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________________ सुअंधदहमीकहा [२,२,२०चिंतिउ कि दीसइ जविखणीय । कि साहइ विजई मासिणीय । किं देवि का विगंधधि एह । कि अचरि वर लावरण-देह । अहवा कि एण वियप्पएण। पुच्छमि लहु तुइ भंति जेण । इम चिंतिवि बिउ संपत्त नेत्थु । अच्छइ मसाणि वर बाल जेत्थु । चिंतिउ पर होइ ण जक्षिणीय । लोयणहु फडफडु मासिएगीय । इम चिंनिवि अप्पु वि पर होइ । गार हनुजगारि सियडु सोइ । बुल्लाविय का तुहं एत्थु काई ।। कि ईहहि भणु महु बालियाई । सा भरणा कुमारिय वरु गिरमि। परिणयपु एत्थु अज्जु चि करेमि । महु पेसिउ ताउ गरेसरेण । देसंतरु रयणहं कारण। पच्छई सावक्किर मायरीए। पारधु विवाहु मोहरीए । णियसुअहे गेहि महुतणउ इत्थु । ता राएं जाणिक सयनु अत्यु । घत्ता-तहिं रायए संजोउ करि परिणिय ता तहिं सुंदरि । जिह हरेण गंग अदिरिणय वि. तह सा णयण-मनोहरि ॥२॥ ___ २५ पञ्चूसि सिवइ हरु जाइ जाम। धाएप्पिा अंचलु धरिज ताम। पुणु भणिउ कत्थ मइं परिणिजए। चझिउ कहि एवहिं छडि डऊए। नगरकी शोभा देख रहे थे। श्मशानकी ओर ज्योंही उनकी दृष्टि पड़ी त्योंही वे विचारने लगे"श्मशानमें यह कौन दिखाई पड़ रही है ? क्या यह यक्षिणी है, अथवा कोई मनुष्यनी ही है जो किन्हीं विद्याओंकी साधना कर रही है। या यह कोई देवी है,या कोई गन्धर्पिणी है,या श्रेष्ठ लावण्यवती कोई अप्सरा है ? अथवा इस संकल्प-विकल्पसे क्या लाभ ? वहाँ जाकर ही मैं उससे क्यों न पूछ लूँ जिससे मेरी सब भ्रान्ति दूर हो जाय ।" पेसा विचारकर राजा उसी श्मशानमें आया जहाँ यह सुन्दर सेठ-कन्या बैठी हुई थी । राजाने उसकी ओर अच्छी तरह देखकर यह तो निश्चय कर लिया कि यह यक्षिणी नहीं है क्योंकि इसकी पलकें ढलती और उघड़ती हैं, अतएव यह मनुष्यनी ही है। इतना मनमें निश्चय कर राजा प्रकट होकर उस कुमारीके समीप गया। राजाने सम्बोधन कर कहा "हे बालिके, तु मुझे बतला कि तू कौन है, यहाँ क्यों बैठी है व क्या चाहती है ?" राजाकी यह बात सुनकर वह कुमारी बोली "मैं यहाँ अपने उस घरकी प्रतीक्षामें बैठी हूँ जिससे आज ही मेरा विवाह होना है । राजाने मेरे पिताको रत्न खरीदनेके लिए देशान्तरको भेज दिया। तत्पश्चात् मेरी मनोहर सौतेली माँ ने यह विवाहका समारम्भ किया है। आज ही उसकी निजी पुत्रीका बिवाह घरपर और मेरा यहाँ पर होनेवाला है।" उस कन्याकी ये बातें सुनकर राजाने समस्त वृत्तान्त समझ लिया और स्वयं उस नयन-मनोहर सुन्दरीसे अपना विवाह कर लिया, जिस प्रकार कि हर अर्थात् महादेवने गंगा देवीसे विना किसी के द्वारा कन्यादान दिये विवाह कर लिया था ॥२॥ उस रात्रि राजा उस कन्याके समीप वहीं रहा । प्रातः सूर्योदयसे पूर्व ही जब राजा वहाँसे घरको चलने लगा तब उस कन्याने दौड़कर उसका अंचल पकड़ लिया और बोली "आप मुझसे विवाह करके मुझे यहाँ अकेली छोड़ कर कहाँ जा रहे हैं ? अब आपको आजन्म मेरा
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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