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गुजराती जस विस्तन्यो हुवौ आनन्द । बाध्यौ धर्म तणौ तिहा कंद ।। पटरानी थापी निज सार । पीती वाधी तिहा अपार ॥१६॥ धर्म करी जिनयरतणौ चंग | राज सौख्य भोगवै उत्तंग ।। जिनवर भुवन कराव्या सार । विंच भराव्या भवतार ॥२०॥
................. ) प्रतिष्ठा महोछव वलि सबिसाल । सिद्धक्षेत्र यात्रा गुणमाल ॥२१॥ दानपूजाँ निरंतर करै । सामाइक नित मन माहि धरै ।। महामंत्र गुणै नवकार । वरत नेम पालै भवतार ||२२।। इनि परि राज भोगवे सविशाल । पर उपगार करै गुणमाल || एक बार जिन भवन उत्तंग । गयौ राज आपने मनि रंग ।।२३।। सुगंध राणि सहित सुजान । चलि श्राचक आव्या गुणमाल ॥ पूजा जिनबर त्रिभुवन तार | वांद्या सदगुरु धमह काज ॥२४॥ तिणि अचसरि आन्यौ एक देव । सरग थकौ भाव सहित सहेव ॥ पूजा जिनवर सदगुरु पाय । सफल कीधी जिम निज काय ॥२५॥ सुगंधा राणि दिठि गुण जयवन्त । हरप बदन हुचौ जयवंत ॥ धन धन राणी तम्ह अवतार । तम्ह परसादे देच हुवो सार |२६|| पहिले भवि निरमलियौं उत्तंग । सुगंध दशमि व्रत लियौ उत्तंग ॥ हु विद्याधर होतो राय | तम्ह सरिसी व्रत कियौ भवतार ॥२७॥ ते भणि साधर्मि मुझ सार । तुस हो चरि बहिनि विचार ।। इम कही पूजी ते बाल । वस्त्राभरण करी गुणमाल ॥२८॥ महोछच कियौ बलि तिहा जानि । बोल्या सुललित मधुरिय वानि || धन धन जिनशासन अति चंग । इम कहि आपने मनि रंग ॥२९॥ पछै गयौ आपने निज ठाम । जिनवर चरण कमल सिर नाम || राजा आन्यौ निज घरि सार । जिनवर धर्म करें भवतार ॥३०॥ काल घणौ भोगव्यौ राज सार । करता बहु पर उपकार ।। पछै मरन साधौ गुणवंत । महामंत्र गुण जयवंत ॥३१॥ ईशान सर्गि' लाधो अवतार । ते देव हुबौ अवधार॥ नारी लिंग परिहरियो जानि । इंद्र पद लाधौ सुगंधी सुजान ॥३२॥ अवधिज्ञान उपज्यो तिहा सार । व्रत फले जाणी सविशाल ॥ जिनशासन उपरी मोह चंग 1 समकित धर्म पालौ उत्तंग ॥३३॥ विमान चैसि करि अतिं गुणवंत । जिनवर यात्रा करै उत्तंग ॥ पंच कल्यानिक करै चंग । जिनवर धर्म करै उत्तंग ॥३४॥
१. साधी, २. यह पंक्ति तीनों प्रतियोंमें नहीं है, ३. स आत्रा, ४. स देव, ५. स सुणो हैक, ६. स कुवरि, ७. स निर्नामक, ८. स घिरभाव, ९. स सरग, १०. व गूणधार ।