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________________ सुगन्धदशमीकथा [१३४ तद् गृहाण महाराज नृपघ्रग न भवाम्यहम् । तारमत्य स मनाशाह स्वस्तु यम तस्करम् ||१३४ ॥ आगत्य स सुतामूचे कल्कमूर्ते निजं पतिम् । जानासि, तात जानामि पादयोः क्षालनादहम् ॥ १३५.।। स चाह नृपतेरमें तेनोक्तं त्वद्गृहे मया । तम्छोधनार्थमन्त्तव्यं परिवारजनैरमा ।। १३६ ।। एवमस्त्विति सामयर्थ विधाय्याकार्य भूभुजम् । कमेण क्षालयामास तदनीनक्षिकंपितम् ॥ १३७ ॥ बहूनां धौतपादेषु नायं नायें न चाप्ययम् । भगन्तीत्वं विभोदूरमस्पृशत्पादपंकजम् ॥१८॥ पितमलिग्लुचः सोऽयं रतेमें मन्मथः ख्यम् । स्यादिदं सत्यमित्येथे बाहुजा जहसुषम् ॥ १३६ ।। कार्ट मो मा वृथा हास्यमवश्य दस्युरस्म्यहम् । कथं देवेदमित्याह नृपस्तत्पूर्ववृत्तकम् ।। १४० ।। तदा लोका जगुर्धन्या कन्येये भूभुजं वरम् । प्राप भक्त्या पुरा कि बानया ब्रतमनुष्ठितम् ॥ १४१ ।। भुक्तेरनन्तरं श्रेष्ठा राजमान्यो महोत्सवम् । विवाहस्याकरोद् बन्धुमतेश्च मषिषन्मुखम् ॥ १२ ॥ दिया है। आप इन्हें वापिस लीजिए । मैं राजद्रोही नहीं बनना चाहता। सेठकी बातें सुनकर राजा कुछ मुसकराये और बोले-अच्छा, इन वस्तुओंको तो रहने दो, पर तुम उस चोरको पकड़ो ।। १३२-१३४ ।।। सेठ राजाके पाससे घर आया और अपनी उस कन्यासे कहने लगा हे कल्कमूर्ति, क्या तु अपने पतिको जानती है ! पुत्रीने कहा—जानती हूँ, तात, किन्तु केवल उनके पैर पखारनेके द्वारा । सेठने जाकर यह बात राजासे कही। राजाने कहा-इस बातकी खोजबीन करनेके लिए मैं अपने समस्त परिवारके लोगों सहित शीघ्र तुम्हारे गृहमें भोजन करूँगा । 'अच्छी बात है महाराज' यह कहकर सेठ अपने घर लौट आया। उसने भोजनकी सब तैयारी की और राजाको निमन्त्रण भेज दिया। अभ्यागतोंके आनेपर तिलक्रमती अपनी आँखें बाँधकर उनके पैर धुलबाने लगी। उसने अनेकोंके पैर धुलवाये और कहती गई—यह नहीं है,यह नहीं है,यह भी नहीं है । जब राजाकी बारी आई,तब वह उनके चरण-कमलोंका स्पर्श करते ही बोल उठी हे पिता, यही वह चोर है जो रतिका मन्मथके समान मेरा पति हुआ है। तिलकमतीकी यह बात सुनकर समस्त क्षत्रिय राजाकी ओर देखते हुए हँस पड़े और बोले- क्या यह बात भी सत्य हो सकती है १ अपने क्षत्रिय बन्धुओंको हँसते हुए देखकर राजा बोले-अरे, व्यर्थ हसी मत करो । सचमुच मैं ही वह चोर हूँ। तब उन्होंने पूछा-हे देव, यह कैसी बात है ? इसके उत्तरमें राजाने अपना समस्त पूर्व वृत्तान्त कह सुनाया ॥ १३५-१४० || इस प्रकार जब राजाने तिलकमतीका पति होना स्वीकार कर लिया, तब सब लोग बोल उठे-धन्य है यह कन्या जिसने राजाको अपना वर पाया। इसने पूर्व जन्ममें कैसा भक्तिपूर्वक व्रत पालन किया होगा ? भोजनके उपरान्त उस राजमान्य सेठने विवाहका महोत्सव कराया और बन्धुमति सेठानीका काला मुँह । दुर्जन साधुको दुख पहुंचाता है, किन्तु उससे साधुको विशेष
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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