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सुगन्धदशमीकथा सुपार्थ जिनबर भवतार | समोसरण स्वामिको सविचार || ते देव तिहा जाइ आनंद । पूजे चरन कमल गुणकंद ॥३५॥ केवल वानि सुणे गुणवंत । तत्त्व पदारथ चलि जयवंत ।। जिनशासन उपरि दृढ चित्त । समकित वस्त पाल सुललित ॥३६॥ दहा-स्वर्ग तण सुख भोगवी दह सागर अति चंग ।
देवि सहित सुहावणौ धौ फलै उत्तंग ॥३७|| तिहा थको चवि करि रूवडो उत्तम कुल अवतार | संजम लेसै निरमलो दिगंबर गुरु धार ॥३८|| ध्यान बले कर्म क्षय करी केवल ज्ञान विशाल । अनेक जीव भवियण संबोध्या गुणमाल ||३९|| पछै मुगति रमनी वरइ सिद्ध हुआ गुणमाल । आठ कर्म रहित नमू आठ गुण जयवंत ॥४०॥ ते स्वामी हु भ्याइसु मनि घरह अविचल भाव । अविचल ठाम हु मागसु उपमा रहित पसाउ ॥४॥ श्रीसकलकीरति प्रणमिणइ मुनि भुवनकीरति भवतार । रास कियौ मे निरमलौ सुगंधदशमि सविचार |॥४२॥ पढे गुण जे सांभलैं' मनि घरइ अति भाव | वम जिनदास भणे रूवडी ते पामै सुख ठाम ॥४३||
॥ इति ॥
१. स जिन, २. स गुण, ३. स संबोधि करी भवियण, ४. ध में चरणका इतना अंश छूट गया है, ५. स साम्हल, ६. स निरमलो ।