउ कहिं गय शिक्कलेवि । केरिसु तहे तायहो वयसु देवि । इय जंपिवि जोगहुँ चलिय जाम । दिद्विय स मसारिण वह ताम। पुपिछय दीसहि परिणियहि छाय। वर-वस्थ-मउड कंकण-कराय। ते भरिपउ माए पिंडारएण।। आवेप्पिा परिणिय एत्थु तेण । ता जंप पेक्खहु चरिज एहि । महो सयमवग्ग दूसणु थवेहिं । करि विहि जणीहि मरिराज विवाहु। कारावमि लोयहु भोयलाहु । गय मंडवहुतिय सिक्कले वि। अप्पड पिंडारह अपवेवि । जसु तराउ कम्मु जारिसु फुरंतु | अवतरिहइ तहु तारिसु भवंतु । इम वयणहि रंजिउ सयलु लोउ। कवडेण पयारिज तहि मि सोउ। पुणु दुत्त पुत्ति एहि भरणहि कंतु । आएइ तहारइ घरे तुरंतु । घत्ता-एथंतरि रायई मणि अणुरायई लेविण वस्थाहरणु तहि । आयउ सई संझहिं खलह दुगेज्झई मंदिरे अच्छइ मन जहि ॥ ३ ॥ पालन-पोषण करना होगा। सर्पके समान डसकर आप मेरे पाससे अन्यत्र नहीं जा सकते ।" राजाने युवतीके ये वचन सुनकर आनन्द पूर्वक हँसकर कहा "हे सुन्दरि, अभी मैं अपने घर जाता हूँ। मैं प्रतिदिन रात्रिको तुम्हारे घर आया करूँगा ।" युवतीने यह सुनकर कहा "आप मुझे यह तो प्रकट करके बतला दीजिए कि आप कौन हैं ?" राजाने कहा "हे गुण रूपी रत्नोंकी राशि ! मैं महिषीपाल हूँ।" इतना कहकर राजा अपने घर चला गया। इधर माताने अपने घर बड़ी आतुरताके साथ मण्डपमें अपनी पुत्रीका विवाह कर दिया। फिर तिलकमतीके वहाँ न दिखाई देनेका बहाना कर कहने लगी "यह बालिका घरसे निकलकर कहाँ चली गई ? अपने बापकी इसने कैसी अपकीर्ति की " ऐसा कहते हुए यह उसे ढूँढ़नेके बहाने चली । श्मशानमें पहुंचकर उसने तिलकमतीको वहाँ बैठे देखा । उसने कन्यासे पूछा "तेरी छवि विवाहित स्त्री जैसी दिखाई देती है, अच्छे वस्त्र, मुकुट और हाथमें कंकन विवाहके चिह्न हैं।" तब कन्याने कहा "हे माता ! एक पिंडार (ग्वाल)ने आकर यहाँ मुझसे विवाह कर लिया है ।" यह सुनकर सेठानी बोली "देखो तो इस कन्याका चरित्र ? परिवारके सब स्वजन बन्धु मुझे ही दोष देते हैं। मैंने तो यह विचार किया था कि दोनों पुत्रियोंका निश्चित किये हुए चरोंके साथ विवाह कराकर लोगोंको जीमनवार कराऊँगी। किन्तु यह स्त्री भरे मण्डपमें से निकल गई और एक पिंडारको उसने आत्मसमर्पण कर दिया। अब मैं क्या करूँ ? जिसका जैसा कर्म उदयमें आता है तैसा ही उसे फल भोगना पड़ता है।" इस प्रकारके वचनों द्वारा समस्त लोगोंका सन्तोष करके उसने कपट शोक प्रकट किया ! फिर उससे बोली 'हे पुत्रि, जो हुआ सो हुआ, अब अपने प्रिय पतिसे तू यह कह कि वह तुम्हारे घर तुरन्त आकर रहने लगे। इसी बीच राजा अपने मनमें उस कन्यासे अनुरक्त होकर वस्त्राभरण लेकर सन्ध्याकालमें उस भवनमें आया जहाँ वह कन्या रहती थी और जहाँ खल पुरुषोंका कोई प्रवेश नहीं था ।। ३ ॥
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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